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भारतीय चिकित्सा पद्घतियों का पुरसाहाल नहीं
दिनांक : ०1-०6-२००८
भारतीय ज्ञान-विज्ञान पर इतराने वालों के लिए यह बुरी खबर है। रोग को जड से खत्म करने का दावा करने वाली भारतीय चिकित्सा पद्घतियां- आयुर्वेद और होम्योपैथ चिकित्सा पद्घतियां दम तोड़ रही हैं। सस्ते इलाज वाली ये पद्घतियां एक ओर गरीबों की पहुंच से बाहर हो रहीं हैं, तो दूसरी ओर इनके अस्पताल और डाक्टर अपनी बेबशी पर इस कदर आंसू बहा रहे हैं कि इन चिकित्सा पद्घतियों द्वारा अपनी बीमारी से निजात पाने की उम्मीद पाले लोगों को अपनी बीमारी से बड़ी इनकी बीमारी नजर आने लगी है।
आयुर्वेद और होम्योपैथ के अस्पतालों, डाक्टरों और बजट की पड़ताल में हाथ लगे तथ्य शर्मशार कर देने वाले हैं। राज्य में आयुर्वेद के २४५० डाक्टरों की जरूरत है, पर उपल_x008e_ध केवल १७७५ हैं। आयुर्वेद के चार बेड वाले 215०, १५ बेड और २५ बेड वाले 2०० अस्पतालों को केवल ८०००, १५००० और २५००० हजार रूपये सालाना प्रति अस्पताल बजट मिलता है। इसी में मरीज की दवा और रोजमर्रा की जरूरतें पूरी होती हैं। अस्पतालों को मिल रही धनराशि और मरीजों की संख्या के लिहाज से ७०-८० पैसे की दवा पर ही मरीज को गुजारा करना पड़ता है। ४ बेड वाले अस्पताल में एक-एक मेडिकल अफसर, वार्ड ब्वाय, फार्मेसिस्ट और स्वीपर होना चाहिए। ८०० फार्मेसिस्टों के पद रिक्त हैं। कमोबेश यही हालत चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की भी थी पर वर्तमान सरकार के बैकलॉग भर्ती अभियान के चलते बहुत लोग संविदा पर रख लिये गये हैं। नियम के मुताबिक ४ बेड वाले अस्पतालों में मरीज भर्ती करना चाहिए। पर मेडिकल अफसर अकेले होने के नाते भर्ती नहीं करता। यही नहीं, १५-२५ बेड वाले अस्पतालों में एक महिला डाक्टर भी तैनात होनी चाहिए पर कहीं भी ऐसा है नहीं। हाल में केन्द्र सरकार की टीम द्वारा किये गये 22० बेड तथा 4०० कर्मचारियों वाले लखनऊ के टुडियागंज आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज के दौरे में उसे केवल ४ मरीज भर्ती मिले। यहां पंचकर्म के लिए लगायी गयी यूनिट में सेंकाई के लिए ब्वायलर खरीदने के पैसे नहीं थे। मरीजों ने चंदा लगाकर कुकर और अंगीठी का जुगाड़ किया। कुकर की सीटी निकाल रबड़ की ट्यूब लगा सिंकाई की।
बनारस को छोड़ पीलीभीत, झांसी, बरेली, मुजफ्फरनगर, अतर्रा, इलाहाबाद के आयुर्वेद कालेजों में ये यूनिटें बंद हो चुकी है या बंद होने की कगार पर हैं। पंचकर्म में प्रयोग आने वाला पंचगुण तेल और महानारायण तेल उपल_x008e_ध ही नहीं है। ‘एक्सरे प्लेट’ के अभाव में एक्स-रे मशीन बंद पड़ी है। तो एकमात्र रेफ्रिजरेटर बंद होने के चलते ‘कूल चेन’ में रखी जाने वाली जीवनरक्षक दवायें मरीजों को नहीं मिल पा रही हैं। अस्पताल के ‘डिलीवरी रूम’ की छत गिर चुकी है। प्रधानाचार्य डा. आर.एस.