TRENDING TAGS :
गांधी को और मत मारिए जनाब...
तीस जनवरी 1948। नाथू राम गोड्से की गोली से महात्मा गांधी की हत्या का दिवस। शहीद दिवस। यदि हम भारतीय दर्शन, उपनिषद, वेद और गीता में विश्वास करते हैं तो गांधी मर नहीं सकते। उनकी हत्या गोली से नहीं हो सकती। क्योंकि महात्मा गंधी मारे नहीं जा सकते। उनकी हत्या गोली से नहीं हो सकती। क्योंकि महात्मा गांधी एक संज्ञा नहीं एक विशेषण थे। मृत्यु-जन्म संज्ञा को होता है। विशेष चिरकालिक हैं। शाश्वत है। सनातन है। वैसे भी गीता का कहना है कि -
न त्वेवाहां जातु नासं त्वं नेमे जनाधिया:
न चोवन भविष्याम सर्वेयमतः परम।
आत्मा नित्य है। वह कालातीत है। आत्मा विशेषण है। गीता ने यह भी बताया कि नैनं छिंदति शस्त्राणि नैनंदहति पावकः।
न चें क्लेददयंत्यापो न शोषयति मातः
कृष्ण ने बताया कि अर्जुन। इस आत्मा को शास्त्रादि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है तथा इसको जल गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती। फिर गांधी जो एक विशेषण से उठे थे। विशेषण आत्मा भी है। आत्मा जैसा विशेषण मर नहीं सकता तो फिर महात्मा गांधी ? गांधी जी गीता को अपनी कामधेनु, पथप्रदर्शिका और ओपन सीसेम कहते थे। जिस तरह गांधी के लिए गीता थी उसी तरह आज के समाज के लिए गांधीवाद, गांधी दर्शन व गांधी का व्यवहारवाद पथ प्रदर्शक है। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में जिस नस्लवाद की लडाई लड़ी थी। उसकी आज विजय पुख्ता करती है कि गांधीवादी सोच के भविष्य दृष्टा पहलू को। सच है कि गांधी 30 जनवरी को मारे नहीं गए क्योंकि 30 जनवरी 48 तक गांधी संज्ञा से इतर हो गए थे। गांधी सत्य व अहिंसा पर बल देते थे। वे चाहते थे कि मनुष्य उनकें कभी मत छोडेे। परंतु आज ये राजनीति के लिए अमोद्य अस्त्र हैं। ये ही वो बैसाखियां हैं जिससे सत्ता चेरी रह सकती है। चंचल लक्ष्मी इन्हीं के आसपास विचरण करती है। ऐसी मान्यता घर कर गई है सत्ताधारियों में।
गांधी धर्म प्रभावित राजनीति के पक्षधर थे। परंतु राजनीति के धर्म में दुरुपयोग के कारण धर्मविहीन राजनीति का हंगामा चल निकला है। धर्म सिर्फ आराधना नहीं है वह है एक आस्था। कार्य के प्रति आस्था। सत्य के प्रति। अहिंसा के प्रति। धर्म से पाप-पुण्य का भय रहता है। यह भय व्यक्कित को अनैतिकता से रोका है। नैतिकता से बांधता है। कहीं कर्म के भोेग, कहीं भोग के कर्म के दर्शन से बांधकर मनुष्य में हर हालत में जिजीविषा बनाए रखता है।
गांधी ने आवश्यकता विहीनता को अपनाया। बल दिया। आज हम उपभोक्ता संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं। गांधी का खादी महज वस्त्र नहीं विचार था। यह विचार जिससे हर हाथ को काम मिलता। रोजगार का विचार परंतु अब खादी ग्रामोद्योग इन विचारों की किश्तवार हत्या कर रहा है। सत्य के साथ प्रयोग करने वाले गांधी के खादी ग्रामोद्योग के अध्यक्ष डा.यशवीर सिंह बेइमानी व भ्रष्टाचार का खेल खेल रहे हैं। खादी के उद्देश्यों के विपरीत वाली खादी के पदों की प्रचार की आंधी बहाए पड़े हैं। खादी को एक ऐसे वस्त्र के रूप में स्वीकार व प्रचारित किया गया था। जिसमें आचार विचार की शुचिता थी। आज ये वस्त्र श्वेतसनापराध के पर्याय के रूप में प्रयोग किए जा रहे हैं। इनमें सत्य के प्रयोग नहीं हो रहे हैं। इनसे रोजगार का सपना पूरा होते नहीं दिखता है।
गांधी की बुनियादी शिक्षा जिसमें भारतीयता की प्राण प्रतिष्ठा हो। पाठ्यक्रमों से बेहद दूर है। शिक्षा मंे डोनेशन समा गया। शिक्षा अपनी मातृभाषा से कटी है। बुनियादी से कटी है। गांधी के देश की शिक्षा में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तक पैसों पर प्रवेश का फरमान जारी कर चुके हैं। फिर बुनियादी शिक्षा का औचित्य ? आधार क्या है ?
