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साजिश का सम्मन
अमरीका और नरेंद्र दामोदर मोदी का रिश्ता विषमताओं से भरा है। नरेंद्र मोदी वर्ष 2005 में अमरीका जाने वाले थे, अचानक अमरीका ने उनको वीजा देने से मना कर दिया। नतीजतन, दस साल तक नरेन्द्र नरेंद्र मोदी ने अमरीका की ओर रुख नहीं किया। फिर समय का फेर देखिए कि नरेंद्र नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से ऐन पहले ही दुनिया की सबसे बडी ताकत समझे जाने वाले अमेरिका ने अपनी राजनयिक नैंसी पावेल को सिर्फ इसलिए हटा दिया क्योंकि उसने नरेंद्र मोदी के बारे में सही जानकारी, उन्हें मिलने वाले अगाध जनसमर्थन और उनके प्रचंड बहुमत का अनुमान लगाने में कामयाब नहीं हो सकी थीं। नरेंद्र नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले से ही अमरीका के कई प्रतिनिधिमंडल नरेंद्र मोदी के राजनैतिक उत्कर्ष के समय से गांधीनगर से दिल्ली के चक्कर लगाते रहे। हांलांकि नरेंद्र मोदी को लेकर पहले के अमरीकी नजरिये से शायद ही कोई अपरिचित हो। गोधरा और गुजरात दंगों को लेकर नरेंद्र मोदी अमरीका के निशाने पर रहे हैं। इसी के मद्देनजर अमेरिका ने उन्हें वीजा देने से मना कर दिया था। लेकिन जब नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत से भारत के प्रधानमंत्री बने तो दुनिया भर ने मोदी के बारे में अपने नजरिये में बदलाव किया। इसी बदलाव की कड़ी में अमरीका ने भी इसी साल जुलाई महीने में अमरीका की सरकार ने पहली बार अपनी सालाना अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट में 2002 के गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी से संबंधित सभी अंश हटा दिए।
लेकिन वीजा नहीं देने के तकरीबन 10 साल बाद जब नरेंद्र मोदी उम्मीद भरे अमरीका पहुंचे तो किसी राजनयिक से पहले उनका स्वागत एक सम्मन ने किया। न्यूयॉर्क की एक फेडरल कोर्ट ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ वर्ष 2002 में हुए गोधरा दंगों में मुसलमान विरोधी भावनाएं भड़काने में उनकी भूमिका की वजह से जारी किया है। यह सम्मन अमेरिकन जस्टिस सेंटर (एजेसी) और दंगों में बचे दो लोगों की तरफ से दायर अभियोग के मद्देनजर जारी किया गया है। यह एजेसी एक मनावाधिकार संगठन है।
नरेंद्र मोदी से एलियन टॉर्ट क्लेम्स एक्ट (एटीसीए) और टॉर्चर विक्टिम प्रोटेक्शन एक्ट (टीवीपीए) के आधार पर जवाब मांगा गया है। गुरुपटवंत सिंह पानून, जिनकी फर्म की ओर से इस मुद्दे को उठाया गया है, उन्होंने भारतीय समाचार पत्र ‘द हिंदू’ को एक ई-मेल कर जानकारी दी है कि फेडरल कोर्ट ऑफ सदर्न डिस्ट्री कोर्ट ऑफ न्यूयॉर्क को सम्मन मिलने के 21 दिनों के अंदर नरेंद्र नरेंद्र मोदी की ओर से जवाब चाहिए।
