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परपीड़क के सुख-दुःख

Dr. Yogesh mishr
Published on: 4 April 1999 3:23 PM IST
सम्भवतः मनुष्य अक¢ला ऐसा जीवधारी है जिसमें अंतर्विरोधों का विराट समुच्चय है। प्रकृति की उच्चता और नीचता के  सारे उदाहरण मानव जाति एक साथ रोती है। ऐसे ही नहीं कहा गया कि यथापिडंे तथा ब्रम्हांडंे। कितनी विचित्र बात है कि दूसरों के  दुख से सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय का अनुभव करते हैं। दूसरों के  पतन में उत्थान का आनंद लूटने वाले न जाने कितने मनुष्य इस देव दुर्लभ योनि की शोभा बढ़ा रहे हैं। इन तीनों के  लिए अनेक विशेषण प्रचलित हैं। कुटिल, खल, ईष्र्यालु, परसंतापी और स्वार्थी आदि। देखा जाए तो सर्वाधिक उपयुक्त विशेषण जो अन्य तमाम विशेषणों को पचा कर पुष्ट होता रहता है। कुटिल व्यक्तियों के  महत्व से कौन अपरिचित है।  गोस्वामी तुलसीदास तो इनके  प्रभाव। स्वभाव से इतना आक्रांत थे कि रामचरितमानस की भूमिका या मंगलाचरण में उन्होंने कुटिलों पर अनेक स्मरण किया है। स्मरण ही नहीं खलजनों की वंदना की है - विश्वकवि तुलसी ने। कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं -
बहुरि बंदि खल गन सतिभाए। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएं।
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषि दलि गरहीं।।
कुटिल दूसरों का कार्य बिगाने के  लिए सहस्रबाहु जैसे वीर है। देखा जाए तो ये सबसे बड़े बलिदानी है। जैसे ओले खुद को गला कर फसल नष्ट करते हैं। जैसे मक्खी दूध में गिरकर प्राण त्यागती है। पर दूध को अशुद्ध करती है। लेाकजीवन ने ऐसे परसंतापियांे को खूब पहचाना है। न जाने कितनी कहावतों इन महामानवों को समर्पित है। एक कहावत सर्वोपरि है। अपनी नाक कटी तो क्या हुआ दूसरे का सगुन तो बिगाड़ा। अपनी नाक कटाकर दूसरों का अहित साधने वाले आज साहित्य, संस्कृति और राजनीति में बहुचर्चित है। राजनीति में तो अपनी नाक  कटाने की कूटनीति का जबरदस्त उदाहरण माना जाता है। उदहारणार्थ बिहार के  मुद्दे पर कांग्रेस ने अपनी नाक कटा कर भाजपा की नाक नीची करने में कामयाबी हासिल की।
उपभोक्तावाद और विज्ञापनी संस्कृति ने मनुष्य ने इस शाश्वत दुर्गुण को बखूबी पहचाना है। अनेक उत्पादों का प्रचार करते हुए जो वाक्य गूंजते हैं। उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफ¢द कैसे, नेवर्स एन वे ओनर्स प्राइड। लगता है आज के  जीवन का सूत्रवाक्य यही है। कहीं यह आधुनिकता के  अनिवार्य अभिशापों में एक तो नहीं कि हम तभी सुखी होंगे। जब दूसरे दुखी होंगे। परपीड़कों के  अपने-अपने दुख-सुख हैं। वे अपना सुख दूसरों में देखते है। पाते हैं। दुख के  बारे में वे तय नहीं कर पाए हैं कि उन्हें कब, कहां और कैसे मिलेगा। परपीड़कों की जमात उपभोक्तावाद की तरह विस्तार पा रही है। उनके  जीवन का दर्शन उत्तर आधुनिकता की तरह क्षणवादी है। उनकी जीवन यात्रा अस्तित्ववाद की तलाश है। वे अपना अस्तित्व भी दूसरों में देखते और पाते हैं।