6 अप्रैल 1930 को गांधी जी ने सिविल नाफरमानी की शुरुआत डंाडंी मार्च से की। इस यात्रा में महात्मा गांधी ने कहा कि पानी से पृथक नाम की कोई चीज नहीं है। जिस पर कर लगाकर अंग्रेजी हुकूमत करोड़ों लोगों को भूखा मार सकती है। बीमार असहाय व विकलांगां को पीड़ित कर सकती है। इसलिए यह अत्यंत अमानवीय है। अविवेकपूर्ण है जिसका उपयोग मानवता के विरुद्ध किया जा रहा है। इसके बाद भी केंद्र सरकार ने उसी अरब सागर के तट पर कारगिल नामक एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को 15000 एक जमीन नमक बनाने के लिए दिया। नमक का हमारी संस्कृति में सिर्फ उत्पाद से संबंध नहीं है। नमक खाना एक बोध की दायित्य बोध की स्वीकृति भी है। जिसका महत्व कहानी अलीबाबा चालीस चोर में है। चोर जिसमें नैतिकता का ह्रास मानते हैं। जिसमें सांस्कृतिक क्षरण के वाहक होते हैं जो नमक की संस्कृति का निर्वाह करते हैं और हमें यह सरकार नमक के बहाने ही उपभोक्ता संस्कृति के लिए अवश करने पर जुटी है। वह भी ऐसी स्थिति में जबकि 1956 से देश नमक उत्पादन में जबकि 1936 से देश नमक उत्पादन में आत्मनिर्भर ही नहीं, निर्यातक भी बन गया।
यह महात्मा गांधी को हर वर्ष प्रदान की जाने वाली किस संस्कृति का अंग है। यह बात दीगर रही कि केंद्र सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली तमाम सुविधाओं के बाद भी कारगिल ने यहां नमक उत्पादन करने से मनाकर दिया क्योंकि जापान मंे आ रही मंदी के कारण उसे अब एशिया प्रशांत देशों के लिए नमक बनाने की इकाईयां लगाना लाभदायक सौदा नजर नहीं आ रहा है।
एक और भारत छोड़ो की स्वर्ण जयंती, दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियांे, विदेशी निवेश को आमंत्रण। व्यापार के लिए आई ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से सैकड़ों वर्ष की गुलामी का दारुण दुख अभी विस्मृत नहंी हुआ फिर व्यापार के लिए आमंत्रण। मद्य निषेध वाले गांधी के देश में शराब की सरकारी बिक्री। अहिंसा वाले गांधी को हिंसा का शिकार होना पड़ा। वैष्णव जन ते तैने कहिए, जे पीर पराई जाने रे वाले देश में व्यक्तिवाद का बढ़ता प्रभाव। देश समाज को वोटों के लिए वर्ग, जाति, संप्रदाय में बांटने का उपक्रम। गांधी के राष्टपिता होने पर सवाल ? पिता की रूढ़ अर्थ में स्वीकृति क्यों ? जबकि हम रूढ़ अर्थो मंे कुछ भी स्वीकारने को तैयार नहीं है। हमारे पास तर्क है इक्कीसवदीं सदी का। गांधी समाधि पर अत्याचार, दुराचार फिर भी सरकार शांत क्यों ? क्योंकि वोट के सवाल से जुड़ा है यह अत्याचार। वोट के आगे गांधी या किसी का कोई दर्शन नहीं है न ही होगा। तभी गांधी। गांधी। गांधी। का सृजन। इनमें एकरूपता का प्रयास। सत्य के साथ प्रयोग का सत्ता के साथ प्रयोग से तदात्मय।
