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आयोग के साख पर बट्टा
लंबी जद्दोजदह के बाद हासिल सूचना का हथियार उ_x009e_ार प्रदेश में लागू होने के दो साल के भीतर ही भोथरा हो गया है। हलांकि इसे लागू करने के लिए बैठाए गये आयुक्तों को लेकर पहले दिन से ही अगुंली उठने लगी थी। इसकी परिणती मुख्य सूचना आयुक्त एमए खान के निलंबन में दिखी। इनकी तैनाती के भी किस्से कम दिलचस्प नहीं है। सेवानिवृ_x009e_ा होने के ठीक एक दिन पहले दलबदलू विधायकों के मामले में फैसला सुनाने के बाद ‘माननीय खान’ इस कदर बीमार पड़े कि घर आने की जगह आनन-फानन में पीजीआई में भर्ती होना पड़ा। सर्वोच्च अदालत ने भी ‘माननीय न्यायमूर्ति’ के इस फैसले और रुख पर गंभीर प्रतिकूल टिप्पणी भी की थी। इनके बाद तैनात किए गए आयुक्तों में भी अपनों को उपकृत करने की मिसाल दिखी। हद तो तब हुई जब मायावती राज में तैनात आयुक्तों का मामला जनहित याचिका के मार्फत अदालत की तक जा पहुंचा। मनचाहे लोगों की नियुक्ति के साथ ही साथ नेता प्रतिपक्ष के अनदेखी की भी बात याचिका में कही गई थी। गौरतलब है कि राज्य सरकार ने सुनील कुमार चौधरी, सुभाष चंद्र पाण्डेय, राम सरन अवस्थी व बृजेश कुमार मिश्र को राज्यसूचना आयुक्त के पद पर नियुक्त किया था। निलंबित सीआईसी खान ने ‘आउटलुक’ साप्ताहिक से बातचीत में कहा,‘‘ सारे फसाद की जड इनकी नियुक्ति से ही शुरू होती है। जब में हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति था तो इनमें से किसी के नाम तक लेने लायक नहीं थे। ये बसपा नेता सतीश मिश्र के मुंशी थे। नियम में लिखे लफ्ज के मुताबिक किसी भी क्षेत्र के ‘एमीनेंनट’ आदमी को आयुक्त बनाया जाना चाहिए। पर जिनकी उम्र ही 25-3० साल की है वे ‘एमिनेंनट’ कैसे होंगे?’’
हालांकि इनके मनोनयन के बाद खुद सीआईसी ने जगह के आभाव में इनके दफ्तर आने से लेकर कामकाज करने तक में कई अवरोध खड़े किए थे। इस बबात उन्होंने एक फरमान भी जारी किया था। इसके बाद सूचना आयुक्त का दफ्तर शिफ्टों में चलने लगा। सूचना आयुक्तों ने खान के तानाशाही रवैये और घोटालों को लेकर राज्य सरकार को खत लिखा जिसे सरकार ने राज्यपाल को भेज दिया। राजभवन के सूत्र बताते हैं,‘‘ सूचना आयुक्तों की शिकायत सीआईसी के खिलाफ कार्रवाई की बड़ी वजह बनी।’’ हालांकि सूचना आयुक्त बृजेश मिश्र इस तरह की किसी शिकायत से इनकार करते हुए कहते हैं,‘‘ हमारी जानकारी में कुछ नहीं है।’’ पर ‘आउटलुक’ के पास इस बात के दस्तावेज हैं कि सूचना आयुक्तों समेत एक दर्जन लोगों की ओर से सीआईसी के खिलाफ शिकायतें भेजी गईं। शिकायती पत्रों में सीआईसी पर 91 आरोपों की लंबी चौड़ी फेहरिश्त है। इनमें कई शिकातें तो पूरे आयोग के भी खिलाफ हैं। पर सीआईसी पर लगे आरोपों में मनमानी नियुक्ति, नियुक्ति में पैसा लेने के साथ ही आरक्षण नियमों के अनदेखी किए जाने व ओवरएज को नौकरी दे देने का जिक्र है। पर सीआईसी खान का कहना है,‘‘ अभी सभी नियुक्ति एडहाक है। तो ऐसे में इन आरोपों का कोई आधार नहीं है।’’ खरीददारी में गोलमाल को लेकर भी पांच आयुक्तों के शिकायती पत्र फाइल में नत्थी है। लखनऊ विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष की ओर से भी दाखिल एक शिकायतनामा सीआईसी के निलंबन की फाइल की शोभा बढ़ा रहा है। आयोग के फैसले से असंतुष्टï अपीलकर्ता उमा लखनपाल के पत्र में सीआईसी और एक आयुक्त के खिलाफ कागज लगाकर इन्हें पद से हटाने की मांग की गई है। शिकायतकर्ता ने मुख्य सूचना आयुक्तं और आयुक्तों की नियुक्तियों को लेकर भी सवाल उठाया गया है। फैसलों में भेदभाव का आरोप भी लगाए गए है। पर भ्रष्टïाचार के मामले में कार्रवाई करने से पहले खान के पक्ष को जानना जरूरी था। ऐसे में कामकाज के तौर तरीकों को लेकर हुई शिकायतों को उनके खिलाफ कार्रवाई का हथियार बनाया गया। ताकि मामला अनुशासनहीनता(मिसकंडेट) का बने। सर्वोच्च अदालत से भी राय ली जा चुकी है। पर राज्य सरकार की नाराजगी की तात्कालिक वजह मायावती के ड्रीम प्रोजेक्ट अंबेडकर स्मारक के _x008e_लू प्रिंट और खर्च के _x008e_योरे सहित कैबिनेट सचिव को उपस्थित होने का फरमान और बेवजह खर्च को लेकर सीबीआई जांच के बारे में लिख देने की धमकी है।
खान ही नहीं, सूचना के अधिकार को लेकर काम कर रहे स्वयंसेवी संगठन के नुमाइंदों ने जब भी जो भी आरोप मढ़े हैं वह इस पूरी संस्था को सवालों के घेरे में खड़े करते हैं। सूचना के अधिकार से जुड़े अफजाल अंसारी ने कहा,‘‘ आयोग आरटीआई एक्ट के तहत काम नहीं कर रहा है। एक लाइन के फौरी फैसले सुनाए जाते हैं। आरटीआई एक्ट फैसलों को स्पीकिंग आर्डर के तर्ज पर लिखने को कहता है। जो नहीं हो रहा है। ’’ स्पीकिंग आर्डर में सभी पक्षों( वादी-प्रतिवादी) की बात भी फैसले का हिस्सा होती है। सूचना के अधिकार अभियान समीति की ओर से राज्यपाल को दिए गए ज्ञापन में इस बात का जिक्र है कि आयोग के कोई भी सौ फैसले उठा लिए जाएं तो इसका खुलासा हो जाएगा। आयोग में दस्तक देने वालों के साथ क्या और किस तरह का सुलूक होता है इसकी बानगी कार्रवाई के दौरान उपस्थित अफजाल अंसारी कुछ यूं करते हैं,‘‘ विभाग अपने पास रखने के लिए मारा मारी होती है। एक औरत ने अपने पति की ओर से सूचना मंगी थी तो आयोग की ओर से कहा गया क्या तुम्हारा पति गंूगा और बहरा है?’’
