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बुंदेलखंड में नक्सलवाद की पदचाप
दिनांक: 21.०4.2००8
बदहाल बुंदेलखंड को भूख और प्यास से उबारने के लिए केंद्र और राज्य सरकार के बीच चल रहे सियासत के खेल में शह और मात किसकी होगी यह कहना तो अब दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। पर इस सियासी खेल में बुंदेलों की सरजमीं नक्सलियों को उर्वर दिखने लगी है। चंदौली और सोनभद्र इलाके तक सीमित रहने वाले नक्सली अब बुंदेलखंड के सातों जिलों में धीरे-धीरे अपनी धमक दर्ज कराने लगे हैं। केंद्रीय खुफिया एजेंसी के दस्तावेज बताते हैं, ‘‘उप्र में नक्सलियों ने अपने गढ़ सोनभद्र, चंदौली व मिर्जापुर की अपेक्षा आसान रास्ता पकडऩे के बजाय मध्य प्रदेश के रीवा वाले घुमावदार रास्ते को बुंदेलखंड प्रवेश के लिए चुना है।’’
सही मायने में नक्सलवाद यहां पनप भले न पाया हो पर इसके बीज तो कभी के पड़ चुके हैं। खुफिया दस्तावेज बताते हैं, ‘‘अस्सी के दशक में बिहार के जहानाबाद में सक्रिय नामचीन नक्सली डा. विनयन और उनके शिष्य विनोद मिश्र यहां अरसे तक नक्सली पौध उगाने में जुटे रहे।’’ हालांकि उस समय बुंदेलों की यह सरजमीं इतनी तंगहाली और दुश्वारियों में नहीं जी रही थी। नतीजतन, यहां बोए गए नक्सलवाद के बीज उग नहीं पाए। लेकिन अब यही सरजमीं खासी उर्वर हो गई है। क्योंकि प्राकृतिक आपदा और डकैतों के कहर से कराह रहे बुंदेलखंड के लोग जल, जंगल और जमीन की दिक्कतों से रूबरू हो रहे हैं। उन्हें सरकारी मशीनरी के डंडे की मार से लगातार अपनी पीठ सहलानी पड़ रही है। सरकारी मशीनरी की खाऊ-कमाऊ नीति के चलते मौत को गले लगाना किसानों को ज्यादा मुफीद नजर आ रहा है। तकरीबन 25 फीसदी दलित आबादी वाले इस इलाके में पिछले चार सालों में तकरीबन 5०० लोगों ने गरीबी, भुखमरी, तंगहाली, बीमारी और कर्ज के चलते मौत को गले लगाना बेहतर समझा है। हालांकि सरकार ने मौत की वजहें फाइलों में ऐसी दर्ज की हैं कि मरने वालों के परिजन और शुभचिंतकों की मुट्ïिठयां अभी भी गुस्से में भींची हुई हैं। यही नहीं, अकेले महोबा जनपद में अर्जुन बांध से जरूरत का पानी चुराने के आरोप में 189० लोगों के खिलाफ सरकारी हुक्मरानों ने मुकदमा दर्ज कराया है। रोजगार की तंगहाली के चलते बुंदेलखंड क्षेत्र के कई जनपदों से लोग महानगरों को मजदूरी के लिए पलायन कर रहे हैं। भारतीय रेलवे प्रशासन के आंकड़ों को देखें तो, ‘‘पिछले छह माह में पांच लाख नागरिकों ने पलायन किया।’’ जिला प्रशासन के आंकड़ों से पता लगता है, ‘‘ग्रामीणों क्षेत्रों की 87 फीसद, शहरी क्षेत्रों की 49 फीसद आबादी के साथ 95 फीसदी पशुधन अपना जीवन बचाने के लिए इस क्षेत्र से पलायन कर गया है।’’ ऐसे में कल तक जो बुंदेलखंडवासी अपनी दिक्कतों और दुश्वारियों का ठीकरा भाग्य और नियति पर फोडक़र त्रासदी का घूंट पी लेते थे, उन्हें यह समझाया जाने लगा है कि अपने हक और हुकूक के लिए हाथ में ताकत लाना जरूरी है। खुफिया एजेंसी के एक अफसर के मुताबिक, ‘‘अब सुदूर बुंदेलखंडी गांवों के नौजवान यह जुमला बोलने लगे हैं-सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।’’ कामरेड राजेंद्र शुक्ला मानते हैं, ‘‘केंद्र सरकार की चिंता और मायावती सरकार की तमाम मेहरबानियों का ढिंढोरा पीटे जाने के बावजूद बुंदेलखंड में हर ओर निराशा के बादल छाये होने से यदि नक्सलियों की मुहिम परवान चढ़ती दिखे तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए।’’ बीहड़ों के डकैत बाकायदा इश्तहार लगाकर अपने गिरोहों के लिए नौजवानों की भर्ती करने में महज इसलिए कामयाब होते हैं क्योंकि यहां युवाओं के हाथ में काम नहीं है। हक-हुकूक की लड़ाई का नारा बुलंद कर निकृष्टï हिंसा पर उतारू नक्सलियों की मुहिम परिस्थितियों के मारे किसानों और नौजवानों तक ही सीमित नहीं है बल्कि उन्होंने मोस्ट वांटेड दुर्दांत डकैत सरगना ठोकिया समेत सभी डाकू गिरोहों को अपने साथ मिलाने की कोशिशें भी तेज कर रखी है। जबर्दस्त फायर पावर के साथ ही किसी पलटवार या हमले के लिए तकनीकी कौशल व अपने जैसे जज्बे से लैस करने के बदले नक्सलियों की मंशा दुर्गम इलाकों में डकैती की सुरक्षित पनाहगाहों को अपने कब्जे में लेना है। चित्रकूटधाम (बांदा) परिक्षेत्र के डीआईजी श्रीराम त्रिपाठी नक्सलियों की आहट की बात तो स्वीकारते हैं। लेकिन उनके किसी गतिविधि की जानकारी के बावत पूछे गये सवाल पर हाथ झाड़ लेना बेहतर समझते हैं। यह बात दीगर है कि सभी जनपदों के आला हुक्मरान मप्र इलाके के बुंदेलखंड में नक्सली चहल-पहल को स्वीकार करने में शेखी दिखाते हैं। खुद चित्रकूट के पुलिस अधीक्षक डा. प्रीतेन्दर सिंह ने कहा, ‘‘रीवा में नक्सलियों के मूवमेंट की खबर दूरूस्त थी। इसी आधार पर चित्रकूट में नक्सली संगठनों की सक्रियता की पुष्टिï के बाद सघन जांच जारी है।’’ लेकिन जांच में इन अफसरों को कुछ भी मिल नहीं रहा है। सात जिलों के आठ मंत्रियों की आमद रफ्त भी नक्सली पदचाप नहीं सुन पा रही है।
वह भी तब, जब जांच रिपोर्टें इस बात को तस्दीक करती हों, ‘‘ ‘बिरसामुंडा’ नामक संगठन की आड़ में नक्सलियों ने जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था।’’ केंद्रीय खुफिया सूत्र इस बात को पुख्ता तौर पर स्वीकार करते हैं, ‘‘बुंदेलखंड में नक्सलवाद, खदान मुक्ति मोर्चा के बैनर तले काम कर रहा है।’’ं डेढ़ साल पहले यह इत्तला कर चुकी हैं, ‘‘पचास हजार का ईनामी जोनल एरिया कमांडर संजय कोल ने बीते साल चित्रकूट और बांदा इलाके का दौरा किया था।’’ इस दौरे से लौटते हुए मुठभेड़ में संजय मारा गया। उसकी पत्नी सुषमा कोल पकड़ ली गयी। संजय उप्र, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मप्र समेत पांच राज्यों का काम था। इतना ही नहीं, नक्सली आंदोलन के केंद्रीय कमेटी के सदस्य पांच लाख के ईनामी कामेश्वर बैठा को मायावती ने झारखंड के पलामू इलाके से हाथी पर सवार करके लोकसभा उपचुनाव में उतार चुकी हैं। स्टिंग आपरेशन के चलते सदस्यता रद्द होने के बाद यह सीट रिक्त हुई थी। बैठा ने जेल में रहकर चुनाव लड़ा था और उसे 1 लाख 41 हजार वोट मिले थे। यह फैसला भी भारी पड़ रहा है।
बुंदेलखंड इलाके में पकड़ी जा रही आरडीएक्स की खेपें भी इस बात को तस्दीक करती हैं कि इलाके में कोई संगठन बड़ी वारदात को अंजाम देने में जुटा हुआ है। महोबा के कबरई इलाके में पहाड़ों के खनन के सिर्फ तीन लाइसेंसी हैं। जिसमें से एक ने नई सरकार के आने के बाद से काम बंद कर रखा है। मात्र दो लाइसेंसियों के लिए तकरीबन सौ लोग विस्फोटक पहुंचाने के काम में जुटे हुए हैं। मोटर साइकिल पर 7० किलो आरडीएक्स लादकर जा रहे दो युवकों की मोबाइल फोन बज जाने की वजह से हुए विस्फोट में मौत हो गयी। सात टन आरडीएक्स बीते 11 तारीख को मिली थी। बीस हजार की ईनामी व उप्र महिला विंग की कमांडर हार्डकोर नक्सली बबिता सोनभद्र पुलिस के हत्थे चढ़ी तो उसने माओवादियों के प्रचार-प्रसार की भावी योजनाओं का खुलासा भी किया। खुलासे के मुताबिक, ‘‘डाला व सुकृत (सोनभद्र), अहरौरा (मिर्जापुर), चकिया (चंदौली), शंकरगढ़ (इलाहाबाद) व बांदा की पत्थर खदानों के बीच चोरी-छिपे प्रचार-प्रसार चालू है। इन इलाकों में गुपचुप मीटिंगें और लाल सलाम का अभिवादन संकेत दे रहा है।’’ जमानत पर छूटने के बाद करीब सवा दो सौ नक्सली कहां हैं। इसका पता पुलिस नहीं कर रही है? बुंदेलखंड के बीहड़ तथा दुर्दशाग्रस्त सुदूर गांवों में भूख से तड़पते किसानों को सरकार के खिलाफ भडक़ाते हुये यह समझाने की पुरजोर कोशिश जारी है कि साधन-संपन्न लोगों ने गरीबों के हकों पर डाका डालकर उन्हें मरने के लिए मजबूर किया है। मामला चाहें बीपीएल कार्ड का हो या फिर रोजगार गारंटी योजना में प्रधान के चहेतों के वर्चस्व का। तमाम शिकायतों के बावजूद सुनवाई नहीं होना और पांच साल से मौसम की बेरुखी के बावजूद सरकारी स्तर पर सिंचाई सुविधा मुहैया नहीं कराना किसानों को नक्सलियों की बात सुनने के लिए प्रेरित कर रहा है। नक्सलियों ने अपने मॉडस आपरेंडी को यूपी में चार स्तर में बांट रखा है। पहले क्षेत्र का चयन फिर स्थानीय लोगों से संपर्क तथा बाद में स्थानीय टोली बना गुरिल्ला युद्घ का प्रशिक्षण देने के बाद अंतिम चरण में लिब्रेटेड जोन का निर्माण किया जाता है। कमांडर गांवों में जाकर बैठक करते हैं और सरकारी ठेकेदारों और अधिकारियों कर्मचारियों से धन वसूली की जाती है ताकि भय व्याप्त हो। इस विंग के लोग जंगल और पहाड़ों में रहते हैं। बुंदेलखंड में तीन चरण के काम आकार ले चुके हैं।
