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स्त्री-विमर्श के निहितार्थ

Dr. Yogesh mishr
Published on: 14 March 1999 3:20 PM IST
पिछले कुछ वर्षो में समाज व साहित्य में जो प्रश्न रेखांकित होकर उभरे हैं। पहली पंक्ति में खड़े हुए हैं। उनमे दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, उत्तर आधुनिकता, विचारों का भू-मंडलीकरण आदि प्रमुख है। स्त्री जीवन और साहित्य के  के न्द्र में आरम्भ हो रही है। एक कहावत भी है कि स्त्री, स्वतंत्रता व मृत्यु साहित्य के  मूलतः तीन ही सरोकार हैं। इनमें स्त्री को लेकर समय-समय पर चिन्तन बदलता रहा है। नयी-नयी चीजें जुड़ती रहती हैं। थोड़ा रुक कर देखा जाये तो स्त्री-विमर्श सबसे अधिक परिवर्तनीय रहा है। शताब्दी का अंत होते-होते ऐसा लग रहा है कि स्त्री-विमर्श एक नयी करवट ले रहा है। पिले कुछ वर्षो में जो उपन्यास, कहानियां, वैचारिक साहित्य प्रकाशित हुए तथा देश भर में जो गोष्टियां सम्पन्न हुई, उनसे कुछ मुद्दे बहुत स्प तौर पर उभर कर सामने आये हैं। स्त्री के  संदर्भ में पूरी की पूरी शताब्दी मनोरंजन होती जा रही है। समाज की आधारभूत इकाई परिवार है। परिवार का मूल है - स्त्री। स्त्री-पुरुष युग्म, स्त्री-पुरुष के  सम्बन्ध में हमेशा ही साहित्य व समाज के  के न्द्रीय रूप रहे हैं। सामन्ती समाज में स्त्री महज भोग्या रही। बुर्जुआ समाज की व्यक्ति चेतना ने उसे रहस्यमयी पहेली, आद्याशक्ति और न जाने क्या-क्या नाम दिये। शिक्षा, जागरूकता व मुक्ति चेतना के  चलते, घरों की दीवारों में कैद स्त्री बाहर निकली और स्वामित्व के  अभ्यस्त सामंती मानसिकता से ग्रस्त पुरुष के  द्वन्द ने कुछ नयी जटिलताएं पैदा कर दी।
स्त्री के  लिए छायावादी रहस्य, आदिशक्ति की आध्यामिकता अब गुजरे दिनों की बात हो गयी है। इक्कीसवीं शताब्दी की दहलीज पर खा स्त्री-विमर्श स्त्री को देह से अधिक कुछ भी सोचने से बाहर नहीं ला पाया। यही कारण है कि स्त्री देह के  स्वामित्व पर ही संस्कृति का सारा वितान खड़ा होता जा रहा है। आत्मालापों के  रूप में रचे गये कृष्ण बलदेव वैद के  उपन्यास ‘नर नारी’ का नायक स्वयं को, स्त्री वादियों द्वारा ‘मेल शावेनिस्टिक पिग’ का संक्षिप्त, सुअर कहकर अपना मजाक उड़वाता है। मनोहर श्याम जोश के  ‘हमजद’ के  नायक के  लिए न रिश्तों की शुचिता है, न विश्वासघात का पापबोध। वह अपने पुरुष प्रतिशोध में स्त्री को वेश्या बनाने में जुटा है। सुरेन्द्र वर्मा का ‘दो मुर्दो के  लिए गुलदस्ता’ सम्पन्न फुरसती प्रौढ़ महिलाओं की शारीरिक भूख के  लिए फाइव स्टार होटलों या घरों में सुलभ पुरुष वेश्या की विजय गाथा जिगोलो पर के न्द्रित है। जो देह और धन दोनों स्तरों पर स्त्री का ‘शोषण’ करता है। यह दृष्टि इस बात को साफ करती है कि स्त्री को कैसे देखा-दिखाया जा रहा है।
प्रेमचन्द का नारी मुक्ति आन्दोलन जालपा, मुनिया, सकीना, दुनिया के  रूप में कलात्मक अभिव्यक्ति पाता रहा है। परन्तु आज साहित्य में परोसे जा रहे अधिकांश नारी पात्र भोग्या है। वे अपने शरीर को भोगकर ही विद्रोह का बिगुल बजाती हैं। नारी मुक्ति आन्दोलनों का यह परिणाम रहा है वे स्त्री मुक्ति के  नाम पर नारी को महज समझाती रही हैं, ‘मैं सुन्दर हूंँ और सुन्दरता के  प्रति प्रदर्शन का मुझे अधिकार है।’ देह के  धरातल पर अपना अधिकार मांगता यह आन्दोलन उन हाथों में है, जिसकी पहली पंक्ति की अग्रणी महिलाओं ने दूसरी पत्नी बनने का सुख जिया ? स्त्रीवादी होने की पूरी की पूरी चिन्ता सौन्दर्य एवं सेक्स के  आस-पास घूमती रहती है। पुरुषों ने स्त्री को बाजार दिया, इससे बचने की फिराक में स्त्रियां बाजार से बाहर निकलने की जगह अपने लिए खुद-ब-खुद बनाने और तलाशने लगीं। तभी तो वे सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के  माध्यम से बाजार व्यवस्था का हिस्सा बनती जा रही है और/या बिस्तर के  माध्यम से शक्ति व सत्ता की हिस्सेदारी के  भ्रम मंे स्त्री फंसती जा रही है। अपने देह का अपनी शर्तों पर उपभोग को स्त्री ‘स्वतंत्रता’ के  बोध के  रूप में स्वीकार करती है। पूंजीवादी समाज स्त्री की मुक्ति चेतना को, अपने आप को बाजार के  लिए सुलभ बनाने की स्वैच्कि ूट में इस्तेमाल करता है। ‘वूमेनाइजेशन’ की पुरुष तंत्र की शिकार स्त्रियों ने यह गुहार की कि वे स्त्री हंै। उन्होंने पुरुषों से बहुत कु सहा है, परिणामतः वे मुक्तिकामी हैं। इसलिए वे औरत की निहायत निजी, गोपनीय परतें तह-दर-तह खोलती चली गयीं। आजकल बहुत शिक्षित हो जाने का मतलब ‘चालू’ हो जाना है। स्त्री स्वतंत्रता के  नाम पर कु-कु इसी तरह के  द्वीप व ग बन रहे हैं। जिसमें इस बात को भुला दिया जाता है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्ध आपसी विश्वास और सौहार्द पर कायम रहता है, सेक्स पर नहीं। जिन्दगी के  दौर में पति-पत्नी महज स्त्री-पुरुष नहीं रह जाते वरन् अर्धनारीश्वर हो जाते हैं। आज सेक्स के  मोर्चे की आजादी को असली आजादी का जामा पहनाया जा रहा है। यह आजादी भी प्रतिक्रांति से आनी चाहिए। यही कोशिश हो रही है तभी तो ‘फायर’ में ‘स्त्री विमर्श’ जिस मुकाम पर खा है, उस पर आम विरोध दर्ज नहीं हो पाता है। बी.आर. चोपा के  धारावाहिक ‘औरत’ का ‘टाइटिल वाक्य’ है, ‘समाज के  मुंह पर औरत का एक जोरदार तमाचा।’ इससे जो प्रतिध्वनि निकलती है उसमें पता नहीं क्यों स्त्री यह भूल जाती है कि इसी समाज में उसका पति, पिता एवं पुत्र भी रहता था। आज के  स्त्री-विमर्श के  निहितार्थ को तस्लीमा नसरीन के  इस बोध से काफी हद तक समा जा सकता है, ‘आज तक चित्रकला में नारी देह का जितना इस्तेमाल हुआ है, उसकी तुलना में क्या पुरुष देह का एक प्रतिशत भी चित्रण हुआ है। स्त्री के  स्तनों, कमर, नितंब, जांघों और पैरों के  प्रति चित्रकारों में जितना आकर्षण होता है उतना पुरुषों के  यौनांगों में नही होता। महिला चित्रकार भी सत्री की पुरुष की आखों से देखती है। मैं ऐसी महिला चित्रकार देखना चाहती। कि जो पुरुषों को सुौल जांघों, उनके  नितम्भों, बांहों ओर यौनांगों की तस्वीर बनाये। आखिर पुरुष अंगों के  प्रति स्त्री में भी एक स्वाभाविक आकर्षण तो है ही। पुरुष आकृतियां भी कम आकर्षण नही होती - कम से कम स्त्री आंखों के  लिए। हम स्त्रियां पुरुष का सुन्दर, सुडौल शरीर देखना चाहती हैं - चित्रकला में, मूर्तिकला में। हम लोग भी पुरुष शरीर देखकर आनंद पाना चाहती है। हम भी अपनी प्यास जगाना चाहती हैं। उत्साहित होना चाहती हैं। मैंने आज तक किसी ऐसे पुरुष मालॅ का नाम नहीं सुना, न ही जाना कि पुरुष माॅल महिला आर्टिस्ट के  सामने नग्न होकर बैठेगा, वह आर्टिस्ट उसकी चित्रकारी करेगी, मूर्ति बनायेगी और अन्त में उस पुरुष माॅल को भोगेगी। ऐसी घटनाएं दुनियां में क्यांे नहीं घट रही हैं।’ तसलीमा के  ये विचार भी नारी-विमर्श के  निहितार्थों का एक बड़ा हिस्सा है और अगर यही आजादी चाहिए तो महिलाओं के  लिए खतरे की घंटी है। वैसे हमारे नारी मुक्ति आन्दोलन का एक भटकाव इस दिशा में भी है। स्त्री को पुरुष उत्पाद बनायें। स्त्री के  लिए पुरुष बाजार तैयार करें या स्त्री स्वयं उत्पाद बन जाये, अपने लिए बाजार तलाशें-दोनों ही स्थितियों में नारी मुक्ति आन्दोलन अपनी सार्थकता खोता जायेगा।
Dr. Yogesh mishr

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