आयोग के कामकाज को लेकर और भी तमाम आप_x009e_िायां हैं। जिन सबका जिक्र कर पाना यहां संभव नहीं है। पर कुछ नजीरें यूं दी जा सकती हैं। सीतापुर के सरोज सेठ के सेवानिवृ_x009e_िा देयों के एक मामले में प्रभारी सीएमओ डा. अश्वनी कुमार ने न तो सूचना दी और न ही उपस्थित हुए। अभियोजन कार्यालय में तैनात सिपाही राम रुचि त्रिपाठी ने जानना चाहा कि पुलिस रेगुलेशन का निर्णय जो आज भी पूरे वजूद से प्रचलित है कब और किस सन में प्रकाशित हुआ, क्रियान्वयन में आया और किस बुद्घिजीवी द्वारा लिखा गया? आयुक्त सुभाष पांडेय ने कैलाश नाथ त्रिपाठी के मामले में लखनऊ के अपर जिला जज को नोटिस दी जिसे लेकर आयोग के अधिकार पर अदालत और आयोग के बीच गर्मागर्म बहस हुई। कांग्रेस की ओर से सूचना का अधिकार टास्कफोर्स के प्रभारी शैलेंद्र सिंह ने बताते हैं, ‘‘रायबरेली के बछरावां थाना क्षेत्र में रोडवेज की बस ने एक बच्चे को टक्कर मार दी थी। सूचना मांगने से बौखलाई पुलिस टास्क फोर्स ने सोशल ऑडिट टीम के प्रभारी रिजवान, रजनीश सिंह, मनीष समेत संगठन के अन्य लोगों पर गुंडा एक्ट लगा दिया गया।’’सीतापुर जिले के सतीश चंद्र शुक्ल ने पुलिस से भगवती देवी के अपहरण से संबंधित प्राथमिकी दर्ज न करने की एक सूचना क्या मांग ली। तारीख से एक दिन पहले ही पुलिस उन्हें उठा ले गई। पुलिस ने आयोग में कहा, ‘‘वह फरार अपराधी है।’’ पर इसकी तहकीकत नहीं की गई। मुरादाबाद में हुई पुलिस भर्ती में चयनित अभ्यर्थियों की सूची मांगने पर सामाजिक कार्यकर्ता सलीम बेग को प्रताडि़त करने के लिए बेग के खिलाफ झूठी प्राथमिकी दर्ज करा दी गयी। क्या विधायक स्वयं के नाम से ठेके ले सकता है? इस आशय के रमेश चंद के सवाल पर पूरी विधान सभा में कोहराम मच गया। आयोग को हद में रहने की नसीहत दी गई। नतीजतन, सूचना आयुक्त वीरेंद्र सक्सेना ने खुद यह लिखकर पत्रावली खारिज कर दी कि यह आयोग के दायरे में नहीं आता। कांग्रेस प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह को मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोष की जानकारी दिए जाने के बबात भले ही आयोग ने आदेश दे दिए थे पर राज्य सरकार ने इसे लाभांवित होने वाले व्यक्ति की निजता के अधिकार का उल्लंघन बता देने से इनकार किया। सरकार हाईकोर्ट गई। लेकिन वहां से उसे कोई रहात नहीं मिली। जुर्माना भी देना पडा ौर सूचना भी देनी होगी। निठारी जांच के बारे में मांगी गई एक सूचना पर खुद मैग्सेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय को कहना पड़ा, ‘‘पुलिस, सीबीआई ने लापरवाही से औपचारिकता पूरी की है और रही-सही कसर जन सूचना आयोग ने कर दी।’’ बनारस के विश्वनाथ मंदिर के मामले में आयोग का रूख अदालत सरीखा दिखा। उसने वादी को सूचना मुहैया करने की जगह ममाले को निपटाने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई। बीएचयू के कुलपति रहे पंजाब सिंह के कार्यकाल में नियुक्तियों की जानकारी चाहने के लिए डा. ज्ञान प्रकाश मिश्र से 3 लाख 74 हजार का ड्राफ्ट मांगने और हाईकोर्ट में सूचना आवेदन का सुल्क 5०० रूपये कर देने सरीखे मामलों में आयोग के शुरूआती रूख से लोगों को निराशा हाथ लगी है। अफसरों की पेशी आयोग अदालत की तर्ज पर करने लगा है। लेकिन आयोग में आने वाले अफसर प्राय: सुनवाई से पहले आयुक्तों से उनके चैंबर में मिल लेते हैं जिससे वादी के मन में संदेह होने लगता है। इस तरह के संदेह की भी कुछ नजीरे यूं हैं। बूंदक का लांइसेंस न मिलने की वजह जानने के लिए आयोग में की गई अपील पर अपना पक्ष रखने आए लखनऊ के एसडीएम स्तर के अधिकारी को ‘कुछ काम’ सौंप कर आयुक्त वादी से जानने की कोशिश करने लगे,‘‘ तुम्हें लाइसेंस की जरूरत क्यों है?’’ एक अन्य मामले में पेशी पर आए नौकरशाह देवद_x009e_ा आयुक्त के साथ बैठ कर चाय पीते रहे और वादी का पक्ष सुने बिना ही फैसला सुना दिया गया। ये तो चंद बानगियां हैं? इस तरह की नजीरें तो भरी पड़ी हैं। ऐसे में अब तक दिए गए ज्ञापनों पर ठीक से कार्रवाई हुए तो सूत्र बताते हैं,‘‘ गाज केवल सीआईसी तक ही नहीं रूकी रहेगी कई और आयुक्त भी विदा होंगें।’’
-योगेश मिश्र्र
नोट- रवींद्र जी, फोटो निराला ने भेज दी है। बसपा के सांसद व मंत्रियों के कारनामों वाली रिपोर्ट में कई लोगों से बात नहीं हो पाई है। ऐसे में इस स्टोरी को अगले बार के लिए तीन पेज दे दें। (योगेश मिश्र)
हालांकि इनके मनोनयन के बाद खुद सीआईसी ने जगह के आभाव में इनके दफ्तर आने से लेकर कामकाज करने तक में कई अवरोध खड़े किए थे। इस बबात उन्होंने एक फरमान भी जारी किया था। इसके बाद सूचना आयुक्त का दफ्तर शिफ्टों में चलने लगा। सूचना आयुक्तों ने खान के तानाशाही रवैये और घोटालों को लेकर राज्य सरकार को खत लिखा जिसे सरकार ने राज्यपाल को भेज दिया। राजभवन के सूत्र बताते हैं,‘‘ सूचना आयुक्तों की शिकायत सीआईसी के खिलाफ कार्रवाई की बड़ी वजह बनी।’’ हालांकि सूचना आयुक्त बृजेश मिश्र इस तरह की किसी शिकायत से इनकार करते हुए कहते हैं,‘‘ हमारी जानकारी में कुछ नहीं है।’’ पर ‘आउटलुक’ के पास इस बात के दस्तावेज हैं कि सूचना आयुक्तों समेत एक दर्जन लोगों की ओर से सीआईसी के खिलाफ शिकायतें भेजी गईं। शिकायती पत्रों में सीआईसी पर 91 आरोपों की लंबी चौड़ी फेहरिश्त है। इनमें कई शिकातें तो पूरे आयोग के भी खिलाफ हैं। पर सीआईसी पर लगे आरोपों में मनमानी नियुक्ति, नियुक्ति में पैसा लेने के साथ ही आरक्षण नियमों के अनदेखी किए जाने व ओवरएज को नौकरी दे देने का जिक्र है। पर सीआईसी खान का कहना है,‘‘ अभी सभी नियुक्ति एडहाक है। तो ऐसे में इन आरोपों का कोई आधार नहीं है।’’ खरीददारी में गोलमाल को लेकर भी पांच आयुक्तों के शिकायती पत्र फाइल में नत्थी है। लखनऊ विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष की ओर से भी दाखिल एक शिकायतनामा सीआईसी के निलंबन की फाइल की शोभा बढ़ा रहा है। आयोग के फैसले से असंतुष्टï अपीलकर्ता उमा लखनपाल के पत्र में सीआईसी और एक आयुक्त के खिलाफ कागज लगाकर इन्हें पद से हटाने की मांग की गई है। शिकायतकर्ता ने मुख्य सूचना आयुक्तं और आयुक्तों की नियुक्तियों को लेकर भी सवाल उठाया गया है। फैसलों