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खेत होती कंम्प्यूटर शिक्षा
राज्य की मौजूदा सरकार में नारा तो जनता को भयमुक्त करने का दिया गया था लेकिन लगता था कि इस नारे का सबसे ज्यादा असर सरकार के अपने कारकूनों पर हो रहा है। आलम यह है कि 45 दिन बाद विज्ञापित होने वाले एक टेण्डर की शर्तें, परिणाम और निविदा प्रपत्र पहले ही हर किसी के हाथ लग जाता है। इस बारे में मंत्री से बात भी की जाती है। तो वे इसे टाल जाते हैं। लेकिन जब टेण्डर खुलता है तो उसमें शब्द दर शब्द, हर्फ दर हर्फ 45 दिन पहले हुए खुलासे से एकदम मिलता है। जाहिर है कि मायावती के मंत्री और उनका महकमा अब इतने भयमुक्त हैं कि वे जहमत नहीं उठाना चाहते कि उनकी मंशा किसी तरह लीक हो जाती है तो उसमें मामूली ही सही फेरबदल करके अपनी और अपनी सरकार की इज्जत बचाने की कोशिश करें।
ताजा मामला माध्यमिक शिक्षा परिषद के तकरीबन 25०० विद्यालयों में कंम्प्यूटर शिक्षा देने के तकरीबन 167 करोड़ रूपये के आईसीटी प्रोजेक्ट से जुड़ा है। इस परियोजना में केंद्र और राज्य की भागीदारी 76 और 24 फीसदी तय की गयी है। एक विद्यालय के बच्चों को कंम्प्यूटर शिक्षा देने के लिए निर्धारित 6.67 लाख रूपये में से पांच लाख रूपये केंद्र सरकार देगी बाकी धनराशि राज्य सरकार को अपने पास से व्यय करना होगा। देश के कई राज्यों में कंम्प्यूटर शिक्षा देने की इस योजना में ‘एनआईआईटी, एडुकाम, टेली डेटा और एवरान’ सरीखी कंपनियां जुटी हुयी हैं। पर उप्र में कंम्प्यूटर सिखाने के लिये निकाले गये टेंडर में एक चहेती कंपनी को काम देने के लिये कुछ शर्तें इस कदर तोड़-मरोड़ेकर परोसी गयी हैं कि इनमें से एक-दो कंपनी ही न्यूनतम और अनिवार्य अर्हता पूरी करने में कामयाब हो पायी हैं। यह शर्त तब जोड़ी गयी है जब कंम्प्यूटर शिक्षा देने के लिए उप्र को आठ जोन में बांटा गया है। टेण्डर की शर्त के मुताबिक कोई भी एक कंपनी तीन से अधिक जोन में काम नहीं कर सकती है। मतलब साफ है कि अगर इन तीनों कंपनियों को काम मिल भी जाये तो भी टेण्डर आमंत्रित करने का औचित्य साबित करने में सरकार को दिक्कत पेश आयेगी। टेण्डर दस्तावेज साफ तौर पर यह चुगली करते हैं कि किसी एक मनचाही कंपनी को उपकृत करने के लिए दस्तावेजों में काफी हेरफेर की गयी है। मसलन, निविदा प्रपत्र कहता है कि जिस कंपनी ने पिछले तीन वर्ष लगातार बीस करोड़ रूपये का कारोबार किया हो वही टेण्डर डालने के लिए योग्य होगी। जबकि माध्यमिक शिक्षा महकमे के मार्फत 2 मार्च को प्रकाशित विज्ञापन में लिखा हुआ है, ‘‘बीते तीन वर्षों में सालाना औसत बीस करोड़ का काम करने वाली कंपनी भी अर्ह होगी।’’ औसत वार्षिक कारोबार और न्यूनतम वार्षिक कारोबार को लेकर निविदा प्रपत्र और विज्ञापित निविदा में अंतर के बावत ‘आउटलुक’ साप्ताहिक ने माध्यमिक शिक्षा निदेशक केएम त्रिपाठी से बातचीत की तो बोले, ‘‘न्यूनतम बीस करोड़ का सालाना कारोबार जिसका जिक्र निविदा प्रपत्र में है। उसकी जगह जो विज्ञापन में औसत बीस करोड़ के कारोबार की बात है, वही सही है।’’ इस बावत उन्होंने तकनीकी कमेटी का कारोबार देख रहे अपर निदेशक मित्रलाल से भी जांच पड़ताल की। ‘आउटलुक’ साप्ताहिक ने माध्यमिक शिक्षा मंत्री रंगनाथ मिश्र से भी इस बावत पड़ताल की तो उन्होंने कहा, ‘‘मैं बाहर हूँ। आकर देखूंगा। वैसे मैंने इस योजना के लिए एक तकनीकी समिति गठित कर दी है जिसमें तमाम विशेषज्ञ हैं।’’ पर मंत्री के लौटने के बाद प्रकाशित निविदा का जो शुद्घि पत्र जारी हुआ। वह ठीक उलट था। इसमें मनचाही कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए टेंडर डाक्यूमेंट को अनदेखा कर टेंडर विज्ञापन में सालाना बीस करोड़ के कारोबार की जगह तीन सालों में औसत बीस करोड़ के कारोबार की जो शर्त जोड़ी गयी थी, उसे ही मान्य किया गया।
गौरतलब है कि ‘आउटलुक’ साप्ताहिक को निविदा प्रपत्र प्रकाशित होने की तिथि ०2 मार्च, 2००8 के लगभग 45 दिन पूर्व ही गोलमाल की आशंका जताते हुये टेंडर डाक्यूमेंट उपलब्ध करा दिये गये थे। बीते 13 जनवरी को तैयार की गयी सीडी के प्रिंटआउट और निविदा प्रपत्र के कागजातों का मिलान किया जाय तो इस रहस्यमय तथ्य का खुलासा होता है कि एक ‘कंपनी’ विशेष को दोनों हाथों से रेवडिय़ां बांटने के लिए उसी के द्वारा तैयार की गयी सीडी के प्रिंट आउट को ही निविदा प्रपत्र बना दिया गया। सीडी के प्रिंट आउट और निविदा के कागजातों में अद्ïभुत समानता मिलती है। हर पृष्ठï की शुरूआत, अंत और मध्य के एक-एक हर्फ बिल्कुल एक हैं। इनके सोर्स कोड, हर पेज की हेडिंग, सब हेडिंग, शब्दों के बोल्ड, इटैलिक किये जाने के साथ ही साथ फांट साइज भी बदलने की आवश्यकता सरकारी कारकूनों ने नहीं समझी। माध्यमिक शिक्षा महकमे के हुक्मरान और मंत्री दोनों हर विद्यालाय में दो शिक्षकों की नियुक्ति की रट लगाये हुए थे पर एक कंपनी विशेष द्वारा उपलब्ध कराये गये टेण्डर डाकूमेन्ट में एक शिक्षक की शर्त को मानने में इन्हें कोई दिक्कत पेश नहीं आयी? यही नहीं, कुर्सी और मेज के प्रारूप, कमरों में सीलिंग फैन, एक्जास्ट फैन, ट्ïयूब लाइट के साथ ही प्रशिक्षक की कुर्सी तक का जो आकार-प्रकार कंम्प्यूटर शिक्षा देने वाली एक कंपनी विशेष के सीडी के दस्तावेजों में है बिल्कुल वही निविदा प्रपत्र में भी हूबहू दिखता है। काम को अंजाम न दे पाने की स्थिति में देय दंड शुल्क की राशि भी सरकार ने अपने निविदा-प्रपत्र में वही रखी है जो मनचाही कंपनी ने अपने सीडी में रख छोड़ी है।
केवल दो तब्दीलियां कंम्प्यूटर शिक्षा देने वाली कंपनी की सीडी और सरकार के दस्तावेज में देखने को मिलती है। पहली, सीडी के मुताबिक कंम्प्यूटर चलाने के लिये आठ घंटे जेनरेटर की व्यवस्था जतायी गयी है पर निविदा-प्रपत्र में इसे घटाकर मात्र दो घंटे कर दिया गया है। पर सवाल यह उठता है कि दो घंटे में कितने बच्चों को और किस तरह की कंम्प्यूटर शिक्षा दी जा सकेगी? अपनों को उपकृत करने के लिये टेण्डर दस्तावेज में यह भी लिखा गया है कि न्यूनतम दर वाली कंपनी के दर पर ही अन्य कंपनियों को काम करना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो पूरा का पूरा काम एक ही कंपनी के हवाले किया जा सकता है। मतलब साफ है कि जब किसी कंपनी द्वारा सीडी के प्रिंट आउट को ही सरकार का यह महकमा अपना निविदा प्रपत्र बना लेने में संकोच नहीं करता है तो उस कंपनी को नवाजने के लिये उसे न्यूनतम दर बताने से वह खुद को कैसे रोक पायेगा?
