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दलित विमर्श के निहितार्थ

Dr. Yogesh mishr
Published on: 21 March 1999 3:46 PM IST
मनुवादी वर्ण व्यवस्था को जन्मना बताकर। जताकर जातीय विष वृक्ष बोने की प्रक्रिया में पृथक और पीड़ित सामाजिक, राजनीतिक वर्ग के  रूप में कई जातीय संस्कारों को जना गया। जातिवादी विसंगतियों की चिंगारियां संपूर्ण समाज में... समाज के  हर आचरण में... समाज के  पृथक स्पंदन में फैल गए। कुछ निजी स्वार्थी तत्व इससे अपने हितों की तुष्टि भले ही कर ले रहे हो लेकिन ये चिंगारियंा किसी परिवर्तन कामी अग्नि महोत्सव की प्रतीक्षा कर रही है। इसमें खास।गुण से रेखांकित करने वाली चिंगारी है-दलित। चंाल, चमार-हरिजन की प्रक्रिया से गुजरता हुआ दलित शब्द आकार प्राप्त कर पाया है। मोटे तौर पर देखा जाए तो हरिजन प्रेम का शब्द है जबकि दलित गुस्से का प्रतीक है। दलित न क¢वल पूरी स्थितियों का निचोड़ है वरन संघर्ष की प्रेरणा का पर्याय भी। चमार, हरिजन से दलित तक की पूरी यात्रा इस वर्ग के  टेजी को समने के  लिए विवश करती है। वस्तुतः जाति सामंती समाज के  उत्पादन संबंधों का भारतीय स्वरूप है। कई शताब्दियों से समाज के  वंचित-प्रवंचित वर्ग के  बारे में समाज शास्त्रिय इतिहासकार, साहित्यकार अपने निष्कर्ष निकालते रहे हैं। किंतु अब इन निष्कर्षों ने निर्णायक रुख अख्तियार कर लिया है और यह बात लगभग तय सी दिखने लगी है कि जाति व्यवस्था का मुकाबला किए बिना कोई मुक्तिकामी सांस्कृतिक विमर्श संभव नहीं है। आज दलित विमर्श से दो चार हुए बिना न समाज में और न ही साहित्य में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। दलित विमर्श की चुनौतियों को कुछ यूं समा जा सकता है-
हमारे लिए थालियां अलग हैं। हमारे घर उन दिशाओं में बनाए जाते हैं।

जिधर की हवा नहीं बहती, यदा-कदा बहती है,



हमारा होना उनके  जीवन की गंदगी साफ करने के  लिए है,



हमारा न होना उनके  एक वोट के  कम हो जाने जैसा है।



उनके  लिए हम महज एक आंका हैं। जिसकी बैसाखी पर चलकर पाया जा सकता है



बहुत कुछ बड़ी-बड़ी योजनाएं। चलाए जा सकते हैं स्वैच्कि संगठन



उन्हें परहेज है हमसे पर ‘वह’ हमारी स्त्रियों को देखते हैं...



और चाहते हैं हमारी स्त्रियां उत्पाद हो उनको मिले।



कर्मणा जाति व्यवस्था को बहुत कुशलता से जन्मना जातीय संस्कारों में ढाल कर प्रचारित कर ले जाने वाले अधिकांश लोग दलितों के  वर्तमान स्थिति के  लिए दोषी है। लेकिन यह कहना कि सवर्णों के  प्रति मुखर रोष इस व्यवस्था का कोई ठोस हल दे सकता है। न्याय संगत नहीं है। क्योंकि दलित राजनीति के  हितचिंतकों में अगर सवर्णों के  प्रति मुखर रोष है तो साथ ही साथ दलितों में भी जो ज्यादा दलित है उनके  लिए किसी कार्यक्रम की गुंजाइश नहीं है। दलितों के  नाम पर राजनीति करने वाले लोगों की राजनीतिक शक्ति भले ही बड़ी हो किंतु उनकी हालत नहीं सुधरी। जिनके  नाम पर राजनीति की गई। दलित विमर्श और दलित चेतना के  बिंदु को मूलतः आर्थिक संघर्ष के  राजनीतिक विस्तार का जामा पहनाया गया। जबकि सच यह है कि भौतिक, सांस्कृतिक, परिस्थितियों को इस तरह तब्दील किया जाना चाहिए कि गैर दलित समाज में जाति को अराजनीतिक मानने का संस्कार सिर्फ राजनीति तक ही सीमित न रह जाए।
इन दिनों समाज और साहित्य में दलित विमर्श के  प्रश्न ठोस रूप से रेखांकित होकर उभर रहे हैं। हाल के  वर्षों में मराठी में लिखी हुई कुछ पुस्तकों ने इस बहस को व्यापक बनाया है। कहानी, कविता और विचारात्मक निबंधों पर बात न भी करें तो क¢वल आत्मकथात्मक पुस्तकों ने मराठी साहित्य में क्रांति कर दी है - बलुत (अूत), उपर (ओपरा), आठवणीचे पंक्षी (यादों के  पंक्षी), उच्श्रात्या (उठायीगिर), तराल (अंतराल) आदि ऐसी ही कुछ आत्मकथाएं हैं जिनमें व्यक्त अनुभवों ने यह स्पष्ट किया है कि सहानुभूति एक सामंतवादी मूल्य है। दलितों की सहानुभूति नहीं बराबर का जीवन चाहिए। उच्च वर्ग के  लोगों के  द्वारा सहानुभूति व्यक्त करने पर खासा आक्रोश है। एक मराठी कवि के  शब्दों में-

