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माया और मुलायम में फर्क

Dr. Yogesh mishr
Published on: 15 May 2007 10:09 PM IST
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हालांकि दोनो अपने किये-धिये को लेकर सुप्रीमकोर्ट के कटघरे में खड़े हैं। पर जनता के कटघरे में फिलहाल मुख्यमंत्री मायावती के तौर तरीके मुलायम सिंह के तौर-तरीकों से कई गुना बेहतर और निष्पक्ष दिखाई दे रहे हैं। चाहें मंत्रिमंडल गठन रहा हो या नौकरशाही का पुनर्नियोजन। ऐसा लगता है कि मायावती ने चुनाव परिणाम आने से बहुत पहले ही अपना होमवर्क कर लिया था और इसी के चलते 48 घंटे से भी कम समय में उन्होंने मंत्रियों और नौकरशाहों की जो टीम पेश की है। उसमें मीन-मेख निकालना उनके विरोधियों के लिए भी मुश्किल साबित हो रहा है। नौकरशाही के प_x009e_ो फेंटते समय काबिल अफसरों-जिनमें मुलायम के कुछ नजदीकी भी शामिल हैं-की तैनाती से उन्होंने उन मुलायम सिंह को बहुत पीछे छोड़ दिया है, जिन्होंने अपने मुख्य सचिवों की नियुक्ति में उनकी दागदार छवि को प्राथमिकता दी थी। कुल जमा यह कि इस दफा मायावती अपने नारों पर विश्वास जमाने के लिए काम करती दिख रही हैं। ताकि उनकी चौथी पारी लंबी और दुर्घटनाओं से मुक्त रह सके।

अलब_x009e_ाा इस पारी में मुलायम के प्रति उनका पुराना ‘प्रेमभाव’ बदस्तूर कायम है। शपथ ग्रहण के फौरन बाद अपने प्रेस कान्फ्रेन्स में उन्होंने साबित कर दिया कि वे मुलायम के गलत फैसलों को लेकर उन पर रहम करने के लिए कतई तैयार नही हैं और उनके कोप की कटार की परिधि में वे नौकरशाह गर्दनें भी होंगी जो मुलायम के इन विवादास्पद फैसलों की पटकथाएं लिखते थे। माया और मुलायम के बीच समानता के बिंदु तलाशे जायें तो कहा जा सकता है कि दोनों के नाम की शुरूआत का पहला अक्षर एक ही है। दोनों की राशियां एक हैं। दोनों अपनी-अपनी सियासी पार्टी के सुप्रीमो हैं। दोनों ने अपनी राजनीतिक हैसियत राष्टï्रीय पार्टियों से हासिल की है। दोनो अपने वोट बैंक के प्रति खासे समर्पित हैं। जिसे वे छिपाना जायज नहीं समझते। दोनों अपनी तवियत से फैसले करते हैं। दोनों की अपनी खास शैली है जिसके लिए वे जाने जाते हैं। दोनों की शैली में मन की प्रधानता है और दोनों में ही व्यक्ति केंद्रित स_x009e_ाा है। पार्टी सिस्टम नहीं है। पर दोनों की तासीर पर नजर डालें तो बड़ा फर्क भी साफ दिखायी पड़ता है। मायावती सियासत में प्रयोगधर्मी हैं। तभी तो उनने अपने वोट बैंक को बांधने, ट्रांसफर कराने के साथ-साथ नये वोट बैंक को जोडऩे की सियासी कला को अंजाम देकर स्पष्टï बहुमत का मुकाम हासिल किया। मुलायम उदारवादी हैं जबकि मायावती कठोर। मुलायम रिश्तों को बचाने के लिए तमाम कुर्बानियां देते हैं-मसलन मंत्री लड़ते रहे, रालोद दबाव बनाता रहा और उनके कबीना सहयोगी दुर्गा मिश्र इस्तीफा देते रहे। पर उन्होंने अपनी तरफ से रिश्तों पर कुल्हाड़ी नहीं चलाई। मायावती में रिश्तेदारी नहीं चलती। आदमी नहीं समझ रहा होता है तो वह बाहर करने में कोई दिक्कत और देर नहीं लगाती हैं। इसीलिए कांशीराम के साथ बहुजन समाज का मिशन शुरू किये तमाम लोग यह कहते और सुनते मिलते हैं। पर मायावती जानती हैं कि लोग आते रहते हैं। कारवां बढ़ता रहता है।