-बुंदेलखंड से योगेश मिश्र
बदहाल बुंदेलखंड को भूख और प्यास से उबारने के लिए केंद्र और राज्य सरकार के बीच चल रहे सियासत के खेल में शह और मात किसकी होगी यह कहना तो अब दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। पर इस सियासी खेल में बुंदेलों की सरजमीं नक्सलियों को उर्वर दिखने लगी है। चंदौली और सोनभद्र इलाके तक सीमित रहने वाले नक्सली अब बुंदेलखंड के सातों जिलों में धीरे-धीरे अपनी धमक दर्ज कराने लगे हैं। केंद्रीय खुफिया एजेंसी के दस्तावेज बताते हैं, ‘‘उप्र में नक्सलियों ने अपने गढ़ सोनभद्र, चंदौली व मिर्जापुर की अपेक्षा आसान रास्ता पकडऩे के बजाय मध्य प्रदेश के रीवा वाले घुमावदार रास्ते को बुंदेलखंड प्रवेश के लिए चुना है।’’
सही मायने में नक्सलवाद यहां पनप भले न पाया हो पर इसके बीज तो कभी के पड़ चुके हैं। खुफिया दस्तावेज बताते हैं, ‘‘अस्सी के दशक में बिहार के जहानाबाद में सक्रिय नामचीन नक्सली डा. विनयन और उनके शिष्य विनोद मिश्र यहां अरसे तक नक्सली पौध उगाने में जुटे रहे।’’ हालांकि उस समय बुंदेलों की यह सरजमीं इतनी तंगहाली और दुश्वारियों में नहीं जी रही थी। नतीजतन, यहां बोए गए नक्सलवाद के बीज उग नहीं पाए। लेकिन अब यही सरजमीं खासी उर्वर हो गई है। क्योंकि प्राकृतिक आपदा और डकैतों के कहर से कराह रहे बुंदेलखंड के लोग जल, जंगल और जमीन की दिक्कतों से रूबरू हो रहे हैं। उन्हें सरकारी मशीनरी के डंडे की मार से लगातार अपनी पीठ सहलानी पड़ रही है। सरकारी मशीनरी की खाऊ-कमाऊ नीति के चलते मौत को गले लगाना किसानों को ज्यादा मुफीद नजर आ रहा है। तकरीबन 25 फीसदी दलित आबादी वाले इस इलाके में पिछले चार सालों में तकरीबन 5०० लोगों ने गरीबी, भुखमरी, तंगहाली, बीमारी और कर्ज के चलते मौत को गले लगाना बेहतर समझा है। हालांकि सरकार ने मौत की वजहें फाइलों में ऐसी दर्ज की हैं कि मरने वालों के परिजन और शुभचिंतकों की मुट्ïिठयां अभी भी गुस्से में भींची हुई हैं। यही नहीं, अकेले महोबा जनपद में अर्जुन बांध से जरूरत का पानी चुराने के आरोप में 189० लोगों के खिलाफ सरकारी हुक्मरानों ने मुकदमा दर्ज कराया है। रोजगार की तंगहाली के चलते बुंदेलखंड क्षेत्र के कई जनपदों से लोग महानगरों को मजदूरी के लिए पलायन कर रहे हैं। भारतीय रेलवे प्रशासन के आंकड़ों को देखें तो, ‘‘पिछले छह माह में पांच लाख नागरिकों ने पलायन किया।’’ जिला प्रशासन के आंकड़ों से पता लगता है, ‘‘ग्रामीणों क्षेत्रों की 87 फीसद, शहरी क्षेत्रों की 49 फीसद आबादी के साथ 95 फीसदी पशुधन अपना जीवन बचाने के लिए इस क्षेत्र से पलायन कर गया है।’’ ऐसे में कल तक जो बुंदेलखंडवासी अपनी दिक्कतों और दुश्वारियों का ठीकरा भाग्य और नियति पर फोडक़र त्रासदी का घूंट पी लेते थे, उन्हें यह समझाया जाने लगा है कि अपने हक और हुकूक के लिए हाथ में ताकत लाना जरूरी है। खुफिया एजेंसी के एक अफसर के मुताबिक, ‘‘अब सुदूर बुंदेलखंडी गांवों के नौजवान यह जुमला बोलने लगे हैं-सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।’’ कामरेड राजेंद्र शुक्ला मानते हैं, ‘‘केंद्र सरकार की चिंता और मायावती सरकार की तमाम मेहरबानियों का ढिंढोरा पीटे जाने के बावजूद बुंदेलखंड में हर ओर निराशा के बादल छाये होने से यदि नक्सलियों की मुहिम परवान चढ़ती दिखे तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए।’’ बीहड़ों के डकैत बाकायदा इश्तहार लगाकर अपने गिरोहों के लिए नौजवानों की भर्ती करने में महज इसलिए कामयाब होते हैं क्योंकि यहां युवाओं के हाथ में काम नहीं है। हक-हुकूक की लड़ाई का नारा बुलंद कर निकृष्टï हिंसा पर उतारू नक्सलियों की मुहिम परिस्थितियों के मारे किसानों और नौजवानों तक ही सीमित नहीं है बल्कि उन्होंने मोस्ट वांटेड दुर्दांत डकैत सरगना ठोकिया समेत सभी डाकू गिरोहों को अपने साथ मिलाने की कोशिशें भी तेज कर रखी है। जबर्दस्त फायर पावर के साथ ही किसी पलटवार या हमले के लिए तकनीकी कौशल व अपने जैसे जज्बे से लैस करने के बदले नक्सलियों की मंशा दुर्गम इलाकों में डकैती की सुरक्षित पनाहगाहों को अपने कब्जे में लेना है। चित्रकूटधाम (बांदा) परिक्षेत्र के डीआईजी श्रीराम त्रिपाठी नक्सलियों की आहट की बात तो स्वीकारते हैं। लेकिन उनके किसी गतिविधि की जानकारी के बावत पूछे गये सवाल पर हाथ झाड़ लेना बेहतर समझते हैं। यह बात दीगर है कि सभी जनपदों के आला हुक्मरान मप्र इलाके के बुंदेलखंड में नक्सली चहल-पहल को स्वीकार करने में शेखी दिखाते हैं। खुद चित्रकूट के पुलिस अधीक्षक डा. प्रीतेन्दर सिंह ने कहा, ‘‘रीवा में नक्सलियों के मूवमेंट की खबर दूरूस्त थी। इसी आधार पर चित्रकूट में नक्सली संगठनों की सक्रियता की पुष्टिï के बाद सघन जांच जारी है।’’ लेकिन जांच में इन अफसरों को कुछ भी मिल नहीं रहा है। सात जिलों के आठ मंत्रियों की आमद रफ्त भी नक्सली पदचाप नहीं सुन पा रही है।
वह भी तब, जब जांच रिपोर्टें इस बात को तस्दीक करती हों, ‘‘ ‘बिरसामुंडा’ नामक संगठन की आड़ में नक्सलियों ने जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था।’’ केंद्रीय खुफिया सूत्र इस बात को पुख्ता तौर पर स्वीकार करते हैं, ‘‘बुंदेलखंड में नक्सलवाद, खदान मुक्ति मोर्चा के बैनर तले काम कर रहा है।’’ं डेढ़ साल पहले यह इत्तला कर चुकी हैं, ‘‘पचास हजार का ईनामी जोनल एरिया कमांडर संजय कोल ने बीते साल चित्रकूट और बांदा इलाके का दौरा किया था।’’ इस दौरे से लौटते हुए मुठभेड़ में संजय मारा गया। उसकी पत्नी सुषमा कोल पकड़ ली गयी। संजय उप्र, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मप्र समेत पांच राज्यों का काम था। इतना ही नहीं, नक्सली आंदोलन के केंद्रीय कमेटी के सदस्य पांच लाख के ईनामी कामेश्वर बैठा को मायावती ने झारखंड के पलामू इलाके से हाथी पर सवार करके लोकसभा उपचुनाव में उतार चुकी हैं। स्टिंग आपरेशन के चलते सदस्यता रद्द होने के बाद यह सीट रिक्त हुई थी। बैठा ने जेल में रहकर चुनाव लड़ा था और उसे 1 लाख 41 हजार वोट मिले थे। यह फैसला भी भारी पड़ रहा है।
