TRENDING TAGS :
डाक्टरी की डिग्री पर लटकती तलवार
दिनांक : 12-०5-2००8
अगर आप राज्य के किसी एलोपैथिक, होम्योपैथिक अथवा आयुर्वेदिक कालेज से डाक्टरी की डिग्री हासिल करने में जुटे हों तो देख लें कि कहीं ये सरकारी कालेज आपको फर्जी डिग्री तो नहीं थमा रहे हैं। राज्य के सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र का कोई भी मेडिकल कालेज एमसीआई के मानदंडों पर खरा नहीं उतरता है। सभी कालेजों पर मान्यता खत्म होने की तलवार लटक रही है। हद तो यह है कि इस संकट की जद में राज्य का एकमात्र चिकित्सा विश्वविद्यालय भी शामिल है।
राज्य के सभी मेडिकल कालेजों और मेडिकल विश्वविद्यालय में तकरीबन ४० विशेषज्ञता के क्षेत्रों में ७३७ प्रोफेसर, रीडर और लेक्चरर की जरूरत है पर केवल ४२२ लोगों के बूते पर छात्र-छात्राओं को डाक्टरी सिखाई जा रही है। एनॉटामी विभाग में २४, एनेस्थीसिया और बायो कमेस्ट्री में १०-१० तथा सर्जरी में १६ शिक्षकों की कमी है। केवल यूरोलॉजी विभाग में अनिवार्य अध्यापकों का कोरम पूरा है। एलोपैथिक कालेजों में प्रोफेसर के १३७ स्वीकृत पदों में से महज १११, रीडर के १९४ में से १४४ व लेक्चरर के ३२५ में से ५६ पदों पर ही डाक्टर तैनात हैं। कमोबेश यही स्थिति होम्योपैथिक कालेजों में भी है। इसके सात में से बस एक कालेज में प्राचार्य है। मानक के अनुसार होम्योपैथी कालेजो के लिये ३१५ शिक्षकों की जरूरत है पर सिर्फ १२७ पद ही स्वीकृत हैं। इनमें भी 8० ही भरे हैं। हर होम्योपैथी कालेज में 15 रीडर, 15 प्रोफेसर सहित कुल 45 शिक्षकों की तैनाती अनिवार्य है जबकि मात्र दो प्रोफेसर एवं दो ही रीडर हैं। प्रोफेसर के रिक्त पदों में से आधे पद लेक्चरर और रीडर के मार्फत भरे जाने चाहिए। आधे पदों पर सीधी भर्ती का प्राविधान है, पर बीते डेढ़ दशक में कोई प्रोन्नति हुई ही नहीं है। केन्द्रीय होम्योपैथिक परिषद के एक उच्च पदस्थ अधिकारी के मुताबिक, ‘‘राज्य का कोई भी कालेज मानक पूरा नहीं करता है।’’ यह बात वह परिषद कह रही है, जिसके खिलाफ पैसा लेकर मान्यता देने के आरोप की सीबीआई जांच चल रही है। किसी सरकारी होम्योपैथी कालेज में पीजी की पढ़ाई की व्यवस्था नहीं है। केवल निजी क्षेत्र के सांईनाथ होम्योपैथिक कालेज में पीजी की कक्षायें चलती हैं। कालेज को देख लें तो मान्यता देने वाली एजेन्सी पर खुद सवाल खड़े हो जाते हैं। इस कालेज के कर्ता-धर्ता डा० एसएम सिंह हैं जो सेन्ट्रल होम्योपैथिक काउंसिल के सदस्य हैं।