मुलायम अपराधियों, दागियों के प्रति मुलायम रहते हैं। इसीलिए उन पर आरोप लगता है कि उनके समय में कानून-व्यवस्था चरमरा रही है। उनकी इसी आदत का फायदा उठाकर कार्यकर्ता और उनके अपने नेता भी लोगों से रुखा और चुभने वाले बर्ताव करने लगते हैं। वह अपराधियों और दागियों से दूर रहने का प्रयास करते भी नहीं दिखते हैं। लेकिन मायावती कठोर रुख के लिए जानी जाती हैं। मायावती बसपा को एक सीईओ की तरह चलाती हैं। वह एक साथ उम्मीदवारों की सूची जारी करती हैं। एक साथ शपथ ग्रहण कराती हैं और एक साथ नसीहतें और हिदायतें देती हैं। मीडिया को भी उनके अगले कदम के बारे में कुछ भी अनुमान लगा पाना मुश्किल होता है। पर मुलायम सिंह इसके ठीक उलट हैं। वह मीडिया पर भरोसा करते हैं। उनके हिसाब से खबरें बनवाते और चलवाते हैं। पार्टी में विरोधी ताकतों के संतुलन साधने की बाजीगरी करते हैं। पर नियम-कानून की स_x009e_ाा और संस्थाओं के प्रति मुलायम का विशेष अनुराग नहीं दिखता है। आरोप लगता है कि वे संस्थाओं को कमजोर करते हैं। इसकी नजीरें भी हैं। अदालत में सपाई हल्ला बोलते हैं। मीडिया पर वे आक्रामक हो उठते हैं। हालांकि मीडिया पर सपा और बसपा के रुख में कोई खास फर्क नहीं है। पर यह संस्थाओं के प्रति मुलायम के नजरिये का ही तकाजा है कि जब चुनाव आयोग की तारीफ सारे दल कर रहे हैं, तब वह कह रहे हैं कि आयोग ने हरवाया। मायावती के समय में नौकरशाही नियमों-कानूनों के दायरे में बँधी हुई दिखाई देती है। उनके यहां दंड एवं पुरस्कार की व्यवस्था बड़ी प्रत्यक्ष दिखती है। मुलायम की स_x009e_ाा या शासनकाल में स_x009e_ाा के कई केंद्र या कई स_x009e_ाा केंद्र रहते हैं। मायावती के कार्यकाल में स_x009e_ाा का केंद्र सिर्फ एक होता है-मायावती का। यह नहीं होता तो वह बहुमत में नहीं आतीं। इस परिणाम से स्यापा करने की स्थिति भाजपा को नहीं है। इस परिणाम से यह जानने की जरूरत नहीं है कि भाजपा खत्म हो गई। इस बार लोग चाहते थे कि मुलायम न केवल हटें बल्कि पिट भी जायें। इन लोगों को लगा कि भाजपा मुलायम सिंह के खिलाफ उतनी कठोरता नहीं दिखा पायेगी। वह काम सिर्फ मायावती कर सकती है। अपने चुनावी अभियानों में उन्होंने इस बात के संकेत भी दिये। इसीलिए ऐसे समय में जब राजनीतिक पंडित मुलायम के विकल्प को लेकर त्रिशंकु विधानसभा की तस्वीरें खींच रहे थे। मतदाताओं में अंडर करेंट बह रही थी और ऐसा केवल इसलिए था क्योंकि लोगों को इस बार सौ फीसदी यकीन था कि मुलायम सरकार के भ्रष्टï कुशासन से निजात सिर्फ मायावती दिला सकती है और वही उन लोगों को सजा भी दे सकती हैं। जिन्होंने पिछले तीन-साढ़े तीन सालों से अपने मनमाने तरीकों से प्रदेश में अराजकता के हालात कायम कर दिये थे।

-योगेश मिश्र


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Dr. Yogesh mishr

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