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जातिवाद का विस्तार है धार्मिक उन्माद
इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर खड़े होकर हम चाहे जिन उपलब्धियों पर इतराएं। पर जातीय बोध के निरंतर प्रखर हो रहे सवाल नृत्य मुद्रा में लीन मोर को उसका पैर दिखाने का कार्य कर रहे हैं। आदमी को वोट की शक्ल में देखने के राजनीतिक गुण को चुकता हुआ जान कर जातीय अस्मिता से उसे जोने की साजिश शुरू हुई। यह साजिश हमारी सभी उपलब्धियों को खास कम और बौना कर रही है। इसका सीधा प्रमाण हम राष्ट्रपति क¢.आर.नारायण के चुनाव और उनके चयन में पा सकते हैं। आज यहां अंबेडकर को किसी राजनीतिक पार्टी और जाति विशेष को जताने की निरंतर कोशिश जारी है। वहीं लौह पुष सरदार बल्लभभाई पटेल, सुभाषचंद्र बोस जैसे कई महापुषों को भी जाति-संप्रदाय की लक्ष्मण रेखा में बांधा जा रहा है। राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद पर चयन और चुनाव के लिए पक्षधर नेता जातीय अस्मिता का बोध जगाने से भी नहीं चूक¢। वैसे तो राष्ट्रपति क¢.आर.नारायणन के चुनाव के समय देश की राजनीतिक सत्ता अविवाहित राजनेताओं से पूरी तरह रिक्त थी। तभी तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के सर्वोच्च पदों पर भारतीय सिविल सेवा के सेवामुक्त अधिकारियों का कब्जा हुआ। इतना ही नहीं, यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं कहा जाएगा कि जय प्रकाश नारायण की मृत्यु के बाद जन आस्थाओं के केंद्र के रूप में उभरे विश्वनाथ प्रताप सिंह के शीघ्र पराभव की रिक्तता भी एक सिविल सेवा के अधिकारी टी.एन.शेषन ने पूरी की। यह बात दूसरी है कि शेषन की निजी महत्वाकांक्षाओं के आगे जन आस्थाएं बौनी पड़ गईं और वे यह तय नहीं कर पाए कि उन्हें जन आस्थाओं को परिणाम के रूप में कब और कैसे तब्दील करना है। ‘अजगर’ और ‘भूराबाल’ जैसे राजनीतिक समीकरण तैयार करक¢, जातीय अस्मिता की बैसाखी पर चढ़कर सत्ता तक पहुंच बना लेने वाली राजनीतिक पार्टियां। नेता जातीय समीकरणों की जुगत को ‘सोशल इंजीनियरिंग’ तक बहाकर ले जाने में भी नहीं चूक¢। इस सामजिक अभियांत्रिकी का सारा का सारा ध्यान धर्म और जाति में आदमी को बांट कर वोट की शक्ल अख्तियार करने में लगा रहा।
इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि पचास वर्ष बाद भी हमारा गणतंत्र गुणतंत्र में नहीं परिवर्तित हो पाया। गणतंत्र ने भीतंत्र का आकार ग्रहण किया। जातीय अस्मिता के निरंतर गहराते सवाल के केंद्र में असुरक्षा की जो भावना है उसमें हिंसा को खासा स्थान प्राप्त है। हिंसा का पोषण राजनीतिक पार्टियों में किस हद तक होता है। उसे बताने की जरूरत नहीं है। हिंदू और अल्पसंख्यकों के उग्रवादी संगठनों की लंबी फ¢हरिस्त इस बात का सुबूत है कि हिंसा का राजनीति में कितना और क्या स्थान है ? हर बार सदनों के चुनाव परिणामों के बाद अपराधियों के चुनकर आने, उनके मंत्री बनने की प्रकाशित होती फ¢हरिस्तें इस बात का सुबूत हैं कि आज की राजनीति में हिंसा को खासी श्रेष्ठता हासिल है। इस श्रेष्ठता ने तो उस समय अपनी हद ही तो दी, जब उच्च सदनों में भी अपराधी स्थान पाने लगे। अपराधियों में भी जातीय अपराधियों में