आयुर्वेदिक कालेजों की स्थिति इतनी बदतर है कि पिछले साल आई सेन्ट्रल काउंसिल फार मेडिसिन (सीसीआईएम) की टीम ने अपनी रिपोर्ट में कहा,‘‘राज्य के सभी आठ आयुर्वेदिक और दो यूनानी कालेजों में से कोई भी मानक पर खरा नहीं उतरता है।’’ आयुर्वेदिक कालेजों में प्रोफेेसर के ३५ पदों में १५ भरे हैं। रीडर के ५५ में से 45 तो लेक्चरर के १३० में से 43 पद रिक्त हैं। सीसीआईएम द्वारा प्रदेश के पांच आयुर्वेदिक कालेजों की मान्यता समाप्त किये जाने के निर्देशों के विरोध में बीएएमएस छात्रों ने लखनऊ में जुलूस निकाल कर सरकार का ध्यान आकर्षित कराया पर हुआ कुछ नहीं। दस कालेजों में से दो में ही योग्यता और नियम के मुताबिक प्राचार्य हैं। इसी से मिलती-जुलती हालत एलोपैथिक कालेजों की भी है। जिस भी मेडिकल कालेज पर नजर दौड़ाये वहां स्टाफ की कमी के साथ ही गड़बड़ झाले की कहानी हाथ लगती है। चिविवि में शिक्षकों के करीब १३६ पद खाली हैं। प्रदेश में शिक्षकों के ७३८ पद हैं, पर ३१६ शिक्षक ही काम कर रहे हैं। बीते २६ अप्रैल को मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) ने इस एक मात्र चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के सात सीटों की मान्यता खत्म करने की चेतावनी दे डाली। इससे पूर्व रेडियो डायग्नोसिस विभाग के एमडी कोर्स की भी मान्यता एमसीआई खत्म कर चुका है। मुख्य वजह शिक्षकों की कमी है। फिजियोलाजी विभाग १९३० में खरीदे गए माइक्रोस्कोप से चल रहा है। तंगी इतनी कि चाक तक आसानी से मुहैया नहीं है। एनाटामी विभाग में फार्मोलिन से लेकर स्लाइड तक के लिये फंड नहीं है। नतीजतन हीमोटोलाजी लैब बंद करनी पड़ी है।
गोरखपुर के बाबा राघवदास मेडिकल कालेज में शिक्षकों के 38 पद खाली हैं। इनमें तीन सुपरस्पेशलिस्ट के पद- प्लास्टिक सर्जरी विभाग, नेफ्रोलाजी विभाग एवं हृदय रोग विभाग में हैं। तकरीबन ४० फीसदी पैरामेडिकल स्टाफ की कमी वर्षों से है। एमसीआई मान्यता खत्म करने की नोटिस दो साल पहले दे चुका है। कालेज के अधीन एक शहरी और दो ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र का होना जरूरी है पर कालेज को अभी तक यह नहीं मिल सका है। कालेज से निकलने वाले कचरा के लिए इन्सीनेरेटर होना चाहिए। शासन ने इसके लिए बीते मार्च में ९२ लाख ९७ हजार स्वीकृत किये थे। प्रधानाचार्य डा० ललित मोहन कहते हंै, ‘‘शासन जब भी प्रस्ताव के लिए कहता है, हम प्रस्ताव भेज देते हैं। अमल तो शासन को करना है।’’ विधान परिषद सदस्य डा० वाईडी सिंह कहते हैं, ‘‘गोरखपुर का मेडिकल कालेज सीमावर्ती नेपाल, बिहार व पिछड़े पूर्वांचल के मरीजों की इकलौती उम्मीद है। बावजूद सरकारें सुविधा के नाम पर छलती रही हैं।’’ चार साल पहले प्राचार्य रहे डा० ओपी सिंह ने १६ कर्मचारियोंं को भर्ती कर कालेज को १०० करोड़ का चूना लगाया तो राजकीय निर्माण निगम ने मरम्मत और निर्माण के लिए मिले १० करोड़ रूपये पानी की तरह बहा दिये। एमबीबीएस के छात्र चेतन अग्रवाल कहते हंै, ‘‘हमेशा भय रहता है कि हम फर्जी डिग्री हासिल कर रहे हैं। सरकार क्यों हमारे भविष्य से खिलवाड़ कर रही है।’’