अमेरिकन जस्टिस सेंटर (एजेसी) और दो दंगा पीड़ितों की ओर से दाखिल 28 पेज की शिकायत में क्षतिपूर्ति और दंडात्मक कार्रवाई की मांग की गयी है। इस 28 पेज की शिकायत में नरेंद्र मोदी पर मानवता के खिलाफ अपराध, हत्याएं और पीड़ितों ज्यादातर मुस्लिमों को प्रताड़ित करने और उन्हें मानसिक व शारीरिक आघात पहुंचाने के आरोप हैं। अगर कानून की बात की जाय तो अमरीकी कानून के तहत नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुकदमा एलियन टॉर्ट क्लेम्स एक्ट (एटीसीए) और टॉर्चर विक्टिम प्रोटेक्शन एक्ट के तहत दायर हुआ है। वर्ष 1789 में अमेरिकी संघीय कानून एटीसीए अपनाया गया था। यह कानून संघीय अदालतों को अमेरिका के बाहर किए गए अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन के खिलाफ अमेरिकी नागरिकों द्वारा दायर मामलों की सुनवाई का अधिकार देता है।
अब इस मुकदमे और इसके सम्मन के समय को लेकर कई तरह के ऐसे सवाल खडे होते हैं जो एक ओर नरेंद्र मोदी के अमेरिकी यात्रा के खुशगवार पलों को चुरा सकते हैं, दूसरी ओर उनके स्वागत में पलक पांवडे बिछाने वाले अमेरिकी नीयत की तरफ भी इशारा कर रहे हैं। हमेशा से अपने देश में नियति के साथ नीयत का भी सवाल उठता है। ऐसे में अमरीकी संघीय अदालत के इस सम्मन की नीयत को लेकर भी सवाल उठने लाजमी है। नरेंद्र मोदी को महत्व देकर बुलाया गया। नरेंद्र मोदी ने अपनी पांच दिन के अमेरिकी दौरे में संयुक्त राष्ट्र में उद्बोधन से लेकर अमरीकी राष्ट्रपति से मुलाकात तक की। ऐसे में सवाल उठता है कि कहीं इस समय यह सम्मन सिर्फ अमरीकी मिथ्या सत्तामक श्रेष्ठता का परिचायक तो नही है। अमरीका में आये किसी राष्ट्राध्यक्ष के साथ यह सुलूक, वह भी तब जब अमरीकी सरकार ने खुद नरेंद्र मोदी का नाम अपनी रिपोर्ट से हटा लिया हो। अब सवाल यह भी उठता है कि क्या अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ ऐसा सुलूक अमरीका को उतना ही न्यायप्रिय लगता। अमरीका ने आतंकवाद उन्मूलन के नाम पर अफगानिस्तान से लेकर इराक तक बम बरसाए। ईरान से लेकर इराक तक की तलाशी ली। जैविक हथियार के नाम पर इराक पर हमले किये, कुछ नहीं मिला तो सिर्फ ‘सॉरी’ बोलकर मामला रफा दफा कर दिया। पश्चिम एशियाई नागरिको की मौत को मानवाधिकार के चश्मे से ना देखकर आतंकवाद उन्मूलन के नारे के तौर पर देखा गया। यानी दुनिया भर में की गयी अमरीकी कार्रवाई जायज और जिस मामले में देश की सर्वोच्च अदालत नरेंद्र मोदी को ‘क्लीनचिट’ दे चुकी है, उस मुद्दे पर भी मुकदमा चलाने की छूट किस तरह से दी जा सकती है ?
