TRENDING TAGS :
एकात्म मानववाद के प्रणेता
रचनाकार राजनेता अपने राजनीतिक चिंतन, विचारधारा व सांस्कृतिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर महज बहस ही नहीं करते, लिखते भी हैं। अपने सपनों को आकार देने के लिए वोट देहि की राजनीति से दूर राष्ट्र चिंतन की धारा में जन साधारण एवं राजनेता के बीच निरंतर होने वाले वार्तालाप और वैचारिक आदान-प्रदान को गति देते हैं। अपने आप को सत्ता के लोभ और सत्तालोक के आकर्षण से बचाते हुए स्वयं को चिंतन धारा से जोड़े रखकर राष्ट्र के बहुतेक समस्याओं पर विचार करते हुए राष्ट्रीय अस्मिता और पहचान बतलाने वाले तत्वों को आधार और गति प्रदान करते हैं। यद्यपि यह करना बेहद कठिन है। परंतु कालजयी युगपुरूष पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद के नए दशक का सूत्रपात करते हुए इस काम को अपने असाधारण ढंग से किया है। वे मानते थे कि ठहरे हुए जल जैसे विचार समाज, राष्ट्र को गति नहीं दे पाते। इसके लिए जरूरी होती है एक ऐसी विचारधारा जिसमें समस्याएं लहरों की तरह जन्म तो लें। परंतु उन्हें एक धारा अपने गति चक्र में एकात्म करती हुई समाधान के अनंत सागर की ओर लेती चली जाय। पं. दीनदयाल उपाध्याय जी ने मानव कल्याण के लिए जिस एकात्म मानववाद के दर्शन की स्थापना की वे भारतीय मनीषा के मुक्ताकणांे की ही मानिंद थे। और भारतीय मानस को स्पर्श करने वाले प्रतीकों द्वारा व्याख्यायित किये गये थे।
वे मानते थे कि राष्ट्र की भी व्यक्ति की तरह चार घटकों की जीव मान सकता है। राष्ट्र का शरीर होता है वहां भी भूमि और जनता होती है। राष्ट्र का मन साथ-साथ जीने-मरने, एक साथ रहने के संकल्प के साथ जनता अपने विकास और अभ्युदय के लिए जिस आचार सारिणी कानियमन करती है वह राष्ट्र की बुद्धि है। यह राष्ट्र की बुद्धि ही धर्म है। धर्म के अनुसार चलते हुए देश के सामूहिक लक्ष्य और आदर्श देश की आत्मा है, जिसे एकात्म मानववाद दर्शन से चित्रित कहा गया है। चिति राष्ट्र का मूलभूत स्व है। स्व का विचार किये बिना स्वराज का कोई अर्थ नहीं। स्वतंत्रता ही हमारे विकास और सुख का साधन बन सकती है। परतंत्र में स्व दब जाता है। इसलिए सभी राष्ट्र, समाज स्वराज की कामना करते हैं और इसके लिए बड़े से बड़े संघर्ष में जुटे रहते हैं। चिति संस्कृत की दिशा भी निर्णायक होती है। उनके लिए राष्ट्र महज एक भूगोल नहीं वरन एक संस्कृति है। यह एक निर्जीव भौगोलिक इकाई न होकर एक चैतन्यपूर्ण संदेश है। मानव की सांस्कृतिक यात्रा का शव का शिव परिणत करने में भगीरथ प्रयत्नों का नर को नारायण में विकसित करने अथक चिंतन का वे कहते थे ऐसा करने के लिए हमें एकात्म भाव अपनाते हुए परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली स्थितियों में समन्वय स्थापित करना चाहिए। किसी भी समाज की संस्कृति उसके विकास के प्रवाह की दशा निर्धारित करती है। संस्कृति मूलतः समन्वयात्मक संस्कृति के वल हवा में रखने वाले भावनात्मक संबोधन नहीं हैं। वह मूर्तिवत् जीवन तत्व है।
