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भूख के सच से मुंह चुराने की कोशिशें!

Dr. Yogesh mishr
Published on: 1 Jan 2008 6:17 PM IST
दिनांक: ०7.०1.2००8
गरीबी और भुखमरी से परेशान बांदा के गोविंद और गीता को जब अपने लाडले चंदन को भूख से बिलखते नहीं देखा गया तो उन्होंने उसे समीप के राजा भइया और किरन के हाथ बेच दिया। इस खबर के आम होने के बाद मचे हो-हल्ला के चलते प्रशासन ने फिर से चंदन को अपने मां-बाप तक भिजवा दिया। जहां पहले से ही भुखमरी उसकी ताक में बैठी हुई थी और एक बार फिर यह सवाल सतह पर उभर आया कि आखिरकार भूख और भूख से हो रही मौतों का यह सिलसिला लंबी चौड़ी घोषणाओं के बावजूद खत्म क्यों नहीं हो रहा है।

गीता और गोविंद बेटे चंदन के पहले भी गरीबी और भुखमरी से तंग होकर अपने बड़़े बेटे शंकर को महज 3००० रूपये में गांव के भइयादीन के हवाले कर चुके थे। बच्चे बेचने की यह घटना मीडिया के हाथ नहीं आ पायी नतीजतन, सब कुछ निपट गया। पिछले छह माह के दौरान बच्चे बेचकर जठराग्रि शांत करने की यह पहली वारदात नहीं है। ‘आउटलुक’ साप्ताहिक ने अपनी खोजबीन में इस तरह की आधा दर्जन से अधिक घटनायें पायीं। वाराणसी के मुस्लिमपुरा कोटवा गांव के शेख गुलाम रसूल ने अपनी दूसरी पत्नी रजिया बेगम से जन्मे बालक को जुलाई में दो हजार में बेचा। मंदी की मार झेल रहे हथकरघा उद्योग के लिए ख्यात मुबारकपुर के नूरपुर बुतात मुहल्लावासी दलित वंशराज ने भी अपने बच्चे को पांच सौ रूपये में बेचना पड़ा। हालांकि बच्चा खरीदने वाले वैश्य परिवार का कहना है, ‘‘हमने बच्चा खरीदा नहीं। बादामी देवी 5 अप्रैल की रात गरीबी के कारण बच्चे को फेंकने जा रही थी। उसके मकान मालिक मेरे पुत्र न होने के दुख से परिचित थे।’’ फिरोजाबाद की अनीसा ने कलेजे पर पत्थर रख पांच दिन के भूख से बिलखते अपने पांच दिन के दुधमुंहे जुड़वां बच्चों को लडक़े की चाह रखने वाले दो दंपतियों को दो-दो हजार रूपये में बेच दिया। सुनहरे सपनों की सैर कराते केंद्र व प्रदेश सरकार की योजनाओं की पोल बीते अक्टूबर माह में तब खुली जब कुशीनगर जिले के तरकुलवा गांव वासी ईश मुहम्मद अंसारी की पत्नी असया ने महज दो सौ रूपये में अपने कलेजे के टुकड़े को पड़ोस के गांव अइनछापर गांव की एक ग्वालिन को बेच दिया। असहाय मां की दलील का जवाब हुक्मरानों के पास नहीं है, ‘‘पैसे हैं ही नहीं तो कैसे पाले बच्चों को?’’ ईश मोहम्मद अंसारी बताता है, ‘‘इस बच्चे से पहले पत्नी दस बच्चों को जन्म दे चुकी थी। पैसे हैं नहीं तो बच्चों को मुकम्मल परवरिश कैसे करे।’’ असया को आज भी मलाल है। वह कहती है, ‘‘साहब! कुल ग्यारह बच्चे पैदा हुए। सात जिंदा हैं। दो आज भी मेरे दूध पर जिंदा हैं। कोटेदार 15-2० किलो अनाज देता है। इतने में कैसे करें गुजारा?’’ बच्चा कहीं रहे, खुश रहे, खुदा से हम यही मांगते हैं।’’ मामला सुर्खियों में रहा पर हाकिमों को उसके घर जाने की फुर्सत नहीं मिली। दिसंबर माह के पहले पखवाड़े में गोरखपुर के रामपुर गांव की हदीसुन्निशा ने अपने बच्चे को गांव के ही आशिया को दस हजार में बेच दिया। ममता का सौदा करने वाली हदीसुन्निशा मैला उठाकर अपना गुजारा करती है। बच्चा खरीदने वाली आशिया कहती हैं, ‘‘मैंने पैसा नहीं दिया है। पति विदेश में रहते हैं। सूनापन हमेशा सताता है।’’ दरअसल बीते नवंबर माह में बसपा सरकार की तब किरकिरी हुई थी। जब कांग्रेस महासचिव एवं सांसद राहुल गांधी जौनपुर जिले के भूख से बीमार दलित रामलगन के बच्चे मुकेश का इलाज कराने दिल्ली ले गये। इसी बीच कुशीनगर के मुसहरों के निवाले को लेकर भी खबरें छपीं। आनन-फानन में मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव कुंवर फतेह बहादुर ने जिला प्रशासन से मुसहर समुदाय के विकास के लिये किये जा रहे विकास कार्यों का _x008e_यौरा तलब किया। महामाया आवास योजना के तहत अनुसूचित जाति में शुमार मुसहर समुदाय के 1०2 परिवारों को आवास सुलभ कराने की पत्रावलियां तैयार की गयीं। प्रशासन ने मुख्यमंत्री को संतुष्टï करने के लिए एक वीडियो सीडी बनवायी, जिसमें मुसहरों से यह कहलवाया गया, ‘‘अन्त्योदय राशन कार्ड पर कोटेदार पूरा अनाज देता है। साथ ही राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के तहत जॉब कार्ड भी बना हुआ है।’’ कुशीनगर की जिलाधिकारी अमृता सोनी कहती हैं, ‘‘मुसहर भूख की वजह से चूहा नहीं खाते हैं। वे मांसाहारी हैं लिहाजा चूहा उनका निवाला है।’’ कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह ने भी पत्रकारों को यही बताया, ‘‘कुशीनगर के गांव दोधरा के मुसहरों द्वारा भुखमरी के कारण चूहे खाने से संबंधित खबरें आने के बाद सरकार ने वरिष्ठï अधिकारियों को जांच के लिए मौके पर भेजा। जिलाधिकारी ने रिपोर्ट दी है कि गांव दोधरा में मुसहर समुदाय नार्थ-ईस्ट राज्यों के निवासियों की तरह नान वेजीटेरियन हैं और चूहे खाना आम बात है। यह गलत है कि वे भुखमरी के कारण चूहे खाते हैं।’’ पीपुल्स यूनियन फार ह्यïूमन राइट्ïस के राज्य कार्यकारी अध्यक्ष मनोज कुमार सिंह कहते हैं, ‘‘अफसरों का बयान मुसहरों की गरीबी का मजाक उड़ाने वाला है। अफसरों को मुसहरों की हकीकत जानना है तो हफ्ता भर उनके टोलों पर गुजरना चाहिए। डीएम साहिबा ही बता सकती हैं कि कब से चूहा मांसाहारियों का प्रिय भोजन बन गया है।’’ दरअसल, चूहा मुसहरों की मजबूरी का भोजन है। दोघारा की रजवंती कहती हैं, ‘‘भूख से बिलबिलाते बच्चों की क्षुधा भुने चूहे न मिटाएं तो वे बेमौत मरेंगे।’’ गोरखपुर के बड़हलगंज में मां फुलझरिया व बेटी निशा की भूख से मौत हुई। बीते दिनों देवरिया के भाटपार रानी में पति-पत्नी भिखी व विद्यावती भूख से मरी। विधान परिषद सदस्य डा. वाईडी सिंह ने मामला उठाया। जांच के लिए विधान परिषद ने समिति का गठन किया। नेता सदन स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा, ‘‘अभी जो रिपोर्ट आई है। उससे यह पुष्टिï नहीं होती कि भिखी और उसके परिवार को भोजन नहीं मिलता था।’’ लेकिन कुशीनगर के फागू और शोभी की, देवरिया के सावित्री की जिंदगी की जंग हार जाने के पीछे के सच भूख के अभिशाप से उन्हें मुक्ति कैसे दिलायी जा सकती है? वह भी तब, जब इस सच से मुंह चुराने का जिम्मा सबने उठा रखा हो। ठीक से तहकीकात की जाय तो साफ होता है कि यही वह वजह है जिसके चलते गरीबी और भुखमरी से तंग होकर इहलीला समाप्त करने वाले लोगों का दुख दूर नहीं हो पा रहा है। तभी तो दिसंबर और जनवरी महीने में चित्रकूट के शंकर बाजार की राम दुलारी, हमीरपुर के रोबरी गांव की रजनी ही नहीं, बांदा के 45 वर्षीय रामआसरे को भूख की बेदी पर अपनी जान गंवानी पड़ी। 11 बिस्वा जमीन के मालिक रामआसरे की पत्नी मिडडे मील में खाना बनाने का काम करती थी लेकिन वहां से भी उसे छह महीने से मजदूरी नहीं मिली थी। कमासिन गांव की कोदिया, महोबा जिले के श्रीनगर गांव निवासी किशोर, यहीं के कुलपहाड़ के दलित परमलाल भी भूख की भेंट चढ़ गये। परमलाल की पत्नी चौका-बर्तन कर परिवार का पेट पालती थी। पर यह काम भी महीनों से मयस्सर नहीं हुआ। इसी शहर के गांधीनगर मुहल्ले के 6० वर्षीय दलित दसैंया ही नहीं ड्ïयोढ़ी निवासी सिसियां दलित भी भूखे पेट जिंदगी का भजन नहीं कर पाये। सिसियां ने नरेगा में 25 दिन काम किया था लेकिन मजदूरी नहीं मिली। महोबा के ही चंदौली निवासी दलित कुंजा अहिरवार ने भी चार माह पहले नरेगा में काम मांगा था। काम तो नहीं मिला पर मौत उसके गले आ लगी। बाराबंकी जिले में पिछले एक पखवाड़े में भूख से दो लोग काल कवलित हो गये। दलित महंगू रावत और मझपुर मजरे में भी एक मौत भूख से हुई थी। हालांकि महंगू के पास अन्त्योदय राशन कार्ड था। पर उसके परिवार के लोगों को इसकी कोई इ_x009e_िाला नहीं थी। फिर भी उसके राशन कार्ड पर रसद की उठान जारी थी। बुंदेलखंड में भुखमरी के शिकार हजारों लोगों पर सरकार ने कान तो दिया है। मायावती ने मुख्य सचिव को हर हफ्ïते दौरा कर हालात से निपटने के निर्देश के साथ ही साथ ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ ही सही पैकेज की घोषणा तो की ही है। मुलायम के ‘उ_x009e_ाम-प्रदेश’ में जब भूख से मौतें होती थीं तो सरकार को घेरने वालों में बसपा अगली कतार में खड़ी दिखती थी। पर स_x009e_ाा में आते ही मायावती व उनके मंत्री दमदारी से कह रहे हैं, ’’भूख से मौत हो ही नहीं सकती।’’

कई फांके बिताकर जो मर गया उसके बारे में,

वो कहते हैं नहीं ऐसा, नहीं वैसा हुआ होगा।

-योगेश मिश्र


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Dr. Yogesh mishr

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