कानपुर का जीएसवी मेडिकल कालेज २५० की जगह ११२ फैकल्टी से काम चला रहा है। एक दर्जन प्रोफेसर, रीडर कालेज छोडऩे का मन बना चुके हैं जिससे मेडिकल कालेज का अस्तित्व ही संकट में पड़ जायेगा। यहां १९७२ से ग्लूकोज स्लाइन बनाने वाला प्लान्ट खराब पड़ा है। एमसीआई के दिशा-निर्देश के अनुसार इस प्लान्ट का चालू रहना अनिवार्य है। मुलायम सरकार की महत्वाकांक्षी योजना के तहत सैफई में खुले मेडिकल कालेज का जब एमसीआई की टीम ने उनके कार्यकाल में दौरा किया तो वहां ४०-५० डाक्टरों की कमी थी। पर तब दो सरकारी मेडिकल कालेज के डाक्टरों को अवकाश देकर सैफई मेडिकल कालेज में तैनात कर दिया गया। और एमसीआई की टीम ने आंख मूंदकर हरी झंडी दे दी। आगरा के एसएन मेडिकल कालेज में स्टाफ की कमी का फायदा उठाते हुए तत्कालीन प्राचार्य डा० डीएन शर्मा ने अकेले सैफई से १५ प्रतिशत नियुक्तियां कर डालीं। ३६८ में से ५० कर्मचारी सैफई के हैं। इस सम्बन्ध में प्राचार्य एनसी प्रजापति ने बताया, ‘‘यह मामला मेरे कार्यकाल से पहले का है लेकिन इसकी जांच कराई जा रही है।’’ महारानी लक्ष्मीबाई के नाम पर झांसी में बने बुंदेलखंड के इकलौते मेडिकल कालेज में ५० फीसदी स्टाफ कम है। एटॉनामी, फिजियोलॉजी, क्षय और चर्म रोग विभाग में शिक्षकों का अकाल है। आधुनिक मशीनें टेक्नीशियन के अभाव में जंग खा रही हैं। वेन्टीलेटर बंद पड़े हैं।
दिलचस्प यह है कि आगरा, झांसी, कानपुर मेडिकल कालेज में रिक्त पदों का भी वेतन बजट जारी होता रहा। बाद में करीब ३९ करोड़ सरेंडर करना पड़ा। मेडिकल काउंसिल के मानक पूरे करने के लिए उपकरणों आदि के नाम पर तीन वर्षों में कुल एक अरब ८ लाख रूपये लिए गए। मनमुताबिक खर्च के लिए पर्सनल लेजर एकाउंट में जमा कर लिए। रिपोर्ट के मुताबिक ये पूरी तरह से गलत प्रक्रिया है। झांसी मेडिकल कालेज को ७.६१ करोड़ रूपये दे दिए गये। जबकि इससे पूर्व ही उसे ६.३६ करोड़ रूपए मिल चुके थे उनमें से २.६९ करोड़ खर्च भी हो चुके थे। कानपुर में उपकरणों के लिए ७.६९ करोड़ दिए गए। उपकरण तो नहीं लिए लेकिन इस रकम में से २९.८८ लाख की किताबें और जर्नल्स खरीद डाले। इसी मद से फर्नीचर, डीजल, जनरेटर पर भी पानी की तरह रूपया बहाया गया। आगरा सहित दो अन्य मेडिकल कालेजों ने तीन सालों में करीब सवा १७ करोड़ की दवाएं गलत तरीके से खरीदीं। इलाहाबाद मेडिकल कालेज को केन्द्र सरकार ने २००५ में कानून बनाकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय का एक संकाय घोषित कर दिया था पर राज्य सरकार दो सालों से न्यायालय में इसे अपनी अमानत घोषित नहीं करवा पायी।
