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आत्म-सम्मान को तरसते लोग
कई प्रश्न मेरे मन को मथ रहे हैं कि ऐसी कौन-कौन विवशताएं होती हैं जिसके सम्मुख नतमस्तक व्यक्ति मृगतृष्णाओं को सरिताओं का सम्मान देने लगता है। झूठ की जड़ंे पसर कर गूलर का फूल क्यों बनने/दिखने लगती हैं। सत्य हमेशा परेशान क्यों होता है। क्यों वह पसरी हुई माया और मिथ्या के सामने आत्म समर्पण की मुद्रा में नतमस्तक मिलता है। धीरे-धीरे कथाएं सत्यों को निर्वासित कर देती हैं। ऐसा क्यों होता है कि अहम ब्रम्हास्मि आदमी का पर्याय बन उठता है। यह जानते हुए कि वर्तमान की दौड़ में कहीं न कहीं जाकर हारना ही पड़ेगा। आदमी इतिहास की दौड़ क्यों नहीं दौड़ता। जीवन के क्षणवाद को मानने वाला मानव सुख के संबंध में क्षण वाद की अवधारणा को तिरोहित क्यों कर देता है। क्रमशः खोखली उपलब्धियां, लक्ष्यों का पर्याय बन जाती हैं। ऐसा क्यों होता है कि खेल के मैदानांे में छोटे-छोटे रण क्षेत्र उभर आते हैं। ऐसा क्यों होता है कि मास्टर ब्लास्टर में समाज अपने भीतर किंतु सांस लेती सारी उम्मीदें केंद्रित कर देता है।
इन प्रश्नों के भूगोल में मुझे गांव, महानगर, जंगल और जलाशय दिखने लगे। सारे इस मुद्रा में खड़े हैं जैसे प्रवंचित होना ही उनकी नियति हो। तो क्या प्रवंचना हमारे समय का सबसे बड़ा शब्द है। क्या आदमी के बाद का सामाजिक इतिहास आर्थिक नियोजक, सांस्कृतिक संघर्ष, प्रवंचनाओं को पोषित करता रहता है। शायद हां, इस शायद के निहितार्थ समझना कठिन नहीं है। दुष्यंत बहुत प्रत्यक्ष लिख गये हैं कि मुझे मालूम है कि पानी कहां ठहरा हुआ है। सारा समकालीन हिंदुस्तान इस गहरे पानी में ठिठुर रहा है। स्वयं से पूछिये आपने जीवन के हर मोड़ पर कितने नटवर, नागर देखे हैं। जिन्होंने जीवन को जमकर छला है। छले जाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सैनिक व्यवस्था में साम्यवादी पद्धति में पूरी दुनिया धीरे-धीरे खोखली हुई है।
इस खोखले पन को ही भरते हैं। जीवन में मनोरंजन के छोटे-बड़े रूपाकार! कुंठित लोगों ने मनोरंजन को अफीम का नशा बना दिया है, जो आनंद प्रदान करने के स्थान पर उन्माद का एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट करता है। मैं क्रिके ट का भीषण दर्शक हूं। खेल की बारीकियां न जानने के बावजूद पूरा आनंद लेता हूं। लेकिन मन को मनाते हुए यह जानना चाहता हूं कि हम इस शर्त पर राष्ट्र की सारी दुर्दशा बर्दाश्त करता रहता है कि उसकी क्रिके ट टीम भारत का भूसा भर देगी। कश्मीर के बाद क्रिके ट पाकिस्तान का दूसरा प्रतीक है। मनोरंजन तक सीमित रहे तो दुरूस्त है। अगर आत्म सम्मान को तरसते लोग इसे अपने उत्कर्ष की अवधारणा मान बैठे हंै। यही कारण है कि सचिन तेंदुलकर के समानान्तर इस समय देश में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिसके लिए एक अरब लोगों का दिल एक साथ धड़क सके । सचिन तेंदुलकर भारत के बहुरंगी, बहुनस्ली, बहुजातीय, बहुभाषीय सीमाओं का अतिक्रमण करता हुआ अपनी लोकप्रियता का एक ऐसा आधार निर्मित करता है, जो राजनीति और धर्म में किसी के पास नहीं है।
