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भारतीयता पर गर्व करना सीखिए

Dr. Yogesh mishr
Published on: 17 Aug 2014 11:51 AM IST
उदारीकरण की आड़ लेकर जब नौकरशाह से राजनेता बने मनमोहन सिंह वैश्वीकरण की दुहाई देते हुए पश्चिम का गुणगान कर रहे थे तो शायद वह एक ऐसी दूसरी साजिश के भी कर्ता-धर्ता बन रहे थे जिसमें भारत के वर्तमान को अतीत से काटने का काम किया जा रहा था। हमारे देश के लोग अतीतजीवी न रहें बल्कि वर्तमानजीवी बनें।

भाववादी भारत पर जब डाॅ. मनमोहन सिंह भौतिकवाद का मुलम्मा चढ़ा रहे थे तो ‘ग्लोबलाइजेशन’ के जुमले के सामने, न जाने क्यों, हमारे ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को नेपथ्य में जाने के लिए विवश होना पड़ा था। इस पर गर्व करने की बजाय हम और हमारा समाज वैश्वीकरण की मुनादी पीटते हुए इतरा रहे थे। हम यह भूल गए कि हमने जहां से वैश्वीकरण को उधार लिया है, उन देशों का इतिहास सहस्राब्दि का भी नहीं है। हम यह भूल गये कि 5 हजार वर्षो के ज्ञात और लिखित इतिहास से यह सुस्पष्ट है कि पश्चिम ने भारत से बहुत कुछ सीखा है और प्रायः यह ज्ञान महत्वपूर्ण देशों के रास्ते पश्चिम तक पहुंचता था।

बावजूद इसके यह सवाल 67वें स्वाधीनता दिवस पर बेहद मौजूं और अनिवार्य हो जाता है कि आखिर भारत की गौरवशाली परम्परा को भुला देने के प्रयास के पीछे कौन सी ताकतें थीं, अथवा हैं। कौन लोग हैं, जो भारत के अतीत की ओर युवाओं को देखने के लिए इसलिए मना कर रहे हैं ताकि वे यह न जान सकें कि हमारा अतीत कितना स्वर्णिम था। क्योंकि अगर वे इस सच से वाकिफ हो जाएंगे तो निश्चित तौर पर पश्चिम का आकर्षण और व्यामोह कम होगा। वैश्वीकरण के नाम पर बुने जा रहे तारों का ताना-बाना ढीला पड़ जाएगा और परोक्ष रूप से पश्चिम पर इतराने का जो चलन है, उस पर विराम लग जाएगा। पश्चिम हमें निरा भौतिकवाद देता है। यही वजह है कि जब पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने वित्तमंत्री रहते हुए वैश्वीकरण की बात की थी तो इस पूरे ताने-बाने को उन्होंने अर्थतंत्र में उलझा दिया था।

आज जब हम भारत के अतीत और पश्चिम के वर्तमान को एक विहंगम दृष्टि डालें और उनके कहे के संदर्भ में ही उनका मूल्यांकन करें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचने में किसी को रंचमात्र समय नहीं लगेगा कि उन्होंने हमारे देश और समाज के मूल्य बदल दिए। नैतिक मूल्य, सैद्धांतिक मूल्य सामाजिक मूल्य आदि की जगह सिर्फ और सिर्फ आर्थिक मूल्यों ने ले ली। यही वजह है कि जब-जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन और उसका राजनीतिक चेहरा कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने डाॅ. मनमोहन सिंह या कांग्रेस पर हमला किया तो अतीत के भारत की, संस्कृति की, सभ्यता की और हमारे गौरवशाली दिनों के इतिहास को राष्ट्रवाद की चाशनी में लपेट कर कुछ इस तरह पेश किया कि ‘साठ साल बनाम साठ महीने’ के जुमले ने एक नई इबारत लिख दी। ऐसे में यह देखना बहुत अनिवार्य हो जाता है कि आखिर अतीत के भारत और वर्तमान की पश्चिमी सभ्यता, जिस पर हम इतरा रहे हैं, उनका सत्य और तथ्य क्या है? कालखण्ड के लिहाज से ही अगर इन दोनों का मूल्यांकन करें तो भारत का पांच हजार साल का ज्ञात इतिहास है! जबकि हम जिस पश्चिम की तरफ ललचाई नजरों से देख रहे हैं। उसका इतिहास दो हजार साल के भीतर का ही है।