(योगेश मिश्र)
अगर आप राज्य के किसी एलोपैथिक, होम्योपैथिक अथवा आयुर्वेदिक कालेज से डाक्टरी की डिग्री हासिल करने में जुटे हों तो देख लें कि कहीं ये सरकारी कालेज आपको फर्जी डिग्री तो नहीं थमा रहे हैं। राज्य के सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र का कोई भी मेडिकल कालेज एमसीआई के मानदंडों पर खरा नहीं उतरता है। सभी कालेजों पर मान्यता खत्म होने की तलवार लटक रही है। हद तो यह है कि इस संकट की जद में राज्य का एकमात्र चिकित्सा विश्वविद्यालय भी शामिल है।
राज्य के सभी मेडिकल कालेजों और मेडिकल विश्वविद्यालय में तकरीबन ४० विशेषज्ञता के क्षेत्रों में ७३७ प्रोफेसर, रीडर और लेक्चरर की जरूरत है पर केवल ४२२ लोगों के बूते पर छात्र-छात्राओं को डाक्टरी सिखाई जा रही है। एनॉटामी विभाग में २४, एनेस्थीसिया और बायो कमेस्ट्री में १०-१० तथा सर्जरी में १६ शिक्षकों की कमी है। केवल यूरोलॉजी विभाग में अनिवार्य अध्यापकों का कोरम पूरा है। एलोपैथिक कालेजों में प्रोफेसर के १३७ स्वीकृत पदों में से महज १११, रीडर के १९४ में से १४४ व लेक्चरर के ३२५ में से ५६ पदों पर ही डाक्टर तैनात हैं। कमोबेश यही स्थिति होम्योपैथिक कालेजों में भी है। इसके सात में से बस एक कालेज में प्राचार्य है। मानक के अनुसार होम्योपैथी कालेजो के लिये ३१५ शिक्षकों की जरूरत है पर सिर्फ १२७ पद ही स्वीकृत हैं। इनमें भी 8० ही भरे हैं। हर होम्योपैथी कालेज में 15 रीडर, 15 प्रोफेसर सहित कुल 45 शिक्षकों की तैनाती अनिवार्य है जबकि मात्र दो प्रोफेसर एवं दो ही रीडर हैं। प्रोफेसर के रिक्त पदों में से आधे पद लेक्चरर और रीडर के मार्फत भरे जाने चाहिए। आधे पदों पर सीधी भर्ती का प्राविधान है, पर बीते डेढ़ दशक में कोई प्रोन्नति हुई ही नहीं है। केन्द्रीय होम्योपैथिक परिषद के एक उच्च पदस्थ अधिकारी के मुताबिक, ‘‘राज्य का कोई भी कालेज मानक पूरा नहीं करता है।’’ यह बात वह परिषद कह रही है, जिसके खिलाफ पैसा लेकर मान्यता देने के आरोप की सीबीआई जांच चल रही है। किसी सरकारी होम्योपैथी कालेज में पीजी की पढ़ाई की व्यवस्था नहीं है। केवल निजी क्षेत्र के सांईनाथ होम्योपैथिक कालेज में पीजी की कक्षायें चलती हैं। कालेज को देख लें तो मान्यता देने वाली एजेन्सी पर खुद सवाल खड़े हो जाते हैं। इस कालेज के कर्ता-धर्ता डा० एसएम सिंह हैं जो सेन्ट्रल होम्योपैथिक काउंसिल के सदस्य हैं।