बुंदेलखंड इलाके में पकड़ी जा रही आरडीएक्स की खेपें भी इस बात को तस्दीक करती हैं कि इलाके में कोई संगठन बड़ी वारदात को अंजाम देने में जुटा हुआ है। महोबा के कबरई इलाके में पहाड़ों के खनन के सिर्फ तीन लाइसेंसी हैं। जिसमें से एक ने नई सरकार के आने के बाद से काम बंद कर रखा है। मात्र दो लाइसेंसियों के लिए तकरीबन सौ लोग विस्फोटक पहुंचाने के काम में जुटे हुए हैं। मोटर साइकिल पर 7० किलो आरडीएक्स लादकर जा रहे दो युवकों की मोबाइल फोन बज जाने की वजह से हुए विस्फोट में मौत हो गयी। सात टन आरडीएक्स बीते 11 तारीख को मिली थी। बीस हजार की ईनामी व उप्र महिला विंग की कमांडर हार्डकोर नक्सली बबिता सोनभद्र पुलिस के हत्थे चढ़ी तो उसने माओवादियों के प्रचार-प्रसार की भावी योजनाओं का खुलासा भी किया। खुलासे के मुताबिक, ‘‘डाला व सुकृत (सोनभद्र), अहरौरा (मिर्जापुर), चकिया (चंदौली), शंकरगढ़ (इलाहाबाद) व बांदा की पत्थर खदानों के बीच चोरी-छिपे प्रचार-प्रसार चालू है। इन इलाकों में गुपचुप मीटिंगें और लाल सलाम का अभिवादन संकेत दे रहा है।’’ जमानत पर छूटने के बाद करीब सवा दो सौ नक्सली कहां हैं। इसका पता पुलिस नहीं कर रही है? बुंदेलखंड के बीहड़ तथा दुर्दशाग्रस्त सुदूर गांवों में भूख से तड़पते किसानों को सरकार के खिलाफ भडक़ाते हुये यह समझाने की पुरजोर कोशिश जारी है कि साधन-संपन्न लोगों ने गरीबों के हकों पर डाका डालकर उन्हें मरने के लिए मजबूर किया है। मामला चाहें बीपीएल कार्ड का हो या फिर रोजगार गारंटी योजना में प्रधान के चहेतों के वर्चस्व का। तमाम शिकायतों के बावजूद सुनवाई नहीं होना और पांच साल से मौसम की बेरुखी के बावजूद सरकारी स्तर पर सिंचाई सुविधा मुहैया नहीं कराना किसानों को नक्सलियों की बात सुनने के लिए प्रेरित कर रहा है। नक्सलियों ने अपने मॉडस आपरेंडी को यूपी में चार स्तर में बांट रखा है। पहले क्षेत्र का चयन फिर स्थानीय लोगों से संपर्क तथा बाद में स्थानीय टोली बना गुरिल्ला युद्घ का प्रशिक्षण देने के बाद अंतिम चरण में लिब्रेटेड जोन का निर्माण किया जाता है। कमांडर गांवों में जाकर बैठक करते हैं और सरकारी ठेकेदारों और अधिकारियों कर्मचारियों से धन वसूली की जाती है ताकि भय व्याप्त हो। इस विंग के लोग जंगल और पहाड़ों में रहते हैं। बुंदेलखंड में तीन चरण के काम आकार ले चुके हैं।
-बुंदेलखंड से योगेश मिश्र
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