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मायावती के अश्वमेध का घोड़ा रोकने की तैयारी
दिनांक : 12-०5-2००8
ऊष्मा के संचरण का सिद्घान्त है कि अधिक तापमान से ऊष्मा कम तापमान की तरफ जाती है। यह वैज्ञानिक नियम सियासत पर भी पूर्णत: लागू होता है। जब कोई बड़ी पार्टी छोटी पार्टी से गठबंधन करती है तो ऊष्मा (ताकत) हमेशा छोटी पार्टी की तरफ जाती है। राज्य में हुए गठबंधनों में कम से कम यह बात सही साबित होती है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दोनों के उत्थान और विस्तार में कांग्रेस और भाजपा का ऊष्मा संचरण सिद्घान्त लागू हुआ।
अब ये राष्टï्रीय दल कांग्रेस और भाजपा राज्य में अपने निरन्तर छिनते जनाधार और क्षीण होती ऊष्मा के लिए सपा और बसपा की ओर टकटकी लगाये दिख रहे हैं। इन्हें उम्मीद है कि राज्य में अपना आधार फैलाने के लिए इन दलों के सहारे से शायद ऊष्मा संचरित होते हुए प्राप्त हो जाये। इसी सिद्घान्त पर अमल करते हुए कांग्रेस ने दोस्ती का हाथ सपा सुप्रीमो मुलायम की ओर बढ़ाया है। निर्धारित समय से पहले लोकसभा चुनाव कराने की कांग्रेस की कोशिशें महज इसलिए परवान नहीं चढ़ पायीं क्योंकि कांग्रेस द्वारा कराये गये एक सर्वे के मुताबिक, ‘‘देश भर में उसे महंगाई के मुद्दे पर ४० फीसदी सीटों के नुकसान का अनुमान था। उप्र में महज छ: सीटें मिलने की बात कही गयी थी।’’ सर्वे के बाद कांग्रेस के लिए जरूरी हो गया कि वह एक और हमदम की तलाश करे। भले ही राहुल गांधी पर कांग्रेसी इतरा रहे हों, दलितों के यहां उनके दौरे से मायावती के पेशानी में बल पड़ रहे हों, लेकिन विधानसभा चुनाव में रोड शो और व्यापक जनसम्पर्क के बाद भी सियासी चौसर पर सीटों का घटकर २५ से २२ हो जाना और वोट फीसदी ८.९६ से गिरकर ८.६१ होने से संदेश जुटाया जा सकता है कि राहुल के करिश्मे को भी अभी मदद की दरकार है।
जिस तरह राज्य में मायावती के अश्वमेध का ‘हाथी’ बेरोक-टोक दौड़ रहा है। निरन्तर वे अपने वोटों में कोई न कोई इजाफा करने में कामयाब होती जा रही हैं। बहुजन को सर्वजन बनाते हुए उन्होंने दलितों के साथ जिस तरह ब्राह्मïणों को साधा और अब वैश्य और वाल्मीकि समुदाय पर उनकी नजर गड़ी हुई है, उससे उनके निरन्तर बढ़ रहे कद से इन्कार करना अब विपक्षियों के लिए भी मुश्किल हो रहा है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल से पदच्युत किये गये अखिलेश दास ने जब कांगे्रस को अलविदा कहा तभी लोगों को भरोसा हो चुका था कि वह लखनऊ की लोकसभा सीट पर हाथी की सवारी करेंगे। इसकी साफ वजहें भी दिख रही थीं कि अखिलेश दास के निजी सचिव रहे नवनीत सहगल ने मायावती के नवरत्नों में जगह बना ली थी। दूसरे कांग्रेस से अपने गुस्से का प्रतिशोध वे मायावती के बिना कहीं जाकर नहीं कर सकते थे। लेकिन जिस तरह मायावती ने उन्हें ब्राह्मïण प्रतीक पुरूष सतीश मिश्र की तरह राष्टï्रीय महासचिव का पद दिया और कहा कि वैश्य समुदाय को जोडऩे का काम अब वे करेंगे। उनके पुराने सिपहसालार डा० नीरज बोरा, नन्द गोपाल नन्दी भी साथ रहेंगे। इससे पार्टी में बेवजह उभरने वाले असंतोष की जगह खत्म हो गयी। यही नहीं, ठीक एक दिन बाद सपा से बसपा में आये संजय गर्ग को लालबत्ती से नवाज कर मायावती ने जता दिया कि अब उनकी नजर दो फीसदी मतदाता वाले वैश्य समुदाय पर है। मतलब साफ है कि पार्टी ने पहले दलितों का धु्रवीकरण किया फिर तिलक-तराजू वालों को जोड़ा। अब कलम वाले तबके के साथ सांस्कृतिक बदलाव में जुट गई है। राजनीतिक विश्लेषक नीरज राठौर इसे बसपा का पुरानी कांग्रेस की राह पर चलना बताते हैं जिसमें सभी विचारधारा एवं सभी जातियों के लिए समुचित स्थान है। वह कहते हैं, ‘‘बसपा की सोशल इंजीनियरिंग राजनीति में कोई नयी पहल नहीं है। कांगे्रस शुरू से सभी जातियों एवं वर्गों को लेकर चलती रही है। वर्तमान में कांग्रेस अपने इस रुख पर कायम नहीं रह सकी है।’’ पिछले छह महीने में बसपा के सांसद, विधायक और मंत्री आधा दर्जन से ज्यादा कवि सम्मेलन और मुशायरा करा चुके हैं। सीतापुर में पार्टी के सांसद राजेन्द्र वर्मा बड़ा कवि सम्मेलन कर चुके हैं। संडीला में राज्य सरकार के मंत्री अब्दुल मन्नान भी कवि सम्मेलन करा चुके हैं। बिस्वां में बसपा विधायक निर्मल वर्मा कवि सम्मेलन करा चुके हैं। बहराइच में दूसरे मंत्री ददïïन मिश्रा, हमीरपुर के मौदहा में मंत्री बादशाह सिंह हास्य कलाकारों को बुलाकर सांस्कृतिक कार्यक्रम करा चुके हैं। ३१ मई को बांदा में एक बड़ा मुशायरा वरिष्ठï मंत्री नसीमुदïदीन सिद्दीकी के सहयोग से होने जा रहा है। अनुसूचित जाति के २३ फीसदी मतदाताओं में ४ फीसदी पासी और २ फीसदी वाल्मीकियों पर भी मायावती की पकड़ जाटव अथवा चमार मतदाताओं की तरह मजबूत नहीं है। ऐसे में उन्होंने गांव और शहरों की सफाई के लिए वाल्मीकि समुदाय के तकरीबन एक लाख लोगों को सरकारी नौकरी देने का ऐलान कर वाहवाही लूटी। यह बात दीगर है कि मायावती की इस मंशा को अदालत ने परवान नहीं चढऩे दिया। मायावती के निरन्तर बढ़ते कद और कांग्रेस से खराब हुए रिश्तों ने मुलायम की अहमियत बढ़ाई है। मायावती की नजर दूसरी पार्टियों के उन उम्मीदवारों पर भी है, जो किसी वजह से अपनी पार्टी में उपेक्षित जीवन जी रहे हैं। 5० हजार से एक लाख की हैसियत वाले इन कद्दावर नेताओं को बसपा के को-आर्डिनेटर और उनकी बिरादरी के लोग संपर्क करने में जुटे हुए हैं। कांग्रेस के बनारस के सांसद और भाजपा के महराजगंज तथा खुर्जा से जीतने वाले उम्मीदवारों के साथ ही साथ बनारस के आसपास के इलाके के दो कट्ïटर दुश्मन माफिया हाथी पर सवार होकर लोकसभा में घुसने की जुगत करते दिखेंगे तो यह मायावती की रणनीति का हिस्सा ही होगा। यूपी फतह के बाद दिल्ली पर कब्जा करने के लिए बसपा प्रमुख और मुख्यमंत्री मायावती कोई कोर-कसर नहीं छोडऩा चाहती हैं लेकिन उनकी खास नजर देश की ७९ ‘सुरक्षित’ सीटों पर है। अब इन्हें भी वह ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के फार्मूले से फतह करना चाहती हैं। गौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा को यूपी की ही सिर्फ 3 सुरक्षित सीटों पर सफलता मिली थी। विदित हो कि लोकसभा की कुल ५४३ सीटों में से ७९ अनुसूचित जाति व ४१ अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। सन २००४ के लोकसभा चुनाव में पार्टी के ४३५ प्रत्याशियों में सफलता सिर्फ १९ को ही मिली थी। प्रदेश की कुल ८० सीटों में अनुसूचित जाति की १७ सुरक्षित सीटों में बसपा के खाते में सिर्फ मिश्रिख, अकबरपुर, बाराबंकी, बस्ती व राबर्ट्ïसगंज आई थी। विदित हो कि प्रदेश की ८९ सुरक्षित विधानसभा सीटों में २००२ के चुनाव में पार्टी को जहां २१ सीटें ही मिली थीं। वहीं पिछले चुनाव में ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के फार्मूले से ६१ सुरक्षित सीटें पार्टी के खाते में आ गयीं। बसपा प्रमुख तो राज्य की सभी १७ सुरक्षित लोकसभा सीटों पर इस बार कब्जा चाहती हैं। इसके लिए खासतौर से अगड़ी व पिछड़ी जातियों की कमेटियों को गठित कर उन्हें अभी सुरक्षित सीटों की ही जिम्मेदारी दी गई है।
पिछले विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह को भले ही ९७ सीटें हाथ लगीं, पर उनके खाते में तकरीबन 25.43 फीसदी वोट आए थे, वह भी तब, जब मुलायम सिंह यादव अपने जीवन का सबसे प्रतिकूल चुनाव लड़ रहे थे। हर तरह की हवा उनके मुखालफत बह रही थी। मायावती ने भी १९९१ की कल्याण सरकार के बाद पहली मर्तबा स्पष्टï बहुमत की सरकार बनाकर 3०.43 फीसदी वोट हासिल किये थे। उप्र विधानसभा में सदस्यों की कुल संख्या ४०३ है। मायावती को २०६ सीटें हासिल हुई थीं, अब यह संख्या बढक़र २१३ हो गयी है। मायावती कांग्रेस के दलित आधार वाले वोट बैंक में सेंध लगाकर राष्टï्रीय स्तर पर कांग्रेस को कमजोर करने में जुटी है। हिमाचल, उत्तराखंड, पंजाब और गुजरात के चुनाव परिणामों ने यह जता दिया है कि मायावती से हिसाब-किताब किये बिना कांग्रेस का भला नहीं होने वाला। गौरतलब है कि इन राज्यों में बसपा