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पिछले दरवाजे से पैठ

Dr. Yogesh mishr
Published on: 13 Jan 2015 1:35 PM IST
पाकिस्तानी आतंकवादियों के बुलेट का जवाब बैलेट से देकर जम्मू कश्मीर के आवाम ने लोकतंत्र की एक नयी गाथा लिखी। उसे बिलकुल इस बात का इल्म नहीं रहा होगा कि उसकी लिखी इबारत को पढ़ने में लोकतंत्र के पंडित-पुरोधा बुरी तरह नाकामयाब होंगे। यह उनकी नाकामयाबी का ही नतीजा है कि जम्मू कश्मीर को बीते सात साल में ही दूसरी बार राष्ट्रपति शासन में सांस लेनी पडेगी। आजादी के 17 साल तक धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले इस इलाके में धारा 370 के तहत बाकी देश की तरह संविधान की धारा 356 और 357 के जरिये राष्ट्रपति शासन लागू नहीं किया जा सकता था। साल 1964 में संविधान के अनुच्छेद 356 तथा 357 इस राज्य पर लागू किये गये। इसके जरिये जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू करने का अधिकार केंद्र सरकार को मिला।

जम्मू कश्मीर में पता नहीं क्यों इतिहास खुद को बार बार दोहराता है। जम्मू कश्मीर के सियासतदां भी एक ही तरह की गलतियां दोहराने के आदी भी दिखते हंै। इसकी बानगी पिछली घटनाओं में साफ तौर पर देखी जा सकती है। जिस तरह पीपुल्स डेमोक्रेटी पार्टी (पीडीपी) और भाजपा की जिद और खुद को बड़ा साबित करने के चलते इस बार राष्ट्रपति शासन आयद करना पडा है। ठीक इसी तरह की स्थिति से 12 साल पहले वर्ष 2002 में भी जम्मू कश्मीर के लोगों को दो चार होना पड़ा था। उस समय चुनाव हार चुके नेशनल कांफ्रेंस के मुख्यमंत्री रहे फारुख अब्दुल्ला ने राज्यपाल से कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनने से इनकार कर राष्ट्रपति शासन लगाने पर मजबूर किया था। इस बार वही पैतरा उनके मुख्यमंत्री रहे बेटे उमर अब्दुल्ला ने चला है। आने वाली 19 जनवरी तक विधानसभा का कार्यकाल होने के बावजूद उन्होंने एन.एन. वोहरा से मिलकर पद पर बने रहने में असमर्थता जाहिर कर दी। जम्मू कश्मीर को फिर से राष्ट्रपति शासन के चैराहे पर खड़ा कर दिया। यह भी कश्मीर के सियातदां द्वारा इतिहास को दोहराने की गलती का ही नतीजा है कि साल 2008 में कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे गुलाम नबी आजाद के इस्तीफा देने के बाद राष्ट्रपति शासन लागू करना पडा। उस समय भी यही वोहरा राज्यपाल थे। जम्मू कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के संदेश को सही ढंग से ना पढ़ कर राजनैतिक दल एक ऐसे इतिहास को दोहरा रहे हैं जो जम्मू कश्मीर के लोगों के लिए सहज स्वीकार्य नहीं है। तभी तो साल 2002 में जिस तरह पीडीपी के नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कांग्रेस से समझौता करने के लिए अनावश्यक ढंग से तीन सप्ताह का समय लिया था इस बार कुछ ऐसी ही स्थिति है। क्योंकि जम्मू कश्मीर में 28 सीटें पाकर भले ही पीडीपी सबसे बड़ा दल हो पर 23.20 फीसदी वोट पाकर भाजपा ने मत प्रतिशत के दांव से हर सियासी पहलवान को चित कर दिया है।

