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सबको सम्मति दे भगवान

Dr. Yogesh mishr
Published on: 20 Jan 2015 1:42 PM IST
प्रख्यात तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन का अपनी फेसबुक पर अपने अन्दर के लेखक के ष्मौत के पैगामष् को पोस्ट करना। डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम की फिल्म ष्मैसेंजर आॅफ गाॅडष् के विरोध में लामबन्दी। आमिर खान की फिल्म ष्पीकेष् के खिलाफ आक्रोश। मशहूुर लेखक सलमान रुश्दी के खिलाफ फतवा। उपन्यासकार तसलीमा नसरीन के खिलाफ फरमान। इस्लाम में महिलाओं की बुरी स्थिति को दर्शाने वाली फिल्म के निर्माता थियोवान गोघ की एम्सटर्डम में हत्या। कर्नाटक के एक अखबार में छपी कहानी में एक पात्र का नाम एक सम्प्रदाय के ष्धर्म गुरु के नाम पर होने को लेकर दंगाष्। शार्ली एब्दो के दस पत्रकारों को एक कार्टून बनाने की कीमत जान गंवाकर चुकाना। वर्ष 2013 में 105 और 2014 में 118 पत्रकारों का जेहादी आतंक का शिकार होना। यह चुगली करता है कि धार्मिक सहिष्णुता का हमारा दायरा कितना सिमटता जा रहा हैघ् धर्म को लेकर हमारी सोच कितनी संकुचित हैघ् धर्म के आधारभूत तत्वों . सत्यए अहिंसाए अस्तेय और मैत्री को लेकर हमारी समझ कितनी भोथरी हैघ् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कितने खतरे उठाने होंगेघ् कितनी कीमत चुकानी होगीघ् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यंग्य की प्रासंगिकता की सीमा रेखा क्या होना चाहिए घ् लेकिन दुनिया के तमाम देशों में शार्ली एब्दो के पत्रकारों को मौत की नींद सुला देने वाले आतंकियों को मारे जाने को लेकर भी अपने गुस्से का इजहार किया गयाए ऐसे लोग यह सवाल पूछ सकते हैं कि कला की कोई लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए या नहींघ् कला में संयम की चैखट जरूरी है। पर धर्म में भी तर्क अनिवार्य है। धर्म के सर्वग्राही होने के लिए सबसे जरूरी है कि वह देशए कालए परिस्थितियों के हिसाब से बदलाव को आत्मसात करने की स्थिति में रहे। वर्ष 1969 में अस्तित्व में आयी पत्रिका शार्ली एब्दो सिर्फ मुस्लिम धर्म पर ही नहीं बल्कि सभी धर्मो में पर तंज कसने के लिए जानी जाती है।

