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जीत का जनादेश
भाजपा के कुछ बड़े नेता, विपक्ष और कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें इस बात का श्रेय दें या न दें लेकिन हकीकत यह है कि यह चुनाव अकेले नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने लड़ा। इसीलिए इस ऐतिहासिक जीत का श्रेय भी अकेले नरेन्द्र दामोदर दास मोदी को ही जाता है। मोदी के सिपहसालार अमित शाह ने वाराणसी में जब यह कहा था, ‘‘मोदी की लहर नहीं सुनामी है, तो भाजपा विरोधियों ने चकल्लस करते हुए इस जुमले पर तंज कसा था कि सुनामी में सब कुछ बह जाता है। भाजपा बह जाएगी।’’ पर आज जब नतीजे आए हैं, तो तंज कसने वालों को सचमुच ऐसा उत्तर मिला है कि अब वे अमित शाह के किसी बयान को हलके में लेने की जुर्रत नहीं करेंगे।
नतीजों से मोदी ने यह साबित किया है कि योजनाबद्ध लड़ाइयां लड़ने में उनका कोई जवाब नहीं है। साबरमती के किनारे के बाद गंगा-यमुना के मैदानों में भी उन्होंने यह बात साबित कर दी है। इस चुनाव का साफ यह भी संदेश है कि नकारात्मक राजनीति के बजाय अब राजनीतिक दल न सिर्फ जनता के लिए बेहतर वादे करें बल्कि उन्हंे साबित करके दिखाएं भी। संदेश यह भी है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गैर भाजपा दलों द्वारा लंबे समय से की जा रही राजनीति को जनता ने नकार दिया है। क्यांेकि 15 और 18 फीसदी अल्पसंख्यक मतदाताओं की बात करने वाली कांग्रेस, सपा और बसपा समेत तुष्टिकरण की सियासत करने वालों को नतीजों के मार्फत सिरे से खारिज भी किया गया है। ऐसे में गैर भाजपाई नेताओं के लिए इस नतीजे में यह संदेश छिपा है कि वे तुष्टिकरण की राजनीति बंद कर जनता की जरूरतों और दिक्कतों को दूर करने की सियासत करें। अगर ऐसा नहीं होता, तो उत्तर प्रदेश जैसे भाजपा के शक्ति केंद्र वाले सूबे में भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर आंदोलन के समय मिली सीटों से काफी आगे निकलती नहीं दिखती। समाजवादी पार्टी जैसी मजबूत जनाधार वाली पार्टी का मुस्लिम-यादव (माई) समीकरण नहीं टूटता। कभी अपने दलित वोटों को ट्रांसफर कराने की शक्ति के नाते राजनीति का चमत्कार समझी जाने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती अपनी जमीन नहीं गंवा बैठतीं।
मोदी को यह एहसास था कि देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। इसीलिए सर्वाधिक 80 लोकसभा सीटों वाले इस राज्य को उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र के लिए चुना। काशी से उन्होंने अपनी उम्मीदवारी के लिए खम ठोंका। उत्तर प्रदेश के कानपुर में जब नरेंद्र मोदी ने अपने मिशन 272 की पहली रैली की थी, तो उसी समय यह तय हो गया था कि मोदी सूबे के इस सियासी चैसर पर मैदान मारने वाले सबसे बड़े सूरमा होंगे। पर, किसी को यह उम्मीद नहीं रही होगी कि वह राम मंदिर आंदोलन के समय के आंकड़े को भी पार कर जाएंगे।
सबसे बड़े योद्धा के रूप में मोदी को स्वीकारने की अपनी वजहें भी साफ हैं। मोदी अपने भाषणों में संवाद करते चलते थे। वह हर बात पर जनता की प्रतिक्रिया लेते हुए हर रैली में कुछ न कुछ लोगों को अपने साथ जोड़ते चलते थे।