रामचरित मानस में एक चैपाई है- ‘समरथ कोउ नहीं दोष गोसँाई’ अमरीका पर यह लाइन एकदम फिट बैठती है। अमरीका अपनी बनायी एक मिथ्या लालसा में जीता दिख रहा है। एशियाई देशों के नेताओं से इस तरह के सुलूक की यह पहली घटना नहीं है। अमरीका और उसकी ख्यातिलब्ध हार्वर्ड यूनीवर्सिटी ने इससे पहले उत्तर प्रदेष के एक प्रतिनिधि मंडल को बाकयदा न्यौता दिया। कुंभ की सफलता से ओतप्रोत दिख रहे विश्वविद्यालय ने इस दुनिया के सबसे बडे मैनेजमेंट को समझने और सीखने के लिये बुलाया। इस प्रतिनिधिमंडल के अहम सदस्य और उत्तर प्रदेष के नगर विकास मंत्री आजम खान से बोस्टन हवाई अड्डे पर बदसलूकी की गयी। वो लौट आये राजनयिक तौर पर हो हल्ला हुआ।
दो साल पहले सिख दंगों को लेकर 02 से 09 सितंबर के बीच भारत की तत्कालीन सरकार चला रही यूपीए गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी को उस समय सम्मन जारी किया गया था, जब वह अमेरिका दौर पर थीं। अमेरिका की ब्रूकलिन कोर्ट ने इस सम्मन को जारी किया था। सोनिया ने कोर्ट को बताया कि 02 से 09 सितंबर 2013 को वे अमेरिका में थी ही नहीं। इसकी पुष्टि करने के लिए कोर्ट ने सोनिया के पासपोर्ट की प्रति तक मांगी थी। बाद में ब्रुकलिन कोर्ट ने इस मामले को खारिज कर दिया। सिख दंगों पर जारी इस सम्मन में सोनिया के खिलाफ सिख फॉर जस्टिस (एसएफजे) संगठन की याचिका पर मानवाधिकार उल्लंघन का मामला दर्ज किया गया था। एसएफजे ने सोनिया पर सिख विरोधी दंगों में कथित तौर पर शामिल कमलनाथ, सज्जन कुमार व जगदीश टाइटलर जैसे कांग्रेस नेताओं को बचाने का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ क्षतिपूर्ति और दंडात्मक कार्रवाई करने का अनुरोध किया था। जब सोनिया गांधी ने अमेरिकी अदालत को यह कहा कि वह तो अमरीका में थी ही नहीं, तब एसएफजे ने दावा किया कि सोनिया को उस साल नौ सितंबर को न्यूयॉर्क स्थित मेमोरियल स्लोन-केटरिंग कैंसर सेंटर अस्पताल में सम्मन जारी किया था। इतना ही नहीं, वहां के सुरक्षा कर्मियों को भी सम्मन की जानकारी है। माना जाता है कि सोनिया उस वक्त वहां इलाज के लिए गई थीं।
इसके अलावा पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम और शाहरुख खान से लेकर कई ऐसी बड़ी हस्तियां जो अमरीका में बेइज्जत हुई हंै। नरेंद्र मोदी को जारी इस सम्मन में 21 दिन में जवाब देने को कहा गया। यानी सोनिया के मामले को देखा जाय तो साफ है कि अमरीका में सम्मन तभी जारी किये जाते है जब कोई हस्ती अमरीका दौरे पर होती है। जिससे मनमाने ढंग से तामीला दिखाकर जवाब के अभाव में किसी भी बडी हस्ती के खिलाफ आदेश पारित कराया जा सके।
ऐसा करने में कई दुराग्रह साफ दिखते हैं। जाहिर है किसी देश के प्रधानमंत्री या सोनिया जैसी कद की नेता के खिलाफ अगर कोई आदेश पारित होता है, तो भले ही मानवाधिकार का कुछ भला हो ना हो ऐसे संगठनों का जरुर भला होता है। उनकी ख्याति से लेकर प्राप्ति यानि आर्थिक प्राप्ति तक बढती है। ऐसा तब भी समझा जा सकता है, जब नरेंद्र मोदी के खिलाफ सिर्फ सम्मन जारी कराकर अमेरिकन जस्टिस सेंटर (एजेसी) के निदेशक जॉन ब्रेडली ने कहा, ‘‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ क्षति पहुंचाने का मामला दर्ज होना मानवाधिकार उल्लंघन करने वालों के लिए वैश्विक संदेश है।’’
