×

मुरझाया खिलता कमल, ठहरी साइकिल ने रफ्तार पकड़ी

Dr. Yogesh mishr
Published on: 18 Sept 2014 11:56 AM IST
आस्ट्रेलिया में जंगली सुअर का शिकार करने के लिए बूमरैंग नाम का एक हथियार इस्तेमाल किया जाता है। इस हथियार की विशेषता यह होती है कि अगर यह निशाने पर नहीं लगा तो वापस लौट कर चलाने वाले को घायल करता है। कमोबेश कुछ ऐसी ही स्थिति वर्ष 2014 उपचुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ घटी। भाजपा ने हिंदुत्व का जो कार्ड खेला वह कामयाब नहीं हुआ। नतीजतन, बूमरैंग के इस्तेमाल की घटना की पुनरावृत्ति हो गयी सिर्फ तीन सवा तीन महीनों में ही अच्छे दिन आने, फीलगुड के एहसास और मोदी मैजिक सरीखे तमाम जुमले बेमानी हो गये। अपने ही शक्ति केंद्र कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा की सारी रणनीति को अखाडे़ में अपनी सधे दांवों के चलते सियासी पहलवान मुलायम ने इस कदर चित किया कि अब भाजपा के सामने अखिलेश यादव सरकार पर हमले का नैतिक आधार ही क्षीण पड़ गया।

वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा के जादुई तिलस्म में भी जिन सीटों को भाजपा झटकने में कामयाब हुई थी, लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी मैजिक के चलते एक को छोड़कर जिन सीटों पर भाजपा ने लाख पचास हजार से अपनी जीत दर्ज करायी थी, वह सीटें भी मुट्ठी में रेत की तरह उसके हाथ से फिसल गयीं। हद तो यह है कि प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस की रोहनिया सीट भाजपा के मित्र दल के प्रत्याशी को लोकसभा की तुलना में एक लाख वोट कम मिले, बल्कि साथ ही पराजय का भी दंश झेलना पडा है। यह इसलिये बेहद शर्मनाक है क्योंकि मोदी के अभेद्य समझे जाने वाले बनारसी दुर्ग में भी सेंध लग गयी। वह भी तब जब मोदी बनारस के घाटों से लेकर गंगा तक के लिये लगातार ट्वीट से लेकर योजनायें ला रहे हैं। वह भी तब जब मोदी बनारस में मिनी पीएमओ की बात कर रहे हंै। वह भी तब जब नरेन्द्र मोदी बनारस को क्योटो की तर्ज पर स्मार्ट सिटी बनाने की योजना ला रहे हैं। वहीं इसके ठीक उलट मैनपुरी में मुलायम ने बिना कुछ खास विकास कराये अपने पोते को खुद से एक लाख ज्यादा वोट दिलाकर यह साबित कर दिया कि चुनावी चालों में अब भी यूपी में उनका कोई सानी नहीं है। इतना ही नहीं, इन नतीजों के बाद विधानसभा में उनकी पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार और ज्यादा मजबूत हुई है।

उत्तर प्रदेश की सियासी तासीर में एक खास बात यह भी है कि यहां के लोग जितनी तेजी से किसी विचारधारा से जुड़ते हंै, उतनी ही जल्दी उनमें मोहभंग की स्थिति भी आ जाती है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, वीपी सिंह, चंद्रशेखर का उत्थान और पराभव उसी तरफ इशारा करता है।

राजनीति में इशारों का बहुत महत्व है। राजनीति के इशारे समझना और इशारों की राजनीति का मतलब निकालना ही किसी भी सियासतदां की जीत-हार तय कर सकता है, यह सियासी विचारधारा का सही रास्ता और उसकी लम्बाई तय कर सकता है। अगर यह उत्तर प्रदेश का सियासी सच है, तो उत्तर प्रदेश की सियासत में एक बार फिर नये संकेत मिल रहे हैं। विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे उन संकेतों की पहली बानगी हो सकते हैं।

उत्तर प्रदेश में सपा ने भाजपा से 8 सीटें छीन ली हैं। इसमें से सिराथू तो ऐसी सीट है, जो पिछले 5 विधानसभा चुनाव में कभी भी समाजवादी पार्टी के पास नहीं रही है। उत्तर प्रदेश के उपचुनाव के नतीजे सपा के लिये संजीवनी हंै, तो भाजपा के लिये खतरे की घंटी।

