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चाहिए एक और सांस्कृतिक जनजागरण
सचमुच समय को समना असंभव है। मान्यता यह भी है कि समय एक द्वंद्वात्मक अवधारणा है। द्वंद्व प्रकाश और तिमिर के बीच, अज्ञान और विवेक के बीच, द्रोह और मोह के बीच, जिसने इस द्वंद्व की आत्मकथा पढ़ ली। वह तीनो कालों को एक साथ देख लेता है। ऐसी प्रतीति है। मध्यकालीन भक्तों और संतो ने काल के सभी फलक एक साथ देख लिए थे। इसलिए आज जब समस्त जीवन मूल्य पुनर्जन्म पाने को तरस रहे हैं। तब भक्तों, संतों की बानी, उनकी जीवन शैली व उनकी आध्यात्मिक संपदा एक बार फिर प्रासंगिक हो उठी है। एक अर्थ में हमारा समाज उसी मानसिक संघर्ष के दौर से गुजर रहा है। जिससे उनका सबका मध्यकालीन भारत में पड़ा था। इतिहास साक्षी है कि 15 और 16वीं शताब्दी में इस देश में विराट सांस्कृतिक क्रांतियां घटित हुईं। सातवीं शताब्दी के उतरार्ध में विटन का जो दौर प्रारंभ हुआ। उसका एक चक्र तब पूरा हुआ जब 12वीं शताब्दी में कुतुबुद्दीन ने विदेशी शासन की स्थापना की। इसक पश्चात तो सामाजिक-सांस्कृतिक -आर्थिक आपाधापी का क्रम चला। ठा. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार पंरपरागत समाज पुनव्यर्वस्थापन एवं एक सामाजिक क्रांति के द्वार पर आकर खड़ा हो गया। निराशा के गुण में सामान्य जनता एक ओर भूत-प्रेत, पूजा, शाप-ताप तथा अंधविश्वासों की शरण में जा पहुंची। वहीं चिंतनशील मस्तिष्क सुव्यविस्थत परिवर्तन का मार्ग खोजने की ओर अग्रसर हुआ। इसके बाद वह प्रक्रिया संभव हुई जिसे सांस्कृतिक जागरण कहते हैं। इस जनजागरण के प्रवक्ता बने रामानंद, रैदास, कबीर, धन्ना, सेना, पीपा, भवानंद, सुखानंद, तुलसीदास, सूरदास, गुनानक, जायसी और न जानने कितने भक्त व संत। इन सबने पूरे देश को एक नयी मनुष्यता का पाठ पाया। महाकवि सूर ने कृष्णभक्ति के समस्त सामाजिक विसंगतियों पर दृष्टिपात किया है। प्रख्यात आलोचक क¢सरी कुमार ने इस संदर्भ में कितना सटीक कहा है कि सुर ने चरवाही यानि कृषि में लगी युवा पीढ़ी के पूरे परिवेश को, उसकी मानसिकता को, स्वाधीनता चेतना को, सुख-दुख को, औरत-मर्द को, संस्कार और गतिशीलता को, रूढ़ी ग्रस्तता और रूढ़ी भंजकता को, सपनों और जागरण को, आकांक्षा व समजबोध को, व्यक्ति और व्यवस्था को, जीवन और जीवनातीत को, प्रेम और वेदना को गरज कि रिश्ते के तमाम आयामों को बेबाकी से चित्रित किया है। यह एक पूरा लोकतंत्र है।
तत्कालीन हताश जनमानस में आत्म विश्वास का महामंत्र फूंकने का कार्य भक्ति साहित्य ने किया। भक्ति साहित्य की दार्शनिक और साहित्यिक उपलब्धियों से भी पहले उनके कुछ स्पष्ट सामाजिक सांस्कृतिक लक्ष्य थे। जात-पात को अस्वीकृति तथा नारी की पुनः प्रतिष्ठा भक्ति आंदोलन के मूलाधार हैं। चाहे सगुणवादी हों, चाहे निर्गुणपंथी, चाहे राम के भक्त हों, चाहे कृष्ण के आराधक। सबने एक स्वर से समता-ममता के कार्यक्रम को घोषित किया और सूर साहित्य में छक कर मिलबांट कर खाने का प्रसंग इसी से प्रेरित है।