मनुष्य जियेगा तो हर हाल में, जीने के लिए सारी चीजों के साथ उसे मुट्ठी भर आत्म सम्मान भी चाहिए। क्या यह आत्म सम्मान हर चुनाव, राजनेता, आदर्श और नायक के साथ और घायल नहीं हुआ है। यदि हां, तो जनता कब तक घायल रहेगी। उपचार करने वाले बुद्धिजीवी या पथ-प्रदर्शन अपरोक्षतः सत्ता के कुटिल खेल में लगे हुए हैं। जब ना सुधार है, न संशोधन है, न विकास की एकजुटता है, न ही क्रांति की बहुउपयोगिता। रूपरेखा तो क्या होगी। मन का विरेचन कहीं तो होना ही है। शायद दिवा स्वप्नों या फैंटेसी का जन्म इसी धरातल पर होता है। इसे बहुत सारे उत्पादों के प्रचार युद्ध में देखा जा सकता है। साबुन हो या शैम्पू, शक्तिवर्धक पेय हो या परिवार नियोजन के साथ, हर जगह दिवा स्वप्नों का कारोबार चल रहा है। कहीं अतीत में शरण तलाशी जा रही है, कहीं कुहासे भरे वर्तमान में गोलमोल प्रस्तुत किया जा रहा है। इदम और अहम का युद्ध चल रहा है। इदम अर्थात् समस्त विश्व के संदर्भ में मैं का बोध ही अहंता है। फ्रायड ने इस समीकरण को बहुत महत्व दिया है। जयशंकर प्रसाद ने इन्हें रंगीन कलियां कहकर सारे क्रिया व्यापार को रूपायित किया है:-
पंचतन्मात्राओं से सम्प्रेषित व्यक्तित्व जब यथार्थ से विमुख होता है तो उसे उपनिषदों का आनंदवाद आश्रय देती हैः-
अर्थात् सृष्टि के कण-कण में ब्रम्हानंद का शोधक बनकर व्यक्ति आध्यात्मिक आशाओं में रम जाता है। यह सम्भव न हुआ तो लोकमन अपनी तुष्टि के लिए भौतिक उपकरण ढूंढता है। पूरे विश्व में आज का जन-मन विलुप्त आत्म विश्वास खोज रहा है। यद्यपि विचारों का भीषण संहार जारी है। तथापि मनुष्य पैर टिकाने के साधन रेखांकित कर रहा है। कर्म के उचित अवसरों से वंचित जन समुदाय अपने समय को कम उपयोगी माध्यमों में लगा देता है अथवा कृत्रिम जय-पराजय का साक्षी बन जाता है। आत्म-सम्मान भौतिकवाद से सीधा रिश्ता है। इतना ही नहीं, हमारा आत्म-सम्मान विजय से सीधे तौर पर जोड़ता है। जीत में ही वह आकार ग्रहण करता है। विजय को आत्म सम्मान का पर्याय मान लेने का ही परिणाम है कि आदमी/समाज एक ऐेसे अंतहीन द्वंद में फंस गया है, जहां आत्म सम्मान के रिक्तता की पूर्ति बालू की भीत बनाने जैसा हो गया है।
अपने बचपन से वंचित लोगों में अंत्याक्षरी का कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय है। ऐसा मीडिया में तमाम महारथी करते हैं। मनोरंजन के मनोविज्ञान की जांच बहुत आवश्यक है। आसन्न संकट यह है कि एक बार छद्म में जीवित रहने का अभ्यास पड़ जाय तो वास्तविकता के प्रकाश को नेत्र सह नहीं पाते। सम्मोहन के दौरान अनुभव होती तृप्ति स्थायी नहीं होती। ऐसा न हो कि सम्मोहन टूटे और पूरी एक पीढ़ी, एक संस्कृति स्वयं को पिपाशा के अंतहीन मरूस्थल में दिशाहारा देखे। यदि ऐसा हुआ तो राष्ट्रवादी अहंकार और प्रतिहिंसा का मानवीय सभ्य उत्सर्जन भी घातक होगा। आत्म सम्मान को तरसते लोगों में आत्म सम्मान हिंसा और प्रति हिंसा का एक सुसभ्य रूपान्तरित प्रतीक बनकर स्वीकृत हो उठेगा। विश्वासों, ऊर्जाओं और भावनाओं की टूट-टूटकर बिखर रही सम्भावनाएं आत्म सम्मान के फलक पर आदमी की उपस्थिति को हाशिए पर स्थापित कर रही है। अतः आत्म सम्मान को उसके वास्तविक अर्थों में प्राप्त करने के प्रयास प्रारंभ होने अपेक्षित हैं। तब ये मनोरंजक जीतें भी आनंदित करेंगे। इस सत्य को शताब्दी समाप्त होते-होते आत्मसात करके ही आत्मघात से बचा सकता है।