आयुर्वेदिक कालेजों की स्थिति इतनी बदतर है कि पिछले साल आई सेन्ट्रल काउंसिल फार मेडिसिन (सीसीआईएम) की टीम ने अपनी रिपोर्ट में कहा,‘‘राज्य के सभी आठ आयुर्वेदिक और दो यूनानी कालेजों में से कोई भी मानक पर खरा नहीं उतरता है।’’ आयुर्वेदिक कालेजों में प्रोफेेसर के ३५ पदों में १५ भरे हैं। रीडर के ५५ में से 45 तो लेक्चरर के १३० में से 43 पद रिक्त हैं। सीसीआईएम द्वारा प्रदेश के पांच आयुर्वेदिक कालेजों की मान्यता समाप्त किये जाने के निर्देशों के विरोध में बीएएमएस छात्रों ने लखनऊ में जुलूस निकाल कर सरकार का ध्यान आकर्षित कराया पर हुआ कुछ नहीं। दस कालेजों में से दो में ही योग्यता और नियम के मुताबिक प्राचार्य हैं। इसी से मिलती-जुलती हालत एलोपैथिक कालेजों की भी है। जिस भी मेडिकल कालेज पर नजर दौड़ाये वहां स्टाफ की कमी के साथ ही गड़बड़ झाले की कहानी हाथ लगती है। चिविवि में शिक्षकों के करीब १३६ पद खाली हैं। प्रदेश में शिक्षकों के ७३८ पद हैं, पर ३१६ शिक्षक ही काम कर रहे हैं। बीते २६ अप्रैल को मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) ने इस एक मात्र चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के सात सीटों की मान्यता खत्म करने की चेतावनी दे डाली। इससे पूर्व रेडियो डायग्नोसिस विभाग के एमडी कोर्स की भी मान्यता एमसीआई खत्म कर चुका है। मुख्य वजह शिक्षकों की कमी है। फिजियोलाजी विभाग १९३० में खरीदे गए माइक्रोस्कोप से चल रहा है। तंगी इतनी कि चाक तक आसानी से मुहैया नहीं है। एनाटामी विभाग में फार्मोलिन से लेकर स्लाइड तक के लिये फंड नहीं है। नतीजतन हीमोटोलाजी लैब बंद करनी पड़ी है।
गोरखपुर के बाबा राघवदास मेडिकल कालेज में शिक्षकों के 38 पद खाली हैं। इनमें तीन सुपरस्पेशलिस्ट के पद- प्लास्टिक सर्जरी विभाग, नेफ्रोलाजी विभाग एवं हृदय रोग विभाग में हैं। तकरीबन ४० फीसदी पैरामेडिकल स्टाफ की कमी वर्षों से है। एमसीआई मान्यता खत्म करने की नोटिस दो साल पहले दे चुका है। कालेज के अधीन एक शहरी और दो ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र का होना जरूरी है पर कालेज को अभी तक यह नहीं मिल सका है। कालेज से निकलने वाले कचरा के लिए इन्सीनेरेटर होना चाहिए। शासन ने इसके लिए बीते मार्च में ९२ लाख ९७ हजार स्वीकृत किये थे। प्रधानाचार्य डा० ललित मोहन कहते हंै, ‘‘शासन जब भी प्रस्ताव के लिए कहता है, हम प्रस्ताव भेज देते हैं। अमल तो शासन को करना है।’’ विधान परिषद सदस्य डा० वाईडी सिंह कहते हैं, ‘‘गोरखपुर का मेडिकल कालेज सीमावर्ती नेपाल, बिहार व पिछड़े पूर्वांचल के मरीजों की इकलौती उम्मीद है। बावजूद सरकारें सुविधा के नाम पर छलती रही हैं।’’ चार साल पहले प्राचार्य रहे डा० ओपी सिंह ने १६ कर्मचारियोंं को भर्ती कर कालेज को १०० करोड़ का चूना लगाया तो राजकीय निर्माण निगम ने मरम्मत और निर्माण के लिए मिले १० करोड़ रूपये पानी की तरह बहा दिये। एमबीबीएस के छात्र चेतन अग्रवाल कहते हंै, ‘‘हमेशा भय रहता है कि हम फर्जी डिग्री हासिल कर रहे हैं। सरकार क्यों हमारे भविष्य से खिलवाड़ कर रही है।’’
