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शिक्षा के सवाल
मुंबई के एक स्कूल के छात्र दानिश खान ने तीसरी बार दसवीं कक्षा में फ¢ल होने की आशंका से भयभीत होेकर विद्यालय में ही आत्महत्या कर ली। दानिश की आत्महत्या हमारी शिक्षा प्रणाली की विसंगतियों और उसकी भयावह परिणति को उजागर करती है। दानिश इस पूरी शिक्षा व्यवस्था कर रहे अवाम का प्रतीक है। वह ऐसा प्रतीक है जो अपनी जिंदगी को समाप्त करके शिक्षा व्यवस्था के सामने तमाम ऐसे सवाल खड़े करता है। जिसे हल करने की दिशा में न जाने क्यों पहल नहीं की जा सकी। मैकाले द्वारा शुरू की गई शिक्षा व्यवस्था पर चाहे जितने भी प्रयोग हुए हों। लेकिन उन प्रयोगों ने शिक्षा प्रणाली में कोई ऐसी सार्थक दिशा नहीं बनाई जिससे हमारी शिक्षा हमारे परिवेश, समाज और जरूरत के अनुरूप बन सक¢। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शिक्षा की चुनौती शीर्षक से एक परिपत्र जारी कर पूरे देश में शिक्षा प्रणाली पर एक बहस की सार्थक शुआत की थी। लेकिन सरकारी योजनाओं की तरह शिक्षा प्रणाली पर बहस की यह सार्थक शुआत भी असमय ही काल कवलित हो गई। हमारी आज की शिक्षा एक पैटर्न शिक्षा है। एक ढांचा है। ऐसा ढांचा जिसमें एक वर्ष के अध्ययन, मनन, चिंतन की परीक्षा तीन घंटों में सेट प्रश्नों के सहारे उत्तीर्ण करनी होती है। वर्तमान शिक्षा पद्धति से प्राप्त बड़ी-बड़ी डिग्रियां तब और बौनी लगती हैं। जब भारी- भरकम डिग्रियों के बावजूद चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी बनने के लिए एक बेरोजगार नवयुवक को फिर वस्तुनिष्ठ परीक्षा से गुजरना पड़ता है। हमारी डिग्रिया रोजगार में प्रवेश का कोई सीधा रास्ता नहीं दिखातीं।
शिक्षा हमारी वर्तमान की अवधारण के अतर्कपूर्ण पद्धति पर आधारित है। हमारे सारे आदर्श, सिद्धांत और अवधारणा अतीत से लिए गए हैं। जबकि नित्य उत्पन्न हो रही नई समस्याओं के लिए यह अतीतजीवी समाधान बहुधा कोई ठोस और सार्थक हल प्रस्तुत नहीं कर पाते हैं। शिक्षा में हम पुरानी पीढ़ी की इंफारमेशन को वस्तु की भंाति ट्रांसफर करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि जो सत्य हमने और आपने जाने हैं वह परिस्थितिगत हैं। इस रिलेटिव टुथ यानी (सापेक्ष सत्य) है। सापेक्ष सत्य को जब हम अपने बच्चों को देते हैं तो हम भूल जाते हैं कि यह बच्चे उस दुनिया में नहीं जिएंगे। जिसमें हम जिए थे। और जरूरी नहीं है कि बच्चों की जिंदगी की परिस्थिति हमारी थी। बच्चे भविष्य की आशा में नहीं जीते है। बच्चे अभी जीते हैं। वर्तमान जीते हैं। क्षण जीते हैं। अगर एक बच्चा नदी के किनारे बैठा है तो पत्थरों के साथ, रेत के साथ और नदी के पानी के साथ जीता है। हमारी शिक्षा बच्चे को प्रतिस्पर्धा में जीने के लिए विवश करती है। यहीं असंतुलन पैदा होता है। बच्चों के कोमल तंतु टूटने लगते हैं। उसे अधिक जीने और आगे जीने की स्थितियों में संतुलन बनाना पता है। परिणामतः बच्चे को जिंदगी नियंत्रित, कंटोल् सेपरेशन और दमन से जुड़ी महसूस होने लगती है।
यही कारण है कि जिस दिन स्कूल की छुट्टी होती है बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। स्कूल का घंटा बजने पर जब बच्चे बाहर निकलते हैं तो उनकी खुशी देखने लायक होती है। उनका बस्ता उछालना, कूदना, चिल्लाना, बाल सुलभ स्वाभाविक क्रियाएं देखकर ऐसा लगता है कि जैसे किसी कारागार से मुक्त हुए हों। विद्या की परिभाषा देते हुए कहा गया है - ‘स विद्यायः विमुक्तये’ यानि जो मुक्त करे वहीं विद्या है। हम जितना पढ़ते जाते हैं। उतना ही अपने परिवेश और समाज के लिए निरर्थक होते जाते हैं। जैसे- हाईस्कूल की पाई कर लेने के बाद ग्वाले के लड़के को दूध दुहने में शर्म महसूस होती है। इतना ही नहीं, हमारा कृषि स्नातक चाहता है कि फसल फाइलों में बोई जाए और दस्तखत से काट ली जाए।
