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गंगा फिर बहेगी तोड़कर चट्टानें....
संध्या की इस मलिन सेज पर
गंगे ! किस विषाद के संग,
सिसक-सिसक कर सुला रही तू
अपने मन की मृदुल उमंग?
उमड़ रही आकुल अन्तर में
कैसी यह वेदना अथाह ?
किस पीड़ा के गहन भार से
निश्चल-सा पड़ गया प्रवाह?
वैसे तो ये पंक्तियां राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने वर्ष 1931 में अपनी किताब ‘पाटलिपुत्र की गंगा’ में लिखा था। पर इसके शब्द-शब्द करीब एक सदी बाद भी अक्षरशः सही साबित हो रहे हैं। क्यांेकि इस कविता के अंश में उभरा दर्द आज भी कराह-कराह कर सामने आ रहा है। और ऐसी हकीकत बयां कर रहा है जो कभी राजकपूर द्वारा बनायी गयी फिल्म के गाने ‘राम तेरी गंगा मैली हो गई पापियों के पाप धोते-धोते’ को न केवल चरितार्थ कर रहा है बल्कि यह भी बता रहा है कि पाप धोने के साथ-साथ हमने गंगा को अपवित्र करने की कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है।
गंगा तो पाप धोने के लिए उतरी ही थी। भगीरथ ने गंगा को अपने पुरखांे को तारने और उनके पाप को धोने के लिए ही उतारा था। यही नहीं, युगों से गंगा हमारे पाप धोती आ रही हैं। पर 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शुरू हुए गंगा को अपवित्र करने के तौर-तरीकों तथा शहरीकरण ने बीसवीं सदी में हद की वह सीमा लांघी, जिसके चलते कहा जाने लगा कि पापियांे का पाप धोने वाली गंगा का पानी अब कई जगहों पर आचमन लायक भी नहीं बचा है।
गंगा भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है। एक ऐसी नदी जो भारत और बांग्लादेश में मिलाकर 2510 किमी की दूरी तय करती हुई उत्तरांचल में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुंदरवन तक विशाल भू-भाग को सींचती है। यह नदी सिर्फ देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। तकरीबन 2071 किमी तक भारत तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल को उपजाऊ मैदान बना देती है। क्या ये सारी परिभाषाएं गंगा का व्याख्यान कर देती हैं। क्या गंगा का नाम लेते ही आपको ये आंकडे़ याद आते हैं। नहीं तो आपको क्या याद आता है ? जो याद आता है वह गंगा में शेष है क्या ? भारत की राष्ट्र-नदी गंगा जल ही नहीं, अपितु भारत और हिंदी साहित्य और आध्यात्म की मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है।
ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में गंगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। यानी एक ऐसी नदी जो जीवनदायनी तो है ही मोक्षदायनी भी है। नदी सूक्त का आरम्भ गंगा से ही होता है। गीता में कृष्ण कहते हैं - नदियों में मैं गंगा हूँ। संस्कृत कवि पं. राज जगन्नाथ ने गंगा की स्तुति में ‘श्रीगंगालहरी’ नामक काव्य की रचना की है। हिन्दी के आदि महाकाव्य पृथ्वीराज रासो तथा वीसलदेव रास (नरपति नाल्ह) में गंगा का उल्लेख है। हिन्दी साहित्य के आदिकाल के सर्वाधिक लोक विश्रुत ग्रंथ जगनिक रचित ‘आल्हखण्ड’ में गंगा, यमुना और सरस्वती का उल्लेख है।