को पिछले चुनाव में क्रमश: 7.34, 1०.9, 4.13, 2.6 फीसदी वोट मिले थे। मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्टï्र, गुजरात और पंजाब के आगामी चुनाव में भी मायावती कांग्रेस में खासी सेंध लगायेंगी। ऐसे में दलित वोटों के बिखराव से निपटने के लिए पिछड़े वर्गों के मतदाताओं पर भरोसा करना कांग्रेस की मजबूरी होगी। पिछड़े वर्ग के बड़े नेताओं में मुलायम और लालू आते हैं। मुलायम सिंह के लिए भी मायावती की पांच साल वाली स्पष्टï बहुमत की सरकार भारी पड़ रही है। लोहिया के इस चेले को बार-बार अपने गुरू का कहा, ‘‘जिन्दा कौमे पांच साल इन्तजार नहीं करतीं।’’ याद आ रहा है। आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में सीबीआई और अदालत के पचड़े में फंसे मुलायम सिंह को केन्द्र सरकार की नजर-ए- इनायत दरकार है। दूसरे, दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, यह कहावत भी दोनों की निकटता की वजह है।
‘आउटलुक’ साप्तहिक को बीते दिनों दिये गये एक साक्षात्कार में मुलायम सिंह ने कांग्रेस से बातचीत का खुलासा किया था। कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी भी हालांकि सपा के साथ किसी तरह के समझौते की बातचीत होने की जानकारी से इन्कार करती हैं पर ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से बातचीत में इतना जरूर कहती हैं, ‘‘राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। फिरकापरस्त ताकतों को बाहर रखने के लिए यूपीए का नया फ्रन्ट बना सकते हैं। हमें यह जरूर देखना होगा कि किस मुद्दे पर वोटों का बंटवारा मुलायम सिंह रोकना चाहते हैं।’’ (देखें साक्षात्कार) रीता जरूर इस हकीकत से वाकिफ है कि उनकी पार्टी का फोकस २०-२५ सीटों से आगे नहीं हो सकता है। कभी कांग्रेस की रीढ़ रहे संजय सिंह भी ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से बातचीत में कहते हैं, ‘‘सेकुलर वोट न बंटें। हम यह प्रयास करेंगे।’’ बीते लोकसभा चुनाव में सपा 35 सीटों पर विजयी हुई थी और 22 सीटों पर वह दूसरे नंबर पर रही। जबकि कांग्रेस को 9 सीटें हाथ लगी थीं और 6 जगहों पर वह दूसरे पायदान पर खड़ी दिखी थी। अगर इन आंकड़ों पर भी गौर किया जाय तो साफ है कि कांग्रेस राज्य की सभी सीटों पर चुनाव को बहुकोणीय कर अपनी बेहतर स्थिति नहीं जता सकती है। यही नहीं, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच बढ़ रही पींगें अगर परवान चढ़ती हैं तो राजनीतिक विश्लेषक नीरज राठौर के मुताबिक, ‘‘दोनों दल मिलकर 25 नई सीटें जीत सकते हैं और 4 पर इनकी हैसियत का इजाफा होगा।’’ हालांकि नीरज इस नतीजे के लिए इस बात पर जोर देते हैं कि दोनों पार्टियां अपने वोट ट्रंासफर कराने का कूबत रखती हों तब। अगर कांग्रेस और सपा को मिल रहे वोटों के आंकड़ों पर गौर करें तो साफ होता है कि मुलायम सिंह यादव पिछले दो विधानसभा चुनाव में 25 फीसदी वोटों के हकदार बने रहे हैं जबकि 2००4 के लोकसभा चुनाव में उन्हें 26.74 और 1999 के लोकसभा चुनाव में 24.०6 फीसदी वोट हासिल हुए थे जबकि कांग्रेस को इन दोनों लोकसभा चुनावों में 12.०4 और 14.72 वोट हाथ लगे थे। 2००7 के विधानसभा में कांग्रेस को 8.61 और 2००2 में 8.96 फीसदी वोट लगे थे। अगर इन सियासी दलों को मिल रहे वोटों पर गौर करें तो साफ होता है कि दोनों दलों के मतदाता मिजाज बदलते हुए नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में वोटों के ट्रांसफर करा लेने की स्थिति सकारात्मक कही जा सकती है। सपा और बसपा को मिले बीते दोनों लोकसभा चुनावों के वोट प्रतिशत पर गौर किया जाय तो साफ होता है कि बसपा की बाढ़ को काउंटर करने में मुलायम कांग्रेस के बेहद मददगार होंगे। 2००4 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव को 4.32 फीसदी वोट हाथ लगे थे जबकि 1999 के चुनाव में उन्हें 3.76 फीसदी मत मिले। 1998 में सपा के खाते में 4.93 फीसदी वोट थे पर 2००4, 1999 और 1998 के लोकसभा चुनाव में बसपा 5.33, 4.16 और 4.67 फीसदी वोट पायी थी। यह सपा को मिले वोटों से बहुत थोड़ा सा कम है।
