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सेतु समुद्रम? हिन्दू का सवाल : पीछे मुड़ मुद्रा राक्षस

Dr. Yogesh mishr
Published on: 17 Sept 2007 9:10 PM IST
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भगत सिंह ने यह बात बहुत अफसोस के साथ लिखी थी कि आजादी की लड़ाई के लिए संघर्ष करने वाले अनेक नेता और विख्यात क्रांतिकारी भी धर्मांथ हिन्दू थे। और बाद में कांग्रेस पार्टी के अधिकांश नेताओं का चरित्र वैसा ही बना रहा था। बाबरी मस्जिद में जबरन आजादी के तुरंत बाद जो मूर्तियाँ रख दी गई थीं उन्हें जवाहर लाल नेहरू की असहमति के बावजूद गोविन्द बल्लभ पंत ने नहीं हटवाया था। श्रीमती इन्दिरा गांधी शंकराचार्य के आशीर्वाद के फेर में अपमानित हुई थी। इसके बाद कांग्रेस धीरे-धीरे हिन्दू संगठनों की प्रतियोगी बनती गई। यहाँ तक कि उसे जब भी मौका मिला, वह हिन्दूत्व के जूतों के घर बनाने में संकोच छोड़ती गई। विवादित मूर्तियों का ताला खुलवाना हो या हिन्दू संगठनों से पहले दीखने के चाँव में उसने शिलान्यास से भी संकोच नहीं किया। यानि कांग्रेस ने भी यह मान लिया कि कोई राम थे, जिन्होंने वहीं जन्म लिया था। उसने धर्म निरपेक्षता के अपने सारे दावों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी से आगे बढक़र उसी पाँत में जगह पाने का उत्साह दिखाया। यह स्वाभाविक भी था। कांग्रेस गांधी पर भरोसा करती थी जो घोषित सनातनी हिन्दू थे। ठीक इसी मजबूरी ने कांग्रेस को एक बार फिर सेतु समुद्रम के मुद्ïदे पर बेबस कर दिया।

जिसे वाल्मीकि या तुलसीदास ने भी राम सेतु कभी नहीं लिखा। उसे चंद अद्र्घ शिक्षित उत्साही लोगों के दबाव में भारत सरकार ने भी राम सेतु मान लिया। राम सेतु और राम मिथकीय कल्पनायें हैं, इतिहास नहीं है, यह बात अदालत के सामने रखने वाले अधिकारी तत्काल दंडित हो गये। यानी यह देश अब तात्विक या रैशनल होना अपराध मानने लगा है और इस देश में अब वह कुछ ही मान्यता पायेगा जो अंधिविश्वासी कह दें। कानून मंत्री ने कहा कि यह आस्था का सवाल है और प्रत्येक हिन्दू के मन में राम का वास है। ब्रम्हा, विष्णु और राम के बारे में यह कहना अनुचित होगा कि ये हमारे इतिहास के अंश नही हैं। क्या राष्टï्र यह भूल चुका है कि इतिहास और मिथक में क्या अंतर होता है? और अब हमें यह डर भी महसूस हो रहा है कि बाबरी मस्जिद मुद्ïदा लेकर केंद्र सरकार का जन्मभूमि पर भी यही रुख होने वाला है? अभी हाल में उ.प्र. के उच्च न्यायालय के एक जज ने फैसले में कह दिया कि गीता को राष्टï्रीय धर्मग्रन्थ घोषित कर दिया जाय। कानून मंत्री को यह क्यों अमान्य है? या इसे स्वीकृत करने के लिए भी उन्हें चंद युवकों द्वारा रेल रोके जाने और बस फूँकने का इंतजार है? फिर एक बड़ा सवाल और। कानून मंत्री भारद्वाज को यह घोषणा करने का अधिकार किसने दिया कि प्रत्येक हिन्दू के मन में राम का वास है। क्या वर्तमान हिन्दू संगठनों को अपनी आस्थाओं को लेकर शत-प्रतिशत हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व प्राप्त है? यह वक्तव्य देकर भारद्वाज महोदय बहुत बड़ी संख्या के तार्किक और नास्तिक हिन्दुओं को जलील नहीं कर रहे हैं?

