TRENDING TAGS :
पटरी से उतरे निगम
दिनांक: 17.3.2००8
साफ-सफाई और जन सुविधाएं मुहैया कराने वाले नगर-निगम अपने रास्ते से भटक गये हैं। राज्य के सभी 12 निगमों के दस्तावेज मूक गवाही देते हैं कि गोलमाल, गोरखधंधे से निगमों की फाइलें अटी पड़ी हैं। आमदनी से ज्यादा खर्च करने वाले इन निगमों पर इन दिनों सरकार की नजर भी टेढ़ी है। निकाय चुनाव में बसपा ने वाक-ओवर दिया था। पर लोकसभा और विधानसभा चुनाव में इन इलाकों के वाशिंदों की अहमियत के मद्देनजर अब उसे नगर-निगमों की सार्थकता समझ में आने लगी है। गौरतलब है कि आठ भाजपा के, एक सपा का और तीन कांग्रेस के मेयर हैं। ऐसे में राज्य और केंद्र के बीच के रिश्तों की खटास राज्य सरकार और नगर-निकाय के बीच भी दीखने लगी हैं। जबकि दूसरे दलों के महापौर अधिकारों में कटौती के साथ ही अपर्याप्त अनुदान का ठीकरा सरकार पर फोड़ते नही थक रहे हैं। जबकि नगर विकास विभाग की ओर से इनके कामकाज पर गंभीर आपतितयां दर्ज करायी जा रही हैं।
‘आउटलुक’ साप्ताहिक की टीम ने राज्य के कुछ नगर-निगमों के कामकाज, दिक्कतों, दुश्वारियों और सरकार से उनके रिश्तों की पड़ताल की तो जो साफ हुआ कि इनसे कोई उम्मीद करना बेमानी है। मसलन, आकंठ भ्रष्टïाचार में डूबे गोरखपुर नगर-निगम की कहानी वहां आयुक्त रहे डा. अजय शंकर पांडेय के कार्यकाल के दौरान ठेकेदारों और बिजली के सामानों के आपूर्तिकर्ताओं द्वारा की गयी अवैध कमाई को निगम के खाते में जमा कराने से बयान हुई। आपूर्ति किये गए बिजली के सभी सामान नकली थे। पर ठेकेदारों ने नामी-गिरामी कंपनियों के दाम चार्ज किये गये थे। लेकिन पांडेय की रूखसती के साथ ही एक बार फिर कमीशन को लेकर अधिकारी और ठेकेदार लड़ते नजर आने लगे हैं। निगम के बड़े बकायेदार के हवाले पाइप बिछाने जाने का काम कर दिया गया। आपदा राहत के मद से निगम को मिले तीस लाख रूपये से किन सडक़ों की मरम्मत हुई यह पता कर पाना राज्य के आला हुक्मरानों के लिए भी टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। काम की गुणवतता का अंदाजा महज इसी से लग सकता है कि ‘इस्टीमेट’ से बीस तीस फीसदी कम पर काम कराने की होड़ मची हुई है। कार्यकारिणी ने न्यूनतम टेंडर से कम की धनराशि पर भी 12 काम स्वीकृत कर दिये। फिर भी अफसरों की जेब गर्म करने का चलन जारी है। बोर्ड ने 621 निर्माण कार्यों की स्वीकृति दी पर बमुश्किल 125 कार्य शुरू हो सके। अधिकारियों के चूना लगाने की नजीरों में नसीराबाद स्थित 5० डिसमिल जमीन पर बने सिनेमाहाल का सिर्फ 225 रूपये सालाना किराये की वसूली , 13 डिसमिल जमीन छह रूपये वार्षिक किराये पर मनचाहे लोगों को देने के साथ ही निगम की 291 एकड़ भूमि पर भूमाफिया कुंडली मारकर बैठना शामिल है। महापौर अंजू चौधरी कहती हैं, ‘‘पहले क्या होता था, मैं नहीं जानती। पिछले साल भर से मैं शहर का कायाकल्प कर ही रही हूं। मेरे पास जादू की छड़ी नहीं है कि क्षण भर में सब ठीक कर दूं।’’
बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी के लोग ‘स्वच्छ काशी व सुंदर काशी’ नारे की हकीकत ढूंढ रहे हैं। वह भी तब जब सफाई व्यवस्था के लिए 15 डंपर, एक दर्जन से अधिक ट्रैक्टर, जेसीबी रोबोट, हापर, आटो प्लेसर समेत कंटेनर भी हैं। लेकिन विदेशी पर्यटक नाक पर रुमाल रख सुबह-ए-बनारल का नजारा लेते हुए देखे जा सकते हैं। वह भी तब जब निगम की गाडिय़ा दो करोड़ सालाना का तेल पीती है। नगर आयुक्त रहे लालजी राय से मेयर का झगड़ा सडक़ तक जा पहुंचा था। महापौर कौशलेंद्र सिंह ने स्वीकारा, ‘‘शहर की व्यवस्था सुधारने में लगे हैं लेकिन नौकरशाही से सामंजस्य न बन पाना शहर के विकास और सफाई व्यवस्था में सबसे बड़ा रोड़ा है।’’ तीन साल पहले स्वीकृत जवाहरलाल नेहरू अर्बन रिनोवेशन मिशन (जेएनयूआरएम) का उपयोग भी नहीं हुआ। योजना जहां की तहां पड़ी है।
आगरा नगर-निगम आयुक्त रहे श्याम सिंह यादव के कारनामों को लेकर निगम अपने काम से अधिक चर्चा में रहा। दयालबाग में शूटिंग रेंज बनवाकर पीठ थपथपाने लायक काम तो हुआ पर सुप्रीमकोर्ट अनुश्रवण समिति की सदस्य ऋचा शैलटर को जगनपुर में करोड़ों की जमीन शूटिंग रेंज के लिए कौडिय़ों के भाव दे कर इस पर पलीता लगा लिया गया। महापौर अंजुला सिंह माहौर सफाई व्यवस्था या विकास छोड़ भाजपा व बसपा की राजनीति में फंस गयीं। मेयर के अनुसार, ‘‘सपा सरकार में योजनायें पास हो जाती थीं लेकिन बसपा सरकार में यह भी संभव नहीं है।’’ 26 करोड़ की कूड़ा निस्तारण परियोजना व सीवेज ट्रीटमेंट प्लाटं खातिर केंद्र ने चार लाख और दो करोड़ रूपये दिये लेकिन राज्य के हाथ खड़े करने के चलते दोनों लटक गई। यही नहीं, 166 करोड़ के नये नाले व नाले टेपिंग के प्रोजेक्ट चार महीने से लटके पड़े हैं। सपा सरकार में ठेका एसएमपीएल कम्पनी को मिला था लेकिन बसपा सरकार ने आते ही उस कंपनी का ठेका निरस्त हो गया। कहा गया अब यह कार्य जलनिगम करेगा जबकि जलनिगम के पास पैसा ही नहीं है।
सौ करोड़ के बजट वाले मुरादाबाद के मेयर डा. एस.टी. हसन ने निगम की हकीकत कुछ इस तरह बयां की, ‘‘सपा सरकार में हम पैरवी कर शासन स्तर से काम करा लेते थे लेकिन बसपा सरकार में नगर विकास मंत्री से केवल ‘देखेंगे’ का कोरा आश्वासन मिलता है। शासन ने 23 करोड़ की योजनाएं रोक दीं। 329 कर्मचारियों की पूरी हो चुकी भर्ती प्रक्रिया पर रोक लगा दी गई। अलीगढ़ के भाजपाई महापौर आशुतोष वाष्र्णेय बताते हैं, ‘‘शहर की गंदगी, जलभराव, अशुद्घ पेयजल आदि चुनौतियां हैं। धन अभाव में 15०० सफाई कर्मियों की भर्ती नहीं हो पा रही है। ठेकेदारों ने 14० इण्डिया-2 मार्का हैंडपंप लगाये पर निगम ने भुगतान नहीं किया।’’ नतीजतन, खराब पड़े नलों की मरम्मत भी नहीं की जा रही है। रेलवे स्टेशन से अपने घर तक सौन्दर्यीकरण कराने वाले पूर्व मंत्री ख्वाजा हलीम ने निगम पर दो करोड़ का कर्ज चढ़ा दिया है। गोरखपुर में नगर आयुक्त रहे अजय शंकर जब गाजियाबाद पहुंचे तो बड़े और दबंग बकायेदारों से 65 करोड़ की धनराशि वसूली के साथ ही जलकल और कई अन्य महकमों के टेंडरों में गोलमाल की कलई खोलकर कर निगम की आमदनी तो बढ़ायी पर जाम और गंदगी के लिहाज से विश्व के दस शहरों में शुमार किये जाने वाले गाजियाबाद की तकदीर बदलने में वे कामयाब नहीं हो सके। हालांकि बंदरों को पकडऩे के लिए आपरेशन नटखट, सांड़ों के लिए आपरेशन नंदी, गोपाल अभियान और इनके रखने के लिए पार्कों की स्थापना कराई है। बीते दीपावली पर लक्ष्मी स्वागत के लिए सफाई अभियान पर अपने रोजमर्रा के समय में से दस मिनट निकालने के संदेश की खातिर झाड़ू बांटने का भी काम किया। पालीथिन विरोधी अभियान तथा त्वरित गति से समस्या समाधान हेतु उठाये गये कदमों ने जहां पांडेय को सुर्खियां दी हैं वहीं लेटलतीफ लोगों को रास्ते पर लाने के लिए उनके नामों की सूची कार्यालय के बाहर चस्पा करने के साथ ही साथ सार्वजनिक स्थानों पर खड़े होकर पेशाब करने वाले लोगों के लिए सामने की दीवारों पर शीशा जड़ देने के नगर आयुक्त के अभियान ने गाजियाबाद की सरहद से बाहर कीर्ति फैलाने का अवसर दिया। हालांकि लोगों ने शीशे कूच दिए हैं। पर पांडेय कहते हैं, ‘‘यह एक प्रयोग था। प्रयोग असफल हो जाने का मतलब उसे बंद कर देना नहीं है। हम इसे जारी रखेंगे। अंतत: लोग हमारी बात मानेंगे।’’ कानपुर के मेयर रवीन्द्र पाटनी का दर्द कुछ इस तरह बयान होता है, ‘‘महापौर एक संस्तुति करने वाला रबर स्टैम्प भर है। इसके आगे क्या होगा ये राज्य सरकार की कृपा पर निर्भर है। ऐसे में दो रास्ते हैं या तो यह व्यवस्था ही समाप्त कर दी जाय या फिर इसमें आमूल परिवर्तन हो।’’
नगरीय सीमा क्षेत्र में कितने भवन और प्रतिष्ठïान हैं इसका भौगोलिक सर्वे करने के लिए नगर निगम ने वर्ष 2००1 में आईपीई से करार किया पर इस कंपनी ने लखनऊ नगर-निगम को 38 लाख रूपये का चूना लगाया। हालांकि नगर आयुक्त शैलेश कुमार सिंह ने कंपनी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करा दी है। जेएनयूआरएम के तहत नगर-निगम को काफी बड़ी धनराशि प्राप्त तो हुई पर राज्य सरकार की हिस्सेदारी न मिलने के चलते धन का उपयोग नहीं हो पाय। कूड़े से बिजली बनाने का संयंत्र तालाबंदी का शिकार है। जमीन और पैसा नहीं होने की वजह से सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट आकार नहीं ले पा रहा है। निगम खजाने पर अफसरों की फौज भारी पड़ रही है। निगम में दो पद के विपरीत चार अपर नगर आयुक्त कार्यरत हैं। निगम अधिनियम की धारा-58 के मुताबिक पालिका सेवा के सबसे अधिक वेतनमान वाले उप नगर आयुक्त को अपर नगर आयुक्त के पद पर तैनात किया जाना चाहिए। लेकिन पीसीएफ अफसरों को नगर निगमों में अपर नगर आयुक्त के पद पर तैनात किया जाने लगा है। एक अपर नगर आयुक्त का वेतन 25 से 35 हजार रूपये के बीच पड़ता है। इसके अलावा प्रतिमाह उनकी गाड़ी पर दस हजार रूपये का तेल और 5 हजार रूपये चालक के वेतन पर खर्च होता है। स्टाफ में एक सचिव, एक कंप्यूटर आपरेटर, एक कैंप क्लर्क, तीन चपरासी के अलावा उनके मोबाइल, टेलीफोन और घर पर लगे बेसिक फोन का खर्च अलग है। पिछले 4० सालों से वरिष्ठïता सूची नहीं है। किस संवर्ग में कितने कर्मचारी हैं यही पता नहीं है। 11 मृतक आश्रित नौकरी का इंतजार कर रहे है। महापौर डा. दिनेश शर्मा बताते हैं, ‘‘हम 4० फीसदी मकानों का गृहकर नहीं वसूल पा रहे हैं। सेटेलाइट के जरिए यह काम भी कराया जा सकता है। ताकि पूरी वसूली हो सके।’’
