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सबको सन्मति दे भगवान

Dr. Yogesh mishr
Published on: 20 Jun 1999 3:39 PM IST
सीमा पर बारूदी धुआं फैला है। मनुष्यता का सबसे बड़ा शत्रु युद्ध अट्टहास कर रहा है। अखबार शहीदों की सूची में भावाकुल हैं। हम पड़ोसी की गतिवधियों से चकित और क्रोधित हैं। कारगिल पर जूझते वीरों! तुम्हारे लिए कृतज्ञता शब्द अपर्याप्त है। क्या युद्ध हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा। जैसे-जैसे विचार करें..... शक होता है कि कहीं सीमा पर युद्ध की घोषणा न हो जाय। यह भी युद्ध का एक दूसरा रूप है। कश्मीर में वर्षों से हमारा पड़ोसी अघोषित युद्ध लड़ रहा है। हम करें भी तो क्या! ईश्वर और अल्लाह कोई भी हमारा सहायता नहीं कर रहा है। ऊपर वाला किसी को सन्मति नहीं दे पा रहा है। गांधी की सुभेषणा उनके  जीवनकाल की गोलियों से छलनी हो गयी थी तो क्या मनुष्य वास्तव में पशु है। यद्यपि यह कहना पशुओं का अपमान करना है। पशुओं में कभी ऐसे युद्ध नहीं होते। देखा जाय तो पशुओं को भी लड़ना मनुष्यों ने ही सिखाया। तो क्या आदि मानव अभी भी अपने पंजों के  नाखून पैने करता रहता है। क्या उसकी जबान आज भी लहू के  लिए लपलपा रही है। युद्ध शान्ति को लेकर यह हिंसा और प्रेम को लेकर न जाने कितने बहस/चिंता जारी है। यह भी एक विचारधारा का दंड संपूर्ण राष्ट्र क्यों भुगते। मानववाद कुछ आत्म छलनाएं निबंध में निर्मल वर्मा इसको परखते हुए कहते हैं कि कम्युनिस्ट क्रान्ति के  बाद सोवियत रूस में जो असंख्य अत्याचार हुए, उनमें मनुष्य के  अधिकारों को जो भीषण हनन हुआ, उसके  पीछे हमेशा यह आत्म तुष्ट तर्क रहता था  िकवे न के वल ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य हैं बल्कि क्षम्य भी। यह तर्क के वल लेनिन स्टालिन तक सीमित रहता तो आश्चर्य की बात नहीं थी। कौन तानाशाही अपने कुकृत्यों को न्यायोचित करार नहीं करती। आश्चर्य तो इस पर होता है कि बीसवीं सदी के  अनेक उल्लेखनीय चिंतक, लेखक, बुद्धिजीवियों की एक लंबी कतार दीर्घकाल तक न के वल सोवियत क्रांति के  यथार्थ के  संबंध में आत्मछलना का शिकार होती रही, बल्कि उन्हें भी अपनी कठोर आलोचना, निंदा का शिकार बनाती रही। कोई अरविल, कोई कामू, कोई शोल्झेनितसीन इनमें कितना साहस था  िकवे उस यथार्थ के  भयावह सत्य को उद्घाटित कर सकें। यह कह सकें कि सब प्रशस्ति गानांे के  बावजूद बादशाह नंगे हैं। क्या हम में उन लोगों को नंगा कहने का साहस है जिनकी जघन्य योजनाएं कारगिल में नंगा नाच कर रही हैं। क्या किसी न किसी पार्टी का दुमछल्ला बने हमारे बुद्धिजीवियों, पत्रकारों में एक न्यूनतम चेतना बची है। उन लोगों को उद्घाटित क्यों नहीं किया जाता, जो हिंदुस्तान, पाकिस्तान समेत तमाम मुल्कों में बैठकर के वल युद्ध के  कार्यक्रम बनाते रहते हैं। पाक क्रिके ट टीम भारत खेलने आती है तो पिच खोद देने की राष्ट्रीयता पता नहीं क्यों कारगिल में चल रहे युद्ध की स्थितियों में विलुप्त हो जाती है। लाहौर बस यात्रा के  परिणामोपरांत भी ढाका बस यात्रा शुरू कराने जैसे आधारहीन प्रसंग जारी रहते हैं। पाकिस्तान कि निर्माण में निहित दर्शन और जरूरत पर गौर नहीं फरमाते। मैंने बहुत पहले मोहन लाल भास्कर की किताब ‘मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था’ पढ़ी थी। उसके  एक प्रसंग में लाहौर का एक दरोगा भास्कर को गिरफ्तारी के  दौरान पाकिस्तान के  विभिन्न जगहों पर हुई पिटायी की तुलना में बहुत मारता है। दरोगा मारते-मारते बेहोश हो जाता है। भास्कर कुछ भी नहीं बताते हैं। दूसरे दिन सवेरे जब दरोगा फिर भास्कर के  पास आता है तो भास्कर उससे एक सवाल पूछते हैं। गिरफ्तारी के  दौरान मेरा साबका पाकिस्तान के  दुर्दांत दरोगाओं से पड़ा लेकिन जितना तुमने मारा, जैसी यातना तुमने दी, किसी ने नहीं दी। दरोगा का जवाब था मैं भारत का रहने वाला हूं। हिंदू हूं। बहुत कम लोग जानते हैं कि पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष मुर्शरफ के  पूर्वज उप्र के  रहे हैं। कुरूक्षेत्र में ऐसे ही प्रश्नों पर राष्ट्रकवि दिनकर जूझे थे। उन्होंने कहा था पापी कौन, मनुज से उसका न्याय चुराने वाला/या कि न्याय खोजते शत्रु का शीश उड़ाने वाला। इसलिए उन्होंने कहा...      ‘युद्ध को तुम निंद्य कहते हो मगर/उड़ रही है जब तलक चिन्गारियां,

