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हाथ गया साथ की तैयारी

Dr. Yogesh mishr
Published on: 27 Feb 2007 8:27 PM IST
दिनाँक: 27.०2.2००7
जब मुलायम सिंह यादव केंद्र की कांग्रेस नीति सरकार से गुत्थम-गुत्था कर रहे थे तो बड़े से बड़े राजनीतिक समीक्षक को भी यही उम्मीद थी कि उनका हश्र भी बसपा सुप्रीमो मायावती सरीखा ही होगा। इस उम्मीद की वजहें भी थीं। दोनों तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहे हैं। दोनों के नाम की एक ही वर्णमाला है। दोनों जातीय राजनीति के धुरी हैं। दोनों ने राष्टï्रीय पार्टियों के कंधों पर सवार होकर अपनी जगह बनाई है। दोनों के खिलाफ अदालती फैसलों की ऐसी भरमार रही कि पूरे तीसरे कार्यकाल इससे निपटते-निपटाते ही बीता। आय से अधिक संप_x009e_िा का मामला भी दोनों नेताओं-माया और मुलायम, के खिलाफ सर्वोच्च अदालत की दहलीज तक पहुँचा। इस मसले पर मुलायम सिंह के खिलाफ दायर याचिका के फैसले को लोग मायावती के तर्ज पर ही देख-समझ रहे थे। पर, अचानक पूरे एक दिन कांग्रेस के खिलाफ सक्रिय और आक्रामक रहे सपा नेता मुलायम सिंह यादव और अमरसिंह ने सूबे में राष्टï्रपति शासन आयद करने के कांग्रेसी मंसूबे को वामपंथी साथियों की मदद से न केवल पलीता लगा दिया बल्कि राज्य भर से आए अपने कार्यकर्ताओं, नेताओं के सामने खम ठोककर इस कदर खड़े हुए कि उनका हौसला भी कुलांचे मारने लगा। इस बैठक में जनेश्वर मिश्र ने कहा, ‘‘केंद्रीय योजनाएं नहीं चलने देंगे। कांग्रेस की सभा रैलियां नही होने देंगे।’’ हालांकि यह कहते समय उन्हें भी यह नहीं इलहाम था कि राष्टï्रपति शासन आयद करने के पैरोकार प्रबंधकों के आगे सपाई हित चिंतकों की कांग्रेसी जमात भारी पड़ेगी। पर इस बात का खुलासा होता इसी बीच चुनाव आयोग ने राज्य के विधानसभा चुनाव की तिथियां घोषित कर कांग्रेस को मुँह छिपाने और नए मुद्रा में खड़े होने का मौका मुहैया करा दिया। गौरतलब है कि राज्य में विधानसभा चुनाव 7 अप्रैल से शुरू होकर सात चरणों में सम्पन्न होंगे। वोटों की गिनती 11 मई को होगी। चुनाव आयोग द्वारा छीनी गई इस पहल के बाद सूबे में मुलायम सरकार पर से संकट टला लेकिन संग्राम की दूसरी पारी शुरू हो गई।

जब दलित नेता रामविलास पासवान और उदितराज दोनो सूबे की राजधानी लखनऊ में महारैली और रैली करके अपनी राजनीतिक हैसियत का एहसास कराते हुए दलित वोटों में सेंध लगने का संदेश दे रहे थे। तब मायावती ने बसपा के 63 और अन्य दलों से आए 11 विधायकों के इस्तीफे लेकर अपने पॉकेट में डाल न केवल मीडिया की सुर्खियां बटोरी बल्कि ठीक 48 घंटे बाद सदन में बहुमत हासिल करने का खम ठोक रहे मुलायम सिंह यादव के सामने पांच साल पहले चले गये उन्हीं के दांव से एक नई मुश्किल खड़ी करते हुए उन्हें चित कर दिया। यह बात दीगर है कि अभी तक मायावती के विधायकों का यह इस्तीफा विधानसभा अध्यक्ष अथवा राज्यपाल के पास तक पहुँचा नहीं। इसे लेकर जरूर इस्तीफे की मंशा पर सवाल उठे। खिल्लियां उड़ीं। गौरतलब है कि मौजूदा विधानसभा का गठन 26 फरवरी 2००2 को हुआ था लेकिन पहली बैठक 14 मई ०2 को हुई थी। संविधान के अनुच्छेद 172 की व्यवस्था के मुताबिक विधानसभा कार्यकाल 13 मई को पूरा होगा लेकिन विधायकों के वेतन भ_x009e_ो विधानसभा गठन के साथ ही मिलना शुरू हो जाते हैं। जाहिर है कि नैतिकता की कसौटी पर विधानसभा के पांच साल 25 फरवरी को पूरे हो चुके हैं। वर्ष 2००1 में पिछली विधानसभा को लेकर इसी तरह की परिस्थिति में यह मुद्ïदा तत्कालीन मुख्य विपक्षी दल सपा ने उठाया था। उसके सभी विधायकों ने इस्तीफे सौंप दिये थे। नतीजतन मायावती के इस्तीफे के दांव ने मुलायम सिंह को अपनी पुरानी नैतिकता के स्मरण का आइना दिखाया।

