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ये कहां आ गए हम !
अगर खबरों का प्रयोजन हमें खबरदार करना होता है तो वक्त का तकाजा है हम बेखबर न रहें। जिस तरह की घटनाएं पिछले कुछ महीनों में घटी हंै, उनका विवरण दिल दहलाने वाला है। कहीं किसी जेसिका को गोली मारी जा रही है। कहीं कोई अमीरजादा उपेक्षा करने वाली लड़की को सरेआम फूंक रहा है तो कहीं बीच बाजार में कार रुकती है और अचानक एक लड़की का अपहरण हो जाता है। अगले दिन सामूहिक बलात्कार की शिकार उस अभागी का शव किसी नाले या गटर में मिलता है। हमारे समाज में जीवन में प्रेम ने ‘इंस्टेंट लव’ का आकार ग्रहण कर लिया है। ‘मैं तुमसे प्यार करता हूं’ के ध्वन्यात्मक महत्व गौण होकर ‘आई लव यू ’ में सिमट गए हैं। प्रेम शरीर पाने का एक रास्ता हो गया है और शरीर उपलब्धि और पैसा पैदा करने का जरिया। मुंबई में अभी हाल में पिकनिक केंद्र माढ़ में एक सेक्स पार्टी में पुरुष नर्तक व हिजड़े अपने वस्त्र उतार कर पार्टी को रंगीन बना रहे थे। 600 रुपए भुगतान करके मुंबई में रहने वाले स्त्री-पुष सेक्स पार्टी में पता नहीं कैसे किस सेक्स का लुत्फ उठा रहे थे। इस पार्टी के कार्ड पर प्रकाशित था, ‘छह सौ रुपए का भुगतान करके जो खिली हुई धूप और छांव में आनंद उठाने में दिलचस्पी रखते हैं उन्हें स्वर्ग दूतों द्वारा ऐंद्रिक, पारलौकिक आनंद उपलब्ध कराया जाएगा। ’
ये घटनाएं प्रतिदर्श हैं। परंतु हमें यह सोचने पर विवश करती हैं कि हम आखिर कहां जा रहे हैं। गौरतलब है कि इन जैसी तमाम घटनाओं में जो लिप्त हैं वे आयु से किशोर और युवावस्था के बीच हैं। वर्ग के लिहाज से नवधनाढ्य वर्ग के हैं। जिस तरह रातों-रात लखपति, करोड़पति बनने वाले लोग सामने आए हैं, उससे भ्रष्ट राजनीतिक को नकार कर नितांत भयावह सामाजिकता, चिंतनीय मूल्यहीनता के साथ सांस्कृतिक हीनता की पुष्टि हुई है। श्रम एवं सामूहिकता को नकार कर नितांत व्यक्तिवादी तरीके से कमाई करने वाले लोगों ने मान लिया है कि वे कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं। पैसे से वह कुछ भी खरीद सकते हैं। देश का सुख भी। पैसे के दम पर वे किसी को बेच सकते हैं। इन जीभ लपलपाते शिकारी धनिकों के लिए पूरा राष्ट्र बियरबार शिकारगाह या विलास कक्ष या दलाल स्टीट है। वे कहां आ गए हम। माना किसी राष्ट्र की संरचना में अर्थव्यवस्था की केंद्रीय भूमिका होती है। आर्थिक विस्तार होना ही चाहिए। मगर किस मूल्य पर। भारतीय जीवन व्यवस्था में चिंतकों ने इस अर्थ को विस्तार से समाया है। वेदव्यास को आसुरी और देवी संपदा का सही विवेक था। यह विवेक आजादी के बाद तीव्रता से लुप्त हुआ। फलतः आसुरी सभ्यता, संपदा और औद्धत्य ने संवेदना को विक्षिप्त बनाना प्रारंभ किया। प्रसाद ने लक्ष्य करके लिखा, ‘अंधकार में दौ लग रही, मतवाला सारा समाज है। ’ आज आत्महंता भोग आवेग में लिप्त-विक्षिप्त लोगों को कोई नहीं टोकता। प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रो. जे.क¢.मेहता कहते हैं कि भारत में उपभोक्ता संस्कृति ने जड़ंे पकड़ ली हैं। रुपए की चिंता... रुपए से अहंकार का प्रदर्शन यही जीवन सत्य है।