भी जातीय अपराधियों को संरक्षण देने और उनकी शौर्य गाथा का बखान करने वाली परंपरा चल निकली। राजनीतिक पार्टियां अपने प्रत्याशी विशेष का चुनाव करते समय क्षेत्र की जातीय जनसंख्या गणित का खासा ध्यान देती हैं। जातीय सरोकारों का ध्यान रखने वाले राजनीतिक दल शायद यह भूल जाते हैं कि हमारे देश की जनगणना में जाति के महत्व को बहुत पहले तयाग दिया गया है। जाति आधारित जो-जुगत का परिणाम आरक्षण जैसा ही हुआ जिसमें ‘अंधा बांटे रेवी आपा-आपा देय’ की कहावत चरितार्थ होती है। जातिवादी बोध जागृति करके आदमी को वोट की शकल देने में मशगूल राजनेताओं में ब्राम्हण सम्मेलन, क्षत्रिय सम्मेलन, अयाचित ब्राम्हण सम्मेलन, कुर्मी महासभा जैसे सम्मेलनों में शिरकत करने की हो मची हुई है। स्थिति यहां तक आ पहंुची है कि इन सम्मेलन में सम्मानित होते राष्ट्रीय नेताओं को भी शर्म नहीं आती है। जाति व्यवस्था के सुपर फिसियल स्टडी से ही यह साफ हो जाता है कि जातियों को संस्कार जन्मना नहीं, कर्मणा निर्धारित हुआ था। आज जन्म आधारित जाति व्यवस्था के सम्मेलनों में सम्मानित होते इन राजनेताओं को यह तय करने में दिक्कत आती है कि वे जन्मना जाति व्यवस्था के अधिकारी नहीं रह गए हैं। असुरक्षा और हिंसा के बीच जीने को विवश करते जातीय बोध ‘सर्वे भवंतु सुखिनाः, सर्वे संत निरामया’ जैसे आदर्श वाक्य के विरोध में मुखर रूप से उठ खड़े होते हें।
एक समय था कि राजनीति की दृष्टि इन सवालों पर थी-जात की यह व्यवस्था कैसे बदले, जाति कैसे टूटे। निर्गुण संतों से लेकर वर्तमान सदी के सुधारवादियों तक सबने इस सवाल की विद्रूपता पर निरंतर हमले किए। इस सदी में सबसे पहले जाति तोड़ने की दिशा में 1936 में आर्य समाजी नेता संतराम ने अपने कदम बढ़ाए। उन्होंने जाति-पाति तोड़ों मंडल की स्थापना की। इसके एक सम्मेलन का अध्यक्ष डा. भीमराव अंबेडकर को बनाया। इसके बाद दया स्वरूप विश्व नागरिक और साथियों ने प्रयाग में जात-पात उन्मूलन समिति बनाई। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर 1977 में इस दिशा में सार्थक पहल हुई। तत्कालीन केंद्रीय सरकार के कुछ मंत्रियों जगजीवन राम, राजनारायण, मधुलिमये आदि नेताओं की पहल पर 16, 17 एवं 18 सितंबर को मावलंकर हाल, नई दिल्ली में जाति तोड़ो सम्मेलन हुआ। 1936 के जात-पात तोड़ो मंडल और 1977 के जाति तोड़ो सम्मेलन दोनों के अध्यक्ष दलित ही थे। 1977 के सम्मेलन में समाजवादियों की प्रमुख भूमिका थी परंतु आज हमारे यहां दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियां हों, वामपंथी या मध्यमार्गी राजनीतिक दल सभी में जाति व्यवस्था के पोषक तत्वों को हवा दी जा रही है। इनके चलते समूचा भारतीय समाज जाति रोग ग्रस्त है। जाति रोग देश की एकता, अखंडता और प्रगति में सबसे बाधक है। तमिलनाडु में जाति की राजनीति के चलते स्थिति आज यहां तक आ पहुंची है कि लगभग हर जाति का अपना ‘मुनेत्र कषगाम’ बन गया है। हर जाति ने अपने किसी आराध्य की मूर्ति पार्कों और चैराहों पर लगाना शुरू कर दिया है। आज धार्मिक उन्माद के निशाने पर ईसाई धर्म है। इस उन्माद की आग में वोटों की जो जुगत करने वाले राजनीतिक दल शायद यह भूलने की सयास कोशिश कर रहे हैं कि उनके द्वारा