निविदा दस्तावेज ही नहीं, अपने स्वरूप और क्रियान्वयन को लेकर भी यह परियोजना विवादों में घिर गयी है। कंम्प्यूटर शिक्षा देने की यह परियोजना किसी राज्य में ‘बूट मॉडल’ और किसी में ‘यूजर चार्जेस’ के मार्फत चलायी जा रही है। ‘बूट मॉडल’ में एक ही कंपनी को पूरा का पूरा काम देकर छात्रों से कोई धनराशि नहीं ली जाती है। जबकि ‘यूजर चार्जेस’ में जो बच्चे कंम्प्यूटर का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं उनसे थोड़ी सी धनराशि ली जाती है। उप्र में पहले से ही राज्य सरकार के निगम उप्र डेवलपमेंट सिस्टम कारपोरेशन लिमिटेड (यूपीडेस्को) के मार्फत यूजर चार्जेस प्रक्रिया के द्वारा एक लाख से अधिक बच्चे कंम्प्यूटर की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। बावजूद इसके माध्यमिक शिक्षा महकमे ने निजी कंपनियों के लिए मार्ग प्रशस्त करके जहां अपने ही निगम पर अविश्वास जताया है। वहीं निजी कंपनियों को ‘बूट माडल’ के मार्फत कंम्प्यूटर शिक्षा देने का मौका देकर कंम्प्यूटर प्रशिक्षण की योजना पर पलीता लगा दिया है। ‘यूजर चार्जेस’ के माध्यम से कंम्प्यूटर सीखने वाले बच्चे फीस देंगे जबकि ‘बूट मॉडल’ के मार्फत कंम्प्यूटर की तालीम पाने वालों को मुफ्त शिक्षा मुहैया करायी जायेगी। गौरतलब है कि इस मॉडल में कंम्प्यूटर शिक्षा मुहैया कराने वाली कंपनी को पांच सालों में टेंडर मूल्य का भुगतान किश्तवार करने का प्रावधान है। ‘बूट मॉडल’ और ‘यूजर चार्जेस’ की विसंगति को दूर करने के लिए कई राज्यों ने दोनों योजनाओं को मिलाकर नई योजना प्रस्तावित की है। पर ‘पता नहीं किन’ तर्कों के आधार पर उप्र का माध्यमिक शिक्षा महकमा कंम्प्यूटर की तालीम पाने के दोनों रास्तों पर चलने की वकालत कर रहा है। मनचाही कंपनी को मनचाही शर्तों पर काम उपलब्ध कराने में जुटा माध्यमिक शिक्षा महकमा तमाम रद्दोबदल के बाद भी अपनी जेबी कंपनी को उपकृत करने का मार्ग प्रशस्त नहीं कर पाया है। इसीलिए नए सत्र के दो माह बीत जाने के बाद भी अभी तक यह योजना राज्य सरकार की फाइल से निकलकर क्लास रूम तक नहीं आ पायी है। यही नहीं, बीते मार्च महीने में आमंत्रित टेंडर किसी के हवाले अब तक नहीं किए जा सके हैं।
-योगेश मिश्र
नोट:-रवीन्द्र जी। इसकी फोटो निराला भेज रहे हैं। इसमें माध्यमिक शिक्षा मंत्री रंगनाथ मिश्र, कंम्प्यूटर सीखते हुए बच्चों की फोटो लग सकती है।
(योगेश मिश्र)
