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सार्थकता के पक्ष में तद्भव
आधुनिक रचनाशीलता पर के न्द्रित विशिष्ट संचयन तद्भव सचमुच सदी के अंत में एक रचनात्मक प्रारंभ है।
इस प्रारम्भ के सम्बन्ध में सम्पादक अखिलेश ने सम्पादकीय में जो रूपरेखा प्रस्तुत की है, उसे पढ़कर आश्वस्त हुआ जा सकता है, तद्भव का प्रथम अंक (मार्च, 99) भारतीय साहित्य के अद्वितीय साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल पर के न्द्रित है।
जिज्ञासा हो सकती है कि प्रथम अंक के के न्द्र में श्रीलाल शुक्ल ही क्यों! इसके कई कारण हो सकते हैं, एक कारण तो यह कि हाल ही में प्रकाशित उपन्यास विश्रामपुर का संत को हिन्दी उपन्यास की ताजा उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया जा रहा है-तद्भव में श्रीलाल जी के इस नवीनतम उपन्यास के बहाने उनकी समस्त रचनाशीलता का नया आलोचनात्मक पाठ प्रस्तुत हुआ है। दूसरा कारण यह कि सम्पादक अखिलेश एक लिहाज से कथाकार श्रीलाल का वंश विस्तार हैं। अपने वरिष्ठ के प्रति यह उत्सुकता और सक्रियता स्वाभाविक है। तीसरे और शायद सर्वाधिक प्रासंगिक कारण की ओर प्रसिद्ध आलोचक वीरेन्द्र यादव ने अपने एक लेख में संके त किया है, इसी अंक में शामिल लेखक में वीरेन्द्र जी कहते हैं.... वे अके ले ऐसे उपन्यासकार हैं, जिन्होंने आलोचकों के समक्ष एक संकट व असमंजस की स्थिति भी पैदा की, इसलिए वीरेन्द्र जी निष्कर्ष निकालते हैं कि श्रीलाल शुक्ल की कथा दृष्टि की विवेचना निश्चित रूप से एक जटिल व दुविधाजन्य कार्य है और इसीलिए चुनौतीपूर्ण थी, निर्विवाद पठनीयता व साहित्यिक मूल्यवत्ता के बावजूद राग दरबारी को लेकर आलोचकीय दुविधा आज भी दरपेश है। जिससे टकराए बिना राग दरबारी और श्रीलाल शुक्ल के फेनामेना को समझा नहीं जा सकता कहना न होगा कि तद्भव के प्रथमांक की वैचारिक पृष्ठभूमि में वीरेन्द्र जी की ये पंक्तियां अनुध्वनित हैं। तद्भव का यह अंक पांच खण्डों में विभक्त है-मीमांसा, संस्मरण, मुलाकात, मूल्यांकन और मतमीमांसा में परमानंद श्रीवास्तव, वीरेन्द्र यादव, मुरली मनोहर, प्रसाद सिंह, सत्य प्रकाश मिश्र, मैत्रेयी पुष्पा, रेखा अवस्थी, लीलाधर मंडलाई, उर्मिल कुमार थपलियाल और अमिताभ खरे के लेख हैं। यदि माना जाये कि आलोचना का मुख्य काम पाठकीय विवेक को विकसित करना है, तो यह काम परमानन्द श्रीवास्तव और वीरेन्द्र यादव के लेखों ने बखूबी किया है। पाठक खुद को वीरेन्द्र जी के इस मत से सहमत पाता है, प्रेमचंद्र और श्रीलाल शुक्ल का यह अंतर स्पष्ट है कि प्रेमचन्द के रचना संसार में राग दरबारी के वैद्य जी, पं. कालिका प्रसाद, गयादीन और रूप्पन सरीखे परजीवी वर्ग के खल पात्र तो मौजूद हैं लेकिन श्रीलाल शुक्ल के रचना संसार में होरी, धनिया, मनोहर, बलराज, झिनकू, सूरदास सरीखे संघर्षशील, दुखी, उत्पीड़ित पात्र लगभग नदारद हैं। इसीलिए रागदरबारी ग्राम्य जीवन की अधूरी तस्वीर है। वीरेन्द्र जी की टिप्पणी का उत्तर श्रीलाल जी अखिलेश के एक सवाल के संदर्भ में देते हैं-इसे आप चाहे निराशावाद कह लीजिए या यथार्थ कह लीजिए।