दरअसल, भाजपा के लिए इन नतीजों ने कई बडे संकेत दिये है। सबसे पहला यह कि भाजपा की पुरानी बीमारी यानी गुटबाजी और व्यक्तिगत अहम का टकराव एक बार फिर पार्टी में लौट आया है। मुरादाबाद से लेकर निघासन तक के प्रत्याशियों ने हार के बाद शिकायत की कि उनकी हार में सांसद बन चुके नेताओं का हाथ है। चाहे सर्वेश सिंह को लेकर दबे जुबान आवाज उठी हो या फिर निघासन में प्रत्याशी ने खुल कर आरोप लगाया कि उसकी हार में उनकी ही पार्टी के सांसद अजय मिश्रा टेनी का हाथ है। आरोप-प्रत्यारोप तो एक तरफ लेकिन इस सच्चाई से कोई इनकार नहीं कर सकता कि लोकसभा चुनाव में मोदी की आंधी ने जिस गुटबाजी और अहम के टकराव की बीमारी को उडा दिया था। महज तीन महीने में वो एकजुटता काफूर हो गयी। ये आम तौर पर देखा गया कि सांसद अपने क्षेत्रों और वहां लड़ रहे प्रत्याशियों से लगातार दूरी बनाये रहे। अगर किसी तरह चुनाव में उनका दखल था भी तो महज रस्मी तौर से ज्यादा कुछ नहीं। कुछ जगहो में तो इस तरह की बात भी सामने आयी कि सासंदों ने अपने खास लोगों को चुनाव से दूरी बनाकर रखने की हिदायत दी थी। ऐसे में दिल्ली के बाद लखनऊ फतेह का सपना और यूपी के विधानसभा चुनाव 2017 में मिशन 225 प्लस का नारा महज नारा और दिवास्वप्न ना रह जाय इसके लिये इस पुरानी पर खतरनाक भाजपाई बीमारी का इलाज पार्टी के कर्ताधर्ताओं को सोचना होगा।

उत्तर प्रदेश में गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर बन चुके सांसद महंत योगी को उपचुनाव में ‘पोस्टरब्वाय’ बनाकर पेश किया गया। योगी की कट्टर हिंदूवादी छवि को मोदी का यूपी में प्रतिरुप मानकर पेश किया गया था। योगी की छवि को ताकत देने के लिये कट्टर मुद्दों को हवा में खूब उछाला गया। लव जेहाद के शब्द गढ उन्हें बाकयदा कार्यसमिति तक में जगह दी गयी। उसे लेकर माहौल बनाया गया ऐसे में योगी आदित्यनाथ को यूपी में मोदी के प्रतिरुप के तौर पर ‘पोस्टरब्वाय’ बनाने की रणनीति पर फिर से विचार करना होगा। कम से कम उपचुनाव के नतीजे तो इसी तरफ इशारा कर रहे हैं। योगी आदित्यनाथ ने इस पर सफाई भी पेश की। कहा, ‘जहां जहां वो गये वहां पार्टी जीती।’ पर ये तर्क तब समझ से परे है, जब पूरे उपचुनाव योगी के ही नेतृत्व में लडने की कवायद की गयी हो। क्या ‘पोस्टरब्वाय’ या फिर नेता का हर जगह पर जाना जरुरी है। ऐसे 403 विधानसभा का जब 2017 में चुनाव होगा तो योगी को हर विधानसभा में जाकर अपनी हाजिरी देनी होगी। अगर योगी हाजिरी ना दे पाये तो क्या नतीजे उप चुनाव के जैसे होंगे।

योगी को पोस्टर ब्वाय बनाकर चुनाव के मैदान में उतारना भाजपा के हिंदू धु्रवीकरण का हिस्सा था। योगी की कट्टर छवि के साथ उनकी जाति भी भाजपा के चुनावी हसरतों के लिये मुफीद मानी जा रही था। चुनाव के परिणामों ने इस आधारभूत सोच को भी झटका दिया है। अगर हिंदू ध्रुवीकरण की बात की जाय तो यूपी के उपचुनाव लोकसभा चुनाव का विस्तार माने जा सकते है। ऐसे में हिंदू वोटों का एक साथ आकर जिताने की रणनीति को भी धक्का इन नतीजों ने दिया है। लव जेहाद जैसे शब्द और उनके अनुप्रयोग सिर्फ सियासी ना होकर सामाजिक होते जा रहे थे। भाजपा नेताओं की हरसतें और उनकी करतूत तो इस तरफ इशारा कर रही है कि वो एक ऐसा कॅाडर बनाने की जुगत में हैं कि जो धर्म और धर्मरक्षा के नाम पर भाजपा का वोटर हमेशा के लिये बन जाय। ऐसे में नतीजे यह भी साफ कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश की जनता ने विकास की राजनीति को राजनीति के सांप्रदायिकीकरण से बेहतर माना है।