विश्व की आयु के सम्बन्ध में भारत में युग, मन्वन्तर और कल्प के सिद्धांत प्रचलन में है। युग में भी चार कालखण्ड किए गए हैं। 476 ईसवी में पाटलिपुत्र में जन्म लेने वाले आर्यभट ने मात्र 23 साल की अल्प आयु में सिद्ध कर दिया था कि पृथ्वी रोज अपनी धुरी पर घूमती है, जिससे रात और दिन होते हैं। पश्चिम के कोपरनिकस (1473-1543) ने यह बात लगभग सात सौ साल बाद कही। आर्यभट यह भी जानते थे कि चंद्रमा और दूसरे ग्रह स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं। सूर्य की किरणें प्रतिबिंबित होकर इन्हें प्रकाशित कर रही हैं। पृथ्वी और दूसरे ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार चक्कर लगा रहा है। आर्यभट के दशगीतिक ग्रंथ में ग्रहण और ग्रहों की ठीक-ठीक गति पर गंभीर विचार किया गया है। आर्यभट ने वर्गमूल ओर घनमूल निकालने की विधि का जिक्र भी अपनी किताबों में किया है। इसे वी.बी. दत्त की भ्पदकन बवदजतपइनजपवद जव डंजीमउंजपबे और एल. रोड़े की ‘लेकांस द कलकुल आर्यभट’ की किताब में संदर्भित और प्रमाणित किया गया है।

मोटे तौर पर ईसा के ढाई हजार साल पहले का काल ऋग्वेद और अन्य वेदों का माना जाता है। वैदिक काल में अंकगणित और रेखागणित के विद्वानों का जिक्र मिलता है। यज्ञों की वेदियों पर रखी जानी वाली ईंटंे और यज्ञ वेदियों का आकार यह स्पष्ट करता है कि उस काल के विद्वानों को रेखागणित के बेहतर प्रयोग मालूम थे। ‘गुल्वसूत्र’ रेखागणित से सम्बन्धित प्राचीनतम भारतीय ग्रंथ है, जिसमें बोधायन, कात्यायन और आपस्तम्ब का विभाजन है। इन सूत्रों को ईसा से 500 साल पहले का माना जाता है। यजुर्वेद के 18 व 25 सूक्त में दो और चार के पहाडे़ का स्पष्ट उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण के अग्निचयन में ऋग्वेद के सभी अक्षरों की संख्या 4,320,00 दी गई है। पंजाब के बक्खली गांव में ईसा की तीसरी चैथी सदी का अंकगणित सम्बन्धी हस्तलिखित ग्रंथ मिला है, जिसमें वर्गमूल और घनमूल की विधि बताई गई है। 12वीं सदी में अरबों ने इसे भारतीयों से सीखा और दुनिया को बताया। शून्य का ज्ञान पूरी दुनिया को भारतीयों से मिला। सिकंदर के साथ आए गणितज्ञों को इसकी जानकारी भारत से मिली और उन्होंने फिर पूरी दुनिया को बताया। इससे पहले दुनिया में गणित के लिए केवल नौ तक संख्याएं प्रयोग में लाई जाती थीं।