कानपुर मध्य उत्तर प्रदेश का वह हिस्सा है, जहां से सूबे में राज कर रही समाजवादी पार्टी की ताकत बढ़ती है। मोदी ने उस ताकत को पहले झटके में दबोच कर कमजोर करने की कोशिश की। आज जो भी सुनामी दिख रही है, वह नरेंद्र मोदी के अपने कामकाज के तौर-तरीके और जनता के बीच उनकी साख के साथ ही साथ वर्ष 2002 से कांग्रेस, गैर कांग्रेस दलों के नेता और तथाकथित धर्म निरपेक्ष ताकतों द्वारा उन पर निरंतर किये जा रहे हमलों का भी नतीजा है। लोगों के मन में यह आने लगा कि आखिर जिस एक आदमी के पीछे इतने लोग पड़े हैं, उसके बारे में जाना जाय कि वह क्या है? कैसा है? क्यों है? जब लोगों ने जानने की प्रक्रिया शुरू की, तो लगा कि नरेंद्र मोदी जिस सामाजिक परिस्थितियों के बीच से निकले हंै, वह देश के तकरीबन सौ करोड़ लोग फेस करते हैं। उन्हांेने जो जीवन जिया, वह लगभग देश के सौ करोड़ लोग इससे मुठभेड़ करते हैं। अभाव और दुश्वारियांे का उन्होंने प्रतिनिधित्व किया। लोगों को लगा कि यह हमारे जैसा नेता है।
उधर, बीते 10 सालों में कांग्रेस की पूरी की पूरी पाॅलिटिक्स अपनी सरकार के ‘परफार्मेंस’ पर नहीं, बल्कि उसकी राजनीति गुजरात के बहाने भाजपा पर हमला करने की थी। उसकी रणनीति थी कि अपने विपक्षी को घेर दें और लोगों को यह समझा ले जाएं कि अगर नरेन्द्र मोदी आएंगे, कामयाब हांेगे, तो देश टूट जाएगा। कांग्रेस इस गफलत की शिकार रही कि इसे समझा लेने के बाद लोग वोट देते रहेंगे। संप्रग सरकार के पहले पांच साल इसके तहत कट भी गये। दूसरे पांच सालों में स्थिति उलट गयी। क्योंकि नरेन्द्र मोदी पर जो भी आरोप लगते रहे, सबके मामले में अदालती फैसले मोदी के पक्ष में आते रहे। दूसरी ओर कांग्रेस सरकार पर ‘कुशासन’ और ‘करप्शन’ के आरोप उछलने लगे। कांगे्रस के ‘कुशासन’ और ‘भ्रष्टाचार’ के उजागर होने वाले दिनों में ही भाजपा शासित राज्यांे में लोगों को सुशासन और विकास दिखता रहा। अदालती फैसलों की वजह से मोदी पर लगे आरोपों की हवा निकलती रही और कांग्रेस सौ फीसदी इसे पढ़ नहीं पायी। कांग्रेस इस पूरी लड़ाई को सकारात्मक राजनीति बनाम नकारात्मक राजनीति के एजेंडे पर नहीं ले जा पायी। वह नकारात्मक राजनीति के मार्फत लोगों को यह समझाती रही कि मोदी के आने से यह बुरा हो जाएगा, वह बुरा हो जाएगा। जबकि मोदी यह बताते रहे कि हमारे आने से यह अच्छा होगा, वह अच्छा होगा। उनके ‘कैंपेन’ का सबसे ‘कैची स्लोगन’ ही था-‘अच्छे दिन आने वाले हैं।’ आम लोगों को यह बहुत अपील करता था, खासतौर से युवाओं को। भाजपा के पास अच्छे दिन आने की बात को साबित करने के लिए सिर्फ गुजरात ही नहीं, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और गोवा के सरकारों की उपलब्धियां भी थीं। जबकि कांग्रेस के पास इस बात का जवाब नहीं था कि उसकी आशंकाएं - देश टूट जाएगा और मुसलमान परेशान हो जाएगा आदि इत्यादि, के पीछे आधार क्या है ? कांग्रेस की ये अशंकाएं भाजपा शासित राज्यों में हकीकत से कोसों दूर रहीं।
रही सही कसर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़ी संख्या वाले राज्यों में अल्पसंख्यकवाद की राजनीति करने वाले सियासी दलों ने पूरी कर दी। बिहार में मुंिस्लम वोटों को ध्यान में रखकर नीतीश गठबंधन तोड़ने लगे, तो वर्ष 2012 में बहुमत से उत्तर प्रदेश में सत्ता में आयी सपा सरकार तुष्टिकरण की सीमाएं पार करती रही। जनता ने इन सबके खिलाफ अपनी तीव्र और मुखर अभिव्यक्ति दी है। क्योंकि वर्ष 1977 के चुनाव में 441 सीटों पर लड़ी कांग्रेस 351 सीटें जीत पायी थी। उसे 43.68 फीसदी वोट मिले थे। वर्ष 1980 में कांग्रेस पार्टी को 353 सीटें मिली थीं और 42.69 फीसदी वोट हासिल हुए थे। जबकि वर्ष 2009 में 116 सांसदों वाली भारतीय जनता पार्टी ने 18.80 फीसदी वोट हासिल किया था। उत्तर प्रदेश में 10 सीटें भाजपा के खाते में थी। अब इसके कई गुना सीटें अपने खाते में करके वह इतरा रही है। वर्ष 1984 के बाद किसी एक पार्टी की यह सबसे बड़ी जीत है।