दरअसल, शायद भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश के नेता अपने ही मिले जनादेश को ठीक से पढ़ नहीं सके। उत्तर प्रदेश की 73 सीटें उन्हें सिर्फ बांटने नहीं, आगे ले जाने की उम्मीद वाली राजनीति के चलते मिली थीं। उन्होंने अपने सबसे बडे़ नेता के लोकसभा चुनाव प्रचार के भाषणों को भी ठीक से नहीं सुना था। मोदी की छवि भले ही कट्टर हिंदुत्व की हो पर उन्होंने भाषण में कहीं इसका जमकर प्रयोग नहीं किया। लोकसभा की रैलियों में हमेशा अपने भाषण को सुशासन और कांग्रेस और राज्य सरकारों के भ्रष्टाचारों तक सीमित रखा। ये भी उम्मीद जगाई कि भाजपा की सरकार में स्थिति को बदल दिया जायेगा। यूपी के नेताओं ने सिर्फ कट्टर छवि पर ध्यान दिया उस बात पर नहीं कि मोदी ने किस तरह से लोगों की नब्ज पकड़ी कि वे अब 90 की दशक राजनीति से 25 साल आगे विकास की बात पर ज्यादा ध्यान देते है। शायद अब इस दिशा में सोचने की जरुरत साफ दिख रही है।

उत्तर प्रदेश की 13 सीटों के उपचुनाव की एक खासियत यह थी कि यह पूरब से पश्चिम तक फैली थी। इसमें बुंदेलखंड के इलाके भी थे। ऐसे में नतीजे भाजपा के लिये एक और चिंता के संकेत दे रहे हैं। क्या उत्तर प्रदेश की भाजपा में एक भी ऐसा नेता नहीं जिसे पूरे प्रदेश में नेता के तौर पर स्वीकार किया जा सके? स्वीकार्यता के मोर्चे पर भाजपा इस उपचुनाव में एक प्रयोग कर सकती थी। योगी के तौर पर देर से प्रयोग किया भी जो कि असफल रहा। वर्ष 2017 में कौन सा चेहरा पूरे प्रदेश में पार्टी को जिता सकेगा?

प्रदेश में इस बार का उपचुनाव एक और लिहाज से खास था। इस बार उत्तर प्रदेश के सबसे बडे विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी ने चुनाव में अपने उम्मीदवार नहीं उतारे थे। लिहाजा भाजपा को उम्मीद थी कि दलित वोट उसकी झोली में गिर जायेंगे। लोकसभा चुनाव के नतीजे भी इसी तरफ इशारा कर रहे थे पर सियासी धरातल कुछ ऐसा निकला कि मायावती के भी अब होश फाख्ता हो गये होंगे। कल तक अपने वोटों को ट्रांसफर कराने की शक्ति के चलते लोकतंत्र का चमत्कार कही जाने वाली मायावती के वोट लोकसभा और इन उपचुनावों में दूसरे दलों की ओर मुखातिब हुए। यह कुछ उसी कहावत से समझा जा सकता है कि दुख इस बात का नहीं कि बिल्ली ने छींका तोडा, दुख इस बात का है कि उसने ठिकाना देख लिया। इन उपचुनावो ने कांग्रेस के लिये यह संदेश दिया है कि उत्तर प्रदेश में उसे अपनी वापसी के लिये किसी न किसी दल से समझौता करके ही चुनाव लड़ना होगा क्योंकि विज्ञान का फार्मूला है कि छोटा पिंड हमेशा बडे पिंड से ऊर्जा का अवशोषण करता है। सूबे में सपा और बसपा के अभ्युदय से लेकर सत्ता में पहुंचने तक की कहानी इस फार्मूले को सही साबित करती है।
उत्तर प्रदेश में अगर मोदी के फार्मूले की भाषा में बात करें तो भाजपा को ‘थ्री-बी’ वोटों ने हरा दिया। ‘थ्री-बी’ यानी ब्राह्मण बनिया और बहुजन। उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में भाजपा का परंपरागत ब्राह्मण बनिया वोट घरों से निकला ही नहीं। कम वोटिंग इसी तरफ इशारा किया वहीं बहुजन यानी बसपा का काडर वोट भी अपनी पार्टी के चुनाव में न होने से इस बार विकल्प के तौर पर भाजपा को चुनने से परहेज करता दिखा।

उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा को कई और चीजें सोचने पर मजबूर किया है। 11 सांसद अपने लोगों के लिये टिकट मांग रहे थे, उन्हें टिकट नहीं दिया गया तो नतीजों ने लहर मोदी पर ही ब्रेक लगा दिया। ऐसे में क्या नेतृत्व को इस रवायत को जल्द से जल्द खत्म नहीं करना होगा? वहीं क्या ऐसी चूक हो गयी कि पार्टी का कोई बड़ा नेता इस चुनाव में अपने अपने क्षेत्रों से दूर रहा या रस्म अदायगी तक ही जुडा जैसे चरखारी में उमा भारती, लखनऊ में कलराज और राजनाथ या फिर मनोज सिन्हा संजीव बालियान या कोई और।

मोदी से लेकर भाजपा के थिंकटैंक के लिये जहां उत्तर प्रदेश के उपचुनाव कई बडे सवाल खडे़ कर रहे हैं, वहीं उपचुनावों के नतीजे इशारा कर रहे हैं कि सियासी अखाडे़ के दिग्गज पहलवान मुलायम की चतुर सुजान चालों से भाजपा चित हो गयी है। मुलायम को यंू ही सियासत का सबसे बडा पहलवान नहीं कहा जाता। मुलायम ने साबित कर दिया कि वे लोकसभा की हार को पीछे छोड़ आगे निकल चुके हैं। यह बात और है कि सपा का विस्तार लोकसभा के अंदर सिमटता जा रहा है और लोकसभा में पार्टी के जिताऊ चेहरे अब परिवार के बाहर नहीं मिलते। लोकसभा से ठीक उलट मुलायम के सियासी शागिर्दों ने मोदी के पहलवानों को चुनावी अखाडे की धूल चटा दी।

भाजपा विधानसभा में सिमट गयी। अंकों के लिहाज से, और सरकार पर किये जाने वाले वार की धार के लिहाज से भी। नतीजों से पहले भाजपा उपचुनाव में सभी 11 सीटें जीतने का दावा कर रही थी। अगर ऐसा होता तो भाजपा की सियासी तलवार की धार नतीजों की सान पर और तेज हो जाती। भाजपा मध्यावधि चुनाव को लेकर अपने हमले को इस कदर तेज कर देती कि अखिलेश लगातार इसका तोड़ खोजते रहते। हुआ इसका ठीक उलट। अब अखिलेश यादव को आने वाले ढाई साल विपक्ष के हमलों की चोट पता नहीं चलेगी। वे हर हमले को उपचुनाव के नतीजों की कसौटी पर कस कर निकलने की कोशिश करेंगे। अखिलेश यादव ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में इसे साफ भी किया है। उनके मुताबिक लोगों ने कट्टरता की जगह विकास को वोट दिया। वहीं पार्टी के मुस्लिम चेहरे और कद्दावर नेता आजम खान ने नतीजे आते ही एकीकृत विपक्ष की नयी सियासत का इशारा किया है। जाहिर है इसमें बिहार की तर्ज पर मायावती तो शामिल नहीं होंगी पर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, पीस पार्टी, इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल जैसे दलों को एक कर मुस्लिम वोटों के बिखराव को रोक कर सियासत की कोशिश की जा सकती है। यही नहीं, इसमें कई दलों को शामिल कर भाजपा के विस्तार को यूपी में विराम दिया जा सकता है।

उपचुनाव के नतीजे साफ करते हैं कि उत्तर प्रदेश में अब सियासत ने एक बार फिर करवट ली है। ये महत्वपूर्ण संकेत हैं। इन संकेतों को जो समझेगा वह वर्ष 2017 में विरोधियों को चित करेगा। अखिलेश यादव और उनकी पार्टी की वापसी ने उनके लिये सरकार चलाने में राह को और आसान कर दिया है। अगर अखिलेश इन संकेतों को पकड़ लेते हैं तो अगले विधानसभा चुनाव की दुश्वारियां कम होंगी। यह बात और है कि उपचुनाव, लोकसभा चुनाव और विधानसभा के चुनावों की तासीर अलग होती है। पर यह तो तय है कि इस उप चुनाव में भाजपा की गाड़ी पर ब्रेक लगायी और साइकिल की रफ्तार को तेजी दे दी है।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

Next Story