भौतिकी की बात करें तो पाश्चात्य जगत को ईसा की 18वीं सदी में डाल्टन ने परमाणुवाद और गतिशीलता के बारे में अवगत कराया। लेकिन इतिहास इस बात की गवाही देता है कि इससे बहुत पहले ही भारतीय दार्शनिकों को परमाणुवाद की जानकारी थी। कणाद ऋषि ने वैदिक काल में ही इसके बारे में लोगों को अवगत कराया था। वेदान्तियों, बौद्धों और जैनों ने भी अपने अपने ढंग से परमाणुवाद को विकसित किया। इस सिद्धांत के अनुसार प्रकृति अत्यंत ही छोटे-छोटे परमाणुओं से बनी हुई है। एक परमाणु का आकार 1/349526 इंच माना गया है। प्रकृति की गतिशीलता के चलते परमाणुओं के मिलने और पृथक होने की प्रक्रिया अनादिकाल से चली आ रही है। यही वजह है कि भारतीय वांङ्मय में प्रकृति की गतिशीलता के सहयोग, विभाग, निरपेक्ष आदि के कारणों पर विस्तार से विचार किया गया है।

पश्चिम ने जाड़ा, गर्मी और बरसात से आगे बढ़कर मौसम के बारे में कुछ सोचा ही नहीं। पर हमने छह ऋतुएं निर्धारित कर रखी हैंै। जाड़ा, गर्मी, बरसात के अलावा तीन अन्य मौसम शिशिर,हेमंत और वसंत भी हैं। मौसम विज्ञान को लेकर घाघ की कहावतें 21वीं सदी में डाॅपलर के माध्यम से की जाने वाली मौसम की भविष्यवाणी पर भारी पड़ती हैं। हमने जीवन को सुंदर बनाने के लिए 16 श्ऱंृगार चुने। जिनमें उबटन लगाने, स्नान करने, वस्त्र धारण करने, बाल संवारने, अंजन लगाने, सिंदूर भरने, महावर लगाने, भाल पर तिलक, ठोड़ी पर तिल बनाना, मेंहदी रचाना, सुगंधित द्रव्यों का प्रयोग, अलंकार धारण करना, पुष्पहार पहनना, पान खाना, ओंठ रंगना और मिस्सी लगाना ही सोलह श्रंृगार हैं।

चंद्रमा से सबक लेते हुए 16 कलाएं - अमृता, मानदा, पूषा, तुष्टि, रति, धृति, शशिनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्स्ना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्णा और पूर्णामुदा गढ़ीं। राशि के तीसवें अंश का साठवां भाग ही एक कला है। एक काल का मान एक दशमलव छह मिनट है।

हालांकि भारतीय कामशास्त्र और शैवतंत्र में कलाओं का विस्तार करते हुए 64 का मान दिया गया है। कामशास्त्र की 64 कलाओं के नाम पर एक भ्रांति भी बनी है। लेकिन इन 64 कलाओं में कोई भी सेक्स की कला नहीं है। यह सभी मानवजीवन से जुड़ी वह दैनंदिन कलाएं हैं जिन्हें आज के दौर में हुनर या टैलेंट कहा जाता है। इसमें वास्तु विद्या से लेकर रूप्यरत्न परीक्षा, कीमियागरी यानी धातु परखने की कला, मणिराग ज्ञान यानी रत्नों के रंग जानना, खानों की विद्या यानी आकर ज्ञान, विदेशी भाषा का ज्ञान, जड़ी-बूटियों के प्रयोग, यंत्र बनाना से लेकर भोजन पकाने, घर सजाने, कपडे़ सजाने, फूलों की सेज बनाना, गीत, नाटक, वाद्य, नृत्य आदि ष्शामिल हैं।

वैदिक काल में आर्याें का जो वर्ष था, उसमें 12 महीने और एक लौधमास यानी मलमास का जिक्र मिलता है। षतपथ ब्राह्मण और तैत्तरीय संहिता में लिखा है कि 30 दिन का साधारण मास चंद्र मास से थोड़ा बड़ा रहता है। चंद्रमास साढे़ 29 दिन का होता है। इसी ग्रंथ के मुताबिक सूर्य-चंद्र का सहवास ही अमावस्या है।

