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युगदृष्टा की असीम क्षमता वाले राष्ट्रकवि ‘दिनकर’
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दो उनको स्वर्ग वीर पर,
फिरा हमें गाण्डीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर।
राष्ट्रकवि दिनकर की कविता में अर्जुन, भीम वीर की वापसी का उद्घोष हमारी संस्कृति सभ्यता और उस स्वर्ण युग की वापसी का प्रतीक है। जिसमें रूढ़ियों और परम्पराओं के खिलाफ खड़े होने का दम है। राष्ट्रपिता, राष्ट्रभाषा, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रकवि जैसी संकल्पनाएं आज किन परिस्थितियों में हैं, इसे बताने के लिए अब शब्द अपने सामथ्र्य खोने लगे हैं। पूरा जीवन सत्य और अहिंसा जैसे हथियार के साथ जीने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर अब ढेर सारे सवाल उन लोगों द्वारा दागे जा रहे हैं, जो वर्ष, माह, दिवस और क्षण भी सत्य और अहिंसा के आधार पर गुजार सकने की ताकत नहीं रखते हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी अपनी उपलब्धियों के हर वर्ष हिंदी पखवारे, हिंदी सप्ताह और हिंदी दिवस के रूप में उपस्थित रहती है। हिंदी भाषा-भाषियों के तमाम उद्यम के बाद भी हिंदी को राष्ट्रभाषा का पद प्राप्त नहीं हो पाया। स्वतंत्रता संग्राम के समय जैसी परिस्थितियां थीं, उन्हें देखकर नहीं लगता कि देश के अन्य भाषा भाषी हिंदी का गौरवान्वित स्थान देने के लिए विरोध भी करेंगे। सर्वदेशी आवश्यकताएं बढ़ती गयीं और देश भर के काम करने के सामने प्रकट और अप्रकट दोनों प्रकार से यह प्रश्न उपस्थित होता गया िकवह किस प्रकार अपनी बात को देश के दूर से दूर घरों तक पहुंचाया जाय। इसके लिए हिंदी को सम्पर्क भाषा के रूप में स्वीकार किया गया, लेकिन इस स्वीकृति के विरोध में खड़े होकर लोग संवादहीनता भले ही स्वीकार कर लें। हिंदी की स्वीकृति का संस्कार नहीं स्वीकार कर पाये।
ब्रिटिश काउंसिल की तर्ज पर पोएट, लारीएट बनाने की एक जो परंपरा हमारे यहां राष्ट्रकवि के रूप में आरंभ हुई थी, वह राष्ट्रकवि दिनकर के साथ ही समाप्त हो गयी। यह बात दूसरी है कि हमारे देश में राष्ट्रकवि पोएट, लारिएट काउंसिल या संसद के सम्मान से नहीं होता था। भारत में राष्ट्रकवि की संकल्पना जन स्वीकृति का वह पक्ष था, जिसमें कवि के समग्र रचना साहित्य मंे राष्ट्रीयता के उदात्त विचार प्रमुखता से रेखांकित होते हैं। लोकचित्र से बने हुए हमारे राष्ट्रकवियों की परंपरा दीर्घजीवी नहीं हो सके गी। मैथिलीशरण गुप्त से शुरू होकर दिनकर तक आते-आते राष्ट्रकवियों की परंपरा समाप्त हो जाने की वेदना उन सभी पाठकों में रेखांकित होकर उभरती है, जिन्हें आज भी समाज की रूढ़ियों और सड़ी-गली परंपराओं के खिलाफ खड़े होने के लिए ताकत की जरूरत होती है। राष्ट्रकवियों की कविताओं में ओज के न्द्र में रहा है। ओज मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है और वह समाज का प्रतिबिम्ब कहे जाने वाले साहित्य में दूर-दूर तक कहीं उपस्थित नहीं है। यह सवाल संवेदना को साहित्य का आधार बताने वाले के सामने क्यों नही उठ रहा हैं? ओजपूर्ण कविताओं का प्रभाव गहरा ही नहीं व्यापक भी था। इन कविताओं का मूल्य सिर्फ स्वतंत्रता ही नहीं बल्कि