दानिश खान के प्रतीक का विस्तार करें तो हम पाते हैं कि हमारी शिक्षा भय सिखाती है। प्रलोभन सिखाती है। ईष्या और प्रतिस्पर्धा सिखाती है। शिक्षित व्यक्ति का पात्र अशिक्षित व्यक्ति से इतना बड़ा हो जाता है कि उसे भरना कठिन हो जाता है। मुश्किल हो जाता है। शिक्षा आत्मविश्लेषण और आत्म साधन को जांचने-परखने का मौका नहीं देती। वह महत्वाकांक्षा जगाती है। विजय का भाव भरती है। बच्चों को एक ऐसी दौड़ में खड़ा करती है, जहां अव्वल न हो पाने का सीधा मतलब होता है पराजय। पलायन। यही कारण है कि हमारी शिक्षा और उसके परिणाम अक्सर आत्मात के कारण बनते हैं। यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि संसार में जितनी अशांति, तनाव, हिंसा को शिक्षित लोगों ने फैलाया है। उतना अनपढ़, गंवार और अशिक्षित लोगों ने नहीं।
शिक्षा ने जैसे-जैसे मनुष्य के ज्ञान भंार में रहस्यों को समने की शक्ति प्रदान की है। वैसे-वैसे शिक्षित आदमी के भीतर उतना ही गहरा खोखलापन, निराशा और सूनापन उतराता गया है। इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं लगाया जाना चाहिए कि शिक्षा अर्थहीनता का पर्याय है। इससे जो संदर्भ हाथ लगते हैं उससे इस निष्कर्ष की ओर जरूर बढ़ा जा सकता है कि हमारी शिक्षा हमारे लिए अनुपयोगी होती जा रही है और अर्थहीनता के भंवर जाल में वह अब पूरी तरह फंस चुकी है। स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि जो भी उसके समीप जाएगा उसका डूबना उतना ही निकट होता जाएगा। यह शिक्षा की विसंगति का ही तो परिणाम है कि हम प्रफुल्लित होते हंै कि हमारा शिक्षक, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति हो रहा है।
इन उपलब्धियों पर शिक्षक समाज भी गौरवान्वित हता है। परंतु यह नहीं सोचा जाता है कि कोई भी विधायक, मंत्री, राष्ट्रपति शिक्षक नहीं हो रहा है ? हमारे सामने नई पीढ़ी को कल के लिए तैयार करने का सबसे बड़ा सवाल है क्योंकि इस पर मनुष्यता का सारा भविष्य निर्भर करता है। शिक्षा का धर्म होना चाहिए - व्यक्ति की छिपी हुई संभावनाओं को खोजने में मदद करना। परंतु हमारी शिक्षा प्रणाली इन संदर्भों में एकदम निरर्थक है। वह एक ऐसी पीढ़ी तैयार करने में जुटी हुई है जिसकी जरूरतें, संवेदनाएं, अर्थप्रधान जीवन के इर्द-गिर्द घूमती रहे। तर्क पर आधारित शिक्षा की आयतित अवधारणा पर 21 शताब्दी में कुछ समय तो देना ही होगा तभी हम अपनी संस्कृति, सभ्यता और सौहार्दपूर्ण परंपरा को जीवित रख पाएंगे। ऐसा करते समय इस बात से पूरी तरह बचना होगा कि फिर कहीं भोर का पहाड़ा पढ़ाने की जिम्मेदारी उन्हें न सौंप दी जाए जो बेड टी की आशा में संस्कृति के बिस्तर पर लेटे हुए उगते सूरज की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
शिक्षा हमारी वर्तमान की अवधारण के अतर्कपूर्ण पद्धति पर आधारित है। हमारे सारे आदर्श, सिद्धांत और अवधारणा अतीत से लिए गए हैं। जबकि नित्य उत्पन्न हो रही नई समस्याओं के लिए यह अतीतजीवी समाधान बहुधा कोई ठोस और सार्थक हल प्रस्तुत नहीं कर पाते हैं। शिक्षा में हम पुरानी पीढ़ी की इंफारमेशन को वस्तु की भंाति ट्रांसफर करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि जो सत्य हमने और आपने जाने हैं वह परिस्थितिगत हैं। इस रिलेटिव टुथ यानी (सापेक्ष सत्य) है। सापेक्ष सत्य को जब हम अपने बच्चों को देते हैं तो हम भूल जाते हैं कि यह बच्चे उस दुनिया में नहीं जिएंगे। जिसमें हम जिए थे। और जरूरी नहीं है कि बच्चों की जिंदगी की परिस्थिति हमारी थी। बच्चे भविष्य की आशा में नहीं जीते है। बच्चे अभी जीते हैं। वर्तमान जीते हैं। क्षण जीते हैं। अगर एक बच्चा नदी के किनारे बैठा है तो पत्थरों के साथ, रेत के साथ और नदी के पानी के साथ जीता है। हमारी शिक्षा बच्चे को प्रतिस्पर्धा में जीने के लिए विवश करती है। यहीं असंतुलन पैदा होता है। बच्चों के कोमल तंतु टूटने लगते हैं। उसे अधिक जीने और आगे जीने की स्थितियों में संतुलन बनाना पता है। परिणामतः बच्चे को जिंदगी नियंत्रित, कंटोल् सेपरेशन और दमन से जुड़ी महसूस होने लगती है।
