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आंगन का सिमटता लोकतंत्र

Dr. Yogesh mishr
Published on: 11 April 1999 3:27 PM IST
दुनिया में कितने भी परिवर्तन हुए हों। एक इच्छा ऐसी है जो उसी भावनात्मक तीव्रता के  साथ हमारे मन में उपस्थित देखी जा सकती है। इस इच्छा का नाम है घर। दुनिया का कोई भी कोना हो, घर और इससे जुड़े सपने कम हुए हैं न होंगे। भारत में तो घर अपने आप में एक समग्र संस्कृति है एक साम्राज्य है। प्रसिद्ध कथाकारों, कवियों, कलाकारों ने घर पर कितना कुछ लिखा है। सोचा है। गौरतलब है कि घर पर लिखते-सोचते हुए इसकी एक आत्मीय संरचना पर हमेशा चर्चा हुई है। एक संरचना है- आंगन।
पिछले दिनों बातचीत के  क्रम में एक मित्र ने एक मुक्तक सुनाया। अवधी भाषा में लिखा गया मुक्तक इस प्रकार है -

वास दूब अंखुवन के  तनका बचपन कहां गया। परी नखत तितुरी मछरी वाला मनु कहां गया।।



कोठिरिन कमरन मा बटिगा है खूनु क्यार नाता। जीमा बाबा हंसति रहै ऊं आंगनू कहा गया।।



अंतिम पंक्ति में उठे सवाल या दर्द ने, मुझे झकझोर दिया। सचमुच आंगन कहां गया। बहुत दिन नहंी हुए जब घर के  इस महत्वपूर्ण हिस्से में परिवार का लोकतंत्र हंसता खिलखिलाता देखा जा सकता था। आंगन में सबसे बड़ा अधिकार होता था बच्चों का। बच्चे आंगन में घुटनों के  बल सरक-सरक कर घर वालों का मन मोह लेेते थे। उन दिनों ज्यादातर आंगन कच्ची मिट्टी के  ही होते थे। मिट्टी से सने बच्चों पर देवता ही रीझते थे। ईश्वर भी जब जन्म लेता था तो इसी आंगन में भागा-भागा फिरता था।

अंागन फिरत घुटुवनि धाए। नील जलद तनु स्याम राम सिसु



जननि निरखि मुख निकट बोलाए।



तुलसी के  राम की तरह सूर के  श्याम भी आगन में न जाने कितनी लीलाएं करते हैं। यो तो इसी आंगन में आसमान ताकते हुए मध्यकालीन नायिकाएं प्रिय की प्रतीक्षा करती रहती थीं। नानंद ने अपनी प्रेयसी सुजान को बैठाने के  लिए बादलों से इस तरह मनुहार की है -