कवि ने प्रयागराज की इस त्रिवेणी को पापनाशक बताया है। श्रृंगारी कवि विद्यापति, ‘कबीर वाणी’ और जायसी के ‘पद्मावत’ में भी गंगा का उल्लेख है। गोस्वामी तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड में ‘श्री गंगा माहात्म्य’ का वर्णन तीन छन्दों में किया है- इन छन्दों में कवि ने गंगा दर्शन, गंगा स्नान, गंगा जल सेवन और गंगा तट पर बसने के महत्व को वर्णित किया है। कवि रसखान और रहीम ने भी गंगा प्रवाह व प्रभाव का सुन्दर वर्णन किया है। परवर्ती काल के कवियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, सुमित्रानन्दन पन्त और श्रीधर पाठक आदि ने भी यत्र-तत्र गंगा का वर्णन किया है। यानी दुनिया में कोई ऐसी नदी नहीं जो दैहिक-दैविक भौतिक और आध्यत्मिक स्तर पर इतनी श्रद्धेय हो। एक ऐसी नदी जिसका उल्लेख देश-विदेश के हर बडे़ विद्वान राजनेता या ‘स्टेट्समैन’ ने किया हो। यानी जीवन से भरी और मोक्ष की नैय्या गंगा है। पर हम इस गंगा को क्या दे रहे हैं। 2 करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा। जी हां, ये ही आंकड़ा प्रतिदिन गिर रहे कचरे के पैमाने को दर्शाता है।
कहते हैं कि सभ्यता वहीं बसती है जहां से नदी बहती है। जिन वीरान जगहों को गंगा ने गांव से शहर और शहर से औद्योगिक हब बनाया, उन्हीं गंगा के तट पर घने बसे औद्योगिक नगरों ने गंगा को प्रदूषित कर दिया। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर-प्रदेश की 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा जल है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के ताजा नतीजे बताते हैं कि गंगा किनारे रहने वाले लोगों में अन्य इलाकों की अपेक्षा कैंसर रोग अधिक होता है। क्योंकि अपशिष्ट से आर्सेनिक, फ्लोराइड और अन्य हैवी मैटल्स सरीखे जहरीले तत्व पवित्र गंगा जल में घुल-मिल जाते हैं। गंगा के किनारे रहने वाले लोगों में पित्ताशय का कैंसर सबसे अधिक देखने को मिला है। यही वजह है कि भारत दुनिया में पित्ताशय के कैंसर वाला दूसरा देश है। गंगा किनारे रहने वाले लोगों में त्वचा रोग भी अधिक पाया जाता है। औद्योगिक विष विज्ञान केंद्र, लखनऊ के वैज्ञानिकों की रिपोर्ट बताती है कि गंगा के पानी में जहरीले जीन वाला ‘ई-कोलाई’ बैक्टीरिया मिला है, जो मानव मल और जानवर मल को नदी में बहा देने की वजह से उत्पन्न होता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ऋषिकेश से पश्चिम बंगाल तक 23 जगहों से गंगा के पानी के नमूने लिए। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इसमें से कहीं का भी गंगा जल पीने योग्य यानि प्रथम श्रेणी का नहीं पाया गया। ऋषिकेश का भी पानी केवल नहाने लायक था। हरिद्वार तक पहुंचते-पहुंचते यह तीसरे दर्जे का हो गया। बक्सर, पटना, मुंगेर और भागलपुर में भी गंगा जल का मानदंड यही था। बनारस, कानपुर और इलाहाबाद का गंगा जल केवल जानवरों के पीने लायक बचा है। यह घोर चिन्ता का विषय है कि गंगा-जल न स्नान के योग्य रहा, न पीने के योग्य रहा और न ही सिंचाई के योग्य। औद्योगिक कचरे के साथ-साथ प्लास्टिक कचरे की बहुतायत ने भी गंगा जल को बेहद प्रदूषित किया है।
गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के लिए घड़ियालों की मदद ली जा रही है। शहर की गंदगी को साफ करने के लिए संयंत्रों को लगाया जा रहा है और उद्योगों के कचरों को इसमें गिरने से रोकने के लिए कानून बने हैं। लेकिन यह सब सिर्फ कागजी है। धरातल पर ऐसी सारी योजनाएं या तो दम तोड़ चुकी हैं। या फिर उन योजनाआंे को संचालित करने के लिए जरूरी अवस्थापन सुविधाएं, मसलन बिजली आदि नहीं हैं।