‘बेटा चैराहे पर लगाए जूते। बाप बहाए आंसू



चाचा कहानी में उेले कणा। मामा कविता में निषाद को कंठ लगाए,



नाना ‘वैष्णव जन’ का भजन गाए,। ऐ मुर्दों ! बटोरो अपनी सहानुभूति



जो बिखरी है नालियों में,। गू की तरह।’



वस्तुतः दलितों के  अधिकार के  बारे में विमर्श ने एक ऐसा आकार ग्रहण कर लिया है। जिसको हल करने की दिशा में पहल किए बिना कोई सकारात्मक सांस्कृतिक जीवन दर्शन विकसित नहीं किया जा सकता है। दलित विमर्श पर सार्थक निष्कर्ष न निकल पाए इसके  लिए जी-जान से जुटे कथित समाजबोधी वर्ग की यह निरंतर साजिश का ही परिणाम है कि एक ओर दलित साहित्य पर लिखने के  लिए दलित होने की अनिवार्यता जताई जा रही है। तो दूसरी ओर आत्मानुभूति की ओट लेकर वायुशीत तापित कमरों में बैठकर गांव की गर्द का दर्द न जी पाने वाले लोग भी दलित विमर्श को ठोस आकार देेने के  बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं। कुछ लोग तो अब तक जो कुछ भी दलित संवेदनाओं के  बारे में लिखा गया है उसे खारिज करने में शिद्द्त से जुटे हुए हैं। बहरहाल, जाति के  सवाल को राजनीतिक-विमर्श और व्यवहार से बाहर धक¢लने की तमाम कोशिशों के  परिणामस्वरूप यह कहा जाने लगा है कि जाति के  सवाल से टकराए बिना भारत में शोषित वर्ग की राजनीति करना असंभव है। यह भ्रम भी फैलाया जा रहा है कि  वस्तुतः सीधे और सपाट तौर पर जातिवादी वे हैं जो किसी जाति या समूहों के  समूह को संगठित कर राज्य सत्ता पर अधिकार करने की कोशिश करते हैं। दलित विमर्श का सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिंदु ऐसे समाज की रचना का प्रस्ताव है। जिसमें अवधारणाएं कम हों और आचरण ज्यादा हों। सामाजिक परिवर्तन की तमाम लहरें वाणी विलास की दीवार से टकरा कर वापस लौट जाती हैं। दलित-विमर्श को वाग्जाल में उलाने और हथियार बनाने से बेहतर है कि सवर्ण उपनिवेशवाद को समा जाए। इस सवर्ण उपनिवेशवाद को समझने से ही दलित विमर्श की सीमाएं समाप्त होंगी और संभावनाएं विकसित होंगी शायद ऐसे विचारों को ही सत्संग कहा गया है जिसके  लिए निर्गुण संतों ने बहुत कुछ गया है दलित विमर्श को वाग्जाल में उलाने वालों को संत कवि रैदास ने सचेत किया है -

‘बोलै, ज्ञान मान पर बोलै। बोलै वेद बाई, उर में धरि-धरि जब ही बोलै। तब ही मूल गंवाई।



ध्यान रहे दलित विमर्श का अंतिम लक्ष्य सुंदर पुस्तक नहीं मानवीय समाज होना चाहिए।

Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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