कबहु बिसासी सुजान के  आंगन मंो अंसुवनि को है बरसो



कुछ भी हो इस आंगन की सबसे बड़ी जरूरत बच्चों को थी, है और रहेगी। मगर आज आंगन है कहां। अव्वल तो घर बनवाते समय आंगन सबसे उपेक्षित जगह मानी जाने लगी है। दूसरे कालोनी कल्चर के  डिब्बानुमा फ्लैट्स में आंगन की गुंजाइश नहीं बचती। अब बच्चे या कमरों में कैद हैं या किसी की निगरानी में पार्क या सड़क के  किनारे टहल रहे हैं। आंगन में बच्चे कुछ भी लुढ़काने-पुढ़काने के  लिए स्वतंत्र थे। यह स्वतंत्रता आज खतरे में है।
कहीं यह बच्चों के  प्रति हमारे बदलते दृष्टिकोण का प्रतीक तो नहीं। वैसे भी सुबह से रात तक स्कूल जाते, होमवर्क से जूझते और बचे समय से चैनलों से थकान उतारते बच्चों को हमने इतनी फुरसत नहीं दी है कि वो आंगन में झांक भी सक¢। आंगन दरअसल लिप्साओं और विवशताओं के  तीरों से घायल हुआ है। घर का नक्शा बनाते समय उसमें दुकानों या किराए पर उठा सकने वाले कमरों का ध्यान सबसे पहले रखा जाता है। दुकानें निकल आएंगी तो किराए पर उठाई जा सकती हैं। या फिर रिटायर होने के  बाद बुजुर्गवार जनरल मर्चेंट का सामान रखकर आमदनी कर सकते हैं। या परिवार की कोई महिला अपने समुचित उपलब्ध समय का सदुपयोग कर बुटीक वगैरह चला सकती है। अब आंगन में ये सब विशेषताएं कहां हैं। लिहाजा उसकी उपेक्षा आवश्यक है।
यह उपेक्षा एक मीठा विष है। यदि मनुष्य समाज में रहेगा तो उसे पहली-पहली सामाजिकता के  लिए इस आंगन से गुजरना ही होगा। लेकिन लगता नहीं कि मनुष्य इस संकट से बाखबर है। समस्याओं की गुंजलक तो स्वयं हमने तैयार की है। अब इसमें फंस कर यदि हमारा दम घुटने वाला है तो क्या उपाय है। हमारा समाज अपनी जड़ों से उखड़ा समाज है। आधुनिक जीवन दृष्टि के  नाम पर तीव्र संवेदनात्मक परिवर्तन के  नाम पर, उत्तर आधुनिकता के  नाम पर हमने अपने की उपेक्षा की है। चरित्र का यहां बहु आयामी अर्थ है। चरित्र अर्थात हमारी व्यक्तिगत और सामुयिक संरचना। हमारी जातीय विशेषताएं और आवश्यकताएं हमारी राष्ट्रीय क्षमताएं और विषमताएं। इन सबको भूलकर हम निरंतर उधार का खा रहे हैं। ओढ़ रहे हैं, पहन रहे हैं, सोच रहे हैं। उल्लेखनीय है कि इस विडंबना पर हम कभी विचार भी नहीं करते। हम इस उक्ति पर भी कभी ध्यान नहीं देते।

देख सके  तो आप कभी फुर्सत में दरपन देखें।



मस्तक गिरवी रख चंदन के  पीछे दौड़ रहे हैं।।



गिरवी रखे स्वाभिमान से जातीय चिंतन के  स्फुलिंग नहीं फूट सकते। ये स्फुलिंग अगर सफल होकर रोशनी की परिभाषित इकाई बन सक¢। तो हम देख पाएंगे कि हमारे राष्ट्र के  अतीत मंे हमारी संस्कृति के  बीते समय में सब कुछ त्यागने योग्य नहीं है। इस संस्कृति ने जब आंखे खोलते हुए ? थोेड़ी दूर पर देखना चाहा तो उसे एक घर की रूपरेखा दिखी और दिखा कि इस रूपरेखा में आंगन की आत्मीयता का उजास। मनुष्य जानता था कि आंगन और बचपन में बहुत गहरा रिश्ता है। बचपन तभी समृद्ध होगा जब उसे आंगन  में कूदने, उछलने, शैतानी करने, रीझने-खीझने का बराबर मौका मिलेगा। यह मौका बचपन को किसी न किसी रूप में मिलता रहा। जब औद्योगीकरण और महानगरीय सभ्यता के  आकर्षणों ने मनुष्य को खींचा तो पहला प्रभाव आंगन की संस्कृति पर ही हुआ। आज स्थिति यह है कि अधिकांश घरों से आंगन नदारद है। कहीं मजबूरी में... कहीं योजनाबद्ध रूप से। आंगन को यह गैर मौजूदगी बचपन को ढेर सारे सुखों से वंचित कर रही है।
यदि हम भविष्य के  मनुष्य को अधिक माननीय देखना चाहते हैं। तो हमें बचपन को आंगन का लोकतंत्र देना होगा। बंद कमरों में अंधेरे बंद कमरों की तानाशाही ही पनप सकती है। वैसे तो आंगन व्यक्तिवाद के  विद्ध सामूहिकता का संस्कार है। तो आइए, अंागन के  बारे में फिर से सोंचें। गौर करें -
बच्चे घुट जाएंगे इन कमरों में। खेलने के  लिए आंगन रखिए।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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