विचारक किशन पटनायक का मानना है कि विश्व का भविष्य बंद गली में पहुंच गया है और भारत का भविष्य अंधी गली में ठहर गया है। विश्लेषक कहते हैं कि सोमालिया, इथोपिया जैसी घटनाएं भारत के कई इलाकों में होगी। ये घटनाएं योजना के तहत होंगी। विकास के नाम पर मौत का आयोजन होगा। इसलिए प्रयास है कि मनुष्य का मन भूखमरी, हत्या, बलात्कार, हिंसा व विघटन से उदासीन हो जाए। मनुष्य इन सवालों से जुड़ी अपनी संवेदनशीलता समाप्त कर दे। एक भयानक घटना का उदाहरण प्रस्तुत है - कुछ वर्षो। पूर्व रियो में पृथ्वी सम्मेलन हुआ था। उससे पहले रियो नगर की सफाई हो रही थी। महानगरों में स्लम इलाकों की भी दुरुस्ती की जा रही थी। रियो के एक इलाके में लोग सफाई करने गए जहां कचरे के ढेर पर जो भी बच्चे चीजों को चुन रहे थे। उन्हें तड़तड़ गोली मार दी। ऐसे कुत्तों को भी नहीं खलास करते हैं।
यह अब घटना भारत में घटनी शुरू हो गयी है। इस घटिया व नीच प्रवृत्ति को बढ़ा रही है। मुक्त बाजार व्यवस्था, नवधना्य वर्ग और दिशाहारा राजनीतिक नेतृत्व। राजनीति और अपराध का ऐसा गठजोड़ हुआ है कि अनुशासन की चूलें हिल गईं हैं। ‘मनीं एंड मसल पावर’ ने मिलकर न्याय और समाजवादी सपनों को रौंद डाला है। अब बड़े बापों के पाप सरीखे बिगैल बच्चे कुछ भी कर सकते हैं। डा. जगदीश गुप्त इस घिनौनी प्रवृत्ति का विश्लेषण अपनी कविता में करते हैं -
कहानी में इस यथार्थ को कथाकार ज्ञानारंजन रेखांकित करते हैं, ‘हर साल असंख्य नए मुख्य नारकीयता की तरफ ढक¢ल दिए जाते हैं। नया शब्द दर्शन, व्यवस्था, जीवन विज्ञापन का ठेक¢दार हो गया है। अधिसंख्य युवाओं के स्वप्न में स्वप्न नहीं बचा, सौदागर बचा है। यह सौदागर खूनी व्यापार करना चाहता है। यह शुद्ध जीवन में भोग का उन्माद है। एक हिंसक... उदंड उन्माद, जो बनैले पशु की तरह समाज में खुला छोड़ दिया गया है। इस धनपशु को स्त्री की इच्छा का सम्मान करना नहीं आता। इसके लिए स्त्री महज उत्पाद है। जिसकी निश्चित व निर्धारित दरें हैं। यही कारण है कि यदि इच्छापूर्ति से वह इंकार करती है तो प्रतिशोध के पाश्विक स्वरूप जागृत हो उठते हैं। बियर परोसती युवती आज्ञापालन में विलंब करे तो गोलियों से भून दी जाती है।
निश्चित रूप से सभ्य समाज की सारी इकाइयों के लिए धन उदडंों की ये घिनौनी हरकतें खतरे का सायरन हैं। सामाजिकता के सारे पहओं को समय रहते चेतना होगा कि ऐसी घटनाएं दोहराई न जाएं। प्रशासन के सामने कठिन चुनौती है। इस वर्ग के अपराधी धन के जोर और ऊंची पहुंच का लाभ उठा कर बरी हो जाते हैं। इन्हें दंड दिलवाने के लिए शासन को अभूतपूर्व कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देना पता है। बुद्धिजीवियों को दोगला चरित्र छोड़कर अभिव्यक्ति के सारे माध्यमों द्वारा ऐसे लोगों की भत्सर्ना करनी होगी। मीडिया भी सामाजिकता के इस विध्वंस में कहीं न कहीं उत्तरदायी है। मीडिया को इंडिया मोस्ट वांटेड (जिसे टीवी पर प्रचारित होने वाले कार्यक्रम के नाम से मत जोें ) जैसे कार्यक्रम बनाने होंगे। साथ ही रुग्ण मानसिकता को पनपने वाले लुम्पेनवादी कार्यक्रम रोकने होंगे। बड़े पापों की औलादें कितनी बड़ी हैं यह तय करना होगा उन्हें बताना होगा कि क्या वे देश से बड़ी हैं। मानवीय मूल्यों से बड़ी हैैं।