उनका मस्तिष्क अतीत से जुड़ा हुआ वर्तमान में सक्रिय रहकर भविष्य की चिंता करते हुए जीवन संबंधी भारतीय मान्यताओं और तकनीकी प्रगति की ओर तालमेल बैठाने की कोशिश करता रहता था। उनका मत था कि अनेक पुरानी संस्थाएं बदलेंगी और नई जन्म लेंगी। इस परिवर्तन के कारण जिनका पुरानी संस्थाओं में निहित स्वार्थ है, उन्हें धक्का लगेगा। कुछ लोग को स्वभाव से ही अपरिवर्तनवादी होते हैं। उन्हें भी सुधार और सृजन के इन प्रयत्नों से कष्ट होगा। किन्तु बिना औषधि के रोग ठीक नहीं होता। अतः यथास्थिति मोह त्याग कर नव निर्माण करना चाहिए। परंतु हमारी रचना में प्राचीन के प्रति अवज्ञा अश्रद्धा का भाव नहीं होना चाहिए और न ही उसमें उसमें चिपटे रहने का दम्भ। वे कहते थे कि हम अतीत के गौरव से अनुप्रणीत होना चाहते हैं किंतु उसे राष्ट्र जीवन का सर्वोच्च बिंदु नहीं मानते। हम वर्तमान के प्रति यथार्थवादी हैं परंतु उससे बंधे नहीं। हमारी आंखों में भविष्य के स्वर्णिम सपने हैं किंतु हम निद्रालु नहीं। बल्कि उन सपनों को साकार करने वाला जागरूक कर्मयोगी हैं। अनादि, अतीत, अस्थिर वर्तमान तथा चिरंतन भविष्य की कालजयी सनातन संस्कृति के हम पुजारी हैं। वे मानते थे कि आर्थिक व राजनीतिक सामथ्र्य का केंद्रीयकरण प्रजातंत्र के विरूद्ध है। उनके अनुसार एक व्यक्ति या संस्था के प्रति राजनीति, आर्थिक व सांस्कृतिक शक्ति का विके न्द्रीकरण भी लोकतंत्र के मार्ग में बाधक है। उनका विचार था कि सामान्यतया राज्य की विभिन्न इकाइयों को प्रशासन के क्षेत्र से हटकर अर्थ के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। वे शक्तियों के विके न्द्रीकरण के साथ-साथ विभक्तिकरण पर भी बल देते थे। पं. दीनदयाल उपाध्याय धर्म को एक व्यापक तत्व मानते थे, जिसमें कई सम्प्रदाय, कई उपासना पद्धतियां शामिल हैं। उनका मानना है कि महज दंडनीति समाज को चला नहीं सकती। उसके लिए धर्म का होना जरूरी है। हर हाथ को काम और हर खेत को पानी, का स्लोगन देकर भारतीय जनसंघ के परचम को लहराने वाले दीनदयाल जी हर हाथ को काम, के सिद्धांत को आर्थिक प्रजातंत्र का मापदंड मानते थे। काम के लिए उनका दृष्टिकोण यह था िकवह पहले तो जीविकोपार्जन हेतु हो। दूसरे उसे चुनने की स्वतंत्रता भी हों यदि काम के बदले में राष्ट्रीय आय का न्यायोचित भाग नहीं मिलता हो तो उस काम को बेगार की श्रेणी में रखते थे।
25 सितंबर 1916 को जन्में पंडित दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जीवन दृष्टि से ओतप्रोत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा में जाने का पहली बार अवसर अपने मित्र बालूजी महासबदे के साथ मिला। बीए की पढ़ाई के दौरान वे कानपुर में भाउराव देवरस के सानिध्य में आए। 1942 में लखीमपुर जिले में प्रचारक के रूप में अपनी पूर्णकालिक सांस्कृतिक अधिष्ठाता यात्रा शुरू करते हुए 1945 में वे उप्र के सह प्रांत प्रचारक बने। राष्ट्रीय सेवक संघ पर 1948 में लगाए गए प्रतिबंध के विरूद्ध जो देशव्यापी सत्याग्रह आयोजित हुआ, उसका नेतृत्व भी इन्हीं के सुदृढ़ हाथों में था। उन्होंने भारतीय संस्कृति के गौरवशाली पक्षों को उजागर करते हुए सम्राट चंद्रगुप्त नामक पुस्तक लिखी। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वयं संघ के संस्थापक डाॅ. हेडगेवार के मराठी जीवन चरित्र का हिंदी अनुवाद भी किया। राष्ट्र जीवन की समस्याएं, एकात्म मानववाद, लोकमान्य तिलक की राजनीति, जनसंघ, सिद्धांत और नीति जीवन का ध्येय राष्ट्रीय आत्मानुभूति हमारा कश्मीर, अखंड भारत, आदि शंकराचार्य, भारतीय राष्ट्रीय धारा का पुनः प्रवाह, भारतीय संविधान पर एक दृष्टि, इनको भी आजादी चाहिए, टैक्स या लूट जैसी पुस्तकें लिखने के साथ-साथ उन्होंने 1947 में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना की तथा राष्ट्रधर्म मासिक पत्रिका का शुभारंभ भी किया। स्वदेश नामक दैनिक पत्र निकालने का काम भी किया। वर्तमान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के इनके इस समाचार पत्र में भी सहयोगी रहे। पांचजन्य का प्रकाशन भी इन्हीं के मार्गदर्शन में शुरू हुआ। सरकारी दमनचक्र के चलते पांचजन्य के प्रकाशन को जब स्थगित करना पड़ा, तब उन्होंने हिमालय नामक पत्रिका निकाली और जब इस पर भी प्रतिबंध लग गया तो उन्होंने देशभक्त प्रकाशन आरंभ किया।
21 सितंबर 1951 को उन्होंने लखनऊ में एक सम्मेलन बुलाकर प्रादेशिक स्तर पर जनसंघ की स्थापना की। भारतीय जनसंघ ने अपने जन्म से ही देश की एकता, अखंडता, सामाजिक न्याय तथा देश के आर्थिक विकास एवं सुरक्षा के लिए उधार ली हुई विचारधारा को अनुपयुक्त मानना आरंभ कर दिया था। 1951 में वे जनसंघ के अखिल भारतीय महामंत्री बनाये गये। 66 में कालीकट में हुए जनसंघ के अखिल भारतीय अधिवेशन में वे पार्टी के अध्यक्ष बने। देश के बाहर भी भारतीय मित्रों के बीच उन्होंने लंदन जनसंघ फोरम की स्थापना की। वे मानते थे कि हिंदू धर्म अनेक प्रचंड आघातों के बाद भी जिस संजीवनी पर जिंदा है, वह ‘यतपिंडे, तत्ब्रम्हांडे, सर्वमिदम् खलु ब्रम्हा तथा एकं सद् विप्राह बहुधावदन्ति।’ उनका मानना था कि यदि हम भारत की आत्मा को समझना चाहते हैं तो हमें उसे राजनीतिक और अर्थनीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखना चाहिए। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही हो सकती है। वे राजनीति के माध्यम से एक भूख को मिटाने के लिए दूसरी भूख पैदा करने के सवाल के घोर विरोधी थे। यही कारण है कि जब वे जौनपुर से अपने जीवन का पहला और अंतिम चुनाव लड़ रहे थे तो जातिगत आधार पर प्रस्तावित एक बैठक में बोलने से उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया कि भारतीय जनसंघ की जीवन श्रद्धा राष्ट्र है। अतएव वे जाति की पक्षधरता नहीं करते थे। अपने जीवन की सार्थकता को रेखांकित करते हुए वे साफ कहते थे कि सभी देशवासी हमारे बांधव हैं। जब तक हम इन सभी बांधुओं को भारत माता के सपूत होने का सच्चा गौरव प्रदान नहीं करा देंगे, हम चुप नहीं बैठेंगे। यही कारण है कि अखंड कर्मसाधना के रूप में वे अर्हनिश प्रवास करते रहेंगे।
वे मानते थे कि राष्ट्र की भी व्यक्ति की तरह चार घटकों की जीव मान सकता है। राष्ट्र का शरीर होता है वहां भी भूमि और जनता होती है। राष्ट्र का मन साथ-साथ जीने-मरने, एक साथ रहने के संकल्प के साथ जनता अपने विकास और अभ्युदय के लिए जिस आचार सारिणी कानियमन करती है वह राष्ट्र की बुद्धि है। यह राष्ट्र की बुद्धि ही धर्म है। धर्म के अनुसार चलते हुए देश के सामूहिक लक्ष्य और आदर्श देश की आत्मा है, जिसे एकात्म मानववाद दर्शन से चित्रित कहा गया है। चिति राष्ट्र का मूलभूत स्व है। स्व का विचार किये बिना स्वराज का कोई अर्थ नहीं। स्वतंत्रता ही हमारे विकास और सुख का साधन बन सकती है। परतंत्र में स्व दब जाता है। इसलिए सभी राष्ट्र, समाज स्वराज की कामना करते हैं और इसके लिए बड़े से बड़े संघर्ष में जुटे रहते हैं। चिति संस्कृत की दिशा भी निर्णायक होती है। उनके लिए राष्ट्र महज एक भूगोल नहीं वरन एक संस्कृति है। यह