ताजा मामला माध्यमिक शिक्षा परिषद के तकरीबन 25०० विद्यालयों में कंम्प्यूटर शिक्षा देने के तकरीबन 167 करोड़ रूपये के आईसीटी प्रोजेक्ट से जुड़ा है। इस परियोजना में केंद्र और राज्य की भागीदारी 76 और 24 फीसदी तय की गयी है। एक विद्यालय के बच्चों को कंम्प्यूटर शिक्षा देने के लिए निर्धारित 6.67 लाख रूपये में से पांच लाख रूपये केंद्र सरकार देगी बाकी धनराशि राज्य सरकार को अपने पास से व्यय करना होगा। देश के कई राज्यों में कंम्प्यूटर शिक्षा देने की इस योजना में ‘एनआईआईटी, एडुकाम, टेली डेटा और एवरान’ सरीखी कंपनियां जुटी हुयी हैं। पर उप्र में कंम्प्यूटर सिखाने के लिये निकाले गये टेंडर में एक चहेती कंपनी को काम देने के लिये कुछ शर्तें इस कदर तोड़-मरोड़ेकर परोसी गयी हैं कि इनमें से एक-दो कंपनी ही न्यूनतम और अनिवार्य अर्हता पूरी करने में कामयाब हो पायी हैं। यह शर्त तब जोड़ी गयी है जब कंम्प्यूटर शिक्षा देने के लिए उप्र को आठ जोन में बांटा गया है। टेण्डर की शर्त के मुताबिक कोई भी एक कंपनी तीन से अधिक जोन में काम नहीं कर सकती है। मतलब साफ है कि अगर इन तीनों कंपनियों को काम मिल भी जाये तो भी टेण्डर आमंत्रित करने का औचित्य साबित करने में सरकार को दिक्कत पेश आयेगी। टेण्डर दस्तावेज साफ तौर पर यह चुगली करते हैं कि किसी एक मनचाही कंपनी को उपकृत करने के लिए दस्तावेजों में काफी हेरफेर की गयी है। मसलन, निविदा प्रपत्र कहता है कि जिस कंपनी ने पिछले तीन वर्ष लगातार बीस करोड़ रूपये का कारोबार किया हो वही टेण्डर डालने के लिए योग्य होगी। जबकि माध्यमिक शिक्षा महकमे के मार्फत 2 मार्च को प्रकाशित विज्ञापन में लिखा हुआ है, ‘‘बीते तीन वर्षों में सालाना औसत बीस करोड़ का काम करने वाली कंपनी भी अर्ह होगी।’’ औसत वार्षिक कारोबार और न्यूनतम वार्षिक कारोबार को लेकर निविदा प्रपत्र और विज्ञापित निविदा में अंतर के बावत ‘आउटलुक’ साप्ताहिक ने माध्यमिक शिक्षा निदेशक केएम त्रिपाठी से बातचीत की तो बोले, ‘‘न्यूनतम बीस करोड़ का सालाना कारोबार जिसका जिक्र निविदा प्रपत्र में है। उसकी जगह जो विज्ञापन में औसत बीस करोड़ के कारोबार की बात है, वही सही है।’’ इस बावत उन्होंने तकनीकी कमेटी का कारोबार देख रहे अपर निदेशक मित्रलाल से भी जांच पड़ताल की। ‘आउटलुक’ साप्ताहिक ने माध्यमिक शिक्षा मंत्री रंगनाथ मिश्र से भी इस बावत पड़ताल की तो उन्होंने कहा, ‘‘मैं बाहर हूँ। आकर देखूंगा। वैसे मैंने इस योजना के लिए एक तकनीकी समिति गठित कर दी है जिसमें तमाम विशेषज्ञ हैं।’’ पर मंत्री के लौटने के बाद प्रकाशित निविदा का जो शुद्घि पत्र जारी हुआ। वह ठीक उलट था। इसमें मनचाही कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए टेंडर डाक्यूमेंट को अनदेखा कर टेंडर विज्ञापन में सालाना बीस करोड़ के कारोबार की जगह तीन सालों में औसत बीस करोड़ के कारोबार की जो शर्त जोड़ी गयी थी, उसे ही मान्य किया गया।