सत्य, अहिंसा, सर्वधम सम्भाव, करूणा, सेवा और प्रेम भी था जो एक तरफ समाज को प्रभावित करते थे तो दूसरी तरफ व्यक्तियों को प्रेरित करते थे। राष्ट्रीय कवियों ने जिस एक साहित्यिक परंपरा की नींव रखी थी, उसमें समाज में फैली रूढ़ियों पर प्रहार करते हुए साहित्य/समाज में उपस्थित जड़ता, नीरसता को तोड़ने की अभूतपूर्व ताकत थी। स्वतंत्रता आंदोलन के आसपास ही राष्ट्रपिता, राष्ट्रीयध्वज, राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय कवि जैसी संकल्पनाओं ने आकार ग्रहण करना शुरू कर दिया था। यह एक शुभ संके त था कि ये संकल्पनाएं काउन्सिल या सदन की मोहताज न होकर जनस्वीकृति का प्रतिनिधित्व करती थीं। राष्ट्रीय आंदोलन के समय जन जागरूकता ज्यादा थी और हिंदी प्रदेश का स्वतंत्रता आंदोलन में बड़ा रोल था। इसलिए हिंदी साहित्य से ही राष्ट्रकवि की जनस्वीकृति हुई। साहित्य समाज का दर्पण होता है। इस लोक स्वीकृति पर विचार करें तो सतही तौर पर ही सही यह तो दिख ही जाता है कि राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले साहित्य और साहित्यकार का सर्वथा अभाव था। रविन्द्र नाथ टैगोर और सुब्रमनियम भारती को छोड़ दे ंतो अन्य भाषाओं से निकलर पूरे देश की सीमाओं में समाज की समस्याओं से रूबरू होते हुए अपनी जगह बना पाने में आज किसी भी भाषा का अपना कोई साहित्यकार समर्थ नहीं दिख रहा। एक ऐसे समय जब देश को प्रमुख लोकतांत्रिक पदों पर कवि आसीन हों, जिस देश के प्रधानमंत्री खुद को कवि कहकर हृदयजीवी होने का दावा करते हों, वहां राष्ट्रकवि के रूप में जन स्वीकृति के सर्वथा अभाव का विषाद होता ही है। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और वर्तमान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं साहित्य की धरोहर हैं। फिर भी साहित्य मर्मज्ञ इन राजनेताओं के नेतृत्व में राष्ट्रकवि की जन स्वीकृति परम्परा का क्षरण हो जाना किसी भी संवेदनशील और राष्ट्रहित चिंतक पाठक के लिए दुख का विषय है। भारत के पहले प्रधानमंत्री और वर्तमान भारत के निर्माता जवाहर लाल नेहरू के बारे में एक बार एक गोष्ठी में कहा गया कि जवाहर लाल नेहरू राजनेता नहीं होते तो क्या होते? सभी वक्ताओं ने ठोस तर्कों सहित यह निष्कर्ष निकाला कि वे एक लेखक होते। देश की संसद में कवि के रूप में मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रकवि के जन स्वीकृति सम्मान सहित नामित हुए थे। आज जहां साहित्य जगत कवि प्रधानमंत्री के होने से गौरवान्वित हो इतरा रहा है। वहीं संसद में राष्ट्रकवि जैसी लोक संस्कृति संकल्पना के समाप्ति पर तमाम सवाल खड़ा करता है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जयंती के अवसर पर यह सवाल विमर्श के लिए कुछ खास ढंग से रेखांकित होकर उभरता है कि राष्ट्रकवि की यह जनस्वीकृति की संकल्पना एक ऐसे समय में समाप्त क्यों हो गयी? जब देश के पैमाने पर लोकतंत्र अपनी परिपक्वता का आकार ग्रहण कर रहा है। राष्ट्र चेतना सम्पन्न कवियों की परम्परा में दिनकर अत्यंत समर्थ कवि हैं। उग्र क्रांतिकारिता के प्रबल पक्षधर दिनकर गरम दल के चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह आदि के प्रति प्रतिबद्ध थे। उनकी रचना ‘विपथगा’ में इसका दृष्टांत साफ-साफ मिलता