मंडल कमीशन को लेकर 1992 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया था, उसमें एक जज ने कटुता के साथ कहा था कि इस देश में सिर्फ दस फीसदी लोग शिक्षा, संस्कृति, उद्योग जैसे सारे संसाधनों पर काबिज हैं। इसी दस प्रतिशत का एक और महत्वपूर्ण सच ध्यान में रखना होगा। सन्ï 19०1 तक देश में होने वाली जनगणना के समय सवर्णों की ओर से प्रतिवेदन दिया जाता रहा था कि पिछड़े-दलित हिन्दू नहीं है, इन्हें हिंदुओं में न परिगणित किया जाय। कानून मंत्री यह सब जानते होंगे फिर भी वे तथाकथित ‘रामसेतु’ या ‘राम’ को राष्ट्र की आस्था क्यों बना रहे हैं? वे यह क्यों भूल जाते हैं कि पेरियार और अंबेडकर के अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में हैं? वे शंबूक या रावण को मारने वाले राम को स्वीकार नहीं करते। देश में दलितों के तार्किक अभियान को केंद्रीय कानून मंत्री किस हक से चोट पहुँचाना चाहते हैं? इस देश में आर्यसमाज जैसे हिंदू संगठनों ने भी मूर्तियों का विरोध किया था। इस संगठन ने राम, कृष्ण, विष्णु के अस्तित्व को नकारा था। दयानंद सरस्वती, रामास्वामी पेरियार की तरह पूर्ण तार्किक नहीं थे। फिर भी अंध विश्वासों से मुक्ति की दिशा में उन्होंने बड़ा काम किया था। किस हक से कानून मंत्री राम को लेकर उन्हें भी अंध विश्वासी बनाना चाहते हैं, यह घोषित करके कि आर्यसमाजी हिंदुओं में भी राम का वास है? पूर्व प्रधानमंत्री इंदर गुजराल या वरिष्ठï पत्रकार कुलदीप नैय्ïयर जैसे बुद्घिजीवियों में राम का वास है। यह अंधा बयान केंद्र सरकार की ओर से क्यों आ रहा है? तीन प्रदेशों में कम्युनिस्ट निर्णायक पार्टी है और उनमें से सब मुसलमान या इसाई नही हैं। अधिकांश जन्म से हिन्दू हैं और विचारों से तार्किक, उन पर राम की आस्था कानून मंत्री क्यों थोप रहे हैं?

निश्चय ही यह बात मैं फिर दुहराना चाहँूगा कि कांग्रेस अधिकांशत: अंधविश्वासी हिंदुओं की जमात है। यह अलग बात है कि आज प्रधानमंत्री और यूपीए प्रमुख अल्पसंख्यक हैं। पर हमेशा एक अल्पसंख्यक जब स_x009e_ाा से जुड़ता है तो अपनी ईसाइयत या अपना इस्लाम सबसे पहले भुलाता है। भारतीय जनता पार्टी में शामिल मुसलमान तोगडिय़ा या मोदी से आगे बढक़र बोलते हैं। सोनिया गाँधी ईसाई हैं। कुछ महीना पहले हम लोगों ने देश भर में घायल या पंगु किये गये ईसाईयों का एक प्रदर्शन किया था। काश थोड़ा सा भी ध्यान सरकार ने उन पीडि़तों पर दिया होता। सर्वसाधन सम्पन्न वर्ग के साथ जुडक़र सोनिया गांधी हों या मनमोहन सिंह अंतत: अपने को अल्पसंख्यक से जोडऩे से यत्न भर बचते हैं। इसी का नतीजा है सेतु समुद्रम को लेकर केंद्र सरकार का ‘पीछे मुड़’।


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Dr. Yogesh mishr

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