दरअसल, अमरीकी मानवाधिकार और अदालतों के चश्मे के दो शीशे अलग-अलग हैं। एक जिससे वह अफगानिस्तान से लेकर इराक को देखता है। दूसरा वह जिससे वो भारत से लेकर दुनिया के दूसरे देशों को देखता है। भले ही वह देश अपने देश की सुरक्षा मे आतंकियों से लोहा ले, तो भी आतंकी अमरीकी संगठनों को निरीह और सेनाएं क्रूर हत्यारी दिखती हैं।
नरेंद्र मोदी के खिलाफ यह सम्मन उस मोलतोल में भी वजन डालते हैं, जिस नजरिये से अमरीकी पलडा उन वार्ताओं में भारी दिखे जिन्हें करने नरेंद्र मोदी गये। वह भी तब जब नरेंद्र मोदी चीन, जापान और रुस सब से अपना मेलजोल बढा रहे हैं। यानी अमरीका कम से कम नैतिक तौर नरेंद्र मोदी के कंधे झुकाने की चाल चल रहा है, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी।
नई दिल्ली में मुकदमे पर प्रतिक्रिया देते हुए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सरकार नरेंद्र मोदी के खिलाफ अमेरिकी अदालत द्वारा जारी हुए समन के बारे में जांच करेगी। सरकार ने सधी प्रतिक्रिया दी है पर यह जरुर है कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ सम्मन में साफ कहा गया है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 21 दिनों में जवाब नहीं दाखिल कर पाए तो कोर्ट का फैसला खुद -ब-खुद नरेंद्र मोदी के खिलाफ जाएगा। जिस नरेंद्र मोदी को उनके देश की सर्वोच्च अदालत उन्हीं मुद्दों पर क्लीन चिट दे चुकी हो, उस पर मुकदमा चलाना किस हद तक संप्रभुता का सम्मान करना है, यह पूछना भी उस अमरीका से लाजमी हो जाता है, जो हर समय लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देता है। अमरीका के विदेश मंत्री जान केरी की इसी साल भारत यात्रा से दो दिन पहले ओबामा प्रशासन ने दुनिया भर की सांप्रदायिकता पर अपनी रिपोर्ट से नरेंद्र मोदी का नाम हटा दिया था। यह माना जा रहा था कि नरेंद्र मोदी के साथ सक्रिय संबंध रखने की दिषा में यह प्रमुख अमरीकी कोशिश है। गुजरात के वर्ष 2002 के साम्प्रदायिक दंगे को लेकर अमरीका ने एक दशक तक नरेंद्र मोदी को वीजा नहीं दिया। नरेंद्र मोदी को वीजा नहीं दिए जाने को अमरीका और नई एनडीए सरकार के बीच विवाद के मुख्य बिंदु के रूप में देखा गया। लेकिन वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बड़े जनादेश के बाद भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। इसके बाद अमरीका पर दबाव बढ़ गया। ऐसे में सम्मन हो सकता है कि किसी संबंध को प्रभावित न करे पर पहले से ही अमरीका के प्रति संशय का भाव रखने वाले भारतीयों के बीच एक बार फिर अमरीका की छवि को लेकर सवाल जरुर उठे हैं। इस सम्मन के बाद यह साफ करना लाजमी हो जाता है कि अमरीकी प्रशासन को यह पता होना चाहिए कि जो कुछ भी हो रहा है, वह सही नहीं कहा जा सकता। ऐसा करने की सबसे बडी जिम्मेदारी खुद नरेंद्र मोदी की है। अमेरिका को भी यह नही भूलना चाहिए कि भारत से रिश्ते उसकी अपनी मजबूरी है। ऐसा ना होता तो अपने देश को आर्थिक मंदी के कुचक्र से निकालने के लिये राष्ट्रपति बनने के बाद खुद बराक ओबामा सबसे पहले भारत परिक्रमा करने को मजबूर ना होते।