शासन की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान नगर निकाय की निधि में 4 अरब, 17 करोड़ 22 लाख 3 हजार जमा हुए थे। केवल 88 करोड़ 6 लाख रूपए के ही कार्य कराए जा सके। गौर करने की बात यह है कि निधि में तीन अरब 29 करोड़ रूपए बच जाने के बावजूद संबंधित नगरों में ड्रेनेज, सडक़, सेतु व सुंदरीकरण संबंधी तमाम विकास कार्य नहीं कराए जा रहे हैं। गत वर्ष की तुलना में नगर निगमों व जल संस्थानों को दस-दस फीसदी, नगर पालिका परिषदों को सात फीसदी तथा नगर पंचायतों को पांच फीसदी वसूली के बढ़ाने के अनिवार्य फैसले ने निगमों की दिक्कत बढ़ाई है वह भी तब जब चुंगी व कई आयोजनों पर लगने वाले कर हटा दिए गये हों। राज्य, शहरी विकास के लिए पहले चरण में आठ हजार करोड़ रूपए केंद्र से लेनेे के सपने वह संजोये बैठा है लेकिन 7० फीसदी निकायों में भूंजी भांग भी नहीं है। 273 निकाय ऐसे हैं जहां कर्मचारी नियमित वेतन नहींं पा रहे हैं। चार नगर-निगमों में तीन-तीन महीने से बिना वेतन के कर्मचारी काम पर हैं। निगम की माली हालत सुधारने का गुर सीखने गुजरात गये अफसर अब पबिलक प्राइवेट पार्टनरशिप का राग अलापने लगे हैं। केंद्र अपनी शर्त दोहरा रहा है कि पहले राज्य व निकाय अपना शेयर जमा करें तब भारत सरकार पैसा देगी। फिर भी नगरीय विकास के लिए 45०० करोड़ रूपए के प्रस्ताव केंद्र को भेजे गये हैं। इनमें केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने पेयजलापूर्ति, सीवरेज व कूड़ा प्रबंधन की 19०० करोड़ रूपए की योजनाओं को स्वीकृत भी कर लिया है।
मायावती की स्वप्रिल परियोजना कांशीराम शहरी विकास योजना को लेकर महापौरों व सरकार के बीच वैसी ही स्थिति है जैसी केंद्र राज्य के बीच। नियम के मुताबिक इस योजना के तहत हर नगर निगम के चार चार वार्डों को सालाना विकास से पूरी तरह पूरी तरह संतृप्त करना है पर बीस फीसदी निगम की हिस्सेदारी जरूरी है। माली हालत ठीक न होने के बहाने गैर बसपाई मेयरों ने हाथ खड़े कर दिए हैं। सात महानगरों- लखनऊ, कानपुर, आगरा, वाराणसी, इलाहाबाद, मेरठ और मथुरा, वृंदावन जेएनयूआरएम में शामिल किए गए हैं। बाकी शहरों में विकास की खातिर यूआईडीएसएसएमटी योजना भी चल रही है। पर इन योजनाओं का धन पाने के लिए जरूरी है कि निकायों को संविधान के 74वें संशोधन के तहत अधिकारों से लैस किया जाए। बसपाई सरकार की दिक्कत यह है कि इनमें उसके नुमाइंदे हैं ही नहीं। इसलिए इन्हें मजबूत करने की जगह कमजोर करना सियासी जरूरत है। स्थानीय निकाय निर्वाचन क्षेत्र से चुने जाना वाले 16 एमएलसी इन सवालों पर मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं।