यादव कहते हैं, ‘‘सरकार आयुर्वेद को पूरे मेडिकल बजट का केवल तीन प्रतिशत ही उपल_x008e_ध कराती है। इतने कम बजट में भी अपने संसाधनों का काफी सक्षमता के साथ उपयोग हो रहा है।’’ यह दुर्दशा तब है जब १२वें वि_x009e_ा आयोग के मार्फत इन अस्पतालों की सेहत सुधारने के लिए सालाना २५ करोड़ रूपये मिल रहे हैं, पर वर्ष २००५-०६ से मिल रही इस धनराशि में से पहले साल का केवल ११ करोड़ रूपये ही खर्च हो पाया। इस वर्ष की शेष और बाद के सालों की पूरी की पूरी रकम पीएलए खाते में जमा है। यही नहीं, भारत सरकार जिला अस्पतालों में पंचकर्म की यूनिट के लिए ३० लाख रूपये अनुदान देने की घोषणा पांच साल पहले ही कर चुकी है, पर हालात यह हैं कि राज्य सरकार कोई यूनिट नहीं लगा सकी है। जबकि उतराखंड के हर जिला अस्पताल में यूनिट लग चुकी हैं। आयुर्वेद चिकित्सा पद्घति के डाक्टरों की पिछले १८ सालों से प्रोन्नति नहीं हुई है। विभाग में मेडिकल अफसर से लेकर अतिरिक्त निदेशक तक के पद तदर्थ, अतिरिक्त प्रभार के रूप में हैं। २३५४ अस्पतालों में ९५ फीसदी किराये के भवनों में चल रहे हैं। राजधानी में बैठे आला हुक्मरानों व मंत्री की नाक के नीचे वाले इलाके गोमती नगर, अलीगंज के पाश इलाके में भी किराये की बिल्डिंग में ही अस्पताल हैं। किराया भी एक रूपये प्रति वर्ग फुट से अधिक नहीं दिया जा सकता। ऐसे में आप सोच सकते हैं कि किन इलाकों में अस्पताल चल रहे होंगे? बदहाली का आलम यह है कि सितम्बर २००० में मुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्त ने प्रदेश में एक आयुर्वेद इन्स्टीटयूट बनाने की घोषणा की थी लेकिन आज तक उस पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सका है। यहीं नहीं, होम्योपैथी के 1575 अस्पतालों में से 1००० किराये किराये के भवनों में चल रहे हैं। कई अस्पतालों में भूसा भरा हुआ है। २० फीसदी अस्पताल बन्द रहते हैं। विशेष सचिव रघुवंशी ने लखनऊ जिले के कुछ चिकित्सालयों का मौका मुआयना किया था, इनमें अधिकांश बन्द मिले पर कार्रवाई किसी के खिलाफ नहीं हुई। डाक्टरों की कमी महज इसी से समझी जा सकती है कि ३८ जिला अस्पतालों में सामान्य मेडिकल अफसर के पद को उच्चीकृत करके जिला होम्योपैथिक चिकित्साधिकारी (डीएचओ) का पद कर दिया गया है, जबकि इनके जिम्मे मेडिकल अफसर का भी काम है। डाक्टर जयराम राय के मुताबिक, ‘डीएचओ का काम देखते हुए मेडिकल अफसर का काम देखना संभव नहीं है। क्योंकि डीएचओ का काम पूरे जिले के अस्पतालों का प्रशासनिक कट्रोल करना है।’’ डाक्टरों की तकरीबन २०० संख्या कम होने के बावजूद हुक्मरानों के आशीर्वाद से १०० मेडिकल अफसर मूल तैनाती स्थल की जगह दूसरे स्थानों पर सम्बद्घ चल रहे हैं। अकेले २० के आस-पास मेडिकल अफसरों ने अपनी सम्बद्घता नेशनल होम्योपैथिक कालेज से करा रखी है। होम्योपैथिक फार्मासिस्टों के भी २५० पद रिक्त हैं। डाक्टरों, फार्मासिस्टों के खाली पड़े पदों के बाद भी १२६ ऐसे अस्पताल खोले गये हैं, जहां एक भी पद सृजित नहीं है। बिना