गंगा जल के प्रदूषित होने की चिंताआंे के पीछे गंगा नदी को राष्ट्रीय धरोहर भी घोषित कर दिया गया है। वैसे तो नवंबर, 2008 में भारत सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी और इलाहाबाद तथा हल्दिया के बीच 1600 किलोमीटर गंगा नदी जलमार्ग- को राष्ट्रीय जलमार्ग भी घोषित किया। गंगा के हालात का बयान करने के लिये मैं देश के ईसाई मिशनरी के । ।स्म्ग्।छक्म्त् क्न्थ्थ् (अलेक्जेंडर डफ) ।समगंदकमत क्निि के बयान की मदद लूंगा। अग्रेजी शासन काल में 18वीं सदी में भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए आए डफ ने कहा था कि - ष्प् ूपसस संल उल इवदमे इल जीम ळंदहमे जींज प्दकपं उपहीज ादवू जीमतम पे वदम ूीव बंतमे.ष्
इस गंगा की अविरलता और महत्व को ईसाई मिशनरी ने समझ लिया, हमने नहीं समझा। सेंटर फार साइंस एंड एन्वायरमेंट की निदेशक सुनीता नारायण बताती हैं, ‘‘उत्तराखंड मंे करीब 558 हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर परियोजनाएं पाइप लाइन में हैं। जो भागीरथी को 80 फीसदी और अलकनंदा को 65 फीसदी प्रभावित करेंगी।’’ कुछ साल पहले आयी कैग की रिपोर्ट भी बताती है, ‘‘यदि उत्तराखंड सरकार निर्माणाधीन 53 पावर प्लांटों को प्रश्रय देती रही, तो देव प्रयाग में भागीरथी व अलकनंदा के जल के संगम से जो गंगा बनती है, उसके लिए पानी उपलब्ध ही नहीं हो सकेगा। गढ़वाल के श्रीनगर के पास एक जगह पर अलकनंदा की जलधारा सूख गयी है।’’ रिपोर्ट यह भी बताती है कि उत्तराखंड सरकार की वर्ष 2006 की ऊर्जा नीति, जल नीति, ऊर्जा सयंत्र लगाने वालों को इस बात की छूट देती है कि वह इस पानी का 90 फीसदी हिस्सा टरबाइन के लिए रोक सकते हैं। जबकि विश्व भर में ऐसे काम के लिए 75 फीसदी हिस्सा रोकने का ही प्रावधान है।
अविरल बहती गंगा को जलाशयों मंे कैद करने के चलते उसके पानी की गुणवत्ता में गिरावट आती है। ठहरे हुए पानी में बीमारियाँ फैलती हैं। आक्सीजन और पोषक तत्वों की कमी हो जाती हैं। इससे मछलियों एवं अन्य जलजीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। चट्टानी घर्षण से तांबा, क्रोमियम और थोरियम के सूक्ष्म कण गंगा के अमृत जल में घुल जाते हैं। गंगा के प्राकृतिक बहाव को रोक देने से चट्टानों और पत्थरों का घर्षण रुक गया है। इससे उसका पानी लाभकारी तत्वों से वंचित हो गया है। पर मीडिया में इस तरह की खबरें शाया नहीं हुईं। यदि कभी मीडिया ने इस तरह की खबरों को तरजीह भी दी तो तब जब मछलियां मर कर सतह पर आ गयीं।
गंगा नदी विश्व भर में अपनी शुद्धीकरण क्षमता के कारण जानी जाती है। लंबे समय से प्रचलित इसकी शुद्धीकरण की मान्यता का वैज्ञानिक आधार भी है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर देते हैं। हालांकि नदी के जल में ऑक्सीजन की मात्रा को बनाए रखने की असाधारण क्षमता है। किंतु इसका कारण अभी तक अज्ञात है। गंगा के जल के कारण हैजा और पेचिश जैसी बीमारियांे के होने का खतरा बहुत ही कम हो जाता है। नतीजतन, बड़े स्तर पर महामारी के खतरे की आशंकाएं भी खत्म हो जाती हैं।