संस्मरण में रवीन्द्र कालिया, रवीन्द्र वर्मा, कृष्ण राघव, विद्या निवास मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, गोविन्द मिश्र, शीला संधू, गिरीश रस्तोगी, देवेन्द्र राज अंकुर, ममता कालिया और गिरीश पांडे ने अत्यन्त रोचक और आत्मीय संदर्भों में श्रीलाल जी से अपनी निकटता को फिर से जिया है। श्रीलाल जी ने अपनी पत्नी गिरिजा की गंभीर बीमारी में जिस तरह उनकी देखभाल की, उस पर ममता कालिया की यह टिप्पणी मन को छू जाती है-श्रीलाल जी उनकी सेवा सुश्रुषा ऐसे करते जैसे पिता अपनी पुत्री की करता है। उन्होंने बरसों की आदतें भी त्याग दीं। वे कहते हैं, अगर मैं उनके पुकारने पर सोया रह गया तो उन्हें तकलीफ होगी।
मुलाकात में श्रीलाल शुक्ल से अखिलेश की बातचीत शामिल है। अखिलेश ने सपाट साक्षात्कार पद्धति से बचते अत्यन्त रोचक प्रश्नों से श्रीलाल शुक्ल जी को उकसाया है। यह देखकर अच्छा लगता है कि प्रश्नों में प्रखर आलोचनात्मक पुट है। अखिलेश ने लेखक से समकालीन राजनीति, प्रधानमंत्री वाजपेयी की कविता, पसंदीदा रंग, सुरापन, स्त्रियों और लतों के बारे में भी उत्तर प्राप्त किये हैं। जाहिर है कि श्रीलाल जी भी अपने खास चुटीले अंदाज में मौजूद हैं। मसलन उनका कहना है कि पुरूष मित्रों की तरह इस कोटि की नारी मित्रों को लेकर भी मैं सर्वथा विपन्न नहीं पर उनका नाम न लेना ही बेहतर होगा क्यांेकि उसके बाद हो सकता है कि मैं आपके प्रश्न साक्षात्कार को छोड़कर जिरह के दायरे में पहुंच जायें।
मूल्यांकन में रूपर्ट स्नेल, सुधीश पचैरी, पुष्पपाल सिंह, राके श, गिरिराज किशोर, मधुरेश, शिव कुमार मिश्र, देवेन्द्र चैबे, दूधनाथ सिंह और राजेश जोशी की अधूरी पेंटिंग में श्रीलाल जी की औपन्यासिकयात्रा की प्रारम्भिक गति-मति को पूरे साहस से विश्लेषित किया है। गिरिराज किशोर ने विस्रामपुर का संत की समीक्षा करते हुए जो राय कायम की है, उससे सहमत होना कठिन है, कहना चाहूंगा कि यह उपन्यास मात्र सफल और पठनीय नहीं है, यह एक सार्थक उपन्यास है इसलिए मुझे चांद चाहिए से इस उपन्यास की किसी भी रूप में तुलना एकदम असंगत है।
मत में अशोक अग्रवाल, अश्क, नरेश सक्सेना और राजेन्द्र यादव के पत्र संकलित हैं। ये पत्र रचनात्मक व्यक्तित्वों के सघन संपर्क को प्रकट करते हैं, शायद सदाशयता को भी। ये महत्वपूर्ण पत्र हैं। निःसंकोच कहा जा सकता है कि तद्भव एक महत्वपूर्ण पत्रिका है। सामग्री और मुद्रण दोनो सराहनीय हंै। वस्तुतः अखिलेश से इससे कम की उम्मीद पाठक कर भी नहीं सकते। उन्हें बधाई। दिलचस्पी रहेगी कि तद्भव का अगला अंक किस रचनाकार/विषय पर के न्द्रित होगा। पाठकों के मन में उत्सुकता और प्रतीक्षा के बीज बो देना सम्पादकीय क्षमता है। विज्ञापनों को छोड़कर 230 पृष्ठ की पत्रिका का मूल्य भी अखरता नहीं है। तद्भव का स्वागत 1999 की प्रमुख साहित्यिक घटना के रूप में किया जायेगा।