उद्भट विद्वान लगध ने वेदांग ज्योतिष नामक छोटा सा ग्रंथ लिखा है, जिसे बालगंगाधर तिलक ईसा से 1400 वर्ष पूर्व और पष्चिमी विद्वान मैक्समूलर ईसा से 300 साल पहले का बताते हैं। हालांकि वेबर ने इस ग्रंथ का कालखण्ड ईसा से 500 साल पहले का माना है। इस ग्रंथ में सूर्य और चंद्र की गति को समझाया गया है। ग्रंथ के मुताबिक सूर्य 366 दिन में एक चक्कर पूरा कर लेता है। आज भी यह सच है। सिर्फ बदलाव यह हुआ है कि सूर्य का इतने ही दिन में पृथ्वी चक्कर पूरा कर लेती है। बावजूद इसके हम अपने युवाओं को यह पढ़ाते-रटाते आ रहे हैं कि 30 और 31 दिनों के महीने और फरवरी के कम दिन होने का सिद्धांत पश्चिम की देन है। हमने चंद्रमा और सूर्य दोनों की गतियों के संदर्भ में समय की गणना की थी। जबकि पश्चिम में कोई सूर्य की गति को पकड़ कर बैठ गया है और कहीं किसी ने चंद्रमा को ही सत्य माना है। हमारे यहां सौरमास 30 दिन का माना गया है। वराह मिहिर पंजसिद्धांतिका बताती है कि साल में 12 सौरमास और एक दिन में 60 घटिका होते हैं। जबकि वेदांग ज्योतिष और पैतामह सिद्धांत के अनुसार चंद्रवर्ष 366 दिन का होता है और सौर वर्ष 365 दिन पांच घंटे 55 मिनट और 12 सेकंड का होता है। आज यही सत्य माना जा रहा है लेकिन इस स्वीकारोक्ति के साथ कि यह पश्चिम की देन है। ऋग्वेद में घर और पुर यानी किले का वर्णन है। घर के लिए गृह शब्द और किले के आंतरिक वाह्य भाग के लिए सदम, प्रसदम का प्रयोग किया गया है। हमारी स्थापत्य कला के प्रभावशाली उदाहरण के रूप में है। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के पिपराहा में अशोक से सौ साल पहले का स्तूप पुरातत्वविदों के हाथ लगा है।

यजुर्वेद में मणिकार और सुवर्णकार जैसे कला पारंगतों का जिक्र है। यानी स्पष्ट है कि उस समय भी आभूषण हमारे जीवन का हिस्सा थे और इसके कलापारखी भी थे और इनको निर्मित करने वाले हुनरमंद भी। ऋग्वेद में दुन्दुभि, वेणु यानी बांसुरी और वीणा का उल्लेख है। जिसमें कहा गया है कि उषा चमकीले वस्त्र धाारण कर प्राची दिशा में नर्तकी के समान दिखाई देती है। यजुर्वेद के 30/21 वें सूक्त में वंशनर्तिन यानी बांस पर नाचने वालों का उल्लेख है।

आज शायद ही कोई नौजवान इस सत्य को ठुकरा सके। पतंजलि का योग जब पश्चिम देशों से गुजरकर योगा में रूपान्तरित हुआ तो हमने उसे गले लगा लिया। शायद ही कोई नौजवान हो जिसे यह पता हो कि पतंजलि ने योग पर अपनी किताब लिखी थी। हम लोग अपने बच्चों को वैदिक गणित पढ़ाने की शुरूआत करते हैं, तो अतीतजीवी ठहराते हुए दकियानूस करार दिया जाता है।