-योगेश मिश्र
साफ-सफाई और जन सुविधाएं मुहैया कराने वाले नगर-निगम अपने रास्ते से भटक गये हैं। राज्य के सभी 12 निगमों के दस्तावेज मूक गवाही देते हैं कि गोलमाल, गोरखधंधे से निगमों की फाइलें अटी पड़ी हैं। आमदनी से ज्यादा खर्च करने वाले इन निगमों पर इन दिनों सरकार की नजर भी टेढ़ी है। निकाय चुनाव में बसपा ने वाक-ओवर दिया था। पर लोकसभा और विधानसभा चुनाव में इन इलाकों के वाशिंदों की अहमियत के मद्देनजर अब उसे नगर-निगमों की सार्थकता समझ में आने लगी है। गौरतलब है कि आठ भाजपा के, एक सपा का और तीन कांग्रेस के मेयर हैं। ऐसे में राज्य और केंद्र के बीच के रिश्तों की खटास राज्य सरकार और नगर-निकाय के बीच भी दीखने लगी हैं। जबकि दूसरे दलों के महापौर अधिकारों में कटौती के साथ ही अपर्याप्त अनुदान का ठीकरा सरकार पर फोड़ते नही थक रहे हैं। जबकि नगर विकास विभाग की ओर से इनके कामकाज पर गंभीर आपतितयां दर्ज करायी जा रही हैं।
‘आउटलुक’ साप्ताहिक की टीम ने राज्य के कुछ नगर-निगमों के कामकाज, दिक्कतों, दुश्वारियों और सरकार से उनके रिश्तों की पड़ताल की तो जो साफ हुआ कि इनसे कोई उम्मीद करना बेमानी है। मसलन, आकंठ भ्रष्टïाचार में डूबे गोरखपुर नगर-निगम की कहानी वहां आयुक्त रहे डा. अजय शंकर पांडेय के कार्यकाल के दौरान ठेकेदारों और बिजली के सामानों के आपूर्तिकर्ताओं द्वारा की गयी अवैध कमाई को निगम के खाते में जमा कराने से बयान हुई। आपूर्ति किये गए बिजली के सभी सामान नकली थे। पर ठेकेदारों ने नामी-गिरामी कंपनियों के दाम चार्ज किये गये थे। लेकिन पांडेय की रूखसती के साथ ही एक बार फिर कमीशन को लेकर अधिकारी और ठेकेदार लड़ते नजर आने लगे हैं। निगम के बड़े बकायेदार के हवाले पाइप बिछाने जाने का काम कर दिया गया। आपदा राहत के मद से निगम को मिले तीस लाख रूपये से किन सडक़ों की मरम्मत हुई यह पता कर पाना राज्य के आला हुक्मरानों के लिए भी टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। काम की गुणवतता का अंदाजा महज इसी से लग सकता है कि ‘इस्टीमेट’ से बीस तीस फीसदी कम पर काम कराने की होड़ मची हुई है। कार्यकारिणी ने न्यूनतम टेंडर से कम की धनराशि पर भी 12 काम स्वीकृत कर दिये। फिर भी अफसरों की जेब गर्म करने का चलन जारी है। बोर्ड ने 621 निर्माण कार्यों की स्वीकृति दी पर बमुश्किल 125 कार्य शुरू हो सके। अधिकारियों के चूना लगाने की नजीरों में नसीराबाद स्थित 5० डिसमिल जमीन पर बने सिनेमाहाल का सिर्फ 225 रूपये सालाना किराये की वसूली , 13 डिसमिल जमीन छह रूपये वार्षिक किराये पर मनचाहे लोगों को देने के साथ ही निगम की 291 एकड़ भूमि पर भूमाफिया कुंडली मारकर बैठना शामिल है। महापौर अंजू चौधरी कहती हैं, ‘‘पहले क्या होता था, मैं नहीं जानती। पिछले साल भर से मैं शहर का कायाकल्प कर ही रही हूं। मेरे पास जादू की छड़ी नहीं है कि क्षण भर में सब ठीक कर दूं।’’
बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी के लोग ‘स्वच्छ काशी व सुंदर काशी’ नारे की हकीकत ढूंढ रहे हैं। वह भी तब जब सफाई व्यवस्था के लिए 15 डंपर, एक दर्जन से अधिक ट्रैक्टर, जेसीबी रोबोट, हापर, आटो प्लेसर समेत कंटेनर भी हैं। लेकिन विदेशी पर्यटक नाक पर रुमाल रख सुबह-ए-बनारल का नजारा लेते हुए देखे जा सकते हैं। वह भी तब जब निगम की गाडिय़ा दो करोड़ सालाना का तेल पीती है। नगर आयुक्त रहे लालजी राय से मेयर का झगड़ा सडक़ तक जा पहुंचा था। महापौर कौशलेंद्र सिंह ने स्वीकारा, ‘‘शहर की व्यवस्था सुधारने में लगे हैं लेकिन नौकरशाही से सामंजस्य न बन पाना शहर के विकास और सफाई व्यवस्था में सबसे बड़ा रोड़ा है।’’ तीन साल पहले स्वीकृत जवाहरलाल नेहरू अर्बन रिनोवेशन मिशन (जेएनयूआरएम) का उपयोग भी नहीं हुआ। योजना जहां की तहां पड़ी है।
आगरा नगर-निगम आयुक्त रहे श्याम सिंह यादव के कारनामों को लेकर निगम अपने काम से अधिक चर्चा में रहा। दयालबाग में शूटिंग रेंज बनवाकर पीठ थपथपाने लायक काम तो हुआ पर सुप्रीमकोर्ट अनुश्रवण समिति की सदस्य ऋचा शैलटर को जगनपुर में करोड़ों की जमीन शूटिंग रेंज के लिए कौडिय़ों के भाव दे कर इस पर पलीता लगा लिया गया। महापौर अंजुला सिंह माहौर सफाई व्यवस्था या विकास छोड़ भाजपा व बसपा की राजनीति में फंस गयीं। मेयर के अनुसार, ‘‘सपा सरकार में योजनायें पास हो जाती थीं लेकिन बसपा सरकार में यह भी संभव नहीं है।’’ 26 करोड़ की कूड़ा निस्तारण परियोजना व सीवेज ट्रीटमेंट प्लाटं खातिर केंद्र ने चार लाख और दो करोड़ रूपये दिये लेकिन राज्य के हाथ खड़े करने के चलते दोनों लटक गई। यही नहीं, 166 करोड़ के नये नाले व नाले टेपिंग के प्रोजेक्ट चार महीने से लटके पड़े हैं। सपा सरकार में ठेका एसएमपीएल कम्पनी को मिला था लेकिन बसपा सरकार ने आते ही उस कंपनी का ठेका निरस्त हो गया। कहा गया अब यह कार्य जलनिगम करेगा जबकि जलनिगम के पास पैसा ही नहीं है।
सौ करोड़ के बजट वाले मुरादाबाद के मेयर डा. एस.टी. हसन ने निगम की हकीकत कुछ इस तरह बयां की, ‘‘सपा सरकार में हम पैरवी कर शासन स्तर से काम करा लेते थे लेकिन बसपा सरकार में नगर विकास मंत्री से केवल ‘देखेंगे’ का कोरा आश्वासन मिलता है। शासन ने 23 करोड़ की योजनाएं रोक दीं। 329 कर्मचारियों की पूरी हो चुकी भर्ती प्रक्रिया पर रोक लगा दी गई। अलीगढ़ के भाजपाई महापौर आशुतोष वाष्र्णेय बताते हैं, ‘‘शहर की गंदगी, जलभराव, अशुद्घ पेयजल आदि चुनौतियां हैं। धन अभाव में 15०० सफाई कर्मियों की भर्ती नहीं हो पा रही है। ठेकेदारों ने 14० इण्डिया-2 मार्का हैंडपंप लगाये पर निगम ने भुगतान नहीं किया।’’ नतीजतन, खराब पड़े नलों की मरम्मत भी नहीं की जा रही है। रेलवे स्टेशन से अपने घर तक सौन्दर्यीकरण कराने वाले पूर्व मंत्री ख्वाजा हलीम ने निगम पर दो करोड़ का कर्ज चढ़ा दिया है। गोरखपुर में नगर आयुक्त रहे अजय शंकर जब गाजियाबाद पहुंचे तो बड़े और दबंग बकायेदारों से 65 करोड़ की धनराशि वसूली के साथ ही जलकल और कई अन्य महकमों के टेंडरों में गोलमाल की कलई खोलकर कर निगम की आमदनी तो बढ़ायी पर जाम और गंदगी के लिहाज से विश्व के दस शहरों में शुमार किये जाने वाले गाजियाबाद की तकदीर बदलने में वे कामयाब नहीं हो सके। हालांकि बंदरों को पकडऩे के लिए आपरेशन नटखट, सांड़ों के लिए आपरेशन नंदी, गोपाल अभियान और इनके रखने के लिए पार्कों की स्थापना कराई है। बीते दीपावली पर लक्ष्मी स्वागत के लिए सफाई अभियान पर अपने रोजमर्रा के समय में से दस मिनट निकालने के संदेश की खातिर झाड़ू बांटने का भी काम किया। पालीथिन विरोधी अभियान तथा त्वरित गति से समस्या समाधान हेतु उठाये गये कदमों ने जहां पांडेय को सुर्खियां दी हैं वहीं लेटलतीफ लोगों को रास्ते पर लाने के लिए उनके नामों की सूची कार्यालय के बाहर चस्पा करने के साथ ही साथ सार्वजनिक स्थानों पर खड़े होकर पेशाब करने वाले लोगों के लिए सामने की दीवारों पर शीशा जड़ देने के नगर आयुक्त के अभियान ने गाजियाबाद की सरहद से बाहर कीर्ति फैलाने का अवसर दिया। हालांकि लोगों ने शीशे कूच दिए हैं। पर पांडेय कहते हैं, ‘‘यह एक प्रयोग था। प्रयोग असफल हो जाने का मतलब उसे बंद कर देना नहीं है। हम इसे जारी रखेंगे। अंतत: लोग हमारी बात मानेंगे।’’ कानपुर के मेयर रवीन्द्र पाटनी का दर्द कुछ इस तरह बयान होता है, ‘‘महापौर एक संस्तुति करने वाला रबर स्टैम्प भर है। इसके आगे क्या होगा ये राज्य सरकार की कृपा पर निर्भर है। ऐसे में दो रास्ते हैं या तो यह व्यवस्था ही समाप्त कर दी जाय या फिर इसमें आमूल परिवर्तन हो।’’
नगरीय सीमा क्षेत्र में कितने भवन और प्रतिष्ठïान हैं इसका भौगोलिक सर्वे करने के लिए नगर निगम ने वर्ष 2००1 में आईपीई से करार किया पर इस कंपनी ने लखनऊ नगर-निगम को 38 लाख रूपये का चूना लगाया। हालांकि नगर आयुक्त शैलेश कुमार सिंह ने कंपनी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करा दी है। जेएनयूआरएम के तहत नगर-निगम को काफी बड़ी धनराशि प्राप्त तो हुई पर राज्य सरकार की हिस्सेदारी न मिलने के चलते धन का उपयोग नहीं हो पाय। कूड़े से बिजली बनाने का संयंत्र तालाबंदी का शिकार है। जमीन और पैसा नहीं होने की वजह से सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट आकार नहीं ले पा रहा है। निगम खजाने पर अफसरों की फौज भारी पड़ रही है। निगम में दो पद के विपरीत चार अपर नगर आयुक्त कार्यरत हैं। निगम अधिनियम की धारा-58 के मुताबिक पालिका सेवा के सबसे अधिक वेतनमान वाले उप नगर आयुक्त को अपर नगर आयुक्त के पद पर तैनात किया जाना चाहिए। लेकिन पीसीएफ अफसरों को नगर निगमों में अपर नगर आयुक्त के पद पर तैनात किया जाने लगा है। एक अपर नगर आयुक्त का वेतन 25 से 35 हजार रूपये के बीच पड़ता है। इसके अलावा प्रतिमाह उनकी गाड़ी पर दस हजार रूपये का तेल और 5 हजार रूपये चालक के वेतन पर खर्च होता है। स्टाफ में एक सचिव, एक कंप्यूटर आपरेटर, एक कैंप क्लर्क, तीन चपरासी के अलावा उनके मोबाइल, टेलीफोन और घर पर लगे बेसिक फोन का खर्च अलग है। पिछले 4० सालों से वरिष्ठïता सूची नहीं है। किस संवर्ग में कितने कर्मचारी हैं यही पता नहीं है। 11 मृतक आश्रित नौकरी का इंतजार कर रहे है। महापौर डा. दिनेश शर्मा बताते हैं, ‘‘हम 4० फीसदी मकानों का गृहकर नहीं वसूल पा रहे हैं। सेटेलाइट के जरिए यह काम भी कराया जा सकता है। ताकि पूरी वसूली हो सके।’’