गौरतलब है कि ‘आउटलुक’ साप्ताहिक को निविदा प्रपत्र प्रकाशित होने की तिथि ०2 मार्च, 2००8 के लगभग 45 दिन पूर्व ही गोलमाल की आशंका जताते हुये टेंडर डाक्यूमेंट उपलब्ध करा दिये गये थे। बीते 13 जनवरी को तैयार की गयी सीडी के प्रिंटआउट और निविदा प्रपत्र के कागजातों का मिलान किया जाय तो इस रहस्यमय तथ्य का खुलासा होता है कि एक ‘कंपनी’ विशेष को दोनों हाथों से रेवडिय़ां बांटने के लिए उसी के द्वारा तैयार की गयी सीडी के प्रिंट आउट को ही निविदा प्रपत्र बना दिया गया। सीडी के प्रिंट आउट और निविदा के कागजातों में अद्ïभुत समानता मिलती है। हर पृष्ठï की शुरूआत, अंत और मध्य के एक-एक हर्फ बिल्कुल एक हैं। इनके सोर्स कोड, हर पेज की हेडिंग, सब हेडिंग, शब्दों के बोल्ड, इटैलिक किये जाने के साथ ही साथ फांट साइज भी बदलने की आवश्यकता सरकारी कारकूनों ने नहीं समझी। माध्यमिक शिक्षा महकमे के हुक्मरान और मंत्री दोनों हर विद्यालाय में दो शिक्षकों की नियुक्ति की रट लगाये हुए थे पर एक कंपनी विशेष द्वारा उपलब्ध कराये गये टेण्डर डाकूमेन्ट में एक शिक्षक की शर्त को मानने में इन्हें कोई दिक्कत पेश नहीं आयी? यही नहीं, कुर्सी और मेज के प्रारूप, कमरों में सीलिंग फैन, एक्जास्ट फैन, ट्ïयूब लाइट के साथ ही प्रशिक्षक की कुर्सी तक का जो आकार-प्रकार कंम्प्यूटर शिक्षा देने वाली एक कंपनी विशेष के सीडी के दस्तावेजों में है बिल्कुल वही निविदा प्रपत्र में भी हूबहू दिखता है। काम को अंजाम न दे पाने की स्थिति में देय दंड शुल्क की राशि भी सरकार ने अपने निविदा-प्रपत्र में वही रखी है जो मनचाही कंपनी ने अपने सीडी में रख छोड़ी है।
केवल दो तब्दीलियां कंम्प्यूटर शिक्षा देने वाली कंपनी की सीडी और सरकार के दस्तावेज में देखने को मिलती है। पहली, सीडी के मुताबिक कंम्प्यूटर चलाने के लिये आठ घंटे जेनरेटर की व्यवस्था जतायी गयी है पर निविदा-प्रपत्र में इसे घटाकर मात्र दो घंटे कर दिया गया है। पर सवाल यह उठता है कि दो घंटे में कितने बच्चों को और किस तरह की कंम्प्यूटर शिक्षा दी जा सकेगी? अपनों को उपकृत करने के लिये टेण्डर दस्तावेज में यह भी लिखा गया है कि न्यूनतम दर वाली कंपनी के दर पर ही अन्य कंपनियों को काम करना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो पूरा का पूरा काम एक ही कंपनी के हवाले किया जा सकता है। मतलब साफ है कि जब किसी कंपनी द्वारा सीडी के प्रिंट आउट को ही सरकार का यह महकमा अपना निविदा प्रपत्र बना लेने में संकोच नहीं करता है तो उस कंपनी को नवाजने के लिये उसे न्यूनतम दर बताने से वह खुद को कैसे रोक पायेगा?