में भेदभाव का आरोप भी लगाए गए है। पर भ्रष्टïाचार के मामले में कार्रवाई करने से पहले खान के पक्ष को जानना जरूरी था। ऐसे में कामकाज के तौर तरीकों को लेकर हुई शिकायतों को उनके खिलाफ कार्रवाई का हथियार बनाया गया। ताकि मामला अनुशासनहीनता(मिसकंडेट) का बने। सर्वोच्च अदालत से भी राय ली जा चुकी है। पर राज्य सरकार की नाराजगी की तात्कालिक वजह मायावती के ड्रीम प्रोजेक्ट अंबेडकर स्मारक के _x008e_लू प्रिंट और खर्च के _x008e_योरे सहित कैबिनेट सचिव को उपस्थित होने का फरमान और बेवजह खर्च को लेकर सीबीआई जांच के बारे में लिख देने की धमकी है।
खान ही नहीं, सूचना के अधिकार को लेकर काम कर रहे स्वयंसेवी संगठन के नुमाइंदों ने जब भी जो भी आरोप मढ़े हैं वह इस पूरी संस्था को सवालों के घेरे में खड़े करते हैं। सूचना के अधिकार से जुड़े अफजाल अंसारी ने कहा,‘‘ आयोग आरटीआई एक्ट के तहत काम नहीं कर रहा है। एक लाइन के फौरी फैसले सुनाए जाते हैं। आरटीआई एक्ट फैसलों को स्पीकिंग आर्डर के तर्ज पर लिखने को कहता है। जो नहीं हो रहा है। ’’ स्पीकिंग आर्डर में सभी पक्षों( वादी-प्रतिवादी) की बात भी फैसले का हिस्सा होती है। सूचना के अधिकार अभियान समीति की ओर से राज्यपाल को दिए गए ज्ञापन में इस बात का जिक्र है कि आयोग के कोई भी सौ फैसले उठा लिए जाएं तो इसका खुलासा हो जाएगा। आयोग में दस्तक देने वालों के साथ क्या और किस तरह का सुलूक होता है इसकी बानगी कार्रवाई के दौरान उपस्थित अफजाल अंसारी कुछ यूं करते हैं,‘‘ विभाग अपने पास रखने के लिए मारा मारी होती है। एक औरत ने अपने पति की ओर से सूचना मंगी थी तो आयोग की ओर से कहा गया क्या तुम्हारा पति गंूगा और बहरा है?’’
आयोग के कामकाज को लेकर और भी तमाम आप_x009e_िायां हैं। जिन सबका जिक्र कर पाना यहां संभव नहीं है। पर कुछ नजीरें यूं दी जा सकती हैं। सीतापुर के सरोज सेठ के सेवानिवृ_x009e_िा देयों के एक मामले में प्रभारी सीएमओ डा. अश्वनी कुमार ने न तो सूचना दी और न ही उपस्थित हुए। अभियोजन कार्यालय में तैनात सिपाही राम रुचि त्रिपाठी ने जानना चाहा कि पुलिस रेगुलेशन का निर्णय जो आज भी पूरे वजूद से प्रचलित है कब और किस सन में प्रकाशित हुआ, क्रियान्वयन में आया और किस बुद्घिजीवी द्वारा लिखा गया? आयुक्त सुभाष पांडेय ने कैलाश नाथ त्रिपाठी के मामले में लखनऊ के अपर जिला जज को नोटिस दी जिसे लेकर आयोग के अधिकार पर अदालत और आयोग के बीच गर्मागर्म बहस हुई। कांग्रेस की ओर से सूचना का अधिकार टास्कफोर्स के प्रभारी शैलेंद्र सिंह ने बताते हैं, ‘‘रायबरेली के बछरावां थाना क्षेत्र में रोडवेज की बस ने एक बच्चे को टक्कर मार दी थी। सूचना मांगने से बौखलाई पुलिस टास्क फोर्स ने सोशल ऑडिट टीम के प्रभारी रिजवान, रजनीश सिंह, मनीष समेत संगठन के अन्य लोगों पर गुंडा एक्ट लगा दिया गया।’’सीतापुर जिले के सतीश चंद्र शुक्ल ने पुलिस से भगवती देवी के अपहरण से संबंधित प्राथमिकी दर्ज न करने की एक सूचना क्या मांग ली। तारीख से एक दिन पहले ही पुलिस उन्हें उठा ले गई। पुलिस ने आयोग में कहा, ‘‘वह फरार अपराधी है।’’ पर इसकी तहकीकत नहीं की गई। मुरादाबाद में हुई पुलिस भर्ती में चयनित अभ्यर्थियों की सूची मांगने पर सामाजिक कार्यकर्ता सलीम बेग को प्रताडि़त करने के लिए बेग के खिलाफ झूठी प्राथमिकी दर्ज करा दी गयी। क्या विधायक स्वयं के नाम से ठेके ले सकता है? इस आशय के रमेश चंद के सवाल पर पूरी विधान सभा में कोहराम मच गया। आयोग को हद में रहने की नसीहत दी गई। नतीजतन, सूचना आयुक्त वीरेंद्र सक्सेना ने खुद यह लिखकर पत्रावली खारिज कर दी कि यह आयोग के दायरे में नहीं आता। कांग्रेस प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह को मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोष की जानकारी दिए जाने के बबात भले ही आयोग ने आदेश दे दिए थे पर राज्य सरकार ने इसे लाभांवित होने वाले व्यक्ति की निजता के अधिकार का उल्लंघन बता देने से इनकार किया। सरकार हाईकोर्ट गई। लेकिन वहां से उसे कोई रहात नहीं मिली। जुर्माना भी देना पडा ौर सूचना भी देनी होगी। निठारी जांच के बारे में मांगी गई एक सूचना पर खुद मैग्सेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय को कहना पड़ा, ‘‘पुलिस, सीबीआई ने लापरवाही से औपचारिकता पूरी की है और रही-सही कसर जन सूचना आयोग ने कर दी।’’ बनारस के विश्वनाथ मंदिर के मामले में आयोग का रूख अदालत सरीखा दिखा। उसने वादी को सूचना मुहैया करने की जगह ममाले को निपटाने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई। बीएचयू के कुलपति रहे पंजाब सिंह के कार्यकाल में नियुक्तियों की जानकारी चाहने के लिए डा. ज्ञान प्रकाश मिश्र से 3 लाख 74 हजार का ड्राफ्ट मांगने और हाईकोर्ट में सूचना आवेदन का सुल्क 5०० रूपये कर देने सरीखे मामलों में आयोग के शुरूआती रूख से लोगों को निराशा हाथ लगी है। अफसरों की पेशी आयोग अदालत की तर्ज पर करने लगा है। लेकिन आयोग में आने वाले अफसर प्राय: सुनवाई से पहले आयुक्तों से उनके चैंबर में मिल लेते हैं जिससे वादी के मन में संदेह होने लगता है। इस तरह के संदेह की भी कुछ नजीरे यूं हैं। बूंदक का लांइसेंस न मिलने की वजह जानने के लिए आयोग में की गई अपील पर अपना पक्ष रखने आए लखनऊ के एसडीएम स्तर के अधिकारी को ‘कुछ काम’ सौंप कर आयुक्त वादी से जानने की कोशिश करने लगे,‘‘ तुम्हें लाइसेंस की जरूरत क्यों है?’’ एक अन्य मामले में पेशी पर आए नौकरशाह देवद_x009e_ा आयुक्त के साथ बैठ कर चाय पीते रहे और वादी का पक्ष सुने बिना ही फैसला सुना दिया गया। ये तो चंद बानगियां हैं? इस तरह की नजीरें तो भरी पड़ी हैं। ऐसे में अब तक दिए गए ज्ञापनों पर ठीक से कार्रवाई हुए तो सूत्र बताते हैं,‘‘ गाज केवल सीआईसी तक ही नहीं रूकी रहेगी कई और आयुक्त भी विदा होंगें।’’
-योगेश मिश्र्र
नोट- रवींद्र जी, फोटो निराला ने भेज दी है। बसपा के सांसद व मंत्रियों के कारनामों वाली रिपोर्ट में कई लोगों से बात नहीं हो पाई है। ऐसे में इस स्टोरी को अगले बार के लिए तीन पेज दे दें। (योगेश मिश्र)
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