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दो-चार बूंद आंसुओं के ....
हयातुल्ला अंसारी का प्रयाण कर जाना एक निरन्तर यात्रा का महज विराम नहीं है। विवादों और आरोपों से घिरे रहने वाल, हर तरफ से खारिज हो जाने का दंश भोग रहे कथाकार, पत्रकार, स्वतंत्रता संग्राम के गांधीवादी सेनानी का एक सदी से मुंह मोड़ लेना है। चिकित्सा विज्ञान के लिए भी पहेली बने श्री अंसारी कमोबेश दिल के लगभग 22 दौरे झेल चुके थे। उनके गले में कुछ तकलीफ थी, जिसकी जांच चल रही थी। इसी दौरान कौमी आवाज की बड़ी कस्मपुरसी में मौत हो गयी, जिसके लिए वे बहुत फिक्रमंद थे। लेकिन जब नेहरू भवन के प्रापटी की नीलामी शुरू हुई तो वे बुझ गये और इतने बुझे कि दोबारा कौमी आवाज के बारे में अपने बेटे सिदरत और बहू शाहनाज से कुछ न पूछा। हयातुल्ला अंसारी अपने अहद के उन अदीबों और साहफियों में से थे, जो रवायत बन चुके हैं, उन्हांने पूरी एक सदी को मुतासिर किया।
उन्नीस सौ आठ में मई दिवस के दिन लखनऊ के फिरंगी महल घराने में जन्मे श्री अंसारी की प्रारम्भिक धार्मिक शिक्षा फिरंगी महल के चर्चित मदरसा-ए-निजामिया में हुई। लखनऊ विश्वविद्यालय से अरबी साहित्य में फाजिल-ए-अदब की उपाधि हासिल करने के बाद उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। उन्नीस सौ सड़सठ में मोरक्को में आयोजित कुरान शताब्दी में आमंत्रित सदस्य के रूप में उपस्थित हुए। इस्लामिक दर्शन के डाक्टर की उपाधि से सम्मानित किये गये। प्रेमचंद के साये में युवा होने और उनकी अनुपस्थिति में बूढ़ा हो जाने वाले पीढ़ी के इस साहित्यकार कने लहू के फूल, मदार और घरौंदा (उपन्यास), भरे बाजार में, शिकस्ता कगूरे (कहानी संग्रह), ठिकाना (लघु कथा संग्रह), नून मिभ राशिद पर, जदीदियत की सैर (समालोचना), आदि पुस्तकें लिखीं। उन्नीस सौ सैंतीस में हिन्दुस्तान वीकली के सम्पादक का पदभार संभाला, जो उन्नीस सौ बयालीस के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार ने बन्द करा दिया। उन्नीस सौ पैंतालिस में जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित कौमी आवाज के बानी एडीटर बने। उन्नीस सौ बहत्तर में यहां से सेवामुक्त होने के बाद कांग्रेस के साप्ताहिक उर्दू अखबार सब साथी के सम्पादक बने। उन्नीस सौ सतहत्तर में जनता पार्टी के शासन के दौरान यह समाचार पत्र बन्द हो गया।
उर्दू एडीटर्स कान्फ्रेंस के पहले निर्वाचित अध्यक्ष हयातुल्ला अंसारी उन्नीस सौ बावन में पहली बार एमएलसी बने। उन्नीस सौ पैंसठ एवं बयासी में राज्य सभा सदस्य भी रहे। लगभग एक सदी का जीवन जीने के बाद भी जीवन में काम पूरा करने की ख्वाहिश उनमें जिजीविषा बुनती रहती थी। एक बार मिलने पर उन्होंने कहा था, अब थकान जरूर महसूस होती है। फिर भी लोगों से मिलने, बातें करने और बाकी बचे रह गये कामों को पूरा करने की ख्वाहिश होती है। बीमारी से पैरों में बेडियां पड़ने की बात स्वीकारते हुए आज के सियासी हालात पर फिक्शन लिखने की तमन्ना संजोए वे अलविदा कह गये। कम्युनिस्टों से खासा विरोध रखने वाले हयातुल्ला अंसारी का तर्क था, कम्युनिज्म में झूठ बहुत है। इस फिलासफी में जो यह कहा गया है कि मजदूर तबका ही इंकलाब कर सकता है। तो मैं इसे दुरूस्त नहीं मानता। जो तालिमयाफ्ता नहीं है, जिसमें सोचने-समझने की सलाहियत नहीं है वो इंकलाब