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मौलाना मुलायम का नया रोल

Dr. Yogesh mishr
Published on: 14 Feb 2006 6:37 PM IST
दिनांक : १४ २ २००६
एक बार फिर मुलायम के आलोचकों को उनके सिर पर लम्बी टोपी और चेहरे पर दाढ़ी नजर आने लगी है। लिहाजा एक बार फिर से मौलाना मुलायम सिंह का नया संस्करण प्रदेश की राजनीति में चर्चा का केन्द्र बन गया है। यह यूं ही नहीं है। दरअसल, पिछले कुछ हफ्तों में उन्होंने जिस तरह से अल्पसंख्यक मसलों पर अपनी धूमिल हो रही कट्टर पैरोकार की छवि को फिर से धार दी है उससे यह आरोप मजबूत होते दिखते हैं। चाहे वह जौहर विश्वविद्यालय का मामला हो या अलीगढ़ विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जा अदालत से समाप्त होने का ठीकरा फोडऩे की बात। हर जगह मुलायम अल्पसंख्यकों के रहनुमा के तौर पर उभरने की कोशिश करते दिख रहे हैं। उनकी इस नई भूमिका का सबसे जीता-जागता उदाहरण ईरान मसले पर उस यूपीए सरकार के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा है। जिसके साथ तमाम तल्ख रिश्तों के बावजूद उन्होंने अब तक ऐसा कोई कदम नहीं उठाया था जिससे समर्थन की डोर टूटती दिखे। इसीलिए यदि उनके आलोचक यह कह रहे हैं कि अविश्वास प्रस्ताव का उदïदेश्य कांग्रेस पर हमला करने के बजाए देश के मुस्लिम मर्म को छूने की इच्छा ज्यादा है।

मुलायम के खिलाफ ऐसा मानने वालों के बहुतेरे तर्क हैं। उनका दावा है कि मुस्लिम हितों के मुदï्दों पर उनकी हालिया हायतौबा साफ-साफ चुनावी मकसद के लिए है। और इसीलिए वे मुसलमानों को प्रभावित करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं। वैसे भी इन दिनों ताबड़तोड़ हो रही कैबिनेट बैठकों और उसमें पारित होते प्रस्तावों को देखकर कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि मुलायम के दिमाग में इस वक्त चुनावी रंग छाया हुआ है। राजनीति का चतुर खिलाड़ी होने के नाते वे बखूबी समझते हैं कि पिछले कुछ उपचुनाव में उनकी पार्टी की हार की वजहें क्या रही हैं? इसलिए अब वे उन दरारों को पाटने के लिए बेचैन हैं। ऐसी ही एक बड़ी दरार उनके प्रति पिछले कुछ सालों में मुस्लिम मतदाताओं की खिन्नता भी रही है। कांग्रेस राज्य इकाई के अध्यक्ष सलमान खुर्शीद ने इसे तस्दीक करते हुए ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से बातचीत में कहा, ‘‘सपा का मजबूत आधार वाला अकलियत का बड़ा वोट बैंक मुलायम का साथ छोड़़ रहा है।’’ मुलायम को बिहार के चुनाव परिणामों से भी इस बात का बखूबी अंदाजा मिल गया है कि अटूट समझा जाने वाला ‘माई’(मुस्लिम यादव) समीकरण कैसे दरकता है? उसके क्या नतीजे होते हैं? गौरतलब है कि भगवा ब्रिगेड द्वारा कारसेवा के लिए जुट जाने के बाद बाबरी मस्जिद बचाने के मुद्दे पर मुख्यमंत्री रहते हुए मुलायम सिंह यादव ने बड़े गर्व से धर्मनिरपेक्ष ताकतों की वकालत करते हुए दावा किया था, ‘‘परिन्दा भी पर नहीं मार पायेगा।’’ इसी समय गोलीबारी में कई कारसेवक मारे गये थे। मुलायम के इसी वाक्य और बाबरी मस्जिद बचाने के लिए उठाये गये कदमों के चलते अल्पसंख्यक मतदाताओं के वे सिरमौर बन गये। तभी से बने माई समीकरण के बूते पर उन्होंने दो बार सूबे की अहम कुर्सी हासिल की। मुलायम यह जानते हैं कि यदि उनके साथ भी ऐसा हुआ तो वे एक बार फिर राजनीतिक वनवास झेलने के लिए अभिशप्त होंगे।