वैज्ञानिक जांच के अनुसार गंगा का बायोलाजिकल ऑक्सीजन स्तर 3 डिग्री (सामान्य) से बढ़कर 6 डिग्री हो चुका है। गंगा के पराभव का अर्थ होगा, हमारी समूची सभ्यता का अन्त। इसके लिए सिर्फ वही लोग जिम्मेदार नहीं हैं, जिन्होंने गंगा में अपने पाप धोए। वे लोग भी जिम्मेदार हैं, जो शहरीकरण का कचरा और मल गंगा और शहर से गुजरने वाली नदी में गिरा रहे हैं। हम मीडिया के लोग भी जिम्मेदार हैं। क्योंकि हम लोग इस तरह की खबरों को तब तरजीह देते हंै। जब पानी सिर से ऊपर निकल जाता है।
गंगा के किनारे बसे शहरांे का कचरा युगों से गंगा की पवित्र धारा को अपवित्र कर रहा है। पर खबरें तब प्रकाशित होनी शुरू हुई जब 20वीं सदी के उत्तरार्ध में प्रदूषण का पानी सिर से ऊपर निकल गया। मैं मीडिया को क्यों दोषी मानता हूं ? आज तक आपने खबरें सुनी, पढ़ी और देखी होंगी कि गंगा प्रदूषित है। गंगा की सफाई के लिये करोड़ो रुपये खर्च करने के बावजूद गंगा प्रदूषण का स्तर जस का तस बना हुआ है। आपने यह खबर कभी नहीं सुनी होगी कि गंगा के कोर्स में बिल्डरों का कब्जा है। यह कभी नहीं सुना होग कि गंगा या किसी भी नदी के बदलते पथक्रम में हो रहे बदलाव से तबाही आ सकती है। मीडिया की यह भूमिका भी आपने कभी नहीं देखी होगी कि वह आम लोगों को जागरुक करे कि वे गंगा या किसी भी नदी में पालीथीन या कचरा ना डालें। डालने से पहले यह सोच लें कि इस छोटी सी गलती की कितनी बड़ी सजा मिल सकती है।
विकास के नाम पर गंगा की अविरलता को रोकने वाले बांधों की सच्चाई की खोजपूर्ण रिपोर्ट मीडिया पेश नहीं करता है। कोई मीडिया इस बात को नहीं उठाता कि विकास के नाम पर हम नदियों को रोक अपना कितना नुकसान कर रहे हैं। उत्तराखंड में गंगा को बांध कर जब पन बिजली बनायी जा रही थी, तब हम मीडिया के लोग इन खबरों को उत्तराखंड के आत्मनिर्भर और विकसित होने की चकाचैंध भरी खबर के तौर पर पेश कर रहे थे। खबर तब बनती है जब केदारनाथ जैसी त्रासदी हो जाती है।
गंगा बेसिन में जब बसपा सुप्रीमो मायावती ने नोएडा से लेकर बलिया तक गंगा एक्सप्रेस-वे के निर्माण का ऐलान किया, तब हम लोग उप्र के विकास का ढिंढोरा पीटते हुए यह बता रहे थे कि यह दूरी कितने कम घंटे में तय की जा सकती है। हम गाड़ियों की बढ़ती रफ्तार की खबरें लिख कर इतरा रहे थे। नदियों के किनारे उद्योग लगते हैं, तो हम विकास को लेकर खबरें लिखने लगते हैं। यह नहीं लिखते हैं कि उस उद्योग से क्या और कितना नुकसान होगा।
हम लोग छोटे थे तो नदी में सिक्का डालने का चलन था। मैं बड़ा हुआ तो भी तमाम लोगों को सिक्का डालते देखता हंू। हमने इस पर बहुत सोचा और पाया कि पहले नदी में जो सिक्का डाला जाता था, वह तांबे का होता था। तांबा पानी को शुद्ध करता है लेकिन अब गिलट का सिक्का होता है। परंतु आज तक कहीं भी किसी भी मीडिया ने इस दिशा में जागरूक करने के लिए पहल नहीं की।
दुनिया की सबसे गहरी नदियों में शुमार गंगा की गहराई तकरीबन 100 फीट है। लेकिन अगर वह भी प्रदूषित हो जाए तो उसके दुष्परिणाम साफ समझे जा सकते हैं। कहने को तो हम इस नदी को मां और देवी मानते हैं। गंगा का प्रदूषण रोकने के लिए खर्च की गयी धनराषि के गोलमाल और घोटालों की खबर भी हम तब लिखते हैं जब कैग की रिपोर्ट उस पर उंगली उठा देती है।
मीडिया की भूमिका सिर्फ घोटालों की परत खोलने, नदी को साफ करने के अभियान की शुरुआत करने और उसके फ्लाप होने तक ही सीमित रही। इस बात पर कभी खबर नहीं लिखी जाती कि बिना समस्या को समझे हुए गंगा सफाई के कार्यक्रम शुरु कर दिए जाते हैं, ताकि किसी तरह पैसा खर्च हो जाए।