शासन की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान नगर निकाय की निधि में 4 अरब, 17 करोड़ 22 लाख 3 हजार जमा हुए थे। केवल 88 करोड़ 6 लाख रूपए के ही कार्य कराए जा सके। गौर करने की बात यह है कि निधि में तीन अरब 29 करोड़ रूपए बच जाने के बावजूद संबंधित नगरों में ड्रेनेज, सडक़, सेतु व सुंदरीकरण संबंधी तमाम विकास कार्य नहीं कराए जा रहे हैं। गत वर्ष की तुलना में नगर निगमों व जल संस्थानों को दस-दस फीसदी, नगर पालिका परिषदों को सात फीसदी तथा नगर पंचायतों को पांच फीसदी वसूली के बढ़ाने के अनिवार्य फैसले ने निगमों की दिक्कत बढ़ाई है वह भी तब जब चुंगी व कई आयोजनों पर लगने वाले कर हटा दिए गये हों। राज्य, शहरी विकास के लिए पहले चरण में आठ हजार करोड़ रूपए केंद्र से लेनेे के सपने वह संजोये बैठा है लेकिन 7० फीसदी निकायों में भूंजी भांग भी नहीं है। 273 निकाय ऐसे हैं जहां कर्मचारी नियमित वेतन नहींं पा रहे हैं। चार नगर-निगमों में तीन-तीन महीने से बिना वेतन के कर्मचारी काम पर हैं। निगम की माली हालत सुधारने का गुर सीखने गुजरात गये अफसर अब पबिलक प्राइवेट पार्टनरशिप का राग अलापने लगे हैं। केंद्र अपनी शर्त दोहरा रहा है कि पहले राज्य व निकाय अपना शेयर जमा करें तब भारत सरकार पैसा देगी। फिर भी नगरीय विकास के लिए 45०० करोड़ रूपए के प्रस्ताव केंद्र को भेजे गये हैं। इनमें केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने पेयजलापूर्ति, सीवरेज व कूड़ा प्रबंधन की 19०० करोड़ रूपए की योजनाओं को स्वीकृत भी कर लिया है।
मायावती की स्वप्रिल परियोजना कांशीराम शहरी विकास योजना को लेकर महापौरों व सरकार के बीच वैसी ही स्थिति है जैसी केंद्र राज्य के बीच। नियम के मुताबिक इस योजना के तहत हर नगर निगम के चार चार वार्डों को सालाना विकास से पूरी तरह पूरी तरह संतृप्त करना है पर बीस फीसदी निगम की हिस्सेदारी जरूरी है। माली हालत ठीक न होने के बहाने गैर बसपाई मेयरों ने हाथ खड़े कर दिए हैं। सात महानगरों- लखनऊ, कानपुर, आगरा, वाराणसी, इलाहाबाद, मेरठ और मथुरा, वृंदावन जेएनयूआरएम में शामिल किए गए हैं। बाकी शहरों में विकास की खातिर यूआईडीएसएसएमटी योजना भी चल रही है। पर इन योजनाओं का धन पाने के लिए जरूरी है कि निकायों को संविधान के 74वें संशोधन के तहत अधिकारों से लैस किया जाए। बसपाई सरकार की दिक्कत यह है कि इनमें उसके नुमाइंदे हैं ही नहीं। इसलिए इन्हें मजबूत करने की जगह कमजोर करना सियासी जरूरत है। स्थानीय निकाय निर्वाचन क्षेत्र से चुने जाना वाले 16 एमएलसी इन सवालों पर मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं।
-योगेश मिश्र
Next Story