मतलब साफ है कि मोदी ने अपनी अगुवाई में जो चुनाव लड़ा, जिसमें भाजपा सरकार की जगह मोदी सरकार का नारा उछाला गया - भाजपा सरकार नहीं मोदी सरकार। उसमें कांग्रेस और भाजपा के अब तक के तकरीबन सारे कीर्तिमान तोड़े। भाजपा ने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और कांग्रेस ने सबसे खराब प्रदर्शन। राहुल गांधी के नेतृत्व को एक बार फिर नकारा गया है। हालांकि उत्तर प्रदेश के 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव में ही राहुल गांधी को सूबे की जनता खारिज कर चुकी थी। इन दोनांे चुनावों में राहुल ने व्यापक तौर पर प्रचार किया था, पर कांग्रेस अपनी हैसियत में इजाफा करने में कामयाब नहीं हो पायी। ऐसे में भ्रष्टाचार, कुशासन और महंगाई के आरोप से घिरी कांग्रेस को राहुल गांधी किस तरह लोगों की उम्मीदों पर खरा उतार पायेंगे, यह यक्षप्रश्न अनुत्तरित रहा। बीते 05 सालों में कांग्रेस के केन्द्रीय मंत्रियों ने कम से कम उत्तर प्रदेश में इतनी अराजकता फैलायी कि आम लोग भी कांग्रेस से मुक्ति का मार्ग खोजने लगे थे। क्यांेकि 60 साल बनाम 60 महीने का नारा जनता के गले उतरने लगा था। महंगाई को लेकर कांगे्रस अनुत्तरित खड़ी थी। समाजवादी पार्टी की जो सरकार बनी, वह भी कानून व्यवस्था के सवाल को लेकर लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही थी। बसपा सुप्रीमो मायावती जनता से इतनी कटी रहती हैं, वह सिर्फ जातीय समीकरणों की ‘केमिस्ट्री’ के मार्फत जीत का आंकड़ा खड़ा करना चाहती थीं, लेकिन उनके पास जमीन नहीं थी। ऐसे में लचर सांगठनिक ढांचे और ‘कास्ट केमिस्ट्री’ के फिट नहीं होने की वजह से उनका फार्मूला पूरी तरह फेल हो गया।
पर बहुजन समाज पार्टी के लिए इन चुनावों के संदेश इसलिए भी बहुत हृदय विदारक कहे जाने चाहिए। क्योंकि वर्ष 2012 में ही उत्तर प्रदेश की जनता ने उसे सिरे से खारिज किया था। सिर्फ 24 महीने के भीतर ही दूसरी बार वह खारिज हुई है। समाजवादी पार्टी के लिए इन संदेशांे को इसलिए खराब कहा जा सकता है क्योंकि अखिलेश यादव के पास एक लंबा राजनीतिक कैरियर है और उनके राजनीति कैरियर के शुरुआत में ही उनके पिता मुलायम सिंह यादव का मुंिस्लम-यादव (माई) समीकरण परवान नहीं चढ़ पाया। सरकार भले ही बड़े कामकाज के दावे करे पर जिस तरह उसे सिरे से खारिज किया गया है, उसके चलते उसे एक बार फिर आत्मविश्लेषण करके एक नई पारी के लिए नई टीम के साथ उतरना चाहिए। अन्यथा लोकसभा चुनाव में मोदी ने बहुजन समाज पार्टी को खत्म किया है। विधानसभा चुनाव आते-आते नरेंद्र मोदी के निशाने पर कुछ इसी स्थिति के लिए समाजवादी पार्टी होगी। ऐसा इसलिए भी क्योंकि यह तय है कि मोदी बनारस नहीं वड़ोदरा छोड़ेंगे। उन्हें देश में एक अभूतपूर्व जनसमर्थन वाली मजबूत बहुमत की सरकार बनाने के बाद बिहार और उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की सरकार को एक बार फिर खड़ा करने की जिम्मेदारी का निर्वाह करना है। मोदी जिम्मेदारियों