केवल पैसा खर्च करने से गंगा साफ नहीं होगी। राजीव गांधी सरकार के समय से अब तक गंगा एक्शन प्लान में करीब 3040 करोड़ रुपए खर्च हुए। यूपीए-2 सरकार की भी कई योजनाएं बनी। राज्यों के स्तर पर भी कई योजनाएं चल रही या प्रस्तावित हैं।
इन अभियानों में एक दिक्कत यह रही है कि प्रशासन की कोशिश यही होती है कि कैसे गंगा सफाई अभियान को लेकर बड़ा प्रोजेक्ट बनाया जाए। अरबों रुपए खर्च किए जाएं। असली काम होता ही नहीं है। उदाहरण के तौर पर बनारस में 350 मिलियन लीटर बेकार पानी नदी में जाता है। लेकिन गंगा एक्शन योजना के तहत जो प्लांट बने हैं वे करीब 100 मिलियन लीटर गंदे पानी का ही ट्रीटमेंट कर सकते हैं। यानी सिर्फ एक तिहाई तैयारी हुई। जो सयंत्र चालू हैं वे भी रोजाना काम नहीं करते।
मतलब यह कि इस बात की पहले से तैयारी ही नहीं की गई कि कितना गंदा पानी आएगा और उसे साफ करने के लिए कितने सयंत्र लगाने पड़ेंगे ? गंगा सफाई अभियान में दूसरी समस्या यह है कि नदी में पानी का बहाव ही नहीं है। इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया है कि नदी में कितना पानी हमेशा बहते रहना चाहिए। अगर नदी में पानी ही नहीं होगा और उस पर से गंदा पानी उसमें बहा दिया जाएगा तो ऐसे में नदी तो गंदी होगी ही। मीडिया में इस बात की चर्चा कभी नहीं होती। ऐसे मंे यह कहना होगा कि गंगा को लेकर संवेदनशीलता जितनी होनी चाहिए, हममे वह नहीं है। यही वजह है कि करोड़ों-अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा के अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हुए हैं।
यह और बात है कि हाल में आयी केदारनाथ त्रासदी और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले ने गंगा की तरफ सबका ध्यान खींचा है। पर यह बात मीडिया को सोचना होगा कि क्यों इस तरह की त्रासदी और अदालती आदेश ही हमें इन मुद्दों पर सोचने को मजबूत करते हैं ? क्या हम मीडिया वालों की यह भूमिका नहीं होनी चाहिए कि इस बात की जागरुकता को लेकर खबरें चलें? मीडिया ने गंगा को लेकर लोगों पर लगातार उंगली उठायी है। लेकिन कभी अपने गिरेबान में झांक कर नहीं देखा। जबकि इसमें हम सब भी कम दोषी नहीं हैं। कहीं न कहीं मै भी। मेरे दशकों पुराने पत्रकारीय अनुभव में मुझे कभी यह याद नहीं कि किसी भी अखबार-मीडिया ने गंगा की सफाई को लेकर कोई बड़ी मुहिम चलायी है। यह जरुर है कि मीडिया में गंगा से जुडी खबरें खूब छपी हैं। गंगा के प्रदूषण को लेकर कई खबरें अखबारों की सुर्खियां बनी। मसलन, 13 नवंबर 1998 में गंगा और हमारा दायित्व जब शुरु हुआ तो मीडिया ने उसे सुर्खियों में जगह दी। वे इसलिए कि उस समय के कई गांधीवादियों सुंदरलाल बहुगुणा और कंचनलता सबरवाल ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।
हालांकि सुर्खियां बनीं ये खबरें पन्ने बदलते-बदलते कहीं खो गयीं। पर किसी भी मीडिया समूह ने इस मुद्दे को अपना मुद्दा नहीं बनाया। कोई ऐसी मुहिम नहीं छेड़ी जिससे कोई फर्क पडे़, लोग जागरुक हों।