एक निर्जीव भौगोलिक इकाई न होकर एक चैतन्यपूर्ण संदेश है। मानव की सांस्कृतिक यात्रा का शव का शिव परिणत करने में भगीरथ प्रयत्नों का नर को नारायण में विकसित करने अथक चिंतन का वे कहते थे ऐसा करने के लिए हमें एकात्म भाव अपनाते हुए परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली स्थितियों में समन्वय स्थापित करना चाहिए। किसी भी समाज की संस्कृति उसके विकास के प्रवाह की दशा निर्धारित करती है। संस्कृति मूलतः समन्वयात्मक संस्कृति के वल हवा में रखने वाले भावनात्मक संबोधन नहीं हैं। वह मूर्तिवत् जीवन तत्व है।
उनका मस्तिष्क अतीत से जुड़ा हुआ वर्तमान में सक्रिय रहकर भविष्य की चिंता करते हुए जीवन संबंधी भारतीय मान्यताओं और तकनीकी प्रगति की ओर तालमेल बैठाने की कोशिश करता रहता था। उनका मत था कि अनेक पुरानी संस्थाएं बदलेंगी और नई जन्म लेंगी। इस परिवर्तन के कारण जिनका पुरानी संस्थाओं में निहित स्वार्थ है, उन्हें धक्का लगेगा। कुछ लोग को स्वभाव से ही अपरिवर्तनवादी होते हैं। उन्हें भी सुधार और सृजन के इन प्रयत्नों से कष्ट होगा। किन्तु बिना औषधि के रोग ठीक नहीं होता। अतः यथास्थिति मोह त्याग कर नव निर्माण करना चाहिए। परंतु हमारी रचना में प्राचीन के प्रति अवज्ञा अश्रद्धा का भाव नहीं होना चाहिए और न ही उसमें उसमें चिपटे रहने का दम्भ। वे कहते थे कि हम अतीत के गौरव से अनुप्रणीत होना चाहते हैं किंतु उसे राष्ट्र जीवन का सर्वोच्च बिंदु नहीं मानते। हम वर्तमान के प्रति यथार्थवादी हैं परंतु उससे बंधे नहीं। हमारी आंखों में भविष्य के स्वर्णिम सपने हैं किंतु हम निद्रालु नहीं। बल्कि उन सपनों को साकार करने वाला जागरूक कर्मयोगी हैं। अनादि, अतीत, अस्थिर वर्तमान तथा चिरंतन भविष्य की कालजयी सनातन संस्कृति के हम पुजारी हैं। वे मानते थे कि आर्थिक व राजनीतिक सामथ्र्य का केंद्रीयकरण प्रजातंत्र के विरूद्ध है। उनके अनुसार एक व्यक्ति या संस्था के प्रति राजनीति, आर्थिक व सांस्कृतिक शक्ति का विके न्द्रीकरण भी लोकतंत्र के मार्ग में बाधक है। उनका विचार था कि सामान्यतया राज्य की विभिन्न इकाइयों को प्रशासन के क्षेत्र से हटकर अर्थ के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। वे शक्तियों के विके न्द्रीकरण के साथ-साथ विभक्तिकरण पर भी बल देते थे। पं. दीनदयाल उपाध्याय धर्म को एक व्यापक तत्व मानते थे, जिसमें कई सम्प्रदाय, कई उपासना पद्धतियां शामिल हैं। उनका मानना है कि महज दंडनीति समाज को चला नहीं सकती। उसके लिए धर्म का होना जरूरी है। हर हाथ को काम और हर खेत को पानी, का स्लोगन देकर भारतीय जनसंघ के परचम को लहराने वाले दीनदयाल जी हर हाथ को काम, के सिद्धांत को आर्थिक प्रजातंत्र का मापदंड मानते थे। काम के लिए उनका दृष्टिकोण यह था िकवह पहले तो जीविकोपार्जन हेतु हो। दूसरे उसे चुनने की स्वतंत्रता भी हों यदि काम के बदले में राष्ट्रीय आय का न्यायोचित भाग नहीं मिलता हो तो उस काम को बेगार की श्रेणी में रखते थे।