पिछली बार की तरह अब वे अन्य बड़ी जातियों के भरोसे कोई दांव नहीं खेल सकते। ब्राम्हण मतदाताओं पर उनकी पकड़ पहले से ही कमजोर थी। लेकिन दलित ब्राम्हण गठजोड़ के चलते सपाई जनप्रतिनिधियों के क्षेत्र में हाथी के आगमन की पदचाप सुने जाने से अब निश्चिित तौर पर अधिक कमजोर हुई है। राजनाथ के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद राजपूत एक बार फिर से अपने इस नेता के इर्द-गिर्द जुटने लगें तो हैरत नहीं होगी। राजनाथ अपनी पार्टी के अकेले ऐसे नेता हैं जिन्होंने राजा भैया की गिरफ्तारी पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। इसलिए वे अभी भी राजपूत मतदाताओं की संवेदना को छूते हैं। ठाकुर वोटों को लुभाने के लिए मुलायम के पास भी राजा भैया का ही ‘फेस’ है। वैश्य वोट कई खेमों में विभाजित दिखता है। यह बात दूसरी है कि राज्य में व्यापारी राजनीति के अगुवा-श्याम बिहारी मिश्र और बनवारी लाल कंछल में से कंछल को भाजपा से सपा में लाने में वे कामयाब हुए हैं। लेकिन फिर भी मुलायम के पास अपने पुराने और आजमाये हुए ‘माई’ समीकरण पर गौर करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। ऐसे में यदि वे मुस्लिम वोटों के लिए हायतौबा मचाते हुए नजर आ रहे हैं तो ये स्वभाविक है।

समाजविज्ञानी डा. बृजेश श्रीवास्तव ने ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से बातचीत में कहा, ‘‘इन कोशिशों के जरिये वे राज्य के मुस्लिम मतदाताओं में अपनी धूमिल हो रही छवि को एक बार फिर से चमकाना चाहते हैं। वे बखूबी जानते हैं कि सूबे की सत्ता हासिल करने में उनके प्रति भाजपा की दृश्य-अदृश्य मदद ने मुसलमानों के बीच उनकी छवि को कमजोर किया है।’’ यह सिलसिला कमोबेश अभी भी जारी है। कांग्रेस इस बात को और अधिक जोरशोर के साथ अल्पसंख्यकों के बीच भी ले जा रही है। कांग्रेस प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह दावे के साथ इसे पुष्ट करते हुए कहते हैं, ‘‘भाजपा-संघ और सपा में भीतरी रिश्ते बेहद मधुर हैं। इसीलिए कांग्रेस के प्रदेश से लेकर देश तक के नेताओं के खिलाफ आलोचना की बंदूक लिये घूमते मुलायम भाजपा के विरूद्घ ऐसी गर्जना करते कहीं नजर नहीं आते।’’ राज्य की राजनीति में भाजपा के प्रतिपक्ष होने के बाद भी भाजपा का स_x009e_ाापक्ष पर या फिर मुलायम का विपक्ष पर हमलावर होने की जगह कांग्रेस को निशाना बनाना किसी मौन सहमति का संकेेत देता हैै। यह बात दीगर है कि भाजपा राज्य इकाई के अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी इसे पूरी तरह खारिज करते हैं। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद सूबे में पहली बार आए राजनाथ सिंह जब राज्य सरकार पर आरोपों और आलोचनाओं की झड़ी लगा रहे थे तब यह पूछे जाने पर कि सरकार बनाने में आप लोगों ने मदद की, क्या ऐसे में बराबर की हिस्सेदारी आपकी नहीं है? राजनाथ सिंह सवाल का माकूल जवाब देने की जगह टालते हुए बोले, ‘‘सरकार राजनीतिक दल नहीं, राज्यपाल बनाते हैं।’’ मुलायम को भी विधानसभा में विपक्ष की बेन्चों पर बैठेे विधायक नहीं बल्कि राजभवन में बैठा शख्स उन्हेेंं वन मैन आर्मी नजर आता है।