मुलायम सिंह यादव की कांग्रेस से बातचीत के राजनीतिक अर्थ निकाले जा सकते हैं। पर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी द्वारा सपा महासचिव अमर सिंह के पिता के निधन के एक महीने बाद फोन करके संवेदना व्यक्त करना यह जताता है, ‘‘अमर सिंह को लेकर जो गतिरोध थे वे अब कम हुए हंै।’’ मुलायम सिंह यादव अपनी पार्टी के बाहर जार्ज फर्नांडिस का खासा सम्मान करते हैं और इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि नीतीश कुमार और शरद यादव से त्रस्त जार्ज ने लालू और मुलायम के बीच की दूरियां कम कराने में भूमिका अदा की है। इन नजदीकियों ने कांग्रेस तक पहुंचने के अमर सिंह के रास्ते भी आसान किये हैं। गौरतलब है कि अमर सिंह ने अपनी सियासत की शुरूआत कलकत्ता से कांग्रेस पार्टी के मार्फत ही शुरू की थी। यही नहीं, सोनिया और राहुल जिन अभेद सुरक्षा वाले लोकसभा क्षेत्रों से आते हैं, उनकी विधानसभाई सीटें बसपा और सपा के पास हैं। लोकसभा चुनाव आसानी से जीतने के लिए किसी एक के साथ तालमेल करना जरूरी है। इसे सुधारे बिना केन्द्र की सत्ता में फिर बैठ पाने में कांग्रेस वंचित रह जायेगी। कांग्रेस की समस्या लम्बे समय से बेरोजगार नेताओं की एक-एक करके निकलने की भी है। कांग्रेस के पास जनाधार नहीं है, परन्तु केन्द्र में सरकार बनाने की गुणा गणित जरूर उसके साथ है। जिसकी मुलायम को दरकार है।
मुलायम के व्यवहार और वक्तव्य में आयी तब्दीलियां भी रिश्तों की नई इबारत बांचती दिखती हैं। राहुल के दलित प्रेम से मायावती की परेशानी पर मुलायम राहुल के साथ खड़े नजर आते हैं तो महंगाई के लिए राज्य सरकार पर निशाना साधना यह बताता है कि मुलायम कांग्रेस के लिए मुलायम हो रहे हैं। उन्होंने बीतेे दिनों महंगाई पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘‘महंगाई वैट लागू होने के बाद से आयी है।’’ राजनीतिक समीक्षक नीरज राठौर बताते हैं, ‘‘अगर यह गठबंधन हुआ तो सबसे अधिक फायदा कांग्रेस के ही खाते में दर्ज होगा। क्योंकि अल्पसंख्यक और बसपा से मोहभंग की स्थिति में आ रहे ब्राह्मïण मतदाताओं को नया मंच मिलेगा। अगर मुलायम सिंह यादव कांग्रेस को छोडक़र गये तो कांग्रेस के ये पारम्परिक मतदाता उसकी राजनीतिक थाती बनकर रह जायेंगे।’’ यह इसलिए और मुश्किल नहीं लगता क्योंकि अपने जबलपुर अधिवेशन में मुलायम सिंह यादव ४५ लोकसभा सीटें जिताने का लक्ष्य कार्यकर्ताओं को दे चुके हैं। दूसरी ओर कांग्रेस का भी लक्ष्य २५ सीटों पर फोकस करना है। जहां वह पिछले चुनावों में पहले, दूसरे अथवा तीसरे स्थान पर रही है। ऐसे में गठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर कोई गतिरोध और अवरोध दिखायी नहीं पड़ रहा है। कल तक कांग्रेस पर फब्तियां कसने वाले और इस गठबंधन में सबसे बड़े अवरोध सपा महासचिव अमर सिंह ने भी अपने एक राज्यसभा सांसद के आवास पर बातचीत में आने वाले लोकसभा चुनाव में गठबंधन के संकेत दिए। उन्होंने बसपा सरकार के खिलाफ राहुल गांधी के अभियान की सराहना करते हुए कहा, ‘‘(अमरसिंह से बातचीत करने की कोशिश कर रहा हूँ। यहां उनका कोट जोड़ दूंगा)’’ अमर सिंह के बदले हुए तेवर और सनातन ब्राह्मïण समाज के अधिवेशन में 11 मई को सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह द्वारा पं. जवाहर लाल नेहरू की भूरि-भूरि तारीफ और लोहिया का उदाहरण देते हुए यह कहना, ‘‘अगर कांग्रेस खुद में सुधार लाए तो समाजवादियों की स्वाभाविक मित्र हो सकती है’’ जताता है कि आपस में कुछ-कुछ ऐसा चल रहा है जिससे मायावती के अश्वमेध के हाथी को रोका जा सके। राजनीतिक विश्लेषक नीरज राठौर कहते हैं, ‘‘यह गठबंधन अंधे और लंगड़े की दोस्ती की तरह अपरिहार्य और उपयोगी होगा।’’
-योगेश मिश्र
नोट:-रवीन्द्र जी, स्टोरी आज आपके लिए भेज रहा हूँ। देख लें। कोई परिवर्तन हो तो बताएं। मुलायम सिंह से शाम छह बजे समय मिला है। अमरसिंह से भी कोशिश कर रहा हूँ। फोटो निराला भेज रहे हैंं।