नेताआंे ने गांधी की कसम बेची है। गांधी की बुनियादी तालीम। गांधी का सत्य। गांधी की अहिंसा। गांधी की खादी यही सब मिलकर गांधी को एक संज्ञा से इतर विशेषण बनाते थे। इन विशेषण को किश्तों में 45 वर्षोंं से लगातार मारने की साजिश चल रही है। अपराध के भार और असत्य के अधिकार वाले व्यक्तित्व दो अक्टूबर 30 जनवरी को राजघाट में श्रृद्धासुमन अर्पित करके सत्य के साथ प्रयोग के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा करके उसे और गहराते जा रहे हैं। ये साजिशें अनजाने में नहीं, जानकर-समझकर चली और चलायी जा रही हैं। जो मर रहे हैं। यह मरना 30 जनवरी 48 से ज्यादा खतरनाक है। इसलिए भी कि यह अपने लोगों, अपने उत्तराधिकारियों द्वारा मारा जा रहा है। गांधीवाद का मरना कोई अंतहीन सिलसिला नहीं हो सकता। बस इसलिए कि गांधी को और मत मारिए जनाब। क्योंकि हमारी स्वतंत्रता कभी भी फिर खतरे में पड़ सकती है और आज भी निवेश के माध्यम से। कभी व्यापार के माध्यम से एक आर्थिक गुलामी का खतरा हम पर है। फिर कभी असत्य व अप संस्कृति के प्रसार के सांस्कृतिक गुलामी की ओर हम जा रहे हैं। इन सब पर विजय का इकलौता हथियार है - गांधीवाद। इसलिए गांधी को मत मारिए जनाब ...।
न त्वेवाहां जातु नासं त्वं नेमे जनाधिया:
न चोवन भविष्याम सर्वेयमतः परम।
आत्मा नित्य है। वह कालातीत है। आत्मा विशेषण है। गीता ने यह भी बताया कि नैनं छिंदति शस्त्राणि नैनंदहति पावकः।
न चें क्लेददयंत्यापो न शोषयति मातः
कृष्ण ने बताया कि अर्जुन। इस आत्मा को शास्त्रादि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है तथा इसको जल गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती। फिर गांधी जो एक विशेषण से उठे थे। विशेषण आत्मा भी है। आत्मा जैसा विशेषण मर नहीं सकता तो फिर महात्मा गांधी ? गांधी जी गीता को अपनी कामधेनु, पथप्रदर्शिका और ओपन सीसेम कहते थे। जिस तरह गांधी के लिए गीता थी उसी तरह आज के समाज के लिए गांधीवाद, गांधी दर्शन व गांधी का व्यवहारवाद पथ प्रदर्शक है। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में जिस नस्लवाद की लडाई लड़ी थी। उसकी आज विजय पुख्ता करती है कि गांधीवादी सोच के भविष्य दृष्टा पहलू को। सच है कि गांधी 30 जनवरी को मारे नहीं गए क्योंकि 30 जनवरी 48 तक गांधी संज्ञा से इतर हो गए थे। गांधी सत्य व अहिंसा पर बल देते थे। वे चाहते थे कि मनुष्य उनकें कभी मत छोडेे। परंतु आज ये राजनीति के लिए अमोद्य अस्त्र हैं। ये ही वो बैसाखियां हैं जिससे सत्ता चेरी रह सकती है। चंचल लक्ष्मी इन्हीं के आसपास विचरण करती है। ऐसी मान्यता घर कर गई है सत्ताधारियों में।