भाजपा और भगवा बिग्रेड से मुलायम के रिश्तों की शुरूआत मायावती द्वारा प्रताडि़त किये जाने के समय से हुई। धीरे-धीरे यह रिश्ते परवान चढ़े। विहिप को अयोध्या में कार्यक्रम करने देने की अनुमति देने और संघ प्रमुख से बीते पहली नवम्बर को मुख्यमंत्री की मुलाकात इन्हीं रिश्तों की कहानी कहती है। यह बात दीगर है कि संघ की ओर से इस मुलाकात के बावत यह तर्क गढ़ा गया कि, ‘‘संघ प्रमुख जिस भी राज्य में जाते हैं वहां के मुख्यमंत्री से मिलते हैं। संघ के प्रकृति भारती प्रकल्प के अन्तर्गत चलाये जा रहे जैविक खेती, गो-संवर्धन और जेट्रोफा से डीजल बनाने के मसलों पर बातचीत हुई।’’ लेकिन संघ के ही सूत्रों की मानें तो, ‘‘मुख्यमंत्री ने संघ प्रमुख सुदर्शन के कहने पर राज्य में हिन्दी विश्वविद्यालय खोलने और उनके प्रकृति भारती प्रकल्प देखने जाने का भरोसा दिलाया।’’ हाल में चित्रकूट में हुए समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय शिविर में मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव संघ के संस्थापकों में से एक नानाजी देशमुख से न केवल मिले बल्कि यह स्वीकार किया, ‘‘१९९० में अयोध्या आंदोलन के दौरान इस मसले पर नानाजी देशमुख उनके संकटमोचक थे।’’ नानाजी देशमुख ने भी मुलायम की तारीफ में कसीदे पढ़े। इतना ही नहीं, अयोध्या विध्वंस के आरोपी संतोष दूबे को फैजाबाद जिले के एक विधानसभा उपचुनाव में साईकिल पर ससम्मान सवारी कराने और अयोध्या मसले पर नई अधिसूचना जारी करने के अपने ही वादे को पूरा न करने में भी मुलायम को कोई गुरेज नहीं हुआ। ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल-लॉ बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी ने ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से बातचीत में कहा, ‘‘अधिसूचना जारी करने की हमारी डिमाण्ड मुस्तकिल है। इससे मुसलमानों पर असर है।’’

इन सारी वजहों से मुस्लिम मतदाता भ्रम की स्थिति में हैं। यह भ्रम स्थायी रूप से विरोध में बदल जाए इससे पहले मुलायम ‘डैमेज कंट्रोल’ की हर कोशिश कर लेना चाहते हैं। इन्हीं कोशिशों का तकाजा है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे के अदालत से खातमे के बाद मुलायम ने अपने अल्पसंख्यक फेस आजम खॉं को आगे कर दिया। आजम खुलेआम कह रहे हैं, ‘‘हाईकोर्ट ने अपने जिस फैसले में अल्पसंख्यक दर्जे को समाप्त किया कांग्रेस अगर पचास फीसदी आरक्षण नहीं करती, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी, तो यह मुद्दा सामने नहीं आता।’’ कुल मिलाकर अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त होने के पाप का घड़ा कांग्रेस पर फोड़ा जा रहा है। बीते ११ तारीख को डेनमार्क के एक अखबार में इस्लाम के पै$गम्बर मोहम्मद साहब को लेकर बनाये गये कार्टून के खिलाफ गुस्से का इजहार करने के लिए धर्म गुरू खालिद रशीद के नेतृत्व में निकाली गयी रैली और आगामी १९ तारीख को टीले वाली मस्जिद के इमाम मौलाना फजलुर्रहमान नदवी की अगुवाई में इसी मसले को लेकर विधानसभा तक होने वाले मार्च को लोग मुसलमानों के गुस्से को राजनीतिक ताकत देने की तैयारी के नजरिये से देख रहे हैं। मुस्लिम राजनीति की समझ रखने वाले हसन की मानें तो, ‘‘इन दोनों धर्मगुरूओं का साफ्ट कार्नर मौलाना मुलायम के प्रति खासा है।’’ रणनीतिक तौर पर भी देखें तो इन दोनों प्रदर्शनों में शिया और सुन्नी दोनों जमातों में संतुलन की बाजीगरी को साबित की है।