फैलाए गए जातिवाद के जहर का विस्तार है यह धार्मिक उन्माद। वैसे भी जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा के आधार पर विभाजन की रेखाएं खींचने में सिद्धहस्त और कारीगर राजनीतिक हाथ उत्तर आधुनिक प्रवृत्ति के नमूनों की तरह छोटी बात को बड़ा और बड़ी बात को छोटा करके दिखाने की जिस साजिश में लिप्त हैं। उसकी गिरफ्त में फंसने से वे स्वयं को भी रोक नहीं पाएंगे। जाति जैसी बुराई का जन्म राजनीति की कोख से हुआ है। अतः समाज की कोई और ताकत उससे ठीक से निपट नहीं सकती है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और सहकारी आंदोलन के प्रणेता चैधरी चरण सिंह के बीच जातिवादी कौन जैसे सवाल को लेकर खासा पत्र व्यवहार हुआ था। दोनों नेता एक-दूसरे पर घोर जातिवादी होने का अपने-अपने पत्रों में आरोप लगा रहे थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम लेकर राजनीति करने वालों को गांधी जी की अस्पशृयता, समाजवादी की बैसाखी पर चलने वालों को 1977 के जाति तोड़ो सम्मेलन पता नहीं क्यों और कैसे विस्मृत हो उठते हैं ?
इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि पचास वर्ष बाद भी हमारा गणतंत्र गुणतंत्र में नहीं परिवर्तित हो पाया। गणतंत्र ने भीतंत्र का आकार ग्रहण किया। जातीय अस्मिता के निरंतर गहराते सवाल के केंद्र में असुरक्षा की जो भावना है उसमें हिंसा को खासा स्थान प्राप्त है। हिंसा का पोषण राजनीतिक पार्टियों में किस हद तक होता है। उसे बताने की जरूरत नहीं है। हिंदू और अल्पसंख्यकों के उग्रवादी संगठनों की लंबी फ¢हरिस्त इस बात का सुबूत है कि हिंसा का राजनीति में कितना और क्या स्थान है ? हर बार सदनों के चुनाव परिणामों के बाद अपराधियों के चुनकर आने, उनके मंत्री बनने की प्रकाशित होती फ¢हरिस्तें इस बात का सुबूत हैं कि आज की राजनीति में हिंसा को खासी श्रेष्ठता हासिल है। इस श्रेष्ठता ने तो उस समय अपनी हद ही तो दी, जब उच्च सदनों में भी अपराधी स्थान पाने लगे। अपराधियों में भी जातीय अपराधियों में भी जातीय अपराधियों को संरक्षण देने और उनकी शौर्य गाथा का बखान करने वाली परंपरा चल निकली। राजनीतिक पार्टियां अपने प्रत्याशी विशेष का चुनाव करते समय क्षेत्र की जातीय जनसंख्या गणित का खासा ध्यान देती हैं। जातीय सरोकारों का ध्यान रखने वाले राजनीतिक दल शायद यह भूल जाते हैं कि हमारे देश की जनगणना में जाति के महत्व को बहुत पहले तयाग दिया गया है। जाति आधारित जो-जुगत का परिणाम आरक्षण जैसा ही हुआ जिसमें ‘अंधा बांटे रेवी आपा-आपा देय’ की कहावत चरितार्थ होती है। जातिवादी बोध जागृति करके आदमी को वोट की शकल देने में मशगूल राजनेताओं में ब्राम्हण सम्मेलन, क्षत्रिय सम्मेलन, अयाचित ब्राम्हण सम्मेलन, कुर्मी महासभा जैसे सम्मेलनों में शिरकत करने की हो मची हुई है। स्थिति यहां तक आ पहंुची है कि इन सम्मेलन में सम्मानित होते राष्ट्रीय नेताओं को भी शर्म नहीं आती है। जाति व्यवस्था के सुपर फिसियल स्टडी से ही यह साफ हो जाता है कि जातियों को संस्कार जन्मना नहीं, कर्मणा निर्धारित हुआ था। आज जन्म आधारित जाति व्यवस्था के सम्मेलनों में सम्मानित होते इन राजनेताओं को यह तय करने में दिक्कत आती है कि वे जन्मना जाति व्यवस्था के अधिकारी नहीं रह गए हैं। असुरक्षा और हिंसा के बीच जीने को विवश करते जातीय बोध ‘सर्वे भवंतु सुखिनाः, सर्वे संत निरामया’ जैसे आदर्श वाक्य के विरोध में मुखर रूप से उठ खड़े होते हें।