समाज के राडार पर जो काली करतूतें उभर रही है वे मंडराते संकटों की सूचक है। हम विचार करें कि ये देश किस दिशा में जा रहा है। क्या कुछ सफ¢दपोश विक्षिप्त लोग देश के रथ को नरक की ओर मोड़ने में कामयाब हो जाएंगे। हम तैयार रहें... क्योंकि कुछ समाज विरोधियों के हाथ में तेजाब की बोतले हैं और वे संस्कृति-सभ्यता का चेहरा विकृत कर देना चाहते हैं।
ये घटनाएं प्रतिदर्श हैं। परंतु हमें यह सोचने पर विवश करती हैं कि हम आखिर कहां जा रहे हैं। गौरतलब है कि इन जैसी तमाम घटनाओं में जो लिप्त हैं वे आयु से किशोर और युवावस्था के बीच हैं। वर्ग के लिहाज से नवधनाढ्य वर्ग के हैं। जिस तरह रातों-रात लखपति, करोड़पति बनने वाले लोग सामने आए हैं, उससे भ्रष्ट राजनीतिक को नकार कर नितांत भयावह सामाजिकता, चिंतनीय मूल्यहीनता के साथ सांस्कृतिक हीनता की पुष्टि हुई है। श्रम एवं सामूहिकता को नकार कर नितांत व्यक्तिवादी तरीके से कमाई करने वाले लोगों ने मान लिया है कि वे कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं। पैसे से वह कुछ भी खरीद सकते हैं। देश का सुख भी। पैसे के दम पर वे किसी को बेच सकते हैं। इन जीभ लपलपाते शिकारी धनिकों के लिए पूरा राष्ट्र बियरबार शिकारगाह या विलास कक्ष या दलाल स्टीट है। वे कहां आ गए हम। माना किसी राष्ट्र की संरचना में अर्थव्यवस्था की केंद्रीय भूमिका होती है। आर्थिक विस्तार होना ही चाहिए। मगर किस मूल्य पर। भारतीय जीवन व्यवस्था में चिंतकों ने इस अर्थ को विस्तार से समाया है। वेदव्यास को आसुरी और देवी संपदा का सही विवेक था। यह विवेक आजादी के बाद तीव्रता से लुप्त हुआ। फलतः आसुरी सभ्यता, संपदा और औद्धत्य ने संवेदना को विक्षिप्त बनाना प्रारंभ किया। प्रसाद ने लक्ष्य करके लिखा, ‘अंधकार में दौ लग रही, मतवाला सारा समाज है। ’ आज आत्महंता भोग आवेग में लिप्त-विक्षिप्त लोगों को कोई नहीं टोकता। प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रो. जे.क¢.मेहता कहते हैं कि भारत में उपभोक्ता संस्कृति ने जड़ंे पकड़ ली हैं। रुपए की चिंता... रुपए से अहंकार का प्रदर्शन यही जीवन सत्य है।
विचारक किशन पटनायक का मानना है कि विश्व का भविष्य बंद गली में पहुंच गया है और भारत का भविष्य अंधी गली में ठहर गया है। विश्लेषक कहते हैं कि सोमालिया, इथोपिया जैसी घटनाएं भारत के कई इलाकों में होगी। ये घटनाएं योजना के तहत होंगी। विकास के नाम पर मौत का आयोजन होगा। इसलिए प्रयास है कि मनुष्य का मन भूखमरी, हत्या, बलात्कार, हिंसा व विघटन से उदासीन हो जाए। मनुष्य इन सवालों से जुड़ी अपनी संवेदनशीलता समाप्त कर दे। एक भयानक घटना का उदाहरण प्रस्तुत है - कुछ वर्षो। पूर्व रियो में पृथ्वी सम्मेलन हुआ था। उससे पहले रियो नगर की सफाई हो रही थी। महानगरों में स्लम इलाकों की भी दुरुस्ती की जा रही थी। रियो के एक इलाके में लोग सफाई करने गए जहां कचरे के ढेर पर जो भी बच्चे चीजों को चुन रहे थे। उन्हें तड़तड़ गोली मार दी। ऐसे कुत्तों को भी नहीं खलास करते हैं।