धरने प्रदर्शनों में ही नहीं, अकलियत के मसलों पर आवाज उठाने के मामलों पर भी पूरा का पूरा कुनबा कांग्रेस बनाम समाजवादी पार्टी या विचाराधारा, जो कुछ भी कह लें, के बीच बटा हुआ है। आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल-लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) मेें भी कमोबेश यही स्थिति है। उ.प्र. के अधिकांश प्रतिनिधियों से मुलायम के तालुक गहरे हैं। लेकिन हैदराबाद और बिहार के बहुसंख्यक प्रतिनिधि कांग्रेसी रिश्तों वाले माने जाते हैं। लेकिन अपनी ‘संतुलन साधने की बाजीगरी’ के चलते मुलायम ने ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल-लॉ बोर्ड की भी आवाज अनसुनी की। पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य कमाल फारूकी ने ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से कहा, ‘‘हमने दो साल पहले दो प्रस्ताव मुलायम सिंह को भेजे थे। पहला, उ.प्र. जमींदारी उन्मूलन एक्ट में संशोधन कर पत्नी और बेटी को भी कृषि भूमि में हिस्सेदारी देने। दूसरा, अयोध्या पर नई अधिसूचना जारी करने। परिणाम किसी में नहीं निकला।’’

लेकिन ऐसा नहीं कि मुलायम ने अकलीयत के अपने पारम्परिक मतदाताओं को खुश करने के लिए कुछ किया न हो। लेकिन हर बार की तरह इन्हें उतनी वाजिब, गैर-वाजिब तरजीह नहीं मिली जितनी इससे पहले मिला करती थी। दश्कों बाद ६७ मदरसों को एक साथ अनुदान सूची में शामिल करने का सवाल हो या फिर पिछड़े वर्ग के बच्चों को वजीफा देने का फैसला। मुलायम की मंशा अकीलियत के लोगों को फायदा पहुंचाने की है। क्योंकि अल्पसंख्यक समुदाय की कई जातियां पिछड़े वर्ग में शुमार हैं। धार्मिक कट्टरता के लिए विख्यात मुगल बादशाह औरंगजेब की प्रशंसा से मुलायम का कोई गुरेज नहीं करना और इस्लामिक काउंसिल फार प्रोडक्टिव एजूकेशन को विश्वविद्यालय की हैसियत प्रदान करना अल्पसंख्यक एजेण्डे का ही हिस्सा है। महात्मा गांधी के करीबी सहयोगी स्वतंत्रता सेनानी रहे मौलाना मोहम्मद अली जौहर के नाम पर रामपुर में एक अरब के बजट वाला उर्दू विश्वविद्यालय खोलने के फैसले पर राज्यपाल से तमाम जददोजहद और विवाद के बाद भी कायम रहना माई समीकरण को पुख्ता बनाये रखने की रणनीति का ही हिस्सा है। यह बात दीगर है कि मुलायम के उर्दू-फारसी विश्वविद्यालय के जवाब में कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह ने मदरसों में सुधार का पैकेज दे डाला। लेकिन कई अवरोधों के चलते विश्वविद्यालय नहीं खुला। फिर भी आजम खाँ ने जौहर विश्वविद्यालय न खुल पाने का ठीकरा कांग्रेस के अर्जुन सिंह पर फोड़ते हुए कहा, ‘‘मौलाना जौहर विश्वविद्यालय का विरोध उस कांग्रेस ने किया है जो आज से नहीं। चार पीढिय़ों से मुसलमानों की दुश्मन रही है।’’ अल्पसंख्यक आयोग को अधिकार देने, तीन हजार उर्दू शिक्षकों की भर्ती का ऐलान, अल्पसंख्यकों के लिए आवास की नई योजना के साथ ही साथ लोकसभा चुनाव से ऐन पहले मुलायम सरकार ने जुमे के दिन शिक्षा संस्थाओं में अवकाश का ऐलान किया। यह बात दीगर है कि इसे लेकर हंगामा मच गया। तब मुस्लिम संगठनों को भी विरोध में खड़ा होना पड़ा।