                भिन्न स्वार्थों के  पुलिस संघर्ष की/युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।’



                युद्ध अनिवार्य इसलिए है कि सत्ताधीशांे का अस्तित्व ही टिका है। युद्धोन्माद पर हमारा पड़ोसी भारत विरोध को प्रायः नियमित राजनीतिक मुद्दा मानकर चलता है। जनता के  असंख्य दुखों से मुंह मोड़ने का प्रभावी नुस्खा है-युद्ध। ज्वलंत मुद्दों से जन समुदाय का ध्यान बंटाने का उपाय है-युद्ध। अब भारत में तो यह सियासी मोहरा बनाया जा रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि कारगिल पर चल रही गतिविधियों के  कारण मध्यावधि चुनाव को आगे खिसकाया जा सकता है। कुछ मीडिया महारथी निष्कर्ष निकाल रहे हैं कि यह सब भाजपा की सोची समझी रणनीति है। यानी इतने संवेदनशील बिंदु पर भी संकीर्ण दृष्टि सोनिया गांधी कारगिल यात्रा पर जाती हैं तो राजनीतिक आशय निकाले जाते हैं और हमेशा की तरह वामपंथी सियासतदां दिग्भ्रमित। रूस और चीन की हर बर्बरता को जायज ठहराने के  अभ्यस्त चुप और विमूर्त कई बार घुसपैठिये कारगिल में ही नहीं दिल्ली और कलकत्ता में भी मिल जाते हैं। एक कवि के  शब्दों पर भरोसा है कि-
‘सत्य कितना कटु हो, कटु से कटुतर हो, कटुतर से कटुतम हो फिर भी कहूंगा मैं, युद्ध युद्धोन्माद और युद्ध जैसी स्थितियां कलंक हैं। इस त्रासदी का तनाव धर्मवीर भारती के  अंधायुग में फैला है। अश्वत्थामा युद्ध की विभीषिका का प्रतीक है। व्यास, युधिष्ठिर, युयुत्सु उसे नर पशु कहते हैं। उसके  ब्रम्हास्त्र छोड़ने पर व्यास चीख उठते हैं-

                ‘ज्ञात क्या तुम्हे हैं, परिणाम इस ब्रम्हास्त्र का/ पृथ्वी पर रसमय वनस्पति नहीं होगी।’



                शिशु होंगे पैदा विकलांग और कुंठाग्रस्त/सारी मनुष्य जाति बौनी हो जाएगी।



                जो कुछ भी ज्ञान संचित किया है/मनुष्य ने सतयुग, त्रेता, द्वापर में/ सदा-सदा के  लिए        विलीन होगा वह।’
आज ठीक यही स्थिति है। विडम्बना देखिए कि एक राष्ट्र पर मौत की बारिश करके  अमरीका कारगिल की स्थिति की समीक्षा कर रहा है। त्रासदी सोचिए कि हम अमरीका प्रमाण पत्र पाकर प्रसन्न हैं। क्या हमें सुरक्षा के  लिए इस दादागिरी पर निर्भर रहना होगा। मान लीजिए अमरीका और उसके  साथी मुल्क हमें दोषी मान लें तो हम कारगिल की कार्रवाई रोक देंगे। क्या हमें खयाल है कि पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय एकता और अखंडता सिर्फ स्लोगन बनकर रह गयी है। निरंतर गरीब होते हिंदुस्तान पाकिस्तान को क्या इन मूर्खताओं में उलझना चाहिए। फिर तो हमारे पढ़े-लिखे विद्धान मित्र क्षमा करें। ज्योतिषियों का कहना है कि दोनों का जन्मांग ही परस्पर विरूद्ध है। जन्मजात शत्रुता है जो जीवन भर चलेगी। राष्ट्र के  हितैषी भले ही इसका ठहाका लगाएं। मगर अपनी हरकतों से उन्होंने ज्योतिष की घोषणाओं को लगातार पुष्ट किया है। इन घोषणाओं को असत्य पुष्ट करने का दृढ संकल्प हमें लेना होगा। समस्याएं सुलझानी होंगी। अभ्यास बंद करने होंगे। विदेशी नीति में जनहित सर्वोपरि होना चाहिए। अभी तो फिलहाल प्रार्थना कर सकते हैं कि सबको सन्मति दे भगवान। भारत पाक की हर गुत्थी सुलझ जाएगी, बस अनाशक्त व्यक्तित्व चाहिए। क्योंकि-जब कोई भी मनुष्य/अनाशक्त होकर चुनौती देता है इतिहास को/ उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है। काश! हम और हमारा पड़ोसी अगले शताब्दी में नक्षत्रों की बदली दिशा के  साक्षी बन सकेंगे।
Dr. Yogesh mishr

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