का निर्वाह किस तरह करते हैं यह गुजरात के उनके प्रदर्शन, सरकार चलाने के तौर तरीके और अकेले के बूते पर भाजपा को खड़ा करने की रणनीति से समझा जा सकता है। क्योंकि पहली बार मोदी ने भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार देने में कामयाबी हासिल की है। पूर्वोत्तर और उत्तर भारत में भाजपा का विस्तार हुआ है। मोदी ने सभी राजनीतिक दलों को यह भी संदेश दिया है कि उनके पुराने, जातीय, धार्मिक और तुष्टिकरण के हथियार नाकाफी हैं और नाकामयाब हो गये हैं। अब राजनीति अयोध्या और तुष्टिकरण से आगे निकल गयी है।
यहां भारत की मीडिया को लेकर ‘एग्जिट पोल’ के नतीजों को दिखाए जाने के साथ ही जिस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रियाएं मिलनी शुरू हुई थीं, उन्होंने कहीं न कहीं मीडिया को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की। मीडिया वही दिखा रहा था, जो देश की जनता ने जनादेश दिया था। ‘एग्जिट पोल’ जनादेश के आभासी बिंब होते हैं। लेकिन उन ‘एग्जिट पोल’ को लेकर मीडिया पर सवाल उठाए जाने लगे। आज नतीजों से कम से कम भारत की मीडिया के भीतर भी आत्मविश्वास बढ़ा है और उसकी साख सलामत है।
अच्छे दिन आने का ‘कैची स्लोगन’ भाजपा के लिए तो सच साबित हो गया। लेकिन अब अच्छे दिन आने की जो उम्मीदें उन्होंने जनता की आंखों में जगायी हैं, उन पर मोदी को खरा उतरना होगा। हालांकि अभी मोदी 07 रेसकोर्स रोड पहुंचे नहीं हैं लेकिन वर्ष 2001 से अब तक मोदी विरोध के लिए काम कर रहे कथित बुद्धिजीवी, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें अभी से कहने लगी हैं कि उम्मीदें जगाने और उसे पूरा करने में बहुत अंतर है। सच चाहे जो हो, पर इस हकीकत से भी आंख नहीं बंद की जा सकती कि ये तर्क मोदी के उन जनसमर्थकों के गले उतरने वाला नहीं है, जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी के लिए ही नहीं लोकतंत्र के लिए भी एक नये अध्याय का सृजन किया है। जिसने बताया है कि लोकतंत्र में तुष्टिकरण करने के लिए विस्तार सिमटता जा रहा है।
नतीजों से मोदी ने यह साबित किया है कि योजनाबद्ध लड़ाइयां लड़ने में उनका कोई जवाब नहीं है। साबरमती के किनारे के बाद गंगा-यमुना के मैदानों में भी उन्होंने यह बात साबित कर दी है। इस चुनाव का साफ यह भी संदेश है कि नकारात्मक राजनीति के बजाय अब राजनीतिक दल न सिर्फ जनता के लिए बेहतर वादे करें बल्कि उन्हंे साबित करके दिखाएं भी। संदेश यह भी है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गैर भाजपा दलों द्वारा लंबे समय से की जा रही राजनीति को जनता ने नकार दिया है। क्यांेकि 15 और 18 फीसदी अल्पसंख्यक मतदाताओं की बात करने वाली कांग्रेस, सपा और बसपा समेत तुष्टिकरण की सियासत करने वालों को नतीजों के मार्फत सिरे से खारिज भी किया गया है। ऐसे में गैर भाजपाई नेताओं के लिए इस नतीजे में यह संदेश छिपा है कि वे तुष्टिकरण की राजनीति बंद कर जनता की जरूरतों और दिक्कतों को दूर करने की सियासत करें। अगर ऐसा नहीं होता, तो उत्तर प्रदेश जैसे भाजपा के शक्ति केंद्र वाले सूबे में भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर आंदोलन के समय मिली सीटों से काफी आगे निकलती नहीं दिखती। समाजवादी पार्टी जैसी मजबूत जनाधार वाली पार्टी का मुस्लिम-यादव (माई) समीकरण नहीं टूटता। कभी अपने दलित वोटों को ट्रांसफर कराने की शक्ति के नाते राजनीति का चमत्कार समझी जाने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती अपनी जमीन नहीं गंवा बैठतीं।