क्या करेगा और ये जो सरकारी तहवील में ले लेने की पाॅलिसी है इससे भी मैं इत्तिफाक नहीं करता। वे हमेशा यह कोशिश करते रहे कि लोग सही तरीके से सोच सकें। लोग फिरका परस्ती और जहालत की तरफ न जायें। उन्होंने अपढ़ जनता को पढ़ना-लिखना सिखाने के लिए बापू के आश्रम से ही कोशिश शुरू की थी और इस मैदान में वे इतने दूर तक निकल गये कि उन्होंने प्रौढ़ व्यक्तियों को शीघ्र साक्षर बनाने के लिए अपनी एक शिक्षा प्रणाली तैयार की। इतना ही नहीं अठ्ठारह वर्ष के शोध के बाद दस दिन में हिन्दी और दस दिन में उर्दू नामक पुस्तकें तैयार कीं। ये पुस्तकें पुराने अक्षर वर्णमाला को दरकिनार करते हुए एक नयी पद्धति से पढ़ने के तजुर्बे पर आधारित हैं। इन पुस्तकों से एक अपढ़ व्यक्ति बहुत ही कम समय में रवानी से हिन्दी, उर्दू पढ़ने लगता है। यह प्रणाली एनसीईआरटी सहित भारत के कई विश्वविद्यालयों में लागू है। दक्षिण में हिंदी पढ़ने वालों के लिए यह प्रणाली बेहद प्रमाणिक और उपयोगी है। हालात बिगड़ जाने के बाद भी अपने को कांग्रेसी कहने वाले हयातुल्ला बार-बार कहते थे कि गांधी जी के बताये रास्ते पर चलकर ही इस मुल्क के मसायल हल किये जा सकते हैं। कांग्रेस ही एक मात्र ऐसी पार्टी है जो पायदार हुकूमत दे सकती है। महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में दो बार लंबे समय तक निवास करने का अवसर पाए हयातुल्ला अंसारी के आदर्श महात्मा गांधी थे। प्रेमचंद्र का लोहा मानने वाले श्री अंसारी को टालस्टाय ने भी मुतासिर किया। गोर्की की आत्मकथा का भी उन पर खासा प्रभाव था। कुश्नचन्दर मण्टो, गुलाम अब्बास, इसमत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास के समकालीन हयातुल्ला अंसारी को हिन्दुस्तान में उर्दू और मुसलमानों का मुस्तकबिल कुल मिलाकर महफूज ही लगता रहा। खादी के वस्त्र सिर पर गांधी टोपी उनके व्यक्तित्व की एक पहचान बन गयी थी। अवधारणाओं के संकटकालीन दौर में धारणाओं को निरंतर खंडित करने की वैचारिक दृढ़ता के कारण लेखकों की बड़ी जमात ने उनका बहिस्कार किया। मित्र बैरी बन गये। परिजन मुखालफत करने लगे। सक्रिय गतिशील जीवन निर्जन द्वीप बनकर रीवर बैंक ‘नदी का किनारा’ में सिमट गया। कुफ्र के फतवों का सामना करना पड़ा। जीवन में मनुष्य के निरंतर पराजित हो जाने और जिजीविषा के विजय के बिम्ब के रूप में बानवे वर्ष तक की जीवन यात्रा पूरी करने में कई बार यथार्थ का स्थूल और प्रचलित समझ कर अतिक्रमण किया। समकालीन जीवन के संकटों तथा सांस्कृतिक विविधताओं का बयान करते हुए अवसर मिलने पर सामाजिक, सांस्कृतिक समस्याओं से भी दो-दो हाथ करने वाले हयातुल्ला अंसारी कपड़ा काटने और सीने, तैरने, सांप पालने की महारत रखते थे। उन्होंने कई देशों की यात्राएं भी कीं।
हयातुल्ला अंसारी की उपलब्धियां इतनी बढ़ीं कि वे स्वयं महज संज्ञा न रहकर सम्पूर्ण विशेषण हो गये। उनके जीवन को अनेक अर्थपूर्ण आयाम मिले। संज्ञा से शुरू करके विशेषण तक की अर्थपूर्ण यात्रा पूरी करने वाले हयातुल्ला अंसारी इंतकाल के बाद भी रिवर बैंक ‘नदी के किनारे’ हो रहे उनकी मृत्यु को भी कांग्रेस पार्टी के राजनेता एवं साहित्यकारों को निजी प्रतिबद्धताओं ने नदी का स्वरूप नहीं लेने दिया। प्रदेश सरकार कांग्रेस पार्टी का कोई भी नुमाइंदा सुपुर्द-ए-खाक के वक्त तक नहीं पहुंचा। जिस विचारधारा और जिस पार्टी के लिए हयातुल्ला संघर्ष करते रहे उस पार्टी के नुमाइंदे सोनिया गांधी की रविवार की रैली की तैयारी में मसरूफ रहे। उन्हें हयातुल्ला अंसारी की सुध नहीं आई। उनकी मौत विधान परिषद और राज्यसभा में भी दो मिनट का सन्नाटा नहीं बुन पाई। गुजरती हुई पीढ़ियों के बारे में जो नजरिया दिखाई पड़ रहा है, उससे आदमी के संज्ञा से विशेषण बनने की परम्परा के टूट जाने का खतरा गहराता जा रहा है।