यह बात दीगर है कि 14वीं विधानसभा के कार्यकाल में इस तरह के कई नायाब नमूने और कारनामे पेश हुए कि नैतिकता का सवाल तिरोहित हो गया। यह पहली विधानसभा है जब किसी मुख्यमंत्री ने साढ़े तीन सालों में 22 बार विश्वासमत हासिल करके खुद अपनी सरकार को अविश्वास के भंवर में फंसा लिया हो। ऐसा इसलिए क्योंकि पूरे 42 माह के कार्यकाल में विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाने की स्थिति में तक नहीं आ पाया। फिर भी विश्वासमत खुद-ब-खुद हासिल किये गये। यही नहीं बीते 26 तारीख को तो तब हद हो गई जब एकदम खाली पड़े सदन में भी सरकार ने न केवल विश्वासमत हासिल किया बल्कि प्रफुल्लित हो अपनी पीठ भी थपथपाई। क्योंकि इस तिथि को कांग्रेस और रालोद ने सदन का बहिष्कार किया था। इस्तीफे की वजह से बसपाई दहलीज तक नहीं गये थे। भाजपाइयों ने उपस्थिति दर्ज कराई। पर, उसके ही दस विधायक जब स_x009e_ाा पक्ष की तरफ बैठे थे तो उनकी सदस्यता रद्ïद करने और सदन के गठन को अवैधानिक बताते हुए उन्होंने जब बहिष्कार किया। उसी बीच एक लाइन का अविश्वासमत पेश कर मुख्यमंत्री ने अपनी सरकार के पक्ष में 212 मत जुटा लिये। इसी विधानसभा के कार्यकाल के दो अध्यक्षों-केशरीनाथ त्रिपाठी और माताप्रसाद पांडेय के खिलाफ सर्वोच्च अदालत तक को बड़ी तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी। यह पहली विधानसभा है जिसके विधायकों को न केवल अयोग्य घोषित किया गया बल्कि अदालत द्वारा उनकी अयोग्यता 27 अगस्त 2००3 से करने के चलते तकरीबन साढ़े तीन साल तक मंत्री के रूप में किये गये उनके कामकाज को भी कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। इस मामले में भी यह विधानसभा नायाब रही कि उसके ही सदस्यों ने अपने संवैधानिक प्रमुख राज्यपाल को ‘पागल हाथी’, ‘मारीच’, ‘डाकिया’ और ‘चपरासी’ कहकर संबोधित किया।