पद के अस्पताल का औचित्य क्या है्? यही नहीं, सारे जिला चिकित्सालयों को वर्ष २००६-०७ से लगातार ४००० रूपये के डीजल खरीद की सुविधा मुहैया है। ताकि वे जरूरत पडऩे पर अस्पतालों में बिजली जला सकें, पर दुर्भाग्य है कि उन्हें जनरेटर दिये ही नहीं गये। वर्ष २००६-०७ में होम्योपैथिक चिकित्सालयों में लगाने के लिए ७० कम्प्यूटर और ३२ एसी खरीदे गये पर अभी तक एक भी लग नहीं पाये हैं। यही नहीं, १२वें वि_x009e_ा आयोग से मिलने वाला इस साल का १५ करोड़ रूपया केवल इस लिए अवमुक्त नहीं हुआ क्योंकि पिछले वि_x009e_ाीय वर्ष की इतनी ही धनराशि का उपयोग नहीं हो सका है। होम्योपैथिक दवाओं पर राज्य सरकार द्वारा खर्च हो रहा बजट और मरीजों की तादाद के लिहाज से देखें तो तकरीबन १० पैसा प्रति मरीज खर्च बैठता है, तब जब कि कुल बजट का केवल ५२ पैसा ही दवाइयों पर खर्च के हिस्से में आता है। इस हालत के बाद में वर्ष २००६-०७ में दवा खरीद के नाम आये ९० लाख रूपये वापस करने पड़ गये। दवाओं की खरीद में गोलमाल के चलते ही काफी धनराशि काली कमाई की भेंट चढ़ जाती है। मसलन मीठी गोलियां बाजार १६-१७ रूपये पौंड है, पर सरकार ने २० रूपये पौंड का ‘रेट कान्ट्ररेक्ट’ कर रखा है? पर जिन फर्मों से ‘रेट कान्ट्ररेक्ट’ राज्य सरकार ने कर रखा है, उनकी दवायें मुख्यमंत्री आवास पर स्थित चिकित्सालय में नहीं दी जाती हैं? यहां ‘रिकवेग’ और ‘स्वावेग’ की दवायें दी जाती हैं, जबकि अन्य अस्पतालों में ‘सैलेक्स’, ‘एनएन’ और ‘डुडहिया’ की दवाएं दी जाती हैं। दोनों के मूल्यों में १० गुने का अन्तर है, मतलब साफ है कि दवाओं के मामले में भी भारतीय चिकित्सा पद्घति में दोहरे मानदण्ड हैं। डाक्टरों की तैनाती के मामले में भी अपनाये जा रहे मानदण्ड हास्यास्पद हैं। नजीर के तौर पर मुख्यमंत्री आवास पर चार डाक्टर तैनात हैं, जबकि राजभवन में केवल एक डाक्टर लगाया गया है। गौरतलब है कि मुख्यमंत्री आवास और आस-पास जो भी लोग होते हैं वो डयूटी पर कार्यरत ही होते हैें, पर राजभवन में सभी कर्मचारियों और अधिकारियों का आवास भी बना हुआ है। होम्योपैथी में कई दवाओं को मिलाकर दवा बनाई जाती है। जब दवाएं मिलाई जाती हैं तो ‘ड्रग प्रूविंग’ होनी चाहिए पर ऐसा राज्य के ड्रग कन्ट्रोलर नहीं करते हैं। यह हो भी कैसे जब केंद्रीय होम्योपैथी परिषद के एक आला अफसर दवाओं के मिलावट के मामले में पश्चिम बंगाल पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जा चुके हों। हालांकि इन दिनों वे जमानत पर हों। यही नहीं, परिषद के कई कारकूनों के खिलाफ सीबीआई जांच भी चल रही हो, फिर भी केंद्रीय होम्योपैथिक परिषद में चुनाव कराये जाने की जरूरत नहीं महसूस की जा रही है। १०-१० साल से पड़े पुराने सदस्यो, सचिवों, अध्यक्षों, उपाध्यक्षों के मार्फत संचालित की जा रही हो। साफ है कि आम आदमी की जेब और जीभ दोनों को मीठी लगने वाली होम्योपैथी चिकित्सा पद्घति के प्रति लोकप्रिय सरकारों का रूख हमेशा कड़वा रहा है।