उन्नीस सौ आठ में मई दिवस के दिन लखनऊ के फिरंगी महल घराने में जन्मे श्री अंसारी की प्रारम्भिक धार्मिक शिक्षा फिरंगी महल के चर्चित मदरसा-ए-निजामिया में हुई। लखनऊ विश्वविद्यालय से अरबी साहित्य में फाजिल-ए-अदब की उपाधि हासिल करने के बाद उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। उन्नीस सौ सड़सठ में मोरक्को में आयोजित कुरान शताब्दी में आमंत्रित सदस्य के रूप में उपस्थित हुए। इस्लामिक दर्शन के डाक्टर की उपाधि से सम्मानित किये गये। प्रेमचंद के साये में युवा होने और उनकी अनुपस्थिति में बूढ़ा हो जाने वाले पीढ़ी के इस साहित्यकार कने लहू के फूल, मदार और घरौंदा (उपन्यास), भरे बाजार में, शिकस्ता कगूरे (कहानी संग्रह), ठिकाना (लघु कथा संग्रह), नून मिभ राशिद पर, जदीदियत की सैर (समालोचना), आदि पुस्तकें लिखीं। उन्नीस सौ सैंतीस में हिन्दुस्तान वीकली के सम्पादक का पदभार संभाला, जो उन्नीस सौ बयालीस के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार ने बन्द करा दिया। उन्नीस सौ पैंतालिस में जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित कौमी आवाज के बानी एडीटर बने। उन्नीस सौ बहत्तर में यहां से सेवामुक्त होने के बाद कांग्रेस के साप्ताहिक उर्दू अखबार सब साथी के सम्पादक बने। उन्नीस सौ सतहत्तर में जनता पार्टी के शासन के दौरान यह समाचार पत्र बन्द हो गया।
उर्दू एडीटर्स कान्फ्रेंस के पहले निर्वाचित अध्यक्ष हयातुल्ला अंसारी उन्नीस सौ बावन में पहली बार एमएलसी बने। उन्नीस सौ पैंसठ एवं बयासी में राज्य सभा सदस्य भी रहे। लगभग एक सदी का जीवन जीने के बाद भी जीवन में काम पूरा करने की ख्वाहिश उनमें जिजीविषा बुनती रहती थी। एक बार मिलने पर उन्होंने कहा था, अब थकान जरूर महसूस होती है। फिर भी लोगों से मिलने, बातें करने और बाकी बचे रह गये कामों को पूरा करने की ख्वाहिश होती है। बीमारी से पैरों में बेडियां पड़ने की बात स्वीकारते हुए आज के सियासी हालात पर फिक्शन लिखने की तमन्ना संजोए वे अलविदा कह गये। कम्युनिस्टों से खासा विरोध रखने वाले हयातुल्ला अंसारी का तर्क था, कम्युनिज्म में झूठ बहुत है। इस फिलासफी में जो यह कहा गया है कि मजदूर तबका ही इंकलाब कर सकता है। तो मैं इसे दुरूस्त नहीं मानता। जो तालिमयाफ्ता नहीं है, जिसमें सोचने-समझने की सलाहियत नहीं है वो इंकलाब क्या करेगा और ये जो सरकारी तहवील में ले लेने की पाॅलिसी है इससे भी मैं इत्तिफाक नहीं करता। वे हमेशा यह कोशिश करते रहे कि लोग सही तरीके से सोच सकें। लोग फिरका परस्ती और जहालत की तरफ न जायें। उन्होंने अपढ़ जनता को पढ़ना-लिखना सिखाने के लिए बापू के आश्रम से ही कोशिश शुरू की थी और इस मैदान में वे इतने दूर तक निकल गये कि उन्होंने प्रौढ़ व्यक्तियों को शीघ्र साक्षर बनाने के लिए अपनी एक शिक्षा प्रणाली तैयार की। इतना ही नहीं अठ्ठारह वर्ष के