लेकिन वीजा नहीं देने के तकरीबन 10 साल बाद जब नरेंद्र मोदी उम्मीद भरे अमरीका पहुंचे तो किसी राजनयिक से पहले उनका स्वागत एक सम्मन ने किया। न्यूयॉर्क की एक फेडरल कोर्ट ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ वर्ष 2002 में हुए गोधरा दंगों में मुसलमान विरोधी भावनाएं भड़काने में उनकी भूमिका की वजह से जारी किया है। यह सम्मन अमेरिकन जस्टिस सेंटर (एजेसी) और दंगों में बचे दो लोगों की तरफ से दायर अभियोग के मद्देनजर जारी किया गया है। यह एजेसी एक मनावाधिकार संगठन है।
नरेंद्र मोदी से एलियन टॉर्ट क्लेम्स एक्ट (एटीसीए) और टॉर्चर विक्टिम प्रोटेक्शन एक्ट (टीवीपीए) के आधार पर जवाब मांगा गया है। गुरुपटवंत सिंह पानून, जिनकी फर्म की ओर से इस मुद्दे को उठाया गया है, उन्होंने भारतीय समाचार पत्र ‘द हिंदू’ को एक ई-मेल कर जानकारी दी है कि फेडरल कोर्ट ऑफ सदर्न डिस्ट्री कोर्ट ऑफ न्यूयॉर्क को सम्मन मिलने के 21 दिनों के अंदर नरेंद्र नरेंद्र मोदी की ओर से जवाब चाहिए।
अमेरिकन जस्टिस सेंटर (एजेसी) और दो दंगा पीड़ितों की ओर से दाखिल 28 पेज की शिकायत में क्षतिपूर्ति और दंडात्मक कार्रवाई की मांग की गयी है। इस 28 पेज की शिकायत में नरेंद्र मोदी पर मानवता के खिलाफ अपराध, हत्याएं और पीड़ितों ज्यादातर मुस्लिमों को प्रताड़ित करने और उन्हें मानसिक व शारीरिक आघात पहुंचाने के आरोप हैं। अगर कानून की बात की जाय तो अमरीकी कानून के तहत नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुकदमा एलियन टॉर्ट क्लेम्स एक्ट (एटीसीए) और टॉर्चर विक्टिम प्रोटेक्शन एक्ट के तहत दायर हुआ है। वर्ष 1789 में अमेरिकी संघीय कानून एटीसीए अपनाया गया था। यह कानून संघीय अदालतों को अमेरिका के बाहर किए गए अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन के खिलाफ अमेरिकी नागरिकों द्वारा दायर मामलों की सुनवाई का अधिकार देता है।
अब इस मुकदमे और इसके सम्मन के समय को लेकर कई तरह के ऐसे सवाल खडे होते हैं जो एक ओर नरेंद्र मोदी के अमेरिकी यात्रा के खुशगवार पलों को चुरा सकते हैं, दूसरी ओर उनके स्वागत में पलक पांवडे बिछाने वाले अमेरिकी नीयत की तरफ भी इशारा कर रहे हैं। हमेशा से अपने देश में नियति के साथ नीयत का भी सवाल उठता है। ऐसे में अमरीकी संघीय अदालत के इस सम्मन की नीयत को लेकर भी सवाल उठने लाजमी है। नरेंद्र मोदी को महत्व देकर बुलाया गया। नरेंद्र मोदी ने अपनी पांच दिन के अमेरिकी दौरे में संयुक्त राष्ट्र में उद्बोधन से लेकर अमरीकी राष्ट्रपति से मुलाकात तक की। ऐसे में सवाल उठता है कि कहीं इस समय यह सम्मन सिर्फ अमरीकी मिथ्या सत्तामक श्रेष्ठता का परिचायक तो नही है। अमरीका में आये किसी राष्ट्राध्यक्ष के साथ यह सुलूक, वह भी तब जब अमरीकी सरकार ने खुद नरेंद्र मोदी का नाम अपनी रिपोर्ट से हटा लिया हो। अब सवाल यह भी उठता है कि क्या अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ ऐसा सुलूक अमरीका को उतना ही न्यायप्रिय लगता। अमरीका ने आतंकवाद उन्मूलन के नाम पर अफगानिस्तान से लेकर इराक तक बम बरसाए। ईरान से लेकर इराक तक की तलाशी ली। जैविक हथियार के नाम पर इराक पर हमले किये, कुछ नहीं मिला तो सिर्फ ‘सॉरी’ बोलकर मामला रफा दफा कर दिया। पश्चिम एशियाई नागरिको की मौत को मानवाधिकार के चश्मे से ना देखकर आतंकवाद उन्मूलन के नारे के तौर पर देखा गया। यानी दुनिया भर में की गयी अमरीकी कार्रवाई जायज और जिस मामले में देश की सर्वोच्च अदालत नरेंद्र मोदी को ‘क्लीनचिट’ दे चुकी है, उस मुद्दे पर भी मुकदमा चलाने की छूट किस तरह से दी जा सकती है ?