(योगेश मिश्र)
ऊष्मा के संचरण का सिद्घान्त है कि अधिक तापमान से ऊष्मा कम तापमान की तरफ जाती है। यह वैज्ञानिक नियम सियासत पर भी पूर्णत: लागू होता है। जब कोई बड़ी पार्टी छोटी पार्टी से गठबंधन करती है तो ऊष्मा (ताकत) हमेशा छोटी पार्टी की तरफ जाती है। राज्य में हुए गठबंधनों में कम से कम यह बात सही साबित होती है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दोनों के उत्थान और विस्तार में कांग्रेस और भाजपा का ऊष्मा संचरण सिद्घान्त लागू हुआ।
अब ये राष्टï्रीय दल कांग्रेस और भाजपा राज्य में अपने निरन्तर छिनते जनाधार और क्षीण होती ऊष्मा के लिए सपा और बसपा की ओर टकटकी लगाये दिख रहे हैं। इन्हें उम्मीद है कि राज्य में अपना आधार फैलाने के लिए इन दलों के सहारे से शायद ऊष्मा संचरित होते हुए प्राप्त हो जाये। इसी सिद्घान्त पर अमल करते हुए कांग्रेस ने दोस्ती का हाथ सपा सुप्रीमो मुलायम की ओर बढ़ाया है। निर्धारित समय से पहले लोकसभा चुनाव कराने की कांग्रेस की कोशिशें महज इसलिए परवान नहीं चढ़ पायीं क्योंकि कांग्रेस द्वारा कराये गये एक सर्वे के मुताबिक, ‘‘देश भर में उसे महंगाई के मुद्दे पर ४० फीसदी सीटों के नुकसान का अनुमान था। उप्र में महज छ: सीटें मिलने की बात कही गयी थी।’’ सर्वे के बाद कांग्रेस के लिए जरूरी हो गया कि वह एक और हमदम की तलाश करे। भले ही राहुल गांधी पर कांग्रेसी इतरा रहे हों, दलितों के यहां उनके दौरे से मायावती के पेशानी में बल पड़ रहे हों, लेकिन विधानसभा चुनाव में रोड शो और व्यापक जनसम्पर्क के बाद भी सियासी चौसर पर सीटों का घटकर २५ से २२ हो जाना और वोट फीसदी ८.९६ से गिरकर ८.६१ होने से संदेश जुटाया जा सकता है कि राहुल के करिश्मे को भी अभी मदद की दरकार है।
जिस तरह राज्य में मायावती के अश्वमेध का ‘हाथी’ बेरोक-टोक दौड़ रहा है। निरन्तर वे अपने वोटों में कोई न कोई इजाफा करने में कामयाब होती जा रही हैं। बहुजन को सर्वजन बनाते हुए उन्होंने दलितों के साथ जिस तरह ब्राह्मïणों को साधा और अब वैश्य और वाल्मीकि समुदाय पर उनकी नजर गड़ी हुई है, उससे उनके निरन्तर बढ़ रहे कद से इन्कार करना अब विपक्षियों के लिए भी मुश्किल हो रहा है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल से पदच्युत किये गये अखिलेश दास ने जब कांगे्रस को अलविदा कहा तभी लोगों को भरोसा हो चुका था कि वह लखनऊ की लोकसभा सीट पर हाथी की सवारी करेंगे। इसकी साफ वजहें भी दिख रही थीं कि अखिलेश दास के निजी सचिव रहे नवनीत सहगल ने मायावती के नवरत्नों में जगह बना ली थी। दूसरे कांग्रेस से अपने गुस्से का प्रतिशोध वे मायावती के बिना कहीं जाकर नहीं कर सकते थे। लेकिन जिस तरह मायावती ने उन्हें ब्राह्मïण प्रतीक पुरूष सतीश मिश्र की तरह राष्टï्रीय महासचिव का पद दिया और कहा कि वैश्य समुदाय को जोडऩे का काम अब वे करेंगे। उनके पुराने सिपहसालार डा० नीरज बोरा, नन्द गोपाल नन्दी भी साथ रहेंगे। इससे पार्टी में बेवजह उभरने वाले असंतोष की जगह खत्म हो गयी। यही नहीं, ठीक एक दिन बाद सपा से बसपा में आये संजय गर्ग को लालबत्ती से नवाज कर मायावती ने जता दिया कि अब उनकी नजर दो फीसदी मतदाता वाले वैश्य समुदाय पर है। मतलब साफ है कि पार्टी ने पहले दलितों का धु्रवीकरण किया फिर तिलक-तराजू वालों को जोड़ा। अब कलम वाले तबके के साथ सांस्कृतिक बदलाव में जुट गई है। राजनीतिक विश्लेषक नीरज राठौर इसे बसपा का पुरानी कांग्रेस की राह पर चलना बताते हैं जिसमें सभी विचारधारा एवं सभी जातियों के लिए समुचित स्थान है। वह कहते हैं, ‘‘बसपा की सोशल इंजीनियरिंग राजनीति में कोई नयी पहल नहीं है। कांगे्रस शुरू से सभी जातियों एवं वर्गों को लेकर चलती रही है। वर्तमान में कांग्रेस अपने इस रुख पर कायम नहीं रह सकी है।’’ पिछले छह महीने में बसपा के सांसद, विधायक और मंत्री आधा दर्जन से ज्यादा कवि सम्मेलन और मुशायरा करा चुके हैं। सीतापुर में पार्टी के सांसद राजेन्द्र वर्मा बड़ा कवि सम्मेलन कर चुके हैं। संडीला में राज्य सरकार के मंत्री अब्दुल मन्नान भी कवि सम्मेलन करा चुके हैं। बिस्वां में बसपा विधायक निर्मल वर्मा कवि सम्मेलन करा चुके हैं। बहराइच में दूसरे मंत्री ददïïन मिश्रा, हमीरपुर के मौदहा में मंत्री बादशाह सिंह हास्य कलाकारों को बुलाकर सांस्कृतिक कार्यक्रम करा चुके हैं। ३१ मई को बांदा में एक बड़ा मुशायरा वरिष्ठï मंत्री नसीमुदïदीन सिद्दीकी के सहयोग से होने जा रहा है। अनुसूचित जाति के २३ फीसदी मतदाताओं में ४ फीसदी पासी और २ फीसदी वाल्मीकियों पर भी मायावती की पकड़ जाटव अथवा चमार मतदाताओं की तरह मजबूत नहीं है। ऐसे में उन्होंने गांव और शहरों की सफाई के लिए वाल्मीकि समुदाय के तकरीबन एक लाख लोगों को सरकारी नौकरी देने का ऐलान कर वाहवाही लूटी। यह बात दीगर है कि मायावती की इस मंशा को अदालत ने परवान नहीं चढऩे दिया। मायावती के निरन्तर बढ़ते कद और कांग्रेस से खराब हुए रिश्तों ने मुलायम की अहमियत बढ़ाई है। मायावती की नजर दूसरी पार्टियों के उन उम्मीदवारों पर भी है, जो किसी वजह से अपनी पार्टी में उपेक्षित जीवन जी रहे हैं। 5० हजार से एक लाख की हैसियत वाले इन कद्दावर नेताओं को बसपा के को-आर्डिनेटर और उनकी बिरादरी के लोग संपर्क करने में जुटे हुए हैं। कांग्रेस के बनारस के सांसद और भाजपा के महराजगंज तथा खुर्जा से जीतने वाले उम्मीदवारों के साथ ही साथ बनारस के आसपास के इलाके के दो कट्ïटर दुश्मन माफिया हाथी पर सवार होकर लोकसभा में घुसने की जुगत करते दिखेंगे तो यह मायावती की रणनीति का हिस्सा ही होगा। यूपी फतह के बाद दिल्ली पर कब्जा करने के लिए बसपा प्रमुख और मुख्यमंत्री मायावती कोई कोर-कसर नहीं छोडऩा चाहती हैं लेकिन उनकी खास नजर देश की ७९ ‘सुरक्षित’ सीटों पर है। अब इन्हें भी वह ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के फार्मूले से फतह करना चाहती हैं। गौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा को यूपी की ही सिर्फ 3 सुरक्षित सीटों पर सफलता मिली थी। विदित हो कि लोकसभा की कुल ५४३ सीटों में से ७९ अनुसूचित जाति व ४१ अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। सन २००४ के लोकसभा चुनाव में पार्टी के ४३५ प्रत्याशियों में सफलता सिर्फ १९ को ही मिली थी। प्रदेश की कुल ८० सीटों में अनुसूचित जाति की १७ सुरक्षित सीटों में बसपा के खाते में सिर्फ मिश्रिख, अकबरपुर, बाराबंकी, बस्ती व राबर्ट्ïसगंज आई थी। विदित हो कि प्रदेश की ८९ सुरक्षित विधानसभा सीटों में २००२ के चुनाव में पार्टी को जहां २१ सीटें ही मिली थीं। वहीं पिछले चुनाव में ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के फार्मूले से ६१ सुरक्षित सीटें पार्टी के खाते में आ गयीं। बसपा प्रमुख तो राज्य की सभी १७ सुरक्षित लोकसभा सीटों पर इस बार कब्जा चाहती हैं। इसके लिए खासतौर से अगड़ी व पिछड़ी जातियों की कमेटियों को गठित कर उन्हें अभी सुरक्षित सीटों की ही जिम्मेदारी दी गई है।
पिछले विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह को भले ही ९७ सीटें हाथ लगीं, पर उनके खाते में तकरीबन 25.43 फीसदी वोट आए थे, वह भी तब, जब मुलायम सिंह यादव अपने जीवन का सबसे प्रतिकूल चुनाव लड़ रहे थे। हर तरह की हवा उनके मुखालफत बह रही थी। मायावती ने भी १९९१ की कल्याण सरकार के बाद पहली मर्तबा स्पष्टï बहुमत की सरकार बनाकर 3०.43 फीसदी वोट हासिल किये थे। उप्र विधानसभा में सदस्यों की कुल संख्या ४०३ है। मायावती को २०६ सीटें हासिल हुई थीं, अब यह संख्या बढक़र २१३ हो गयी है। मायावती कांग्रेस के दलित आधार वाले वोट बैंक में सेंध लगाकर राष्टï्रीय स्तर पर कांग्रेस को कमजोर करने में जुटी है। हिमाचल, उत्तराखंड, पंजाब और गुजरात के चुनाव परिणामों ने यह जता दिया है कि मायावती से हिसाब-किताब किये बिना कांग्रेस का भला नहीं होने वाला। गौरतलब है कि इन राज्यों में बसपा को पिछले चुनाव में क्रमश: 7.34, 1०.9, 4.13, 2.6 फीसदी वोट मिले थे। मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्टï्र, गुजरात और पंजाब के आगामी चुनाव में भी मायावती कांग्रेस में खासी सेंध लगायेंगी। ऐसे में दलित वोटों के बिखराव से निपटने के लिए पिछड़े वर्गों के मतदाताओं पर भरोसा करना कांग्रेस की मजबूरी होगी। पिछड़े वर्ग के बड़े नेताओं में मुलायम और लालू आते हैं। मुलायम सिंह के लिए भी मायावती की पांच साल वाली स्पष्टï बहुमत की सरकार भारी पड़ रही है। लोहिया के इस चेले को बार-बार अपने गुरू का कहा, ‘‘जिन्दा कौमे पांच साल इन्तजार नहीं करतीं।’’ याद आ रहा है। आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में सीबीआई और अदालत के पचड़े में फंसे मुलायम सिंह को केन्द्र सरकार की नजर-ए- इनायत दरकार है। दूसरे, दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, यह कहावत भी दोनों की निकटता की वजह है।
‘आउटलुक’ साप्तहिक को बीते दिनों दिये गये एक साक्षात्कार में मुलायम सिंह ने कांग्रेस से बातचीत का खुलासा किया था। कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी भी हालांकि सपा के साथ किसी तरह के समझौते की बातचीत होने की जानकारी से इन्कार करती हैं पर ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से बातचीत में इतना जरूर कहती हैं, ‘‘राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। फिरकापरस्त ताकतों को बाहर रखने के लिए यूपीए का नया फ्रन्ट बना सकते हैं। हमें यह जरूर देखना होगा कि किस मुद्दे पर वोटों का बंटवारा मुलायम सिंह रोकना चाहते हैं।’’ (देखें साक्षात्कार) रीता जरूर इस हकीकत से वाकिफ है कि उनकी पार्टी का फोकस २०-२५ सीटों से आगे नहीं हो सकता है। कभी कांग्रेस की रीढ़ रहे संजय सिंह भी ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से बातचीत में कहते हैं, ‘‘सेकुलर वोट न बंटें। हम यह प्रयास करेंगे।’’ बीते लोकसभा चुनाव में सपा 35 सीटों पर विजयी हुई थी और 22 सीटों पर वह दूसरे नंबर पर रही। जबकि कांग्रेस को 9 सीटें हाथ लगी थीं और 6 जगहों पर वह दूसरे पायदान पर खड़ी दिखी थी। अगर इन आंकड़ों पर भी गौर किया जाय तो साफ है कि कांग्रेस राज्य की सभी सीटों पर चुनाव को बहुकोणीय कर अपनी बेहतर स्थिति नहीं जता सकती है। यही नहीं, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच बढ़ रही पींगें अगर परवान चढ़ती हैं तो राजनीतिक विश्लेषक नीरज राठौर के मुताबिक, ‘‘दोनों दल मिलकर 25 नई सीटें जीत सकते हैं और 4 पर इनकी हैसियत का इजाफा होगा।’’ हालांकि नीरज इस नतीजे के लिए इस बात पर जोर देते हैं कि दोनों पार्टियां अपने वोट ट्रंासफर कराने का कूबत रखती हों तब। अगर कांग्रेस और सपा को मिल रहे वोटों के आंकड़ों पर गौर करें तो साफ होता है कि मुलायम सिंह यादव पिछले दो विधानसभा चुनाव में 25 फीसदी वोटों के हकदार बने रहे हैं जबकि 2००4 के लोकसभा चुनाव में उन्हें 26.74 और 1999 के लोकसभा चुनाव में 24.०6 फीसदी वोट हासिल हुए थे जबकि कांग्रेस को इन दोनों लोकसभा चुनावों में 12.०4 और 14.72 वोट हाथ लगे थे। 2००7 के विधानसभा में कांग्रेस को 8.61 और 2००2 में 8.96 फीसदी वोट लगे थे। अगर इन सियासी दलों को मिल रहे वोटों पर गौर करें तो साफ होता है कि दोनों दलों के मतदाता मिजाज बदलते हुए नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में वोटों के ट्रांसफर करा लेने की स्थिति सकारात्मक कही जा सकती है। सपा और बसपा को मिले बीते दोनों लोकसभा चुनावों के वोट प्रतिशत पर गौर किया जाय तो साफ होता है कि बसपा की बाढ़ को काउंटर करने में मुलायम कांग्रेस के बेहद मददगार होंगे। 2००4 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव को 4.32 फीसदी वोट हाथ लगे थे जबकि 1999 के चुनाव में उन्हें 3.76 फीसदी मत मिले। 1998 में सपा के खाते में 4.93 फीसदी वोट थे पर 2००4, 1999 और 1998 के लोकसभा चुनाव में बसपा 5.33, 4.16 और 4.67 फीसदी वोट पायी थी। यह सपा को मिले वोटों से बहुत थोड़ा सा कम है।