बिहारी लाल आवहु, आई छाक। अर्जुन, भोज अरु सुबल सुदामा मधुमंगल इक ताक।
मिलि बैठे सब जेवन लागे, बहुत बने कहि पाक।
अदभुत यह था कि इस कार्य में वे सम्मिलित थे जिन्हें सदियों से पददलित किया गया। रांगेय राघव ने संगम और संघर्ष पुस्तक में लिखा है कि जब संसार में कालमाक्र्स नहीं था। जब संसार में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का चिंतन नहीं था। तब भी मनुष्य अन्याय के विरुद्ध लड़ता था और यह संघर्ष मध्यकाल के संतों में हमें दिखायी देता है। वे सब निम्न जातियों की मुक्ति के लिए उठे हुए स्वर थे। यह स्वर मानवता का था। भारत में भी वैष्णव चिंतन इसका मूल था। जिसने सबमें समन्वय फैलाने का यत्न किया। क्या आज ऐसे यत्नों की आवश्यकता नहीं। आज का माहौल कवि लीलाधर जगूड़ी के शब्दों में - हत्यारा चाहता है। तमाम सुंदर और मजबूत विचार
हत्याओं के बारे में। वह चाहता है जितने भी सुंदर और मजबूत विचार हों, सब उसी के हों,
वह फेंके और विचार चल पड़े। वह मारे और विचार जीवित हो
वह गाड़े और विचार फूट पड़े। हत्यारा पूरा माहौल बदलना चाहता है।
क्या हत्यारों के इरादों का प्रतिरोध करने के लिए एक राष्ट्रव्यापी जनआंदोलन उपेक्षित नहीं है। आज पूंजीवाद अपने विद्रूप मंतव्यों के साथ पूरे विश्व की जीवन पद्धति नियंत्रित कर रहा है। एक नया भोगवाद फिर से ठहाके लगा रहा है। विकासशील और छिपे राष्ट्र संपन्न राष्ट्रों के लिए बाजार और कबार है। लगता है कि कबीर ने ये शब्द इसी बाजारवाद के लिए कहे हैं,- रमैया की दुलहिन लूटै बजार। सुरपुर लूटा, नागपुर लूटा तीन लोक मचा हाहाकार।
ब्रम्हा लूटे महादेव लूटे नारद मुनि के परी पिछार। स्त्रिंगी की भिंगी करि डारी, पारासर के पेट बिदार।
और तो और इस बाजारवाद के आगे बुद्धिजीवी भी समर्पण करते लग रहे हैं। यथार्थ के नाम पर वे उत्तर आधुनिक परिदृश्यों की सूची बना रहे हैं। सत्य के नाम पर वे शिविरबद्ध चिंतन के भाग्य जारी कर रहे हैं। वे महाभारत के इस उद्घोष को भूल रहे है।
सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादीप हिंत वदेत। यद भूताहित मत्मंत मेतत्सत्यं मतं मम।
अर्थात सत्य वह है जिससे लोक का आत्यंतिक कल्याण होता है। किंतु लोककल्याण की चिंता तो उन्हंे भी नहीं जो यही ओढ़ते-बिछाते हैं। यूज एं थ्रो के इस युग में रागात्मक रिश्तों को उगने, पनपने, फूलने-फलने का अवसर ही नहीं मिल रहा है। व्यक्ति कुंठित होता जा रहा है और समाज उद्विग्न। लोकतंत्र की सर्वोत्तम पंरपराओं से खेलने के प्रयास चल रहे हैं। भ्रष्टाचार ओषित रूप से जीवन पद्धति का सहचर बन गया है। शिक्षा का अंतिम लक्ष्य अर्थोपार्जन है। सूचना सच को अपदस्थ कर रही है। भूख और अभावों से पीड़ित राष्ट्र परमाणु विस्फोट कर रहे हैं। भविष्य गर्भ में मारा जा रहा है। वृद्धावस्था सामाजिकता से निष्कासन की स्थिति में है सब कुछ येन-क¢न-प्रकारेण चल