रामचरित मानस में एक चैपाई है- ‘समरथ कोउ नहीं दोष गोसँाई’ अमरीका पर यह लाइन एकदम फिट बैठती है। अमरीका अपनी बनायी एक मिथ्या लालसा में जीता दिख रहा है। एशियाई देशों के नेताओं से इस तरह के सुलूक की यह पहली घटना नहीं है। अमरीका और उसकी ख्यातिलब्ध हार्वर्ड यूनीवर्सिटी ने इससे पहले उत्तर प्रदेष के एक प्रतिनिधि मंडल को बाकयदा न्यौता दिया। कुंभ की सफलता से ओतप्रोत दिख रहे विश्वविद्यालय ने इस दुनिया के सबसे बडे मैनेजमेंट को समझने और सीखने के लिये बुलाया। इस प्रतिनिधिमंडल के अहम सदस्य और उत्तर प्रदेष के नगर विकास मंत्री आजम खान से बोस्टन हवाई अड्डे पर बदसलूकी की गयी। वो लौट आये राजनयिक तौर पर हो हल्ला हुआ।
दो साल पहले सिख दंगों को लेकर 02 से 09 सितंबर के बीच भारत की तत्कालीन सरकार चला रही यूपीए गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी को उस समय सम्मन जारी किया गया था, जब वह अमेरिका दौर पर थीं। अमेरिका की ब्रूकलिन कोर्ट ने इस सम्मन को जारी किया था। सोनिया ने कोर्ट को बताया कि 02 से 09 सितंबर 2013 को वे अमेरिका में थी ही नहीं। इसकी पुष्टि करने के लिए कोर्ट ने सोनिया के पासपोर्ट की प्रति तक मांगी थी। बाद में ब्रुकलिन कोर्ट ने इस मामले को खारिज कर दिया। सिख दंगों पर जारी इस सम्मन में सोनिया के खिलाफ सिख फॉर जस्टिस (एसएफजे) संगठन की याचिका पर मानवाधिकार उल्लंघन का मामला दर्ज किया गया था। एसएफजे ने सोनिया पर सिख विरोधी दंगों में कथित तौर पर शामिल कमलनाथ, सज्जन कुमार व जगदीश टाइटलर जैसे कांग्रेस नेताओं को बचाने का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ क्षतिपूर्ति और दंडात्मक कार्रवाई करने का अनुरोध किया था। जब सोनिया गांधी ने अमेरिकी अदालत को यह कहा कि वह तो अमरीका में थी ही नहीं, तब एसएफजे ने दावा किया कि सोनिया को उस साल नौ सितंबर को न्यूयॉर्क स्थित मेमोरियल स्लोन-केटरिंग कैंसर सेंटर अस्पताल में सम्मन जारी किया था। इतना ही नहीं, वहां के सुरक्षा कर्मियों को भी सम्मन की जानकारी है। माना जाता है कि सोनिया उस वक्त वहां इलाज के लिए गई थीं।
इसके अलावा पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम और शाहरुख खान से लेकर कई ऐसी बड़ी हस्तियां जो अमरीका में बेइज्जत हुई हंै। नरेंद्र मोदी को जारी इस सम्मन में 21 दिन में जवाब देने को कहा गया। यानी सोनिया के मामले को देखा जाय तो साफ है कि अमरीका में सम्मन तभी जारी किये जाते है जब कोई हस्ती अमरीका दौरे पर होती है। जिससे मनमाने ढंग से तामीला दिखाकर जवाब के अभाव में किसी भी बडी हस्ती के खिलाफ आदेश पारित कराया जा सके।
ऐसा करने में कई दुराग्रह साफ दिखते हैं। जाहिर है किसी देश के प्रधानमंत्री या सोनिया जैसी कद की नेता के खिलाफ अगर कोई आदेश पारित होता है, तो भले ही मानवाधिकार का कुछ भला हो ना हो ऐसे संगठनों का जरुर भला होता है। उनकी ख्याति से लेकर प्राप्ति यानि आर्थिक प्राप्ति तक बढती है। ऐसा तब भी समझा जा सकता है, जब नरेंद्र मोदी के खिलाफ सिर्फ सम्मन जारी कराकर अमेरिकन जस्टिस सेंटर (एजेसी) के निदेशक जॉन ब्रेडली ने कहा, ‘‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ क्षति पहुंचाने का मामला दर्ज होना मानवाधिकार उल्लंघन करने वालों के लिए वैश्विक संदेश है।’’