हमने आहार-विहार के जो सिद्धांत बनाए थे, वह लंबे समय के अनुभव के बाद तैयार किए गए थे। हमने जिस दिनचर्या का चयन किया था, वह पीढ़ियों के अनुभव के बाद निर्मित हुई थी। अपनी वनस्पतियों से हमने जिन दवाओं का निर्माण किया वह पश्चिम की तरह सुअर और खरगोश पर प्रयोग नहीं की गईं। बाकायदा हमारे पुरखों ने उसे परखा और जांचा था। उसके यश-अपयश के हिस्सेदार बने थे।

वेद-उपनिषद आदि में यत्र-तत्र प्राणियों की उत्पत्ति आदि के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा गया है। चरक, सुश्रुत, प्रशस्तपाद, उमास्वाती के ग्रंथों तथा पौराणिक साहित्य में प्रत्यक्ष रूप से इस ज्ञान को विस्तारित किया गया है। सुश्रुत ने बहुत पहले ही प्राणियों के चार विभाग जरायज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज कर दिए थे। इतना ही नहीं, हमारे मनीषियों ने प्रकृति में भी जीवन-शक्ति का संचार माना था। वनस्पतियों के जीवन, मरण, निद्रा, जागृति, रुग्णता पर विशेष प्रकाश डाला है।

देखा जाए तो शायद ही विज्ञान, कला, साहित्य, समाज, अंतरिक्ष, अर्थ, सौंदर्य, प्रेम, सेक्स का कोई भी ऐसा क्षेत्र हो जिसके मान्य, प्रचलित और लंबे समय तक ‘टेस्टेड’ सिद्धांत हमारे यहां न हों। बावजूद इसके बहुत से लोग पश्चिम की नकल करते हुए उन पर इतरा रहे हैं। जबकि इन विधाओं का पश्चिम में अस्तित्व ही नहीं था। यदि ये विधाएं पश्चिम से आयीं भी तो उसकी जडे़ं भारतीय वांङ्मय, समाज और इतिहास में कहीं न कहीं मिलती हैं। लेकिन इस सच से पीढ़ियों को दूर रखने की कोशिश जारी है। इसकी वजह भी भारतीय शासनतंत्र में तलाशी जा सकती है। वैदिक काल से लेकर ईसा के बाद के पहले हजार साल तक संस्कृत भाषा में ज्ञान का हस्तांतरण एक से दूसरी पीढ़ी में आसानी से होता रहा। इससे पुरानी स्थापनाओं पर नए सिद्धांत और विचारों की श्रृंखला बनी रही। शास्त्रार्थ की पद्यति भी ज्ञान के नए निकष गढ़ती रही। लेकिन मुगल और अंग्रेजों के शासन काल में ज्ञान की प्रवाह गंगा बाधित होने लगी। अंग्रेजों ने साजिशन भारतीयों के ज्ञानकोष को खारिज किया। लिहाजा महज दो सौ सालों में भारतीय समाज पश्चिमोन्मुखी हो गया।

अब भारतीयों को भी सारा ज्ञान और विज्ञान वही प्रामाणिक महसूस होता है, जो पाश्चात्य देशांे से चलकर आया हो। भारतीय मनीषियों ने ज्ञान गंगा की धारा को अजस्र प्रवाहित करने के लिए समाज को चार आश्रमों में बांटा था। ब्रह्मचर्य आश्रम के दौरान नई पीढ़ी एक लंबा समय ज्ञान-विज्ञान की खोज में व्यतीत करती रही है। पिछले 1000 साल में यह व्यवस्था भी टूटी और ज्ञान-विज्ञान का वह सिलसिला भी। ऐसे में जरूरत है हमें अपने परंपरागत ज्ञान विज्ञान को अपनाने और उस पर अमल करने की, तभी हम भारत और भारतीयता को विश्वस्तर पर पुनः स्थापित कर सकेंगे! ज्ञान गंगा की जो धारा टूटी है, उसे अविरल बहने देना होगा।
Dr. Yogesh mishr

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