गांधी धर्म प्रभावित राजनीति के पक्षधर थे। परंतु राजनीति के धर्म में दुरुपयोग के कारण धर्मविहीन राजनीति का हंगामा चल निकला है। धर्म सिर्फ आराधना नहीं है वह है एक आस्था। कार्य के प्रति आस्था। सत्य के प्रति। अहिंसा के प्रति। धर्म से पाप-पुण्य का भय रहता है। यह भय व्यक्कित को अनैतिकता से रोका है। नैतिकता से बांधता है। कहीं कर्म के भोेग, कहीं भोग के कर्म के दर्शन से बांधकर मनुष्य में हर हालत में जिजीविषा बनाए रखता है।
गांधी ने आवश्यकता विहीनता को अपनाया। बल दिया। आज हम उपभोक्ता संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं। गांधी का खादी महज वस्त्र नहीं विचार था। यह विचार जिससे हर हाथ को काम मिलता। रोजगार का विचार परंतु अब खादी ग्रामोद्योग इन विचारों की किश्तवार हत्या कर रहा है। सत्य के साथ प्रयोग करने वाले गांधी के खादी ग्रामोद्योग के अध्यक्ष डा.यशवीर सिंह बेइमानी व भ्रष्टाचार का खेल खेल रहे हैं। खादी के उद्देश्यों के विपरीत वाली खादी के पदों की प्रचार की आंधी बहाए पड़े हैं। खादी को एक ऐसे वस्त्र के रूप में स्वीकार व प्रचारित किया गया था। जिसमें आचार विचार की शुचिता थी। आज ये वस्त्र श्वेतसनापराध के पर्याय के रूप में प्रयोग किए जा रहे हैं। इनमें सत्य के प्रयोग नहीं हो रहे हैं। इनसे रोजगार का सपना पूरा होते नहीं दिखता है।
गांधी की बुनियादी शिक्षा जिसमें भारतीयता की प्राण प्रतिष्ठा हो। पाठ्यक्रमों से बेहद दूर है। शिक्षा मंे डोनेशन समा गया। शिक्षा अपनी मातृभाषा से कटी है। बुनियादी से कटी है। गांधी के देश की शिक्षा में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तक पैसों पर प्रवेश का फरमान जारी कर चुके हैं। फिर बुनियादी शिक्षा का औचित्य ? आधार क्या है ?
6 अप्रैल 1930 को गांधी जी ने सिविल नाफरमानी की शुरुआत डंाडंी मार्च से की। इस यात्रा में महात्मा गांधी ने कहा कि पानी से पृथक नाम की कोई चीज नहीं है। जिस पर कर लगाकर अंग्रेजी हुकूमत करोड़ों लोगों को भूखा मार सकती है। बीमार असहाय व विकलांगां को पीड़ित कर सकती है। इसलिए यह अत्यंत अमानवीय है। अविवेकपूर्ण है जिसका उपयोग मानवता के विरुद्ध किया जा रहा है। इसके बाद भी केंद्र सरकार ने उसी अरब सागर के तट पर कारगिल नामक एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को 15000 एक जमीन नमक बनाने के लिए दिया। नमक का हमारी संस्कृति में सिर्फ उत्पाद से संबंध नहीं है। नमक खाना एक बोध की दायित्य बोध की स्वीकृति भी है। जिसका महत्व कहानी अलीबाबा चालीस चोर में है। चोर जिसमें नैतिकता का ह्रास मानते हैं। जिसमें सांस्कृतिक क्षरण के वाहक होते हैं जो नमक की संस्कृति का निर्वाह करते हैं और हमें यह सरकार नमक के बहाने ही उपभोक्ता संस्कृति के लिए अवश करने पर जुटी है। वह भी ऐसी स्थिति में जबकि 1956 से देश नमक उत्पादन में जबकि 1936 से देश नमक उत्पादन में आत्मनिर्भर ही नहीं, निर्यातक भी बन गया।