हमारी लोककथाओं में ऐसे मनोरंजक पात्र खूब आए हैं। एक प्रसिद्ध लोककथा का पात्र अपने पड़ोसी को मजा चखाने के  लिए विचित्र वरदान मांगता है। वह भगवान से कहता है कि मेरे साथ जितना घटित हो पड़ोसी के  साथ दोगुना घटित हो। वरदान मिलने पर वह अपनी एक टांग और एक आंख के  नुकसान पर पड़ोसी की दोनों टांगे टूटने तथा दोनों आंखे फूटने का सुख लूटता है। कार्यसिद्धि के  लिए स्वयं को भी दांव पर लगा देने वाले ऐसे व्यक्तियों को क्या कहा जाए।
चिंता की बात यही है कि यह खलमडंली आज प्रभावी है। पूरा समाज इनकी गतिविधियों से त्रस्त है। चिंता तुलसी को भी थी -
खल मडंली बसहु दिन राती। सखा धरम निबहहि क¢हिं भांती।।
ऐसे लोगों की एक वीभत्स रूप मानव बम के  रूप में प्रकट हुआ। जहां कोई व्यक्ति दूसरे को मारने के  लिए अपने शरीर के  परखचे उड़ा देता है। यह जीवन जीने को कौन सा ढंग है। दूसरों से स्पर्धा करने की यह बात कौन सी प्रणाली है। आत्मात और उसके  ऐसे प्रयोजन। इसे क्या माना जाए। ऐसे लोग क्या मनोरुग्ण हैं। क्या यह मनुष्य की प्रकृति विशेष का ही विद्रूप फल है। सत्य स्वीकारना होगा कि ढेर सारी मूल प्रवृत्तियों की भांति परपीड़क तोष भी मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है। यदि शिक्षा, सत्संग तथा विवेक परपीड़क तोष का उदारीकरण न कर सके  तो यह प्रवृत्ति धीमे जहर की तरह प्रभाव दिखाती है। एक दिन ऐसा व्यक्ति विषपूरक हो जाता है। जिसका काटा पानी भी नहीं मांगता। ऐसा व्यक्ति क¢वल अपने स्वार्थ पर दृष्टि रखता है।
आपन पानी निकरि जाए, चाहे तेली के  बैल मरि जाए।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस प्रवृत्ति का संबंध ईष्या और अभिमान से जोड़ा है। चिंतामणि के  साथ एक निबंध ईष्या में रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं कि अभिमान हर घड़ी बड़ाई की भावना भोगने का दुव्यर्वसन है और ईष्या उसकी सहगामिनी है। ऐसे ही हर घड़ी अपनी बड़ाई अनुभव करने का नशा हो जाता है। इससे उसकी चाह के  लिए वह सदा अपने से घटकर लोगों की ओर दृष्टि डाला करता है।
खल व्यक्ति की अकारण वैर समन्वित प्रवृत्ति पर एक श्लोक सटीक है -
सन्न ददति वारयंति ददतं दत्तमपि हारयंति। अनिमित्त वैरिणां खलानां मार्ग एवापूर्व:।।
अर्थात अकारण बैर रखने वाले खलों का मार्ग ही अपूर्व है। वे स्वयं के  पास संपत्ति होते हुए भी नहीं देते, देने वाले को रोकते हैं और दिया हुआ द्रव्य भी छीन लेते हैं।
कहने वाले कहते हैं कि दूसरों का दुख देखने का अपना सुख है। किंतु यह एक मनोरोग है। यदि इस रोग के  लक्षण दिखें तो उन्हें नष्ट कर दें। अन्यथा परसंताप, आत्मात पर ही समाप्त होता है। अंततः परपीड़क व्यक्ति घोर असमाजिकता के  चक्रव्यूह में घिर जाता है। उनके  संगी होते हैं उसके  दुगुर्ण। जिन्हें प्रेम और आदर चाहिए। वे और के  सुख में सुखी और दुख मंे दुखी होते हैं। होने भी चाहिए। जीवन जीने की यही उत्तम पद्धति होनी चाहिए।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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