लेकिन फिर भी उन्होंने अपने इस पारम्परिक मतदाता को रेवडिय़ां बांटने से परहेज नहीं किया। तभी तो २६३ मदरसों को मान्यता, उर्दू-फारसी विद्वानों को पेंशन, अल्पसंख्यक कालेजों की नियुक्ति में आयोग की दखल खत्म करने एवं अरबी-फारसी मदरसे के शिक्षकों की सेवानिवृति की उम्र ६२ साल करने के साथ-साथ उन्हें पांचवे वेतन आयोग की सिफारिश के अनुरूप पगार देने का ऐलान सरीखे निर्णय लिये। सूबे भर में पसरी वक्फ समपत्तियों पर अतिक्रमण और कब्जे को रोकने के लिए लम्बे समय से उठ रही कानून संशोधन की मांग को अमली जामा भी पहनाया। इमराना प्रकरण पर फतवे को लेकर जब अकीलियत के मतदाताओं, बुद्घिजीवियों और आमजनों में बहस-मुबाहिसा का दौर चल रहा था तब भी मुलायम सिंह यादव ने इस अहम और विवादास्पद मसले से खुद को अलग रखने की जगह सधी हुई प्रतिक्रिया देना वाजिब समझा था। उन्होंने कहा था, -मुसलमानों के धार्मिक नेता काफी विद्वान हैं। वे अपने मुस्लिम समुदाय और उनकी भावनाओं से अवगत हैं। उन्होंने सोच-समझकर ही फतवा जारी किया होगा। भाजपा महासचिव विनय कटियार ने ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से कहा, ‘‘मऊ दंगों में मुख्तार अंसारी को सपोर्ट करना ही नहीं, मुलायम की खास मानी जाने वाली नौकरशाह नीरा यादव द्वारा मुख्तार अंसारी को क्लीन चिट थमा देना भी अकलीयत के लोगों को रिझाने की कोशिश का ही नतीजा है।’’

लेकिन पिछले दो कार्यकालों के हालात देखते हुए सिर्फ इनसे ही मुलायम के पारम्परिक मुस्लिम मतदाताओं को तसल्ली नहीं मिल रही थी। क्योंकि कार्यक्रमों में शिरकत और मौलानाओं से मिलने-जुलने का सिलसिला मुलायम की अपनी व्यवस्तताओं के चलते कुछ घट जरूर गया था और ऐसे में जब मुस्लिम मामलों के अध्ययन के लिए प्रधानमंत्री द्वारा बनायी गयी हाई पावर कमेटी उ.प्र. के दौरे के समय यह ऐलान करे, ‘‘सूबे में आज भी मुसलमान खुद को असुरक्षित और हीन भावना से ग्रस्त महसूस कर रहा है। उन्हें लगता है कि वे दोयम दर्जे के नागरिक हैं। पिछले १५ महीनों में मुस्लिम समुदाय के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कई सुधार कार्यक्रम चले लेकिन उसकी प्रतिछाया उ.प्र. में दिखायी नहीं देती है।’’ यह बात दीगर है कि कमेटी ने अयोध्या मामले में मुलायम को क्लीन चिट थमाई।