-योगेश मिश्र
भारतीय ज्ञान-विज्ञान पर इतराने वालों के लिए यह बुरी खबर है। रोग को जड से खत्म करने का दावा करने वाली भारतीय चिकित्सा पद्घतियां- आयुर्वेद और होम्योपैथ चिकित्सा पद्घतियां दम तोड़ रही हैं। सस्ते इलाज वाली ये पद्घतियां एक ओर गरीबों की पहुंच से बाहर हो रहीं हैं, तो दूसरी ओर इनके अस्पताल और डाक्टर अपनी बेबशी पर इस कदर आंसू बहा रहे हैं कि इन चिकित्सा पद्घतियों द्वारा अपनी बीमारी से निजात पाने की उम्मीद पाले लोगों को अपनी बीमारी से बड़ी इनकी बीमारी नजर आने लगी है।
आयुर्वेद और होम्योपैथ के अस्पतालों, डाक्टरों और बजट की पड़ताल में हाथ लगे तथ्य शर्मशार कर देने वाले हैं। राज्य में आयुर्वेद के २४५० डाक्टरों की जरूरत है, पर उपल_x008e_ध केवल १७७५ हैं। आयुर्वेद के चार बेड वाले 215०, १५ बेड और २५ बेड वाले 2०० अस्पतालों को केवल ८०००, १५००० और २५००० हजार रूपये सालाना प्रति अस्पताल बजट मिलता है। इसी में मरीज की दवा और रोजमर्रा की जरूरतें पूरी होती हैं। अस्पतालों को मिल रही धनराशि और मरीजों की संख्या के लिहाज से ७०-८० पैसे की दवा पर ही मरीज को गुजारा करना पड़ता है। ४ बेड वाले अस्पताल में एक-एक मेडिकल अफसर, वार्ड ब्वाय, फार्मेसिस्ट और स्वीपर होना चाहिए। ८०० फार्मेसिस्टों के पद रिक्त हैं। कमोबेश यही हालत चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की भी थी पर वर्तमान सरकार के बैकलॉग भर्ती अभियान के चलते बहुत लोग संविदा पर रख लिये गये हैं। नियम के मुताबिक ४ बेड वाले अस्पतालों में मरीज भर्ती करना चाहिए। पर मेडिकल अफसर अकेले होने के नाते भर्ती नहीं करता। यही नहीं, १५-२५ बेड वाले अस्पतालों में एक महिला डाक्टर भी तैनात होनी चाहिए पर कहीं भी ऐसा है नहीं। हाल में केन्द्र सरकार की टीम द्वारा किये गये 22० बेड तथा 4०० कर्मचारियों वाले लखनऊ के टुडियागंज आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज के दौरे में उसे केवल ४ मरीज भर्ती मिले। यहां पंचकर्म के लिए लगायी गयी यूनिट में सेंकाई के लिए ब्वायलर खरीदने के पैसे नहीं थे। मरीजों ने चंदा लगाकर कुकर और अंगीठी का जुगाड़ किया। कुकर की सीटी निकाल रबड़ की ट्यूब लगा सिंकाई की।
बनारस को छोड़ पीलीभीत, झांसी, बरेली, मुजफ्फरनगर, अतर्रा, इलाहाबाद के आयुर्वेद कालेजों में ये यूनिटें बंद हो चुकी है या बंद होने की कगार पर हैं। पंचकर्म में प्रयोग आने वाला पंचगुण तेल और महानारायण तेल उपल_x008e_ध ही नहीं है। ‘एक्सरे प्लेट’ के अभाव में एक्स-रे मशीन बंद पड़ी है। तो एकमात्र रेफ्रिजरेटर बंद होने के चलते ‘कूल चेन’ में रखी जाने वाली जीवनरक्षक दवायें मरीजों को नहीं मिल पा रही हैं। अस्पताल के ‘डिलीवरी रूम’ की छत गिर चुकी है। प्रधानाचार्य डा. आर.एस.यादव कहते हैं, ‘‘सरकार आयुर्वेद को पूरे मेडिकल बजट का केवल तीन प्रतिशत ही उपल_x008e_ध कराती है। इतने कम बजट में भी अपने संसाधनों का काफी सक्षमता के साथ उपयोग हो रहा है।’’ यह दुर्दशा तब है जब १२वें वि_x009e_ा आयोग के मार्फत इन अस्पतालों की सेहत सुधारने के लिए सालाना २५ करोड़ रूपये मिल रहे हैं, पर वर्ष २००५-०६ से मिल रही इस धनराशि में से पहले साल का केवल ११ करोड़ रूपये ही खर्च हो पाया। इस वर्ष की शेष और बाद के सालों की पूरी की पूरी रकम पीएलए खाते में जमा है। यही नहीं, भारत सरकार जिला अस्पतालों में पंचकर्म की यूनिट के लिए ३० लाख रूपये अनुदान देने की घोषणा पांच साल पहले ही कर चुकी है, पर हालात यह हैं कि राज्य सरकार कोई यूनिट नहीं लगा सकी है। जबकि उतराखंड के हर जिला अस्पताल में यूनिट लग चुकी हैं। आयुर्वेद चिकित्सा पद्घति के डाक्टरों की पिछले १८ सालों से प्रोन्नति नहीं हुई है। विभाग में मेडिकल अफसर से लेकर अतिरिक्त निदेशक तक के पद तदर्थ, अतिरिक्त प्रभार के रूप में हैं। २३५४ अस्पतालों में ९५ फीसदी किराये के भवनों में चल रहे हैं। राजधानी में बैठे आला हुक्मरानों व मंत्री की नाक के नीचे वाले इलाके गोमती नगर, अलीगंज के पाश इलाके में भी किराये की बिल्डिंग में ही अस्पताल हैं। किराया भी एक रूपये प्रति वर्ग फुट से अधिक नहीं दिया जा सकता। ऐसे में आप सोच सकते हैं कि किन इलाकों में अस्पताल चल रहे होंगे? बदहाली का आलम यह है कि सितम्बर २००० में मुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्त ने प्रदेश में एक आयुर्वेद इन्स्टीटयूट बनाने की घोषणा की थी लेकिन आज तक उस पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सका है। यहीं नहीं, होम्योपैथी के 1575 अस्पतालों में से 1००० किराये किराये के भवनों में चल रहे हैं। कई अस्पतालों में भूसा भरा हुआ है। २० फीसदी अस्पताल बन्द रहते हैं। विशेष सचिव रघुवंशी ने लखनऊ जिले के कुछ चिकित्सालयों का मौका मुआयना किया था, इनमें अधिकांश बन्द मिले पर कार्रवाई किसी के खिलाफ नहीं हुई। डाक्टरों की कमी महज इसी से समझी जा सकती है कि ३८ जिला अस्पतालों में सामान्य मेडिकल अफसर के पद को उच्चीकृत करके जिला होम्योपैथिक चिकित्साधिकारी (डीएचओ) का पद कर दिया गया है, जबकि इनके जिम्मे मेडिकल अफसर का भी काम है। डाक्टर जयराम राय के मुताबिक, ‘डीएचओ का काम देखते हुए मेडिकल अफसर का काम देखना संभव नहीं है। क्योंकि डीएचओ का काम पूरे जिले के अस्पतालों का प्रशासनिक कट्रोल करना है।’’ डाक्टरों की तकरीबन २०० संख्या कम होने के बावजूद हुक्मरानों के आशीर्वाद से १०० मेडिकल अफसर मूल तैनाती स्थल की जगह दूसरे स्थानों पर सम्बद्घ चल रहे हैं। अकेले २० के आस-पास मेडिकल अफसरों ने अपनी सम्बद्घता नेशनल होम्योपैथिक कालेज से करा रखी है। होम्योपैथिक फार्मासिस्टों के भी २५० पद रिक्त हैं। डाक्टरों, फार्मासिस्टों के खाली पड़े पदों के बाद भी १२६ ऐसे अस्पताल खोले गये हैं, जहां एक भी पद सृजित नहीं है। बिना पद के अस्पताल का औचित्य क्या है्? यही नहीं, सारे जिला चिकित्सालयों को वर्ष २००६-०७ से लगातार ४००० रूपये के डीजल खरीद की सुविधा मुहैया है। ताकि वे जरूरत पडऩे पर अस्पतालों में बिजली जला सकें, पर दुर्भाग्य है कि उन्हें जनरेटर दिये ही नहीं गये। वर्ष २००६-०७ में होम्योपैथिक चिकित्सालयों में लगाने के लिए ७० कम्प्यूटर और ३२ एसी खरीदे गये पर अभी तक एक भी लग नहीं पाये हैं। यही नहीं, १२वें वि_x009e_ा आयोग से मिलने वाला इस साल का १५ करोड़ रूपया केवल इस लिए अवमुक्त नहीं हुआ क्योंकि पिछले वि_x009e_ाीय वर्ष की इतनी ही धनराशि का उपयोग नहीं हो सका है। होम्योपैथिक दवाओं पर राज्य सरकार द्वारा खर्च हो रहा बजट और मरीजों की तादाद के लिहाज से देखें तो तकरीबन १० पैसा प्रति मरीज खर्च बैठता है, तब जब कि कुल बजट का केवल ५२ पैसा ही दवाइयों पर खर्च के हिस्से में आता है। इस हालत के बाद में वर्ष २००६-०७ में दवा खरीद के नाम आये ९० लाख रूपये वापस करने पड़ गये। दवाओं की खरीद में गोलमाल के चलते ही काफी धनराशि काली कमाई की भेंट चढ़ जाती है। मसलन मीठी गोलियां बाजार १६-१७ रूपये पौंड है, पर सरकार ने २० रूपये पौंड का ‘रेट कान्ट्ररेक्ट’ कर रखा है? पर जिन फर्मों से ‘रेट कान्ट्ररेक्ट’ राज्य सरकार ने कर रखा है, उनकी दवायें मुख्यमंत्री आवास पर स्थित चिकित्सालय में नहीं दी जाती हैं? यहां ‘रिकवेग’ और ‘स्वावेग’ की दवायें दी जाती हैं, जबकि अन्य अस्पतालों में ‘सैलेक्स’, ‘एनएन’ और ‘डुडहिया’ की दवाएं दी जाती हैं। दोनों के मूल्यों में १० गुने का अन्तर है, मतलब साफ है कि दवाओं के मामले में भी भारतीय चिकित्सा पद्घति में दोहरे मानदण्ड हैं। डाक्टरों की तैनाती के मामले में भी अपनाये जा रहे मानदण्ड हास्यास्पद हैं। नजीर के तौर पर मुख्यमंत्री आवास पर चार डाक्टर तैनात हैं, जबकि राजभवन में केवल एक डाक्टर लगाया गया है। गौरतलब है कि मुख्यमंत्री आवास और आस-पास जो भी लोग होते हैं वो डयूटी पर कार्यरत ही होते हैें, पर राजभवन में सभी कर्मचारियों और अधिकारियों का आवास भी बना हुआ है। होम्योपैथी में कई दवाओं को मिलाकर दवा बनाई जाती है। जब दवाएं मिलाई जाती हैं तो ‘ड्रग प्रूविंग’ होनी चाहिए पर ऐसा राज्य के ड्रग कन्ट्रोलर नहीं करते हैं। यह हो भी कैसे जब केंद्रीय होम्योपैथी परिषद के एक आला अफसर दवाओं के मिलावट के मामले में पश्चिम बंगाल पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जा चुके हों। हालांकि इन दिनों वे जमानत पर हों। यही नहीं, परिषद के कई कारकूनों के खिलाफ सीबीआई जांच भी चल रही हो, फिर भी केंद्रीय होम्योपैथिक परिषद में चुनाव कराये जाने की जरूरत नहीं महसूस की जा रही है। १०-१० साल से पड़े पुराने सदस्यो, सचिवों, अध्यक्षों, उपाध्यक्षों के मार्फत संचालित की जा रही हो। साफ है कि आम आदमी की जेब और जीभ दोनों को मीठी लगने वाली होम्योपैथी चिकित्सा पद्घति के प्रति लोकप्रिय सरकारों का रूख हमेशा कड़वा रहा है।
-योगेश मिश्र
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