शोध के बाद दस दिन में हिन्दी और दस दिन में उर्दू नामक पुस्तकें तैयार कीं। ये पुस्तकें पुराने अक्षर वर्णमाला को दरकिनार करते हुए एक नयी पद्धति से पढ़ने के तजुर्बे पर आधारित हैं। इन पुस्तकों से एक अपढ़ व्यक्ति बहुत ही कम समय में रवानी से हिन्दी, उर्दू पढ़ने लगता है। यह प्रणाली एनसीईआरटी सहित भारत के कई विश्वविद्यालयों में लागू है। दक्षिण में हिंदी पढ़ने वालों के लिए यह प्रणाली बेहद प्रमाणिक और उपयोगी है। हालात बिगड़ जाने के बाद भी अपने को कांग्रेसी कहने वाले हयातुल्ला बार-बार कहते थे कि गांधी जी के बताये रास्ते पर चलकर ही इस मुल्क के मसायल हल किये जा सकते हैं। कांग्रेस ही एक मात्र ऐसी पार्टी है जो पायदार हुकूमत दे सकती है। महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में दो बार लंबे समय तक निवास करने का अवसर पाए हयातुल्ला अंसारी के आदर्श महात्मा गांधी थे। प्रेमचंद्र का लोहा मानने वाले श्री अंसारी को टालस्टाय ने भी मुतासिर किया। गोर्की की आत्मकथा का भी उन पर खासा प्रभाव था। कुश्नचन्दर मण्टो, गुलाम अब्बास, इसमत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास के समकालीन हयातुल्ला अंसारी को हिन्दुस्तान में उर्दू और मुसलमानों का मुस्तकबिल कुल मिलाकर महफूज ही लगता रहा। खादी के वस्त्र सिर पर गांधी टोपी उनके व्यक्तित्व की एक पहचान बन गयी थी। अवधारणाओं के संकटकालीन दौर में धारणाओं को निरंतर खंडित करने की वैचारिक दृढ़ता के कारण लेखकों की बड़ी जमात ने उनका बहिस्कार किया। मित्र बैरी बन गये। परिजन मुखालफत करने लगे। सक्रिय गतिशील जीवन निर्जन द्वीप बनकर रीवर बैंक ‘नदी का किनारा’ में सिमट गया। कुफ्र के फतवों का सामना करना पड़ा। जीवन में मनुष्य के निरंतर पराजित हो जाने और जिजीविषा के विजय के बिम्ब के रूप में बानवे वर्ष तक की जीवन यात्रा पूरी करने में कई बार यथार्थ का स्थूल और प्रचलित समझ कर अतिक्रमण किया। समकालीन जीवन के संकटों तथा सांस्कृतिक विविधताओं का बयान करते हुए अवसर मिलने पर सामाजिक, सांस्कृतिक समस्याओं से भी दो-दो हाथ करने वाले हयातुल्ला अंसारी कपड़ा काटने और सीने, तैरने, सांप पालने की महारत रखते थे। उन्होंने कई देशों की यात्राएं भी कीं।
हयातुल्ला अंसारी की उपलब्धियां इतनी बढ़ीं कि वे स्वयं महज संज्ञा न रहकर सम्पूर्ण विशेषण हो गये। उनके जीवन को अनेक अर्थपूर्ण आयाम मिले। संज्ञा से शुरू करके विशेषण तक की अर्थपूर्ण यात्रा पूरी करने वाले हयातुल्ला अंसारी इंतकाल के बाद भी रिवर बैंक ‘नदी के किनारे’ हो रहे उनकी मृत्यु को भी कांग्रेस पार्टी के राजनेता एवं साहित्यकारों को निजी प्रतिबद्धताओं ने नदी का स्वरूप नहीं लेने दिया। प्रदेश सरकार कांग्रेस पार्टी का कोई भी नुमाइंदा सुपुर्द-ए-खाक के वक्त तक नहीं पहुंचा। जिस विचारधारा और जिस पार्टी के लिए हयातुल्ला संघर्ष करते रहे उस पार्टी के नुमाइंदे सोनिया गांधी की रविवार की रैली की तैयारी में मसरूफ रहे। उन्हें हयातुल्ला अंसारी की सुध नहीं आई। उनकी मौत विधान परिषद और राज्यसभा में भी दो मिनट का सन्नाटा नहीं बुन पाई। गुजरती हुई पीढ़ियों के बारे में जो नजरिया दिखाई पड़ रहा है, उससे आदमी के संज्ञा से विशेषण बनने की परम्परा के टूट जाने का खतरा गहराता जा रहा है।
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