रहा है। हां, तलाशने पर हल्की सी रोशनी दिखायी देती है। अतीत साक्षी है कि जब-जब राष्ट्र पर कठिन समय के कशाघात हुए हैं। तब व्यापक सामाजिक हित के पक्षधर रचनाकारों ने आशा और विश्वास का प्रकाश बिखेरा। इस दृष्टि से भक्ति साहित्य एक आधुनिक विमर्श की मांग करता है। कारण यह है कि भक्त कवि हमारी स्वाधीन चेतना के प्रहरी थे। वाणी से, आचरण से। इसी के कारण पराभवकाल में भी हमारे साहित्य और संस्कृति उदगग्रीव रहे। हमारे समय के रचनाकार भी सांस्कृतिक संकट को प्रायः उसी तरह अनुभव कर रहे हैं जैसे भक्त कवियों ने किया था। अंतर क¢वल इतना है कि भक्तों और संतों के वचन के साथ उनका जीवन भी खा था। किंतु अनेक श्रेष्ठ आधुनिक रचनाकारांे के रचनाकर्म और जीवन में चिंतनीय खाई है। अंतराल है। इस अंतराल को दूर करके एक वृहद सांस्कृतिक जनजागरण की अनिवार्य आवश्यकता है। क्यांेकि क¢वल शब्दों से संस्कृति नहीं बचाई जा सकती। जरूरत है शब्द और कर्म के मिलन से उत्पन्न विराट जनजागरण की। कर्मरहित शब्द की निस्सारता पर तो तुलसीदास ने कहा ही है - वाक्य ज्ञान अत्यंत निपुन, भव पार न पावे कोई। निसिगृह मध्य दीप की बातन, तम निवृत्त नहीं होई।
तत्कालीन हताश जनमानस में आत्म विश्वास का महामंत्र फूंकने का कार्य भक्ति साहित्य ने किया। भक्ति साहित्य की दार्शनिक और साहित्यिक उपलब्धियों से भी पहले उनके कुछ स्पष्ट सामाजिक सांस्कृतिक लक्ष्य थे। जात-पात को अस्वीकृति तथा नारी की पुनः प्रतिष्ठा भक्ति आंदोलन के मूलाधार हैं। चाहे सगुणवादी हों, चाहे निर्गुणपंथी, चाहे राम के भक्त हों, चाहे कृष्ण के आराधक। सबने एक स्वर से समता-ममता के कार्यक्रम को घोषित किया और सूर साहित्य में छक कर मिलबांट कर खाने का प्रसंग इसी से प्रेरित है।
बिहारी लाल आवहु, आई छाक। अर्जुन, भोज अरु सुबल सुदामा मधुमंगल इक ताक।
मिलि बैठे सब जेवन लागे, बहुत बने कहि पाक।
अदभुत यह था कि इस कार्य में वे सम्मिलित थे जिन्हें सदियों से पददलित किया गया। रांगेय राघव ने संगम और संघर्ष पुस्तक में लिखा है कि जब संसार में कालमाक्र्स नहीं था। जब संसार में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का चिंतन नहीं था। तब भी मनुष्य अन्याय के विरुद्ध लड़ता था और यह संघर्ष मध्यकाल के संतों में हमें दिखायी देता है। वे सब निम्न जातियों की मुक्ति के लिए उठे हुए स्वर थे। यह स्वर मानवता का था। भारत में भी वैष्णव चिंतन इसका मूल था। जिसने सबमें समन्वय फैलाने का यत्न किया। क्या आज ऐसे यत्नों की आवश्यकता नहीं। आज का माहौल कवि लीलाधर जगूड़ी के शब्दों में - हत्यारा चाहता है। तमाम सुंदर और मजबूत विचार
हत्याओं के बारे में। वह चाहता है जितने भी सुंदर और मजबूत विचार हों, सब उसी के हों,
वह फेंके और विचार चल पड़े। वह मारे और विचार जीवित हो
वह गाड़े और विचार फूट पड़े। हत्यारा पूरा माहौल बदलना चाहता है।