कानपुर का जीएसवी मेडिकल कालेज २५० की जगह ११२ फैकल्टी से काम चला रहा है। एक दर्जन प्रोफेसर, रीडर कालेज छोडऩे का मन बना चुके हैं जिससे मेडिकल कालेज का अस्तित्व ही संकट में पड़ जायेगा। यहां १९७२ से ग्लूकोज स्लाइन बनाने वाला प्लान्ट खराब पड़ा है। एमसीआई के दिशा-निर्देश के अनुसार इस प्लान्ट का चालू रहना अनिवार्य है। मुलायम सरकार की महत्वाकांक्षी योजना के तहत सैफई में खुले मेडिकल कालेज का जब एमसीआई की टीम ने उनके कार्यकाल में दौरा किया तो वहां ४०-५० डाक्टरों की कमी थी। पर तब दो सरकारी मेडिकल कालेज के डाक्टरों को अवकाश देकर सैफई मेडिकल कालेज में तैनात कर दिया गया। और एमसीआई की टीम ने आंख मूंदकर हरी झंडी दे दी। आगरा के एसएन मेडिकल कालेज में स्टाफ की कमी का फायदा उठाते हुए तत्कालीन प्राचार्य डा० डीएन शर्मा ने अकेले सैफई से १५ प्रतिशत नियुक्तियां कर डालीं। ३६८ में से ५० कर्मचारी सैफई के हैं। इस सम्बन्ध में प्राचार्य एनसी प्रजापति ने बताया, ‘‘यह मामला मेरे कार्यकाल से पहले का है लेकिन इसकी जांच कराई जा रही है।’’ महारानी लक्ष्मीबाई के नाम पर झांसी में बने बुंदेलखंड के इकलौते मेडिकल कालेज में ५० फीसदी स्टाफ कम है। एटॉनामी, फिजियोलॉजी, क्षय और चर्म रोग विभाग में शिक्षकों का अकाल है। आधुनिक मशीनें टेक्नीशियन के अभाव में जंग खा रही हैं। वेन्टीलेटर बंद पड़े हैं।
दिलचस्प यह है कि आगरा, झांसी, कानपुर मेडिकल कालेज में रिक्त पदों का भी वेतन बजट जारी होता रहा। बाद में करीब ३९ करोड़ सरेंडर करना पड़ा। मेडिकल काउंसिल के मानक पूरे करने के लिए उपकरणों आदि के नाम पर तीन वर्षों में कुल एक अरब ८ लाख रूपये लिए गए। मनमुताबिक खर्च के लिए पर्सनल लेजर एकाउंट में जमा कर लिए। रिपोर्ट के मुताबिक ये पूरी तरह से गलत प्रक्रिया है। झांसी मेडिकल कालेज को ७.६१ करोड़ रूपये दे दिए गये। जबकि इससे पूर्व ही उसे ६.३६ करोड़ रूपए मिल चुके थे उनमें से २.६९ करोड़ खर्च भी हो चुके थे। कानपुर में उपकरणों के लिए ७.६९ करोड़ दिए गए। उपकरण तो नहीं लिए लेकिन इस रकम में से २९.८८ लाख की किताबें और जर्नल्स खरीद डाले। इसी मद से फर्नीचर, डीजल, जनरेटर पर भी पानी की तरह रूपया बहाया गया। आगरा सहित दो अन्य मेडिकल कालेजों ने तीन सालों में करीब सवा १७ करोड़ की दवाएं गलत तरीके से खरीदीं। इलाहाबाद मेडिकल कालेज को केन्द्र सरकार ने २००५ में कानून बनाकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय का एक संकाय घोषित कर दिया था पर राज्य सरकार दो सालों से न्यायालय में इसे अपनी अमानत घोषित नहीं करवा पायी।
(योगेश मिश्र)
Next Story