दरअसल, अमरीकी मानवाधिकार और अदालतों के चश्मे के दो शीशे अलग-अलग हैं। एक जिससे वह अफगानिस्तान से लेकर इराक को देखता है। दूसरा वह जिससे वो भारत से लेकर दुनिया के दूसरे देशों को देखता है। भले ही वह देश अपने देश की सुरक्षा मे आतंकियों से लोहा ले, तो भी आतंकी अमरीकी संगठनों को निरीह और सेनाएं क्रूर हत्यारी दिखती हैं।
नरेंद्र मोदी के खिलाफ यह सम्मन उस मोलतोल में भी वजन डालते हैं, जिस नजरिये से अमरीकी पलडा उन वार्ताओं में भारी दिखे जिन्हें करने नरेंद्र मोदी गये। वह भी तब जब नरेंद्र मोदी चीन, जापान और रुस सब से अपना मेलजोल बढा रहे हैं। यानी अमरीका कम से कम नैतिक तौर नरेंद्र मोदी के कंधे झुकाने की चाल चल रहा है, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी।
नई दिल्ली में मुकदमे पर प्रतिक्रिया देते हुए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सरकार नरेंद्र मोदी के खिलाफ अमेरिकी अदालत द्वारा जारी हुए समन के बारे में जांच करेगी। सरकार ने सधी प्रतिक्रिया दी है पर यह जरुर है कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ सम्मन में साफ कहा गया है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 21 दिनों में जवाब नहीं दाखिल कर पाए तो कोर्ट का फैसला खुद -ब-खुद नरेंद्र मोदी के खिलाफ जाएगा। जिस नरेंद्र मोदी को उनके देश की सर्वोच्च अदालत उन्हीं मुद्दों पर क्लीन चिट दे चुकी हो, उस पर मुकदमा चलाना किस हद तक संप्रभुता का सम्मान करना है, यह पूछना भी उस अमरीका से लाजमी हो जाता है, जो हर समय लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देता है। अमरीका के विदेश मंत्री जान केरी की इसी साल भारत यात्रा से दो दिन पहले ओबामा प्रशासन ने दुनिया भर की सांप्रदायिकता पर अपनी रिपोर्ट से नरेंद्र मोदी का नाम हटा दिया था। यह माना जा रहा था कि नरेंद्र मोदी के साथ सक्रिय संबंध रखने की दिषा में यह प्रमुख अमरीकी कोशिश है। गुजरात के वर्ष 2002 के साम्प्रदायिक दंगे को लेकर अमरीका ने एक दशक तक नरेंद्र मोदी को वीजा नहीं दिया। नरेंद्र मोदी को वीजा नहीं दिए जाने को अमरीका और नई एनडीए सरकार के बीच विवाद के मुख्य बिंदु के रूप में देखा गया। लेकिन वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बड़े जनादेश के बाद भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। इसके बाद अमरीका पर दबाव बढ़ गया। ऐसे में सम्मन हो सकता है कि किसी संबंध को प्रभावित न करे पर पहले से ही अमरीका के प्रति संशय का भाव रखने वाले भारतीयों के बीच एक बार फिर अमरीका की छवि को लेकर सवाल जरुर उठे हैं। इस सम्मन के बाद यह साफ करना लाजमी हो जाता है कि अमरीकी प्रशासन को यह पता होना चाहिए कि जो कुछ भी हो रहा है, वह सही नहीं कहा जा सकता। ऐसा करने की सबसे बडी जिम्मेदारी खुद नरेंद्र मोदी की है। अमेरिका को भी यह नही भूलना चाहिए कि भारत से रिश्ते उसकी अपनी मजबूरी है। ऐसा ना होता तो अपने देश को आर्थिक मंदी के कुचक्र से निकालने के लिये राष्ट्रपति बनने के बाद खुद बराक ओबामा सबसे पहले भारत परिक्रमा करने को मजबूर ना होते।
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