यही कारण है कि जिस दिन स्कूल की छुट्टी होती है बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। स्कूल का घंटा बजने पर जब बच्चे बाहर निकलते हैं तो उनकी खुशी देखने लायक होती है। उनका बस्ता उछालना, कूदना, चिल्लाना, बाल सुलभ स्वाभाविक क्रियाएं देखकर ऐसा लगता है कि जैसे किसी कारागार से मुक्त हुए हों। विद्या की परिभाषा देते हुए कहा गया है - ‘स विद्यायः विमुक्तये’ यानि जो मुक्त करे वहीं विद्या है। हम जितना पढ़ते जाते हैं। उतना ही अपने परिवेश और समाज के लिए निरर्थक होते जाते हैं। जैसे- हाईस्कूल की पाई कर लेने के बाद ग्वाले के लड़के को दूध दुहने में शर्म महसूस होती है। इतना ही नहीं, हमारा कृषि स्नातक चाहता है कि फसल फाइलों में बोई जाए और दस्तखत से काट ली जाए।
दानिश खान के प्रतीक का विस्तार करें तो हम पाते हैं कि हमारी शिक्षा भय सिखाती है। प्रलोभन सिखाती है। ईष्या और प्रतिस्पर्धा सिखाती है। शिक्षित व्यक्ति का पात्र अशिक्षित व्यक्ति से इतना बड़ा हो जाता है कि उसे भरना कठिन हो जाता है। मुश्किल हो जाता है। शिक्षा आत्मविश्लेषण और आत्म साधन को जांचने-परखने का मौका नहीं देती। वह महत्वाकांक्षा जगाती है। विजय का भाव भरती है। बच्चों को एक ऐसी दौड़ में खड़ा करती है, जहां अव्वल न हो पाने का सीधा मतलब होता है पराजय। पलायन। यही कारण है कि हमारी शिक्षा और उसके परिणाम अक्सर आत्मात के कारण बनते हैं। यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि संसार में जितनी अशांति, तनाव, हिंसा को शिक्षित लोगों ने फैलाया है। उतना अनपढ़, गंवार और अशिक्षित लोगों ने नहीं।
शिक्षा ने जैसे-जैसे मनुष्य के ज्ञान भंार में रहस्यों को समने की शक्ति प्रदान की है। वैसे-वैसे शिक्षित आदमी के भीतर उतना ही गहरा खोखलापन, निराशा और सूनापन उतराता गया है। इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं लगाया जाना चाहिए कि शिक्षा अर्थहीनता का पर्याय है। इससे जो संदर्भ हाथ लगते हैं उससे इस निष्कर्ष की ओर जरूर बढ़ा जा सकता है कि हमारी शिक्षा हमारे लिए अनुपयोगी होती जा रही है और अर्थहीनता के भंवर जाल में वह अब पूरी तरह फंस चुकी है। स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि जो भी उसके समीप जाएगा उसका डूबना उतना ही निकट होता जाएगा। यह शिक्षा की विसंगति का ही तो परिणाम है कि हम प्रफुल्लित होते हंै कि हमारा शिक्षक, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति हो रहा है।
इन उपलब्धियों पर शिक्षक समाज भी गौरवान्वित हता है। परंतु यह नहीं सोचा जाता है कि कोई भी विधायक, मंत्री, राष्ट्रपति शिक्षक नहीं हो रहा है ? हमारे सामने नई पीढ़ी को कल के लिए तैयार करने का सबसे बड़ा सवाल है क्योंकि इस पर मनुष्यता का सारा भविष्य निर्भर करता है। शिक्षा का धर्म होना चाहिए - व्यक्ति की छिपी हुई संभावनाओं को खोजने में मदद करना। परंतु हमारी शिक्षा प्रणाली इन संदर्भों में एकदम निरर्थक है। वह एक ऐसी पीढ़ी तैयार करने में जुटी हुई है जिसकी जरूरतें, संवेदनाएं, अर्थप्रधान जीवन के इर्द-गिर्द घूमती रहे। तर्क पर आधारित शिक्षा की आयतित अवधारणा पर 21 शताब्दी में कुछ समय तो देना ही होगा तभी हम अपनी संस्कृति, सभ्यता और सौहार्दपूर्ण परंपरा को जीवित रख पाएंगे। ऐसा करते समय इस बात से पूरी तरह बचना होगा कि फिर कहीं भोर का पहाड़ा पढ़ाने की जिम्मेदारी उन्हें न सौंप दी जाए जो बेड टी की आशा में संस्कृति के बिस्तर पर लेटे हुए उगते सूरज की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
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