जिस समय सरकार सदन में बहुमत के आंकड़ों की गोट फिट कर रही थी। उसी समय सदन के ठीक बाहर जनमोर्चा और कांग्रेस के लोगों ने मुलायम के खिलाफ संग्राम की शुरूआत का बिगुल फूंकते हुए कई संकल्प और दावे किये। जनमोर्चा के आटोमैटिक मुक्ति संग्राम रथ पर सवार हो पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा, ‘‘यह बनाई गई नहीं, चुराई गई सरकार है। यह सरकार भाजपा और मुलायम सिंह के सिद्घांतहीन राजनैतिक संबंधों की अवैध संतान है। इसे तुरंत हटा देना चाहिए।’’ जनमोर्चा की रैली में लालू का राजद, अरशद खान की नेलोपा भी थी। हमेशा विलंब से फैसले लेने वाली कांग्रेस को प्रदर्शन का मौका भी जनमोर्चा के बाद मिला। अनिश्चय के चलते ही इसके विधायकों ने भी इसी दिन अपना इस्तीफा राज्य इकाई के अध्यक्ष को सौंपा। 26 तारीख को सदन के बाहर हुए विरोध प्रदर्शन से यह तस्वीर तो साफ उभर गई कि राज्य के आगामी विधानसभा चुनाव में रालोद, कांग्रेस, जनमोर्चा और उसके साथ चल रहे यूडीएफ, इजपा, नेलोपा और लोक जनशक्ति सरीखे दल कदम से कदम मिलाकर मुलायम को घेरने में साथ रहेंगे। पिछले चुनाव में छोटे-बड़े कुल मिलाकर 91 दल चुनावी अखाड़े में उतरे थे। इनमें से रालोद के 14, राष्टï्रीय क्रांति पार्टी के 4 और अपना दल के 3 विधायक जीतने के साथ ही साथ केवल 4 अन्य दल अपना खाता खोलने में कामयाब हुए थे। बाकी दलों के एक भी उम्मीदवारों को विधानसभा का मुँह देखना नसीब नहीं हुआ।

अगस्त 2००3 में मुलायम सरकार के गठन के साथ गठजोड़ का हिस्सा बने दलों का एक-एक करके अलग होना। चुनावी बिसात पर बाजी को अपनी जीत में त_x008e_दील करने के लिए नए साथी की तलाश, जोड़-जुगत के समीकरणों का बनना इस बात का गवाह है कि सूबे में सियासी संग्राम अब विधानसभा से निकलकर सडक़ से होते हुए जनता-जनार्दन तक आ गया है। दिलचस्प यह है कि पूरी की पूरी लड़ाई सरकार बनाने के लिए नहीं बल्कि सबसे बड़े दल के रूप में स्थापित होने के लिए लड़ी जा रही दिखती है। स_x009e_ाा प्राप्ति संकल्प रैली के मार्फत बसपा अपनी हैसियत का एहसास कराने पर आमादा है। इसके लिए मायावती ने हर विधानसभा से दस हजार लोग लाने का फरमान जारी कर दिया है। सभी सियासी दलों के निशाने पर मुलायम सिंह यादव हैं। मुलायम सिंह भी सधे हुए सियासी पहलवान की तरह विपक्ष के हर वार को कुंद करने में कामयाब दिख रहे हैं। नैतिकता का पाठ पढ़ाने वालों को वह दो टूक कहते दिख रहे हैं, ‘‘हमारी सरकार तो उन्हीं लोगों ने बनवाई जो नैतिकता की दुहाई दे रहे हैं।’’ उनकी यह बात काबिले गौर भी है क्योंकि कल्याण सिंह उन दिनों मुलायम सरकार बनाने के सूत्रधार की भूमिका में थे। इन दिनों वह भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री के संभावित उम्मीदवार हैं। कांग्रेस और रालोद की चिट्ïिठयां भी मुलायम की ताजपोशी में काम आईं थीं। रालोद ने तो 4० महीने तक स_x009e_ाा की मलाई भी काटी। भाजपा के राज्य इकाई के अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी के विधानसभा अध्यक्ष रहते हुए मुलायम ने दलबदल का कारनामा कर अपनी सरकार का गठन किया था। सर्वोच्च अदालत द्वारा सरकार के गठन के समय विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका को लेकर उठाये गये सवाल ने भाजपा को भी नैतिकता के सवाल पर बैकफुट पर रहने के लिए मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने यह कहकर मजबूर कर दिया है कि, ‘‘मैं तो सरकार बनाना नहीं चाहता था।’’ सूबे में जो कुछ हुआ और हो रहा है उसके बावत बस यह कहा जा सकता है-‘इस सिरे से उस सिरे तक, सब शरीके जुर्म है।’

-योगेश मिश्र
Dr. Yogesh mishr

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