मोदी को यह एहसास था कि देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। इसीलिए सर्वाधिक 80 लोकसभा सीटों वाले इस राज्य को उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र के लिए चुना। काशी से उन्होंने अपनी उम्मीदवारी के लिए खम ठोंका। उत्तर प्रदेश के कानपुर में जब नरेंद्र मोदी ने अपने मिशन 272 की पहली रैली की थी, तो उसी समय यह तय हो गया था कि मोदी सूबे के इस सियासी चैसर पर मैदान मारने वाले सबसे बड़े सूरमा होंगे। पर, किसी को यह उम्मीद नहीं रही होगी कि वह राम मंदिर आंदोलन के समय के आंकड़े को भी पार कर जाएंगे।
सबसे बड़े योद्धा के रूप में मोदी को स्वीकारने की अपनी वजहें भी साफ हैं। मोदी अपने भाषणों में संवाद करते चलते थे। वह हर बात पर जनता की प्रतिक्रिया लेते हुए हर रैली में कुछ न कुछ लोगों को अपने साथ जोड़ते चलते थे।
कानपुर मध्य उत्तर प्रदेश का वह हिस्सा है, जहां से सूबे में राज कर रही समाजवादी पार्टी की ताकत बढ़ती है। मोदी ने उस ताकत को पहले झटके में दबोच कर कमजोर करने की कोशिश की। आज जो भी सुनामी दिख रही है, वह नरेंद्र मोदी के अपने कामकाज के तौर-तरीके और जनता के बीच उनकी साख के साथ ही साथ वर्ष 2002 से कांग्रेस, गैर कांग्रेस दलों के नेता और तथाकथित धर्म निरपेक्ष ताकतों द्वारा उन पर निरंतर किये जा रहे हमलों का भी नतीजा है। लोगों के मन में यह आने लगा कि आखिर जिस एक आदमी के पीछे इतने लोग पड़े हैं, उसके बारे में जाना जाय कि वह क्या है? कैसा है? क्यों है? जब लोगों ने जानने की प्रक्रिया शुरू की, तो लगा कि नरेंद्र मोदी जिस सामाजिक परिस्थितियों के बीच से निकले हंै, वह देश के तकरीबन सौ करोड़ लोग फेस करते हैं। उन्हांेने जो जीवन जिया, वह लगभग देश के सौ करोड़ लोग इससे मुठभेड़ करते हैं। अभाव और दुश्वारियांे का उन्होंने प्रतिनिधित्व किया। लोगों को लगा कि यह हमारे जैसा नेता है।
उधर, बीते 10 सालों में कांग्रेस की पूरी की पूरी पाॅलिटिक्स अपनी सरकार के ‘परफार्मेंस’ पर नहीं, बल्कि उसकी राजनीति गुजरात के बहाने भाजपा पर हमला करने की थी। उसकी रणनीति थी कि अपने विपक्षी को घेर दें और लोगों को यह समझा ले जाएं कि अगर नरेन्द्र मोदी आएंगे, कामयाब हांेगे, तो देश टूट जाएगा। कांग्रेस इस गफलत की शिकार रही कि इसे समझा लेने के बाद लोग वोट देते रहेंगे। संप्रग सरकार के पहले पांच साल इसके तहत कट भी गये। दूसरे पांच सालों में स्थिति उलट गयी। क्योंकि नरेन्द्र मोदी पर जो भी आरोप लगते रहे, सबके मामले में अदालती फैसले मोदी के पक्ष में आते रहे। दूसरी ओर कांग्रेस सरकार पर ‘कुशासन’ और ‘करप्शन’ के आरोप उछलने लगे। कांगे्रस के ‘कुशासन’ और ‘भ्रष्टाचार’ के उजागर होने वाले दिनों में ही भाजपा शासित राज्यांे में लोगों को सुशासन और विकास दिखता रहा। अदालती फैसलों की वजह से मोदी पर लगे आरोपों की हवा निकलती रही और कांग्रेस सौ फीसदी इसे पढ़ नहीं पायी। कांग्रेस इस पूरी लड़ाई को सकारात्मक राजनीति बनाम नकारात्मक राजनीति के एजेंडे पर नहीं ले जा पायी। वह नकारात्मक राजनीति के मार्फत लोगों को यह समझाती रही कि मोदी के आने से यह बुरा हो जाएगा, वह बुरा हो जाएगा। जबकि मोदी यह बताते रहे कि हमारे आने से यह अच्छा होगा, वह अच्छा होगा। उनके ‘कैंपेन’ का सबसे ‘कैची स्लोगन’ ही था-‘अच्छे दिन आने वाले हैं।’ आम लोगों को यह बहुत अपील करता था, खासतौर से युवाओं को। भाजपा के पास अच्छे दिन आने की बात को साबित करने के लिए सिर्फ गुजरात ही नहीं, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और गोवा के सरकारों की उपलब्धियां भी थीं। जबकि कांग्रेस के पास इस बात का जवाब नहीं था कि उसकी आशंकाएं - देश टूट जाएगा और मुसलमान परेशान हो जाएगा आदि इत्यादि, के पीछे आधार क्या है ? कांग्रेस की ये अशंकाएं भाजपा शासित राज्यों में हकीकत से कोसों दूर रहीं।
रही सही कसर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़ी संख्या वाले राज्यों में अल्पसंख्यकवाद की राजनीति करने वाले सियासी दलों ने पूरी कर दी। बिहार में मुंिस्लम वोटों को ध्यान में रखकर नीतीश गठबंधन तोड़ने लगे, तो वर्ष 2012 में बहुमत से उत्तर प्रदेश में सत्ता में आयी सपा सरकार तुष्टिकरण की सीमाएं पार करती रही। जनता ने इन सबके खिलाफ अपनी तीव्र और मुखर अभिव्यक्ति दी है। क्योंकि वर्ष 1977 के चुनाव में 441 सीटों पर लड़ी कांग्रेस 351 सीटें जीत पायी थी। उसे 43.68 फीसदी वोट मिले थे। वर्ष 1980 में कांग्रेस पार्टी को 353 सीटें मिली थीं और 42.69 फीसदी वोट हासिल हुए थे। जबकि वर्ष 2009 में 116 सांसदों वाली भारतीय जनता पार्टी ने 18.80 फीसदी वोट हासिल किया था। उत्तर प्रदेश में 10 सीटें भाजपा के खाते में थी। अब इसके कई गुना सीटें अपने खाते में करके वह इतरा रही है। वर्ष 1984 के बाद किसी एक पार्टी की यह सबसे बड़ी जीत है।
मतलब साफ है कि मोदी ने अपनी अगुवाई में जो चुनाव लड़ा, जिसमें भाजपा सरकार की जगह मोदी सरकार का नारा उछाला गया - भाजपा सरकार नहीं मोदी सरकार। उसमें कांग्रेस और भाजपा के अब तक के तकरीबन सारे कीर्तिमान तोड़े। भाजपा ने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और कांग्रेस ने सबसे खराब प्रदर्शन। राहुल गांधी के नेतृत्व को एक बार फिर नकारा गया है। हालांकि उत्तर प्रदेश के 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव में ही राहुल गांधी को सूबे की जनता खारिज कर चुकी थी। इन दोनांे चुनावों में राहुल ने व्यापक तौर पर प्रचार किया था, पर कांग्रेस अपनी हैसियत में इजाफा करने में कामयाब नहीं हो पायी। ऐसे में भ्रष्टाचार, कुशासन और महंगाई के आरोप से घिरी कांग्रेस को राहुल गांधी किस तरह लोगों की उम्मीदों पर खरा उतार पायेंगे, यह यक्षप्रश्न अनुत्तरित रहा। बीते 05 सालों में कांग्रेस के केन्द्रीय मंत्रियों ने कम से कम उत्तर प्रदेश में इतनी अराजकता फैलायी कि आम लोग भी कांग्रेस से मुक्ति का मार्ग खोजने लगे थे। क्यांेकि 60 साल बनाम 60 महीने का नारा जनता के गले उतरने लगा था। महंगाई को लेकर कांगे्रस अनुत्तरित खड़ी थी। समाजवादी पार्टी की जो सरकार बनी, वह भी कानून व्यवस्था के सवाल को लेकर लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही थी। बसपा सुप्रीमो मायावती जनता से इतनी कटी रहती हैं, वह सिर्फ जातीय समीकरणों की ‘केमिस्ट्री’ के मार्फत जीत का आंकड़ा खड़ा करना चाहती थीं, लेकिन उनके पास जमीन नहीं थी। ऐसे में लचर सांगठनिक ढांचे और ‘कास्ट केमिस्ट्री’ के फिट नहीं होने की वजह से उनका फार्मूला पूरी तरह फेल हो गया।