इस समय सपा दरअसल दो स्तरों पर संघर्ष कर रही है। पहला, उसका शीर्ष नेतृत्व कांग्रेस खासकर सोनिया गांधी की नाराजगी के सम्भावित परिणामों की आशंका से चिन्तित हैै। इसकेेचलते उसे न केवल राज्य और राष्ट्रीय राजनीति में सहयोग के नए-नए समीकरण खोजने-बनाने पड़़ रहेे हैै। सपा का दूसरा संकट सत्ता जाने के भय से जुड़़ा हैै। इस भय का आधार वे प्रत्यक्ष चुनाव रहे हैं। जहां सपा के खिलाफ जनादेश मुखरित हुुआ हैै। मुलायम सभी खतरों से वाकिफ हैैं। उन्हें पता है कि उनके माई समीकरण में सेंध लगाये बिना कुछ नहीं किया जा सकता। कांग्रेस राज्य इकाई के अध्यक्ष सलमान खुर्शीद से कुछ यूँ बयान करते हैं, ‘‘समाजवादी पार्टी एक ऐक्सीडेन्ट है। जिसका संबंध बाबरी से है। जिस आधार पर उसका जन्म हुआ उसमें कोई डिजाइन नहीं है। आधार नहीं है। अब कई जगहों से दबाव बन रहा है। सपा का ढांचा गिरेगा। उ.प्र. में जातीय आधार पर चल रही राजनीति की बर्फ पिघलनी शुरू हो गयी है। इस बर्फ को मुसलमानों ने जमाया था। मुसलमान वोट शिफ्ट हुआ है। कांग्रेस विकल्प के रूप में सामने आ गयी है।’’ हालांकि समाजशास्त्री प्रो. के.के. मिश्र ने बातचीत में कहा, ‘‘मुसलमानों पर मुलायम की ढीली पकड़ की कोई खास वजह नजर नहीं आती है। मुसलमानों के पास मौजूदा राजनीतिक हालात में कोई अन्य ठिकाना भी तो नहीं है।’’

लेकिन गोरखपुर विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डा. राम कृष्ण त्रिपाठी ठीक उलट विचार रखते हैं। वह कहते हैं, ‘‘जो स्थिति मुसलमानों के बीच अयोध्या क ी घटना के बाद बनी थी, उसमें काफी बदलाव आया है। मुसलमानों में मुलायम का जनाधार खिसका है।’’ मुलायम की राजनैतिक शैली के जानकारों की मानें तो, ‘‘उन्हें समीकरण के टूटने, बनने और बिखरने का इलहाम है।’’ इसीलिए ईरान मसले से वह उस वोट बैंक को प्रभावित करने की कोशिश में हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य फारूकी कहते हैं, ‘‘वह मुसलमानों को उकसा रहे हैं। ईरान मसले पर वह अगर मुसलमानों के हित की बात कर रहेे हैैंं तो वह ऐसा ही हैै। लेकिन राष्ट्र्र हित की बात होती तो हम ऐसा न महसूस करते और न ही कहते।’’ ईरान मसले पर मुलायम की आक्रामक शैली इसे पुष्ट करती है। मुलायम सिंह यादव ने बातचीत में कहा, ‘‘ईरान के खिलाफ मतदान करके केन्द्र सरकार ने देश के मुसलमानों की पीठ में छुरा घोंपने का कार्य किया है। सपा इसे बर्दाश्त नहीं करेगी। इसे लेकर राष्ट्रवादी आंदोलन चलाया जायेगा। जो १८ फरवरी से शुरू होगा।’’ विदेश नीति के मसले पर मुलायम वाम दल के साथ लखनऊ में एक भारी-भरकम रैली भी कर चुके हैं। ईरान का मसला अभी गर्म हो ही रहा था कि डेनमार्क के एक अखबार में इस्लाम के पै$गम्बर मोहम्मद साहब को लेकर बनाये गये एक कार्टून के विवाद ने भी तूल पकड़ लिया। इसे लेकर सूबे में अकलीयत के लोग खासे गुस्से में हैं। बीते ११ तारीख को खालिद रशीद की अगुवाई में हुए प्रदर्शन में लाखों लोगों ने शिरकत किया। प्रदर्शन के आयोजक खालिद रशीद ने ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से बातचीत में कहा, ‘‘इससे मुसलमानों के मजहबी जज्बात को ठेस पहुंची है। मुसलमानों का ईमान है कि वह मर सकता है लेकिन इस्लाम के पै$गम्बर की शान में गुस्ताखी बर्दाश्त नहीं कर सकता।’’ महिला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की शाइस्ता अम्बर की अगुवाई में भी हुए प्रदर्शन के दौरान कहा गया, ‘‘मजहबी जज्बात के साथ खेलना खौफनाक होगा।’’ अभी सपा इसे धार्मिक मुद्दा मानकर कूदी नहीं है। लेकिन इस धार्मिक मसले को लेकर नाराज लोगों के निशाने पर भी मुलायम सिंह की ही तरह केंद्र सरकार है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। अगर इस रणनीति पर मुलायम सिंह ने कुछ कदम आगे बढ़ाये तो मुसलमानों के गुस्से का राजनीतिक लाभ उन्हें ही मिलेगा।