इस प्रारम्भ के सम्बन्ध में सम्पादक अखिलेश ने सम्पादकीय में जो रूपरेखा प्रस्तुत की है, उसे पढ़कर आश्वस्त हुआ जा सकता है, तद्भव का प्रथम अंक (मार्च, 99) भारतीय साहित्य के अद्वितीय साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल पर के न्द्रित है।
जिज्ञासा हो सकती है कि प्रथम अंक के के न्द्र में श्रीलाल शुक्ल ही क्यों! इसके कई कारण हो सकते हैं, एक कारण तो यह कि हाल ही में प्रकाशित उपन्यास विश्रामपुर का संत को हिन्दी उपन्यास की ताजा उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया जा रहा है-तद्भव में श्रीलाल जी के इस नवीनतम उपन्यास के बहाने उनकी समस्त रचनाशीलता का नया आलोचनात्मक पाठ प्रस्तुत हुआ है। दूसरा कारण यह कि सम्पादक अखिलेश एक लिहाज से कथाकार श्रीलाल का वंश विस्तार हैं। अपने वरिष्ठ के प्रति यह उत्सुकता और सक्रियता स्वाभाविक है। तीसरे और शायद सर्वाधिक प्रासंगिक कारण की ओर प्रसिद्ध आलोचक वीरेन्द्र यादव ने अपने एक लेख में संके त किया है, इसी अंक में शामिल लेखक में वीरेन्द्र जी कहते हैं.... वे अके ले ऐसे उपन्यासकार हैं, जिन्होंने आलोचकों के समक्ष एक संकट व असमंजस की स्थिति भी पैदा की, इसलिए वीरेन्द्र जी निष्कर्ष निकालते हैं कि श्रीलाल शुक्ल की कथा दृष्टि की विवेचना निश्चित रूप से एक जटिल व दुविधाजन्य कार्य है और इसीलिए चुनौतीपूर्ण थी, निर्विवाद पठनीयता व साहित्यिक मूल्यवत्ता के बावजूद राग दरबारी को लेकर आलोचकीय दुविधा आज भी दरपेश है। जिससे टकराए बिना राग दरबारी और श्रीलाल शुक्ल के फेनामेना को समझा नहीं जा सकता कहना न होगा कि तद्भव के प्रथमांक की वैचारिक पृष्ठभूमि में वीरेन्द्र जी की ये पंक्तियां अनुध्वनित हैं। तद्भव का यह अंक पांच खण्डों में विभक्त है-मीमांसा, संस्मरण, मुलाकात, मूल्यांकन और मतमीमांसा में परमानंद श्रीवास्तव, वीरेन्द्र यादव, मुरली मनोहर, प्रसाद सिंह, सत्य प्रकाश मिश्र, मैत्रेयी पुष्पा, रेखा अवस्थी, लीलाधर मंडलाई, उर्मिल कुमार थपलियाल और अमिताभ खरे के लेख हैं। यदि माना जाये कि आलोचना का मुख्य काम पाठकीय विवेक को विकसित करना है, तो यह काम परमानन्द श्रीवास्तव और वीरेन्द्र यादव के लेखों ने बखूबी किया है। पाठक खुद को वीरेन्द्र जी के इस मत से सहमत पाता है, प्रेमचंद्र और श्रीलाल शुक्ल का यह अंतर स्पष्ट है कि प्रेमचन्द के रचना संसार में राग दरबारी के वैद्य जी, पं. कालिका प्रसाद, गयादीन और रूप्पन सरीखे परजीवी वर्ग के खल पात्र तो मौजूद हैं लेकिन श्रीलाल शुक्ल के रचना संसार में होरी, धनिया, मनोहर, बलराज, झिनकू, सूरदास सरीखे संघर्षशील, दुखी, उत्पीड़ित पात्र लगभग नदारद हैं। इसीलिए रागदरबारी ग्राम्य जीवन की अधूरी तस्वीर है। वीरेन्द्र जी की टिप्पणी का उत्तर श्रीलाल जी अखिलेश के एक सवाल के संदर्भ में देते हैं-इसे आप चाहे निराशावाद कह लीजिए या यथार्थ कह लीजिए।