एक समय था कि राजनीति की दृष्टि इन सवालों पर थी-जात की यह व्यवस्था कैसे बदले, जाति कैसे टूटे। निर्गुण संतों से लेकर वर्तमान सदी के सुधारवादियों तक सबने इस सवाल की विद्रूपता पर निरंतर हमले किए। इस सदी में सबसे पहले जाति तोड़ने की दिशा में 1936 में आर्य समाजी नेता संतराम ने अपने कदम बढ़ाए। उन्होंने जाति-पाति तोड़ों मंडल की स्थापना की। इसके एक सम्मेलन का अध्यक्ष डा. भीमराव अंबेडकर को बनाया। इसके बाद दया स्वरूप विश्व नागरिक और साथियों ने प्रयाग में जात-पात उन्मूलन समिति बनाई। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर 1977 में इस दिशा में सार्थक पहल हुई। तत्कालीन केंद्रीय सरकार के कुछ मंत्रियों जगजीवन राम, राजनारायण, मधुलिमये आदि नेताओं की पहल पर 16, 17 एवं 18 सितंबर को मावलंकर हाल, नई दिल्ली में जाति तोड़ो सम्मेलन हुआ। 1936 के जात-पात तोड़ो मंडल और 1977 के जाति तोड़ो सम्मेलन दोनों के अध्यक्ष दलित ही थे। 1977 के सम्मेलन में समाजवादियों की प्रमुख भूमिका थी परंतु आज हमारे यहां दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियां हों, वामपंथी या मध्यमार्गी राजनीतिक दल सभी में जाति व्यवस्था के पोषक तत्वों को हवा दी जा रही है। इनके चलते समूचा भारतीय समाज जाति रोग ग्रस्त है। जाति रोग देश की एकता, अखंडता और प्रगति में सबसे बाधक है। तमिलनाडु में जाति की राजनीति के चलते स्थिति आज यहां तक आ पहुंची है कि लगभग हर जाति का अपना ‘मुनेत्र कषगाम’ बन गया है। हर जाति ने अपने किसी आराध्य की मूर्ति पार्कों और चैराहों पर लगाना शुरू कर दिया है। आज धार्मिक उन्माद के निशाने पर ईसाई धर्म है। इस उन्माद की आग में वोटों की जो जुगत करने वाले राजनीतिक दल शायद यह भूलने की सयास कोशिश कर रहे हैं कि उनके द्वारा फैलाए गए जातिवाद के जहर का विस्तार है यह धार्मिक उन्माद। वैसे भी जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा के आधार पर विभाजन की रेखाएं खींचने में सिद्धहस्त और कारीगर राजनीतिक हाथ उत्तर आधुनिक प्रवृत्ति के नमूनों की तरह छोटी बात को बड़ा और बड़ी बात को छोटा करके दिखाने की जिस साजिश में लिप्त हैं। उसकी गिरफ्त में फंसने से वे स्वयं को भी रोक नहीं पाएंगे। जाति जैसी बुराई का जन्म राजनीति की कोख से हुआ है। अतः समाज की कोई और ताकत उससे ठीक से निपट नहीं सकती है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और सहकारी आंदोलन के प्रणेता चैधरी चरण सिंह के बीच जातिवादी कौन जैसे सवाल को लेकर खासा पत्र व्यवहार हुआ था। दोनों नेता एक-दूसरे पर घोर जातिवादी होने का अपने-अपने पत्रों में आरोप लगा रहे थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम लेकर राजनीति करने वालों को गांधी जी की अस्पशृयता, समाजवादी की बैसाखी पर चलने वालों को 1977 के जाति तोड़ो सम्मेलन पता नहीं क्यों और कैसे विस्मृत हो उठते हैं ?
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