25 सितंबर 1916 को जन्में पंडित दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जीवन दृष्टि से ओतप्रोत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा में जाने का पहली बार अवसर अपने मित्र बालूजी महासबदे के साथ मिला। बीए की पढ़ाई के दौरान वे कानपुर में भाउराव देवरस के सानिध्य में आए। 1942 में लखीमपुर जिले में प्रचारक के रूप में अपनी पूर्णकालिक सांस्कृतिक अधिष्ठाता यात्रा शुरू करते हुए 1945 में वे उप्र के सह प्रांत प्रचारक बने। राष्ट्रीय सेवक संघ पर 1948 में लगाए गए प्रतिबंध के विरूद्ध जो देशव्यापी सत्याग्रह आयोजित हुआ, उसका नेतृत्व भी इन्हीं के सुदृढ़ हाथों में था। उन्होंने भारतीय संस्कृति के गौरवशाली पक्षों को उजागर करते हुए सम्राट चंद्रगुप्त नामक पुस्तक लिखी। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वयं संघ के संस्थापक डाॅ. हेडगेवार के मराठी जीवन चरित्र का हिंदी अनुवाद भी किया। राष्ट्र जीवन की समस्याएं, एकात्म मानववाद, लोकमान्य तिलक की राजनीति, जनसंघ, सिद्धांत और नीति जीवन का ध्येय राष्ट्रीय आत्मानुभूति हमारा कश्मीर, अखंड भारत, आदि शंकराचार्य, भारतीय राष्ट्रीय धारा का पुनः प्रवाह, भारतीय संविधान पर एक दृष्टि, इनको भी आजादी चाहिए, टैक्स या लूट जैसी पुस्तकें लिखने के साथ-साथ उन्होंने 1947 में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना की तथा राष्ट्रधर्म मासिक पत्रिका का शुभारंभ भी किया। स्वदेश नामक दैनिक पत्र निकालने का काम भी किया। वर्तमान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के इनके इस समाचार पत्र में भी सहयोगी रहे। पांचजन्य का प्रकाशन भी इन्हीं के मार्गदर्शन में शुरू हुआ। सरकारी दमनचक्र के चलते पांचजन्य के प्रकाशन को जब स्थगित करना पड़ा, तब उन्होंने हिमालय नामक पत्रिका निकाली और जब इस पर भी प्रतिबंध लग गया तो उन्होंने देशभक्त प्रकाशन आरंभ किया।
21 सितंबर 1951 को उन्होंने लखनऊ में एक सम्मेलन बुलाकर प्रादेशिक स्तर पर जनसंघ की स्थापना की। भारतीय जनसंघ ने अपने जन्म से ही देश की एकता, अखंडता, सामाजिक न्याय तथा देश के आर्थिक विकास एवं सुरक्षा के लिए उधार ली हुई विचारधारा को अनुपयुक्त मानना आरंभ कर दिया था। 1951 में वे जनसंघ के अखिल भारतीय महामंत्री बनाये गये। 66 में कालीकट में हुए जनसंघ के अखिल भारतीय अधिवेशन में वे पार्टी के अध्यक्ष बने। देश के बाहर भी भारतीय मित्रों के बीच उन्होंने लंदन जनसंघ फोरम की स्थापना की। वे मानते थे कि हिंदू धर्म अनेक प्रचंड आघातों के बाद भी जिस संजीवनी पर जिंदा है, वह ‘यतपिंडे, तत्ब्रम्हांडे, सर्वमिदम् खलु ब्रम्हा तथा एकं सद् विप्राह बहुधावदन्ति।’ उनका मानना था कि यदि हम भारत की आत्मा को समझना चाहते हैं तो हमें उसे राजनीतिक और अर्थनीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखना चाहिए। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही हो सकती है। वे राजनीति के माध्यम से एक भूख को मिटाने के लिए दूसरी भूख पैदा करने के सवाल के घोर विरोधी थे। यही कारण है कि जब वे जौनपुर से अपने जीवन का पहला और अंतिम चुनाव लड़ रहे थे तो जातिगत आधार पर प्रस्तावित एक बैठक में बोलने से उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया कि भारतीय जनसंघ की जीवन श्रद्धा राष्ट्र है। अतएव वे जाति की पक्षधरता नहीं करते थे। अपने जीवन की सार्थकता को रेखांकित करते हुए वे साफ कहते थे कि सभी देशवासी हमारे बांधव हैं। जब तक हम इन सभी बांधुओं को भारत माता के सपूत होने का सच्चा गौरव प्रदान नहीं करा देंगे, हम चुप नहीं बैठेंगे। यही कारण है कि अखंड कर्मसाधना के रूप में वे अर्हनिश प्रवास करते रहेंगे।
Next Story