मुलायम सिंह यादव की कांग्रेस से बातचीत के राजनीतिक अर्थ निकाले जा सकते हैं। पर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी द्वारा सपा महासचिव अमर सिंह के पिता के निधन के एक महीने बाद फोन करके संवेदना व्यक्त करना यह जताता है, ‘‘अमर सिंह को लेकर जो गतिरोध थे वे अब कम हुए हंै।’’ मुलायम सिंह यादव अपनी पार्टी के बाहर जार्ज फर्नांडिस का खासा सम्मान करते हैं और इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि नीतीश कुमार और शरद यादव से त्रस्त जार्ज ने लालू और मुलायम के बीच की दूरियां कम कराने में भूमिका अदा की है। इन नजदीकियों ने कांग्रेस तक पहुंचने के अमर सिंह के रास्ते भी आसान किये हैं। गौरतलब है कि अमर सिंह ने अपनी सियासत की शुरूआत कलकत्ता से कांग्रेस पार्टी के मार्फत ही शुरू की थी। यही नहीं, सोनिया और राहुल जिन अभेद सुरक्षा वाले लोकसभा क्षेत्रों से आते हैं, उनकी विधानसभाई सीटें बसपा और सपा के पास हैं। लोकसभा चुनाव आसानी से जीतने के लिए किसी एक के साथ तालमेल करना जरूरी है। इसे सुधारे बिना केन्द्र की सत्ता में फिर बैठ पाने में कांग्रेस वंचित रह जायेगी। कांग्रेस की समस्या लम्बे समय से बेरोजगार नेताओं की एक-एक करके निकलने की भी है। कांग्रेस के पास जनाधार नहीं है, परन्तु केन्द्र में सरकार बनाने की गुणा गणित जरूर उसके साथ है। जिसकी मुलायम को दरकार है।
मुलायम के व्यवहार और वक्तव्य में आयी तब्दीलियां भी रिश्तों की नई इबारत बांचती दिखती हैं। राहुल के दलित प्रेम से मायावती की परेशानी पर मुलायम राहुल के साथ खड़े नजर आते हैं तो महंगाई के लिए राज्य सरकार पर निशाना साधना यह बताता है कि मुलायम कांग्रेस के लिए मुलायम हो रहे हैं। उन्होंने बीतेे दिनों महंगाई पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘‘महंगाई वैट लागू होने के बाद से आयी है।’’ राजनीतिक समीक्षक नीरज राठौर बताते हैं, ‘‘अगर यह गठबंधन हुआ तो सबसे अधिक फायदा कांग्रेस के ही खाते में दर्ज होगा। क्योंकि अल्पसंख्यक और बसपा से मोहभंग की स्थिति में आ रहे ब्राह्मïण मतदाताओं को नया मंच मिलेगा। अगर मुलायम सिंह यादव कांग्रेस को छोडक़र गये तो कांग्रेस के ये पारम्परिक मतदाता उसकी राजनीतिक थाती बनकर रह जायेंगे।’’ यह इसलिए और मुश्किल नहीं लगता क्योंकि अपने जबलपुर अधिवेशन में मुलायम सिंह यादव ४५ लोकसभा सीटें जिताने का लक्ष्य कार्यकर्ताओं को दे चुके हैं। दूसरी ओर कांग्रेस का भी लक्ष्य २५ सीटों पर फोकस करना है। जहां वह पिछले चुनावों में पहले, दूसरे अथवा तीसरे स्थान पर रही है। ऐसे में गठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर कोई गतिरोध और अवरोध दिखायी नहीं पड़ रहा है। कल तक कांग्रेस पर फब्तियां कसने वाले और इस गठबंधन में सबसे बड़े अवरोध सपा महासचिव अमर सिंह ने भी अपने एक राज्यसभा सांसद के आवास पर बातचीत में आने वाले लोकसभा चुनाव में गठबंधन के संकेत दिए। उन्होंने बसपा सरकार के खिलाफ राहुल गांधी के अभियान की सराहना करते हुए कहा, ‘‘(अमरसिंह से बातचीत करने की कोशिश कर रहा हूँ। यहां उनका कोट जोड़ दूंगा)’’ अमर सिंह के बदले हुए तेवर और सनातन ब्राह्मïण समाज के अधिवेशन में 11 मई को सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह द्वारा पं. जवाहर लाल नेहरू की भूरि-भूरि तारीफ और लोहिया का उदाहरण देते हुए यह कहना, ‘‘अगर कांग्रेस खुद में सुधार लाए तो समाजवादियों की स्वाभाविक मित्र हो सकती है’’ जताता है कि आपस में कुछ-कुछ ऐसा चल रहा है जिससे मायावती के अश्वमेध के हाथी को रोका जा सके। राजनीतिक विश्लेषक नीरज राठौर कहते हैं, ‘‘यह गठबंधन अंधे और लंगड़े की दोस्ती की तरह अपरिहार्य और उपयोगी होगा।’’
-योगेश मिश्र
नोट:-रवीन्द्र जी, स्टोरी आज आपके लिए भेज रहा हूँ। देख लें। कोई परिवर्तन हो तो बताएं। मुलायम सिंह से शाम छह बजे समय मिला है। अमरसिंह से भी कोशिश कर रहा हूँ। फोटो निराला भेज रहे हैंं।
(योगेश मिश्र)
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