वर्ष 1986 में गंगा एक्शन प्लान लांच किया गया लेकिन 190 मिलियन डालर खर्च करके भी यह अभियान सफल नहीं हुआ? इसे 31 मार्च 2000 को वापस ले लिया गया। जानते हैं यह क्यों नहीं सफल हो सका? मेरी समझ में इसकी एक वजह मीडिया की उदासीनता भी रही। क्यों नहीं मीडिया ने इस प्लान के लांच होते ही इस पर अपनी निगाह रखी ? जब यह अभियान अपना दम तोड़ रहा था, नौकरशाही के पेंच में फंस कर इस अभियान के लिए आवंटित धनराशि घोटाले की वेदी पर चढ़ चुकी थी। तब मीडिया जागा। नतीजतन, ज्यादातर खबरें घोटाले से जुड़ी दिखी। इस अभियान के पोस्टमार्टम से जुड़ीं खबरें पढ़ने को मिलती हैं। वह भी अभियान के दम तोड़ने के चरण में । कोई ऐसी खबर पढ़ने को नहीं मिली, जो अभियान को प्रचारित या प्रसारित करती हो अथवा अभियान में जुड़े लोगों का हौसला बढ़ाती हो, गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के काम को पुण्य कर्म बताकर लोगों को इससे जोड़ने में अपनी भूमिका को द्विगुणित अथवा बहुगुणित करती हो।
नदियों के किनारे जल पुलिस का नाम आप सब ने सुना होगा। ज्यादातर लोग यह समझते हैं कि जल पुलिस का काम डूबने वाले को बचाना है। लेकिन हकीकत यह है कि हम मीडिया के जो लोग पुलिस के हर कामकाज पर उंगली उठाते हैं वह कभी यह खबर नहीं करते हैं कि जल पुलिस ने नदियों को प्रदूषण से रोकने की अपनी भूमिका के लिए अभी तक कुछ नहीं किया है। मीडिया के लिए आज यह याद करना मुश्किल हो गया है कि नदियों के प्रदूषण मुक्ति के लिए उसने कोई ऐसा अभियान चलाया हो जिस पर वह इतरा सके।
यह बात दीगर है कि ऐसा नहीं है कि गंगा को लेकर कभी अच्छी खबरें नहीं छपीं। मुझे याद है कि हिन्दुस्तान समाचार-पत्र में 8 नवम्बर, 2009 को एक खबर छपी थी - ‘तो गंदी ही रहेगी गंगा।’ ऐसी कुछ खबरें जागरूकता फैलाती हैं पर गंगा की समस्या से निजात के लिए मुहिम की जरूरत है। यह मुहिम मीडिया में फिलहाल तो नदारद दिख रही है।
देखिए ! हमे एक फर्क समझना होगा। फर्क ऐसी खबरों का जिनमें गंगा का जिक्र हो और जिससे लोग जागरूक हों। मसलन, गंगा प्रदूषण को लेकर अनशन कर रहे निगमानंद जी की मौत से पहले हम क्यों नहीं जागे ? उनकी मौत के बाद जिस मुद्दे पर उन्होंने शहादत दी उसे भुला दिया गया यानी गंगा के प्रदूषण को। गंगा से जुड़ी जिन खबरों को अहमियत दी भी गयी वह अदालती फैसले थे। मसलन, अभी हाल में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि दुर्गा पूजा के बाद मूर्तियों का विसर्जन गंगा में नहीं होगा। दूसरे दिन अदालत ने राज्य सरकार को इसके लिए फिर एक साल का समय दे दिया। वह भी तब जब यह अदालती फैसला इस साल का नहीं था। पिछले साल ही अदालत ने राज्य सरकार को इसका बंदोबस्त करने के लिए कहा था। पर एक साल में राज्य सरकार की ओर से सिर्फ चार खत उच्च न्यायालय को गए। बावजूद इसके एक साल का समय फिर दिया गया। हम मीडिया के लोगों ने एक साल का समय देने के अदालती फैसले तथा एक साल में सरकार द्वारा कुछ न कर पाने को लेकर कलम चलाने में कोताही बरती। क्योंकि इंडियन रीडरशिप सर्वे (आईआरएस) और टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट (टीआरपी) ने हमारी मुहिम के रास्ते में बाधा पहुंचा दी है।