भाजपा और पीडीपी के बीच सिर्फ 1.2 फीसदी वोट का ही अंतर है। भाजपा ने जम्मू संभाग की 37 सीटों में से 25 सीटों पर कब्जा किया है। पीडीपी ने घाटी की 46 सीटों में से 28 सीटों पर अपना परचम लहराया है। चार विधानसभा सीटों वाले इलाके में लद्दाख में कांग्रेस 3 सीटें झटकने में कामयाब हुई है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जम्मू और लद्दाख की तीनों सीटें झटक लीं थीं, जबकि पीडीपी को घाटी की तीनों पर जीत मिली थी। इस लिहाज से देखा जाय तो यहां की राजनीति घाटी और गैर घाटी के विभाजन का शिकार हो गया। कुछ यही वजह है कि अपने निहित स्वार्थ के चलते इस बात की बहस भी चलाई गयी कि जम्मू कश्मीर के तीन हिस्से- घाटी, जम्मू और लद्दाख कर दिए जायें। इसके पीछे लकीर पीटते हुए विकास का जुमला दोहराया गया। यह दावा करते समय निहित स्वार्थी तत्व यह भूल गए कि छोटे राज्य विकास का कोई मानदंड नहीं हो सकते। उत्तर प्रदेश से अलग होकर बना उत्तराखंड, बिहार- झारखंड और मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ इस बात की चुगली करते है। आंकडे गवाह हैं कि इन छोटे राज्यों की विकास दर अपने मातृ राज्यों की तुलना में कम है। मसलन, बिहार की विकास दर 4.9 फीसदी है जबकि झारखंड में यही आंकडा 3.6 फीसदी बैठता है। छत्तीसगढ़ की विकास दर 3.1 फीसदी है जबकि मध्यप्रदेश की विकास की रफ्तार 4.7 फीसदी है। सिर्फ उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के बीच यह आंकडा करीब आधे फीसदी से उलट जाता। उत्तर प्रदेश की विकास दर 4.1 फीसदी है जबकि उत्तराखंड की विकास दर 4.6 फीसदी है। यही नहीं, सीमावर्ती राज्य होने के नाते जम्मू-कश्मीर को सिर्फ विकास की ओट में छोटे राज्य के बहाने खंड खंड किया जाना ठीक नहीं। राजनैतिक हित साधने के लिए ये बौद्धिक जुगाली ठीक नहीं कही जा सकती।

सुरक्षा के लिहाज से जम्मू कश्मीर को अलग हैसियत हासिल है। जम्मू कश्मीर के बारे में फैसला लेते समय विदेश नीति, पाकिस्तान और चीन सरीखे पडोसी के साथ ही साथ आतंकवादियों के मंसूबों जैसे अहम कारक हैं। बावजूद इसके पीडीपी और भाजपा के बीच बन रहे रिश्तों में दरार की वजह बनी पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद की शर्तें। केंद्र सरकार को मुफ्ती तीन मसलों पर अपने दिशा निर्देश के तहत संचालित करने और नीतियां बनाने को विवश करना चाहते है। मुफ्ती मोहम्मद सईद सबसे बड़ी पार्टी होने की वजह से मुख्यमंत्री की कुर्सी अपनी बेटी महबूबा मुफ्ती के लिए झटकने के साथ वह यह भी चाहते हैं कि केंद्र अलगाव वादी संगठन हुर्रियत से बातचीत का रास्ता खोले। यही नहीं, पाकिस्तान के साथ भी संवाद पीडीपी की एक अहम शर्तो में है। यह तब है जबकि पाकिस्तानी राजदूत के सैय्यद अली शाह गिलानी और दूसरे हुर्रियत,अलगाववादियों से बातचीत की वजह से भारत ने पाकिस्तान से सचिव स्तर की वार्ता रद कर दी थी।
केंद्र को पीडीपी की शर्तें उसे संचालित करने सरीखी लग रही हैं। जम्मू कश्मीर के विकास के सवाल पर न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार कर दोनों पार्टियां किसी मुकाम तक पहुंच सकती थीं। लेकिन पाकिस्तान से संवाद, हुर्रियत से बातचीत और घाटी के मामलों में बीजेपी को खामोश रहने की शर्त किसी भी ऐसे दल को स्वीकार्य नहीं हो सकती जिसका सपना कश्मीर से कन्याकुमारी तक का हो। जिसके प्रतीक पुरुष श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने के विरोध प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तारी दी हो और फिर वहीं की जेल में रहस्यमयी स्थितियों में उनकी मौत हो गयी है। खंडित जनादेश के बीच उभरे समीकरण इस बात का साफ खुलासा कर रहे हैं कि किसी भी स्थिति में पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस हमकदम नहीं हो सकते। कांग्रेस समर्थन देने का ऐलान करने के बावजूद अकेले दम गैरभाजपा सरकार नहीं बनवा सकती है। ऐसे में पीडीपी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह जनादेश को समझते हुए सरकार बनाने की दिशा में तेज पहल करे। राष्ट्रपति शासन आयद किए जाने का ठीकरा भी उसी के सर फूटने वाला है। उसी को सबसे ज्यादा नुकसान भी होने वाला है। राष्ट्रपति शासन की स्थिति में राज्यपाल एन एन वोहरा की सरकार होगी जिसे आम तौर पर केंद्र सरकार का छाया शासन कहा जा सकता है। एक अच्छा शासन यानी सुशासन देकर भाजपा एक बार फिर घाटी के लोगों के दिलों में भी अपनी पैठ बना सकती है। क्योंकि जम्मू में भी भाजपा के विस्तार की वजह उसका हिंदुत्व अथवा भगवाधारी चेहरा नहीं है। जब भाजपा ने अमरनाथ मुक्ति आंदोलन चलाया था तब भी उसे 11 सीटें ही मिली थीं। इसके साथ ही भाजपा के बडे नेता खुद मानते हैं कि मिशन 44 प्लस का आंकडा छूने की उनकी उम्मीदों की हसरत पर धर्मांतरण और लव जेहाद जैसे मुद्दों ने पलीता लगा दिया। लोकसभा चुनाव में भाजपा को करीब 33 फीसदी वोट मिले थे इस बार के विधानसभा में ये आंकडा 9 फीसदी घट गया। यानी भाजपा समर्थकों को भी उग्र हिंदुत्व से ज्यादा विकास का मुद्दा ही भाता है। राष्ट्रपति शासन जारी रहा तो विकास की दिशा में काम करने का श्रेय केंद्र की मोदी सरकार और उनकी पार्टी भाजपा को चला जायेगा। यही नहीं, अपनी पुरानी आदत के तहत मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी पार्टी पीडीपी पिछली बार की तरह कुछ हफ्तों में फिर गठबंधन की सरकार बनाने के दिशा में आगे कदम बढाते भी हैं तो भी उनमें अपनी शर्त मनवाने की ताकत कमजोर हो चुकी रहेगी। यानी भाजपा इस समय कुछ भी ना खोने की स्थिति में है। जितनी देर होगी पीडीपी की बिग ब्रदर की हसरत और हैसियत कम होती जायेगी। इसका सबूत महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना के साथ दे चुकी है।