यह महात्मा गांधी को हर वर्ष प्रदान की जाने वाली किस संस्कृति का अंग है। यह बात दीगर रही कि केंद्र सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली तमाम सुविधाओं के बाद भी कारगिल ने यहां नमक उत्पादन करने से मनाकर दिया क्योंकि जापान मंे आ रही मंदी के कारण उसे अब एशिया प्रशांत देशों के लिए नमक बनाने की इकाईयां लगाना लाभदायक सौदा नजर नहीं आ रहा है।
एक और भारत छोड़ो की स्वर्ण जयंती, दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियांे, विदेशी निवेश को आमंत्रण। व्यापार के लिए आई ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से सैकड़ों वर्ष की गुलामी का दारुण दुख अभी विस्मृत नहंी हुआ फिर व्यापार के लिए आमंत्रण। मद्य निषेध वाले गांधी के देश में शराब की सरकारी बिक्री। अहिंसा वाले गांधी को हिंसा का शिकार होना पड़ा। वैष्णव जन ते तैने कहिए, जे पीर पराई जाने रे वाले देश में व्यक्तिवाद का बढ़ता प्रभाव। देश समाज को वोटों के लिए वर्ग, जाति, संप्रदाय में बांटने का उपक्रम। गांधी के राष्टपिता होने पर सवाल ? पिता की रूढ़ अर्थ में स्वीकृति क्यों ? जबकि हम रूढ़ अर्थो मंे कुछ भी स्वीकारने को तैयार नहीं है। हमारे पास तर्क है इक्कीसवदीं सदी का। गांधी समाधि पर अत्याचार, दुराचार फिर भी सरकार शांत क्यों ? क्योंकि वोट के सवाल से जुड़ा है यह अत्याचार। वोट के आगे गांधी या किसी का कोई दर्शन नहीं है न ही होगा। तभी गांधी। गांधी। गांधी। का सृजन। इनमें एकरूपता का प्रयास। सत्य के साथ प्रयोग का सत्ता के साथ प्रयोग से तदात्मय।
नेताआंे ने गांधी की कसम बेची है। गांधी की बुनियादी तालीम। गांधी का सत्य। गांधी की अहिंसा। गांधी की खादी यही सब मिलकर गांधी को एक संज्ञा से इतर विशेषण बनाते थे। इन विशेषण को किश्तों में 45 वर्षोंं से लगातार मारने की साजिश चल रही है। अपराध के भार और असत्य के अधिकार वाले व्यक्तित्व दो अक्टूबर 30 जनवरी को राजघाट में श्रृद्धासुमन अर्पित करके सत्य के साथ प्रयोग के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा करके उसे और गहराते जा रहे हैं। ये साजिशें अनजाने में नहीं, जानकर-समझकर चली और चलायी जा रही हैं। जो मर रहे हैं। यह मरना 30 जनवरी 48 से ज्यादा खतरनाक है। इसलिए भी कि यह अपने लोगों, अपने उत्तराधिकारियों द्वारा मारा जा रहा है। गांधीवाद का मरना कोई अंतहीन सिलसिला नहीं हो सकता। बस इसलिए कि गांधी को और मत मारिए जनाब। क्योंकि हमारी स्वतंत्रता कभी भी फिर खतरे में पड़ सकती है और आज भी निवेश के माध्यम से। कभी व्यापार के माध्यम से एक आर्थिक गुलामी का खतरा हम पर है। फिर कभी असत्य व अप संस्कृति के प्रसार के सांस्कृतिक गुलामी की ओर हम जा रहे हैं। इन सब पर विजय का इकलौता हथियार है - गांधीवाद। इसलिए गांधी को मत मारिए जनाब ...।
Next Story