गंगा को लेकर एक मुहिम जो मुझे याद है वह है बी.बी.सी. की। बी.बी.सी. ने अपनी डाक्यूमेंट्री ‘गान्जेस; डाटर ऑफ माउंटेन’ में गंगा के उद्गम से लेकर उसके बहाव, उससे जुडे़ आयाम की चर्चा की थी। इस ‘डाक्यूमेंट्री’ में भी गंगा के प्रदूषण को लेकर चर्चा नहीं की गयी थी। ऐसे में क्या मीडिया की भूमिका सिर्फ सुर्खियों वाली खबर तक ही सीमित है। यहां ‘स्टार न्यूज’ (अब ‘ए.बी.पी. न्यूज’) की एक पहल का जिक्र जरूरी है। ‘गंगा की सौगंध’ नाम की डाक्यूमेंट्री सिरीज ‘ए.बी.पी. न्यूज’ ने शुरु की थी। इस मुहिम में कई अच्छे पहलू थे, पर इसकी ‘ब्रांडिंग’ और ‘मार्केटिंग’ उस तरह से नहीं की गयी जैसे कि ‘ए.बी.पी. न्यूज’ ने अपने कार्यक्रम ‘प्रधानमंत्री’ की थी, जैसा ‘आजतक’ ने ‘वंदेमातरम’ की की। यानी यह कार्यक्रम आया लेकिन अच्छा होने के बाद भी उतना लोकप्रिय नहीं हुआ। गंगा के दर्द को उभारने में भले ही इस कार्यक्रम ने सफलता पायी हो पर उस दर्द को लोगों के अक्स तक उतारने में कार्यक्रम ने कामयाबी के झंडे नहीं गाड़े। जबकि इसकी ज्यादा जरूरत थी कि यह दर्द लोगों के दिल में उतरे। इसके लिए भी मीडिया जिम्मेदार है। क्योंकि मीडिया ने इसे एक निजी चैनल का कार्यक्रम मानकर तवज्जो देना उचित नहीं समझा। जबकि चाहिए यह था कि इस अभियान में मीडिया बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता। क्योंकि तकरीबन कुंभ के समय दिखाए जाने वाले इस कार्यक्रम मंे इस निजी चैनल ने गंगोत्री से गंगा सागर तक की यात्रा की थी। इस यात्रा में जिस भी शहर में गंगा प्रवेश करती थी। वहां के पानी का नमूना लिया जाता था और फिर उस शहर से गुजरने के बाद गंगा जल का नमूना लेकर यह बताया जाता था कि गंगोत्री से गंगा सागर के बीच पड़ने वाला कौन सा शहर गंगा को कितना प्रदूषित कर रहा है। अगर इस कार्यक्रम को मीडिया ने अपनी भूमिका के मुताबिक द्विगुणित अथवा बहुगुणित किया होता, तो कम से कम पिछले इलाहाबाद के कुंभ में जिन दस करोड़ लोगों ने गंगा में डुबकी लगाकर अपने पाप धोए कम से कम उनमें से अधिकांश के हाथ तो गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए जरूर उठते। ऐसा न हो पाने की वजह ही है कि गंगा और यमुना जैसी प्रमुख नदियों का जल पीना तो दूर, नहाने लायक तक नहीं बचा है।
गंगा के प्रति जो सहस्राब्दियों से चली आ रही धार्मिक श्रद्धा है, उससे अभिभूत होकर संत शक्ति गंगा की रक्षा के लिए मैदान में उतर पड़ती है, पर ज्यादातर लोग इसका एक ही हल सुझाते हैं कि उत्तराखंड राज्य में गंगा नदी पर विद्युत उत्पादन के लिए जो अनेक बांध बनाए गए हैं, उन्हें तुरंत बंद कर दिया जाए। वे गंगा के प्रदूषण के लिए केवल सरकारी योजनाओं को दोषी मानते हैं और उसे निर्मल व शुद्ध बनाए रखने की पूरी जिम्मेदारी सरकार के मत्थे मढ़कर समाज को उस जिम्मेदारी से पूरी तरह मुक्त कर देना चाहते हैं। उन्हें विश्वास है कि गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित कर देने मात्र से उस पर छाया संकट टल जाएगा। वे भूल जाते हैं कि गंगा नदी का संकट सब नदियों का संकट है। हमारी त्रासदी यह है कि एक ओर तो हम आधुनिक तकनीकी द्वारा प्रदत्त सब सुविधाओं को अपने लिए पाना चाहते हैं, पर साथ ही हम अन्य देशवासियों को उनसे दूर रहने का उपदेश देते रहते हैं। हमने अपने दिमागों में ग्राम और शहर की दो समानांतर सभ्यताओं का कल्पना चित्र तैयार कर रखा है। जबकि वास्तविकता यह है कि प्रत्येक ग्रामवासी अब शहरी सुविधाओं को पाना चाहता है। नदियों के संबंध में भी हमें इसे समझना होगा। वर्ष 2007 में आयी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार हिमालय पर स्थित गंगा की जलापूर्ति करने वाले हिमनद के वर्ष 2030 तक समाप्त होने की आशंका है। इसके बाद गंगा नदी का बहाव मानसून पर आश्रित होकर मौसमी रह जाएगा।