निविदा दस्तावेज ही नहीं, अपने स्वरूप और क्रियान्वयन को लेकर भी यह परियोजना विवादों में घिर गयी है। कंम्प्यूटर शिक्षा देने की यह परियोजना किसी राज्य में ‘बूट मॉडल’ और किसी में ‘यूजर चार्जेस’ के मार्फत चलायी जा रही है। ‘बूट मॉडल’ में एक ही कंपनी को पूरा का पूरा काम देकर छात्रों से कोई धनराशि नहीं ली जाती है। जबकि ‘यूजर चार्जेस’ में जो बच्चे कंम्प्यूटर का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं उनसे थोड़ी सी धनराशि ली जाती है। उप्र में पहले से ही राज्य सरकार के निगम उप्र डेवलपमेंट सिस्टम कारपोरेशन लिमिटेड (यूपीडेस्को) के मार्फत यूजर चार्जेस प्रक्रिया के द्वारा एक लाख से अधिक बच्चे कंम्प्यूटर की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। बावजूद इसके माध्यमिक शिक्षा महकमे ने निजी कंपनियों के लिए मार्ग प्रशस्त करके जहां अपने ही निगम पर अविश्वास जताया है। वहीं निजी कंपनियों को ‘बूट माडल’ के मार्फत कंम्प्यूटर शिक्षा देने का मौका देकर कंम्प्यूटर प्रशिक्षण की योजना पर पलीता लगा दिया है। ‘यूजर चार्जेस’ के माध्यम से कंम्प्यूटर सीखने वाले बच्चे फीस देंगे जबकि ‘बूट मॉडल’ के मार्फत कंम्प्यूटर की तालीम पाने वालों को मुफ्त शिक्षा मुहैया करायी जायेगी। गौरतलब है कि इस मॉडल में कंम्प्यूटर शिक्षा मुहैया कराने वाली कंपनी को पांच सालों में टेंडर मूल्य का भुगतान किश्तवार करने का प्रावधान है। ‘बूट मॉडल’ और ‘यूजर चार्जेस’ की विसंगति को दूर करने के लिए कई राज्यों ने दोनों योजनाओं को मिलाकर नई योजना प्रस्तावित की है। पर ‘पता नहीं किन’ तर्कों के आधार पर उप्र का माध्यमिक शिक्षा महकमा कंम्प्यूटर की तालीम पाने के दोनों रास्तों पर चलने की वकालत कर रहा है। मनचाही कंपनी को मनचाही शर्तों पर काम उपलब्ध कराने में जुटा माध्यमिक शिक्षा महकमा तमाम रद्दोबदल के बाद भी अपनी जेबी कंपनी को उपकृत करने का मार्ग प्रशस्त नहीं कर पाया है। इसीलिए नए सत्र के दो माह बीत जाने के बाद भी अभी तक यह योजना राज्य सरकार की फाइल से निकलकर क्लास रूम तक नहीं आ पायी है। यही नहीं, बीते मार्च महीने में आमंत्रित टेंडर किसी के हवाले अब तक नहीं किए जा सके हैं।
-योगेश मिश्र
नोट:-रवीन्द्र जी। इसकी फोटो निराला भेज रहे हैं। इसमें माध्यमिक शिक्षा मंत्री रंगनाथ मिश्र, कंम्प्यूटर सीखते हुए बच्चों की फोटो लग सकती है।
(योगेश मिश्र)
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