संस्मरण में रवीन्द्र कालिया, रवीन्द्र वर्मा, कृष्ण राघव, विद्या निवास मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, गोविन्द मिश्र, शीला संधू, गिरीश रस्तोगी, देवेन्द्र राज अंकुर, ममता कालिया और गिरीश पांडे ने अत्यन्त रोचक और आत्मीय संदर्भों में श्रीलाल जी से अपनी निकटता को फिर से जिया है। श्रीलाल जी ने अपनी पत्नी गिरिजा की गंभीर बीमारी में जिस तरह उनकी देखभाल की, उस पर ममता कालिया की यह टिप्पणी मन को छू जाती है-श्रीलाल जी उनकी सेवा सुश्रुषा ऐसे करते जैसे पिता अपनी पुत्री की करता है। उन्होंने बरसों की आदतें भी त्याग दीं। वे कहते हैं, अगर मैं उनके पुकारने पर सोया रह गया तो उन्हें तकलीफ होगी।
मुलाकात में श्रीलाल शुक्ल से अखिलेश की बातचीत शामिल है। अखिलेश ने सपाट साक्षात्कार पद्धति से बचते अत्यन्त रोचक प्रश्नों से श्रीलाल शुक्ल जी को उकसाया है। यह देखकर अच्छा लगता है कि प्रश्नों में प्रखर आलोचनात्मक पुट है। अखिलेश ने लेखक से समकालीन राजनीति, प्रधानमंत्री वाजपेयी की कविता, पसंदीदा रंग, सुरापन, स्त्रियों और लतों के बारे में भी उत्तर प्राप्त किये हैं। जाहिर है कि श्रीलाल जी भी अपने खास चुटीले अंदाज में मौजूद हैं। मसलन उनका कहना है कि पुरूष मित्रों की तरह इस कोटि की नारी मित्रों को लेकर भी मैं सर्वथा विपन्न नहीं पर उनका नाम न लेना ही बेहतर होगा क्यांेकि उसके बाद हो सकता है कि मैं आपके प्रश्न साक्षात्कार को छोड़कर जिरह के दायरे में पहुंच जायें।
मूल्यांकन में रूपर्ट स्नेल, सुधीश पचैरी, पुष्पपाल सिंह, राके श, गिरिराज किशोर, मधुरेश, शिव कुमार मिश्र, देवेन्द्र चैबे, दूधनाथ सिंह और राजेश जोशी की अधूरी पेंटिंग में श्रीलाल जी की औपन्यासिकयात्रा की प्रारम्भिक गति-मति को पूरे साहस से विश्लेषित किया है। गिरिराज किशोर ने विस्रामपुर का संत की समीक्षा करते हुए जो राय कायम की है, उससे सहमत होना कठिन है, कहना चाहूंगा कि यह उपन्यास मात्र सफल और पठनीय नहीं है, यह एक सार्थक उपन्यास है इसलिए मुझे चांद चाहिए से इस उपन्यास की किसी भी रूप में तुलना एकदम असंगत है।
मत में अशोक अग्रवाल, अश्क, नरेश सक्सेना और राजेन्द्र यादव के पत्र संकलित हैं। ये पत्र रचनात्मक व्यक्तित्वों के सघन संपर्क को प्रकट करते हैं, शायद सदाशयता को भी। ये महत्वपूर्ण पत्र हैं। निःसंकोच कहा जा सकता है कि तद्भव एक महत्वपूर्ण पत्रिका है। सामग्री और मुद्रण दोनो सराहनीय हंै। वस्तुतः अखिलेश से इससे कम की उम्मीद पाठक कर भी नहीं सकते। उन्हें बधाई। दिलचस्पी रहेगी कि तद्भव का अगला अंक किस रचनाकार/विषय पर के न्द्रित होगा। पाठकों के मन में उत्सुकता और प्रतीक्षा के बीज बो देना सम्पादकीय क्षमता है। विज्ञापनों को छोड़कर 230 पृष्ठ की पत्रिका का मूल्य भी अखरता नहीं है। तद्भव का स्वागत 1999 की प्रमुख साहित्यिक घटना के रूप में किया जायेगा।
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