यही नहीं, अमेरिका के ‘नेशनल सेंटर फार एटमास्फेयरिक रिसर्च’ की एक रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक स्तर पर ताप बढ़ने का नदियों पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। इस रिपोर्ट में वर्ष 1948 से वर्ष 2004 के 56 सालों के दौरान दुनिया की 925 नदियों के जल प्रवाह का अध्ययन किया गया, जिनमें पृथ्वी की नदियों का 73 फीसदी पानी बहता है। अध्ययन रिपोर्ट खुलासा करती है कि इसमें से 308 नदियां वैश्विक स्तर पर ताप बढ़ने से प्रभावित हुई हैं। इसमें 206 नदियों के जल प्रवाह में कमी आयी है।
जबकि 102 नदियों के जल प्रवाह में बढ़ोत्तरी हुई है। जिन नदियों के प्रवाह में बढ़ोत्तरी हुई है वे आर्कटिक क्षेत्र से होकर बहती हैं। अध्ययन में संकट ग्रस्त और खतरे की हद पार करने वाली चार नदियों का उल्लेख है। जिसमें उत्तरी चीन की पीली नदी, अफ्रीका की नाइजर, भारत की गंगा और दक्षिण-पश्चिम अमेरिका की कोलोरेडो का नाम है।
इसके अलावा सबसे खतरनाक बात यह है कि अगर हम नहीं चेते तो 2030 से कहीं पहले हम अपनी इस गंगा मां की इतना बीमार कर देंगे कि ये आशीर्वाद देने के लिए अपने हाथ भी नहीं उठा सकेगी। ऐसे में मुझे एक फ्रेंच साहित्यकार, घुमंतू और व्यापारी ज्या टेवरनीयर की ‘ट्रैवल्स इन इंडिया’ में लिखी एक बात याद आ रही है - ष्ज्ीम संदक ूीमतम जीम ळंदहमे कवमे दवज सिवू पे सपामदमक पद ं ीलउद जव जीम ेाल ूपजीवनज जीम ेनदए ं ीवउम ूपजीवनज ं संउचए ं ठतंीउपद ूपजीवनज जीम टमकंण्ष्
यही नहीं, पिछले कुंभ के दौरान गंगा तट पर टहलते हुए कही गयी फकीर की यह लाइनें भी गंगा प्रदूषण और उससे मुक्ति के सवाल पर मुझे मथती रहती हैं-
फकीरों की तरह धूनी रमा कर देखिए साहब
ये गंगा है यहां डुबकी लगाकर देखिए साहब
यहां पर जो खुषी है वह कहां है भव्य महलों में
ये गंगा तट है यहां तंबू लगाकर देखिए साहब
हथेली पर उतर आएगी ये गंगा की लहरों पर
परिंदों को मुहब्बत से बुलाकर देखिए साहब
ये गंगा फिर बहेगी तोड़कर मजबूत चट्टानें
जो कचरा आपने फेंका हटाकर देखिए साहब।
यह सच भी है क्योंकि वर्ष 1906 से वर्ष 2012 तक के सिर्फ कुंभ और अर्द्धकुंभ के दौरान गंगा जल में स्नान करके अपना पाप धुलने की आकांक्षा में अकेले इलाहाबाद के गंगा तट पर आने वालों की संख्या तकरीबन 35 करोड़ 67 लाख बैठती है। पिछले कुंभ में तकरीबन 10 करोड़ लोगों ने गंगा में डुबकी लगाकर पुण्य कमाया है। सबसे कम वर्ष 1942 के कुंभ में 12 लाख लोग गंगा तट पर पहुंचे थे। अर्द्धकुंभ में भी सबसे कम 20 लाख श्रद्धालु वर्ष 1912 में पहुंचे थे। पर सबसे अधिक श्रद्धालु वर्ष 2007 के अर्द्धकुंभ में पहुंचे। जिनकी संख्या तकरीबन आठ करोड़ बतायी जाती है। ये आंकड़े सरकारी ही हैं। पर इन आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष जुटाना कतई गलत नहीं होगा कि इन 35 करोड़ लोगों के जो 70 करोड़ हाथ गंगा स्नान से पहले गंगा को नमन करने के लिए उठे थे, वे फकीर के कहे के मुताबिक ही गंगा में फेके गए कचरे को हटाने के लिए ‘मनसा-वाचा-कर्मणा’ जुट जाएं तो उन्हें न केवल भगीरथ भाव से जीने का अवसर मिल जाएगा। बल्कि गंगा के प्रदूषण को लेकर पेशानी पर खिंच रही चिंता की लकीरों से भी निजात मिल सकेगी।
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