(योगेश मिश्र)

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(जरूरी हो तो कहीं जोड़़ लीजिएगा)

-जाने माने शायर मुनव्वर राणा ने ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से बातचीत में कहा, ‘‘ईरान मसले को उठाकर मुलायम पॉलिटिकल गेन लेना चाहते हैं। उ.प्र. केे मुसलमानों के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैैं। ईरान के मुसलमानों को न्याय दिलवाने चले।’’ राणा कहते हैैं कि, ‘‘उर्दू में नेमप्लेट तो जरूर लगवा दी गई हैैं। लेकिन उनमें जो कुुछ भी लिखा हैै वह उर्दू लिपि में भले हो। लेकिन उसकी भाषा अंग्रेजी या हिन्दी है। उर्दू में मुख्यमन्त्री नहीं वजीर-ए-आला होता हैै। लेकिन तख्तियों पर मुख्यमन्त्री दर्ज है।’’
-इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रोफेेसर और बुद्घिजीवी अली अहमद फातमी ने ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से बातचीत में कहा, ‘‘अकलियत केलिए मुलायम सिंह अब काबिल-ए-ऐतबार नेता नहीं रहेे। ईरान केे मुद्ïदे पर वे एक तीर से दो निशाना साध रहे हैैंं। मुसलमानों को खुश करने के साथ-साथ कांग्रेस से अपना हिसाब-किताब भी बराबर करना चाह रहे हैैं।’’

-फातमी ने कहा, ‘‘अपने इस कार्यकाल में शिक्षा, रोजगार और अकलियत के लिए मुलायम ने कोई उल्लेखनीय योगदान नहींं किया। सब कागजी हैै। अकलियत इसे समझ रही हैै। ’’

-मजलिस अरेेबिया उ.प्र. मैनेजर एसोसिएशन के ज्वाइन्ट सेेके्र टी शमीम हाशमी का कहना हैै, ‘‘ईरान-ईराक के मामले में हिन्दुस्तान को पुराना रवैया रखना चाहिए था। लेकिन ईरान का मुद्ïदा वोटों की राजनीति हैै।’’ हाशमी बताते हैैं, ‘‘उ.प्र. में कुुल ६८४ मदरसे हैैं। आधुनिक शिक्षा के बावत केन्द्र सरकार ने विज्ञान और कम्प्यूटर की तालीम देने केे लिए पैसे भेजे। लेकिन राज्य सरकार उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं दे पाई। नतीजतन, सब कुुछ अटक गया।’’

-योगेश मिश्र
Dr. Yogesh mishr

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