क्या हत्यारों के इरादों का प्रतिरोध करने के लिए एक राष्ट्रव्यापी जनआंदोलन उपेक्षित नहीं है। आज पूंजीवाद अपने विद्रूप मंतव्यों के साथ पूरे विश्व की जीवन पद्धति नियंत्रित कर रहा है। एक नया भोगवाद फिर से ठहाके लगा रहा है। विकासशील और छिपे राष्ट्र संपन्न राष्ट्रों के लिए बाजार और कबार है। लगता है कि कबीर ने ये शब्द इसी बाजारवाद के लिए कहे हैं,- रमैया की दुलहिन लूटै बजार। सुरपुर लूटा, नागपुर लूटा तीन लोक मचा हाहाकार।
ब्रम्हा लूटे महादेव लूटे नारद मुनि के परी पिछार। स्त्रिंगी की भिंगी करि डारी, पारासर के पेट बिदार।
और तो और इस बाजारवाद के आगे बुद्धिजीवी भी समर्पण करते लग रहे हैं। यथार्थ के नाम पर वे उत्तर आधुनिक परिदृश्यों की सूची बना रहे हैं। सत्य के नाम पर वे शिविरबद्ध चिंतन के भाग्य जारी कर रहे हैं। वे महाभारत के इस उद्घोष को भूल रहे है।
सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादीप हिंत वदेत। यद भूताहित मत्मंत मेतत्सत्यं मतं मम।
अर्थात सत्य वह है जिससे लोक का आत्यंतिक कल्याण होता है। किंतु लोककल्याण की चिंता तो उन्हंे भी नहीं जो यही ओढ़ते-बिछाते हैं। यूज एं थ्रो के इस युग में रागात्मक रिश्तों को उगने, पनपने, फूलने-फलने का अवसर ही नहीं मिल रहा है। व्यक्ति कुंठित होता जा रहा है और समाज उद्विग्न। लोकतंत्र की सर्वोत्तम पंरपराओं से खेलने के प्रयास चल रहे हैं। भ्रष्टाचार ओषित रूप से जीवन पद्धति का सहचर बन गया है। शिक्षा का अंतिम लक्ष्य अर्थोपार्जन है। सूचना सच को अपदस्थ कर रही है। भूख और अभावों से पीड़ित राष्ट्र परमाणु विस्फोट कर रहे हैं। भविष्य गर्भ में मारा जा रहा है। वृद्धावस्था सामाजिकता से निष्कासन की स्थिति में है सब कुछ येन-क¢न-प्रकारेण चल रहा है। हां, तलाशने पर हल्की सी रोशनी दिखायी देती है। अतीत साक्षी है कि जब-जब राष्ट्र पर कठिन समय के कशाघात हुए हैं। तब व्यापक सामाजिक हित के पक्षधर रचनाकारों ने आशा और विश्वास का प्रकाश बिखेरा। इस दृष्टि से भक्ति साहित्य एक आधुनिक विमर्श की मांग करता है। कारण यह है कि भक्त कवि हमारी स्वाधीन चेतना के प्रहरी थे। वाणी से, आचरण से। इसी के कारण पराभवकाल में भी हमारे साहित्य और संस्कृति उदगग्रीव रहे। हमारे समय के रचनाकार भी सांस्कृतिक संकट को प्रायः उसी तरह अनुभव कर रहे हैं जैसे भक्त कवियों ने किया था। अंतर क¢वल इतना है कि भक्तों और संतों के वचन के साथ उनका जीवन भी खा था। किंतु अनेक श्रेष्ठ आधुनिक रचनाकारांे के रचनाकर्म और जीवन में चिंतनीय खाई है। अंतराल है। इस अंतराल को दूर करके एक वृहद सांस्कृतिक जनजागरण की अनिवार्य आवश्यकता है। क्यांेकि क¢वल शब्दों से संस्कृति नहीं बचाई जा सकती। जरूरत है शब्द और कर्म के मिलन से उत्पन्न विराट जनजागरण की। कर्मरहित शब्द की निस्सारता पर तो तुलसीदास ने कहा ही है - वाक्य ज्ञान अत्यंत निपुन, भव पार न पावे कोई। निसिगृह मध्य दीप की बातन, तम निवृत्त नहीं होई।
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