पर बहुजन समाज पार्टी के लिए इन चुनावों के संदेश इसलिए भी बहुत हृदय विदारक कहे जाने चाहिए। क्योंकि वर्ष 2012 में ही उत्तर प्रदेश की जनता ने उसे सिरे से खारिज किया था। सिर्फ 24 महीने के भीतर ही दूसरी बार वह खारिज हुई है। समाजवादी पार्टी के लिए इन संदेशांे को इसलिए खराब कहा जा सकता है क्योंकि अखिलेश यादव के पास एक लंबा राजनीतिक कैरियर है और उनके राजनीति कैरियर के शुरुआत में ही उनके पिता मुलायम सिंह यादव का मुंिस्लम-यादव (माई) समीकरण परवान नहीं चढ़ पाया। सरकार भले ही बड़े कामकाज के दावे करे पर जिस तरह उसे सिरे से खारिज किया गया है, उसके चलते उसे एक बार फिर आत्मविश्लेषण करके एक नई पारी के लिए नई टीम के साथ उतरना चाहिए। अन्यथा लोकसभा चुनाव में मोदी ने बहुजन समाज पार्टी को खत्म किया है। विधानसभा चुनाव आते-आते नरेंद्र मोदी के निशाने पर कुछ इसी स्थिति के लिए समाजवादी पार्टी होगी। ऐसा इसलिए भी क्योंकि यह तय है कि मोदी बनारस नहीं वड़ोदरा छोड़ेंगे। उन्हें देश में एक अभूतपूर्व जनसमर्थन वाली मजबूत बहुमत की सरकार बनाने के बाद बिहार और उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की सरकार को एक बार फिर खड़ा करने की जिम्मेदारी का निर्वाह करना है। मोदी जिम्मेदारियों का निर्वाह किस तरह करते हैं यह गुजरात के उनके प्रदर्शन, सरकार चलाने के तौर तरीके और अकेले के बूते पर भाजपा को खड़ा करने की रणनीति से समझा जा सकता है। क्योंकि पहली बार मोदी ने भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार देने में कामयाबी हासिल की है। पूर्वोत्तर और उत्तर भारत में भाजपा का विस्तार हुआ है। मोदी ने सभी राजनीतिक दलों को यह भी संदेश दिया है कि उनके पुराने, जातीय, धार्मिक और तुष्टिकरण के हथियार नाकाफी हैं और नाकामयाब हो गये हैं। अब राजनीति अयोध्या और तुष्टिकरण से आगे निकल गयी है।
यहां भारत की मीडिया को लेकर ‘एग्जिट पोल’ के नतीजों को दिखाए जाने के साथ ही जिस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रियाएं मिलनी शुरू हुई थीं, उन्होंने कहीं न कहीं मीडिया को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की। मीडिया वही दिखा रहा था, जो देश की जनता ने जनादेश दिया था। ‘एग्जिट पोल’ जनादेश के आभासी बिंब होते हैं। लेकिन उन ‘एग्जिट पोल’ को लेकर मीडिया पर सवाल उठाए जाने लगे। आज नतीजों से कम से कम भारत की मीडिया के भीतर भी आत्मविश्वास बढ़ा है और उसकी साख सलामत है।
अच्छे दिन आने का ‘कैची स्लोगन’ भाजपा के लिए तो सच साबित हो गया। लेकिन अब अच्छे दिन आने की जो उम्मीदें उन्होंने जनता की आंखों में जगायी हैं, उन पर मोदी को खरा उतरना होगा। हालांकि अभी मोदी 07 रेसकोर्स रोड पहुंचे नहीं हैं लेकिन वर्ष 2001 से अब तक मोदी विरोध के लिए काम कर रहे कथित बुद्धिजीवी, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें अभी से कहने लगी हैं कि उम्मीदें जगाने और उसे पूरा करने में बहुत अंतर है। सच चाहे जो हो, पर इस हकीकत से भी आंख नहीं बंद की जा सकती कि ये तर्क मोदी के उन जनसमर्थकों के गले उतरने वाला नहीं है, जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी के लिए ही नहीं लोकतंत्र के लिए भी एक नये अध्याय का सृजन किया है। जिसने बताया है कि लोकतंत्र में तुष्टिकरण करने के लिए विस्तार सिमटता जा रहा है।
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