जम्मू कश्मीर के लोकतांत्रिक इतिहास में ताजा तरीन राष्ट्रपति शासन के अलावा अब तक पांच बार राष्ट्रपति शासन लगा है। सबसे लंबी अवधि ,पौने सात साल,का राष्ट्रपति शासन राज्यपाल जगमोहन के कार्यकाल में लगा था। जगमोहन ने विकास की इस तरह गंगा बहायी और वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड का गठन करके दर्शनार्थियों के लिए इतनी सुविधा मुहैया करा दी कि जम्मू इलाके में हिंदुत्व और विकास के इस संगम ने भाजपा की सीटों में चार गुना इजाफा किया। भाजपा ने अपना आंकडा 2 से बढाकर 8 कर लिया था। हांलांकि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे जगमोहन कांग्रेस के राज्यपाल थे, पर बाद मे उन्हें अटल बिहारी सरकार में मंत्री बनाया गया। इस चुनाव में यह तो देखने को मिला ही कि घाटी में भाजपा तकरीबन एक डेढ फीसदी वोट झटकने में कामयाब हुई। बाढ़ के समय मोदी की उपस्थिति और केंद्र सरकार की मदद ने घाटी के लोगों में मोदी के प्रति एक सहानुभूति का भाव तो जरुर भरा। राष्ट्रपति शासन के मार्फत विकास की गंगा बहाकर भाजपा इसे स्थाई करने में कामयाब हो सकती है, यह अवसर उसके हाथ लग गया है। आज के राज्यपाल एन.एन. वोहरा भी भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और कांग्रेस के ही राज्यपाल हैं। ऐसे में इस बात की उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा कि जम्मू कश्मीर जगमोहन का इतिहास दोहरा जाय। पिछली बार जम्मू संभाग विकास और हिंदुत्व की बयार में बह गया था, तो इस बार घाटी और लद्दाख इलाके में विकास और मदद की कोशिशों को इस तरह परवान चढाया जाय कि यहां के वाशिंदों के मन में भी भाजपा को लेकर उपजा संदेह दूर हो सके।


Dr. Yogesh mishr

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