यह अब घटना भारत में घटनी शुरू हो गयी है। इस घटिया व नीच प्रवृत्ति को बढ़ा रही है। मुक्त बाजार व्यवस्था, नवधना्य वर्ग और दिशाहारा राजनीतिक नेतृत्व। राजनीति और अपराध का ऐसा गठजोड़ हुआ है कि अनुशासन की चूलें हिल गईं हैं। ‘मनीं एंड मसल पावर’ ने मिलकर न्याय और समाजवादी सपनों को रौंद डाला है। अब बड़े बापों के पाप सरीखे बिगैल बच्चे कुछ भी कर सकते हैं। डा. जगदीश गुप्त इस घिनौनी प्रवृत्ति का विश्लेषण अपनी कविता में करते हैं -
‘एक नाग। बाबी से निकल कर। सहसा डस लेता है
सोते हुए आहत संबंधों को। सत्य को छिपा कर। जो स्नेह प्रेम मिलता है
अनचाही संतति को। निजी अस्तित्व की खोज में। विषमय हो जाता है ... लगातार।’
कहानी में इस यथार्थ को कथाकार ज्ञानारंजन रेखांकित करते हैं, ‘हर साल असंख्य नए मुख्य नारकीयता की तरफ ढक¢ल दिए जाते हैं। नया शब्द दर्शन, व्यवस्था, जीवन विज्ञापन का ठेक¢दार हो गया है। अधिसंख्य युवाओं के स्वप्न में स्वप्न नहीं बचा, सौदागर बचा है। यह सौदागर खूनी व्यापार करना चाहता है। यह शुद्ध जीवन में भोग का उन्माद है। एक हिंसक... उदंड उन्माद, जो बनैले पशु की तरह समाज में खुला छोड़ दिया गया है। इस धनपशु को स्त्री की इच्छा का सम्मान करना नहीं आता। इसके लिए स्त्री महज उत्पाद है। जिसकी निश्चित व निर्धारित दरें हैं। यही कारण है कि यदि इच्छापूर्ति से वह इंकार करती है तो प्रतिशोध के पाश्विक स्वरूप जागृत हो उठते हैं। बियर परोसती युवती आज्ञापालन में विलंब करे तो गोलियों से भून दी जाती है।
निश्चित रूप से सभ्य समाज की सारी इकाइयों के लिए धन उदडंों की ये घिनौनी हरकतें खतरे का सायरन हैं। सामाजिकता के सारे पहओं को समय रहते चेतना होगा कि ऐसी घटनाएं दोहराई न जाएं। प्रशासन के सामने कठिन चुनौती है। इस वर्ग के अपराधी धन के जोर और ऊंची पहुंच का लाभ उठा कर बरी हो जाते हैं। इन्हें दंड दिलवाने के लिए शासन को अभूतपूर्व कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देना पता है। बुद्धिजीवियों को दोगला चरित्र छोड़कर अभिव्यक्ति के सारे माध्यमों द्वारा ऐसे लोगों की भत्सर्ना करनी होगी। मीडिया भी सामाजिकता के इस विध्वंस में कहीं न कहीं उत्तरदायी है। मीडिया को इंडिया मोस्ट वांटेड (जिसे टीवी पर प्रचारित होने वाले कार्यक्रम के नाम से मत जोें ) जैसे कार्यक्रम बनाने होंगे। साथ ही रुग्ण मानसिकता को पनपने वाले लुम्पेनवादी कार्यक्रम रोकने होंगे। बड़े पापों की औलादें कितनी बड़ी हैं यह तय करना होगा उन्हें बताना होगा कि क्या वे देश से बड़ी हैं। मानवीय मूल्यों से बड़ी हैैं।
समाज के राडार पर जो काली करतूतें उभर रही है वे मंडराते संकटों की सूचक है। हम विचार करें कि ये देश किस दिशा में जा रहा है। क्या कुछ सफ¢दपोश विक्षिप्त लोग देश के रथ को नरक की ओर मोड़ने में कामयाब हो जाएंगे। हम तैयार रहें... क्योंकि कुछ समाज विरोधियों के हाथ में तेजाब की बोतले हैं और वे संस्कृति-सभ्यता का चेहरा विकृत कर देना चाहते हैं।
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