है। उग्र क्रांतिकारिता की पक्षधरता का निर्वाह करते हुए गांधी जी ने अहिंसा के प्रति अपनी खास आस्था भी अपने साहित्य में जतायी है। दिनकर के कुरूक्षेत्र में युधिष्ठिर अहिंसा के पक्षधर के रूप में उपस्थित हैं। परंतु चीन युद्ध के समय इसी दिनकर ने हथियार उठाने के लिए जनता का आह्वान किया। रश्मिलोक की भूमिका में इन्होंने लिखा है मैं जीवन भर गांधी और माक्र्स के बीच झटके खाता रहा। इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही मेरी कविता का रंग है। चीन हमले के समय परशुराम की प्रतीक्षा लिखकर राष्ट्रकवि दिनकर ने नेहरू को भी निशाने पर लिया था। बिहार क्रांति के मुंगेर जिले के सेमरिया गांव में 23 सितंबर 1908 को एक कृषक परिवार में रामधारी सिंह दिनकर का जन्म हुआ था। संकट और संघर्ष के बीच बचपन में उनकी कविताओं में ओज और क्रांति जना। 1932 में पटना से बीए आनर्स करने के बाद वे प्राध्यापक नियुक्त हुए। 1943 में बिहार राज्य सरकार में सब रजिस्ट्रार बने। जन सम्पर्क विभाग में उप निदेशक के पद पर भी उन्होंने काम किया। 52-63 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। भागलपुर विश्वविद्यालय के उप कुलपति होने के साथ-साथ 65 से 72 तक भारत सरकार के हिंदी सलाहकार जैसे महत्वपूर्ण पदों पर उन्होंने शोभा बढ़ायी। 25 अप्रैल, 1975 को उनका देहांत हो गया। वे गद्य और पद्य दोनों के सब्यसाची थे। उनकी कविताएं युवाआंे में बलिदान की प्रेरणा जन रही थीं। पराधीन भारत की कथा को दिनकर जी इतने खूबसूरत ढंग से रखते थे कि मानो हृदय में वेदना और आक्रोश की ज्वाला एक साथ प्रज्जवलित हो। प्रतिशोध का पर्याय बन उठती थी। कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे।
लेना है प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे अरि का विरोध अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित हैं क्रोध नहीं छोड़ंेगे।
दिनकर जी की सबसे पहली रचना 1926 में जबलपुर की छात्र सहोदर नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। बिहार हिंदी सम्मेलन के 1935 में वे सभापति हुए। वहां एक कवि सम्मेलन में सरकार विरोधी कविताओं का खुलकर पाठ करने के कारण गोरी सरकार के आंखों में खटकने लगे। उनका पहला कविता संग्रह रेणुका आया। उनकी कविताओं में आक्रोश और विद्रोह का प्रलय निनाद है तो स्नेह और कल्पना की अनंत संभावनाएं भी। समाज के सास्वत सत्य उनकी कविताओं में सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। वादी परम्परा से मुक्त उनकी कविताएं सृजन के व्यापक फलक का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनकी नील कुसुम को बिहार राष्ट्र परिषद ने कुरूक्षेत्र और रश्मि रथी को उप्र सरकार व नागरिक प्रचारिणी सभा ने पुरस्कृत किया है। उनके बाल साहित्य को भारत सरकार ने सम्मानित किया है। संस्कृत के चार अध्याय नामक उनकी पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया और 1972 में उर्वशी काव्य कृति पर उन्हें साहित्य अकादमी का एक लाख रूपये का पुरस्कार दिया गया। पद्म भूषण अलंकृत दिनकर में युगदृष्टा की असीम क्षमता थी। तभी तो वे स्वयं ही कह उठे थे-स्वयं युग धर्म का हुंकार हूं मैं।
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