इन प्रश्नों के भूगोल में मुझे गांव, महानगर, जंगल और जलाशय दिखने लगे। सारे इस मुद्रा में खड़े हैं जैसे प्रवंचित होना ही उनकी नियति हो। तो क्या प्रवंचना हमारे समय का सबसे बड़ा शब्द है। क्या आदमी के बाद का सामाजिक इतिहास आर्थिक नियोजक, सांस्कृतिक संघर्ष, प्रवंचनाओं को पोषित करता रहता है। शायद हां, इस शायद के निहितार्थ समझना कठिन नहीं है। दुष्यंत बहुत प्रत्यक्ष लिख गये हैं कि मुझे मालूम है कि पानी कहां ठहरा हुआ है। सारा समकालीन हिंदुस्तान इस गहरे पानी में ठिठुर रहा है। स्वयं से पूछिये आपने जीवन के हर मोड़ पर कितने नटवर, नागर देखे हैं। जिन्होंने जीवन को जमकर छला है। छले जाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सैनिक व्यवस्था में साम्यवादी पद्धति में पूरी दुनिया धीरे-धीरे खोखली हुई है।
इस खोखले पन को ही भरते हैं। जीवन में मनोरंजन के छोटे-बड़े रूपाकार! कुंठित लोगों ने मनोरंजन को अफीम का नशा बना दिया है, जो आनंद प्रदान करने के स्थान पर उन्माद का एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट करता है। मैं क्रिके ट का भीषण दर्शक हूं। खेल की बारीकियां न जानने के बावजूद पूरा आनंद लेता हूं। लेकिन मन को मनाते हुए यह जानना चाहता हूं कि हम इस शर्त पर राष्ट्र की सारी दुर्दशा बर्दाश्त करता रहता है कि उसकी क्रिके ट टीम भारत का भूसा भर देगी। कश्मीर के बाद क्रिके ट पाकिस्तान का दूसरा प्रतीक है। मनोरंजन तक सीमित रहे तो दुरूस्त है। अगर आत्म सम्मान को तरसते लोग इसे अपने उत्कर्ष की अवधारणा मान बैठे हंै। यही कारण है कि सचिन तेंदुलकर के समानान्तर इस समय देश में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिसके लिए एक अरब लोगों का दिल एक साथ धड़क सके । सचिन तेंदुलकर भारत के बहुरंगी, बहुनस्ली, बहुजातीय, बहुभाषीय सीमाओं का अतिक्रमण करता हुआ अपनी लोकप्रियता का एक ऐसा आधार निर्मित करता है, जो राजनीति और धर्म में किसी के पास नहीं है।
मनुष्य जियेगा तो हर हाल में, जीने के लिए सारी चीजों के साथ उसे मुट्ठी भर आत्म सम्मान भी चाहिए। क्या यह आत्म सम्मान हर चुनाव, राजनेता, आदर्श और नायक के साथ और घायल नहीं हुआ है। यदि हां, तो जनता कब तक घायल रहेगी। उपचार करने वाले बुद्धिजीवी या पथ-प्रदर्शन अपरोक्षतः सत्ता के कुटिल खेल में लगे हुए हैं। जब ना सुधार है, न संशोधन है, न विकास की एकजुटता है, न ही क्रांति की बहुउपयोगिता। रूपरेखा तो क्या होगी। मन का विरेचन कहीं तो होना ही है। शायद दिवा स्वप्नों या फैंटेसी का जन्म इसी धरातल पर होता है। इसे बहुत सारे उत्पादों के प्रचार युद्ध में देखा जा सकता है। साबुन हो या शैम्पू, शक्तिवर्धक पेय हो या परिवार नियोजन के साथ, हर जगह दिवा स्वप्नों का कारोबार चल रहा है। कहीं अतीत में शरण तलाशी जा रही है, कहीं कुहासे भरे वर्तमान में गोलमोल प्रस्तुत किया जा रहा है। इदम और अहम का युद्ध चल रहा है। इदम अर्थात् समस्त विश्व के संदर्भ में मैं का बोध ही अहंता है। फ्रायड ने इस समीकरण को बहुत महत्व दिया है। जयशंकर प्रसाद ने इन्हें रंगीन कलियां कहकर सारे क्रिया व्यापार को रूपायित किया है:-
‘शब्द स्पर्श रस रूप गंध की, पारदर्शिनी सुघड़ पुतलियां।
चारो ओर नृत्य करती ज्यों, रूपवती रंगीन तितलियां।।’
पंचतन्मात्राओं से सम्प्रेषित व्यक्तित्व जब यथार्थ से विमुख होता है तो उसे उपनिषदों का आनंदवाद आश्रय देती हैः-
आनंदो ब्रम्होति व्यजानात्, आनंदद् ह्येव खल्विमनि भूतानिजायन्ते।
अर्थात् सृष्टि के कण-कण में ब्रम्हानंद का शोधक बनकर व्यक्ति आध्यात्मिक आशाओं में रम जाता है। यह सम्भव न हुआ तो लोकमन अपनी तुष्टि के लिए भौतिक उपकरण ढूंढता है। पूरे विश्व में आज का जन-मन विलुप्त आत्म विश्वास खोज रहा है। यद्यपि विचारों का भीषण संहार जारी है। तथापि मनुष्य पैर टिकाने के साधन रेखांकित कर रहा है। कर्म के उचित अवसरों से वंचित जन समुदाय अपने समय को कम उपयोगी माध्यमों में लगा देता है अथवा कृत्रिम जय-पराजय का साक्षी बन जाता है। आत्म-सम्मान भौतिकवाद से सीधा रिश्ता है। इतना ही नहीं, हमारा आत्म-सम्मान विजय से सीधे तौर पर जोड़ता है। जीत में ही वह आकार ग्रहण करता है। विजय को आत्म सम्मान का पर्याय मान लेने का ही परिणाम है कि आदमी/समाज एक ऐेसे अंतहीन द्वंद में फंस गया है, जहां आत्म सम्मान के रिक्तता की पूर्ति बालू की भीत बनाने जैसा हो गया है।
अपने बचपन से वंचित लोगों में अंत्याक्षरी का कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय है। ऐसा मीडिया में तमाम महारथी करते हैं। मनोरंजन के मनोविज्ञान की जांच बहुत आवश्यक है। आसन्न संकट यह है कि एक बार छद्म में जीवित रहने का अभ्यास पड़ जाय तो वास्तविकता के प्रकाश को नेत्र सह नहीं पाते। सम्मोहन के दौरान अनुभव होती तृप्ति स्थायी नहीं होती। ऐसा न हो कि सम्मोहन टूटे और पूरी एक पीढ़ी, एक संस्कृति स्वयं को पिपाशा के अंतहीन मरूस्थल में दिशाहारा देखे। यदि ऐसा हुआ तो राष्ट्रवादी अहंकार और प्रतिहिंसा का मानवीय सभ्य उत्सर्जन भी घातक होगा। आत्म सम्मान को तरसते लोगों में आत्म सम्मान हिंसा और प्रति हिंसा का एक सुसभ्य रूपान्तरित प्रतीक बनकर स्वीकृत हो उठेगा। विश्वासों, ऊर्जाओं और भावनाओं की टूट-टूटकर बिखर रही सम्भावनाएं आत्म सम्मान के फलक पर आदमी की उपस्थिति को हाशिए पर स्थापित कर रही है। अतः आत्म सम्मान को उसके वास्तविक अर्थों में प्राप्त करने के प्रयास प्रारंभ होने अपेक्षित हैं। तब ये मनोरंजक जीतें भी आनंदित करेंगे। इस सत्य को शताब्दी समाप्त होते-होते आत्मसात करके ही आत्मघात से बचा सकता है।
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