एक समय पत्रिका के एक कार्टून में ट्यालेट पेपर पर बाइबिलए टोरा और कुरआन को अंकित किया गया था। पोप जाॅन पाॅल द्वितीय के कन्डोम के बाबत दिये गये बयान पर भी इस पत्रिका ने इसाईयत को कठघरे में खड़ा किया था। फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति चाल्र्स द गाॅल पर बनाये कार्टून के नाते पत्रिका तालाबन्दी की शिकार हुई थी। आर्थिक अभाव के चलते वर्ष 1981 से वर्ष 1992 तक बंदी की मार झेलने वाली इस पत्रिका का ऐलान था कि इस्लाम से जुड़े कार्टून बनाकर वह इस धर्म को भी कैथोलिक इसाई मत की तरह उत्तेजना विहीन बनाना चाहती है। इस नजरिये से देखा जाए तो मुहम्मद साहब को लेकर बनाये गये कार्टूनों के लिए सजा का कोई प्रावधान नहीं दिखता। ईश निन्दा को लेकर धारणा बदलने के लिए चलाए जा रहे कार्टून अभियान को लेकर पत्रिका के कार्यालय पर पहले भी हमले हो चुके हैं। नवम्बर 2011 में इस पत्रिका ने ष्शरी आ अब्दोष् शीर्षक से मुहम्मद साहब के सौ कार्टून छापे थे। वर्ष 2012 में ष्इन टचेवल.2ष् के शीर्षक से भी मुहम्मद साहब को लेकर कार्टून छापे गये थे। डेनिस पत्रिका ष्जिलेण्ड्स पोस्टेनष् में 2006 में छपे कार्टूनों को पत्रिका ने दोबारा भी प्रकाशित किया था। ष्जिलेण्ड्स पोस्टेनष् में ये कार्टून कर्ट वेस्टरगाॅड ने बनाये थे। जर्मनी के चांसलर ने इस कार्टूनिस्ट को सम्मानित भी किया था। यह शायद किसी के लिए अनभिज्ञ तथ्य न हो कि इस्लाम में पैगम्बर निराकार हैं। मुहम्मद साहब को किसी चिन्हए तस्वीर या मूर्ति के जरिए दिखाने की मनाही है। यह धर्म से जुड़ा वैसा ही नियम है जैसा कि भौतिक शास्त्र में न्यूटन का नियम। फ्रांस में तकरीबन सात फीसदी मुस्लिम रहते हैं। लेकिन इस सत्य से आंख चुराकर लगातार मुहम्मद साहब के कार्टून बनाने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिहाज से उसी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकताए जिस तरह कार्टून बनाने के लिए किसी को भी सजा देने को जायज नहीं ठहराया जा सकता है। यह भी सत्य है कि कला को व्यवस्था और अवस्था पर चोट करनी चाहिएए आस्था पर नहीं। कला में सिर्फ विद्रोह ही नहींए शालीनता की भी दरकार होती है। पर धर्म में भी हिंसा की नहींए अहिंसा की अनिवार्यता होती है। जिन लोगों ने धर्म की ओट लेकर दुनिया भर में लोगों को मौत के घाट उतारने का सिलसिला चला रखा हैए उन्हें इस बात का जवाब तो देना ही होगा कि पेशावर के स्कूल में सैकड़ों बच्चों को मौत के घाट उतारने और नाइजीरिया के बोडोहरम में लोगों की हत्या करना कौन सा धर्म हैघ् इन लोगों ने तो किसी पर कोई टिप्पणी नहीं की थी। फिर इन्हें सजा क्यों दी गयीघ् यही नहींए धर्म के नाम पर जेहादए खून.खराबा और आतंकवाद को कैसे जायज ठहराया जा सकता है। यह करने वालों ने धर्म की कौन सी किताब पढ़ रखी हैघ् जब मुहम्मद साहब ने मक्का फतह किया और मक्का शहर को कूच किया तब वहां के वाशिन्दो को लगा कि वह अपने साथियों पर हुए हर जुल्म का बदला लेंगे। मगर मुहम्मद साहब ने ऐलान कर दिया कि वह यहां किसी से बदला लेने नहीं आये हैं। इस्लाम के सबसे पैगम्बर ने उन्हें भी माफ कर दिया जिन्होंने उन पर एवं उनके साथियों पर जुल्मों की इन्तहा कर दी थी। आखिर पैगम्बर साहब को मानने वाले इस संदेश से संदेश क्यों नहीं लेतेघ् तस्लीमा नसरीन का सर कलम किये जाने के लिए नेता असुद्दीन ओबैसी फतवा क्यों जारी करते हैंघ् बसपा के नेता हाजी याकूब कुरैशी पेरिस में पत्रकारों को मौत के घाट उतारने वाले शेरिफ काउसी और साद काउसी को मारने वालों के लिए इक्यावन करोड़ रुपये का ईनाम घोषित कर देते हैं। इसी याकूब कुरैशी ने डेनिस पत्रकार का सर कलम करने के लिए भी इक्यावन करोड़ रुपये का ईनाम घोषित किया था।

कभी पेन्टर मकबूल फिदा हुसैन ने हिन्दू देवी.देवताओं के नग्न चित्र उकेर दिये थे। उसका विरोध हुआ था। वर्ष 1841 में लन्दन की ष्पंचष् मैगजीन में जो पहला कार्टून प्रकाशित हुआ थाए उसमें एक शैतान को त्रिशूल के साथ चित्रित किया गया था। त्रिशूल एक हिन्दू देवता का अस्त्र है। आमिर खान ने अपनी फिल्म पीके में लापता देवी.देवताओं के जो पोस्टर गुमशुदगी की इबारत के साथ दिखाये हैं उसमें अगर एक खाली जगह छोड़कर अपने धर्म के पैगम्बर या फिर इसाई धर्म के देवता को दिखाते तो शायद फिल्म बनाने का उनका लक्ष्य पूरा होता। बावजूद इसके उनकी फिल्म का विरोध हुआ। विरोध भी ऐसा कि फिल्म आमदनी के जिस लक्ष्य को लेकर बनायी गयी थीए उसमें कामयाब हुई। फिल्म के विरोध को जायज नहीं ठहराया जा सकता है और फिल्म सभी धर्मो पर चोट कर रही हैए यह भी नहीं कहा जा सकता है। चतुर सुजान कलाकारों ने दर्शक को पता नहीं खुद सरीखा समझदार क्यों नहीं मानाघ्
तमिल साहित्यकार पेरुमल मुरुगन की गलती सिर्फ यह थी कि उन्होंने चार साल पहले अपनी एक किताब ष्माधोरुभागमष् ;वन पार्ट वूमनद्ध में कोंगू वेल्लाला गाउंडर समुदाय की एक परम्परा पर कुठाराघात किया था। कलि और पोन्ना चरित्र को सन्तान सुख के बदले प्रेम.विवाह दोनों संस्था को दांव पर लगाना पडा। किताब में प्रेम और वैवाहिक जीवन में आत्मीयता और सामाजिक दोनों को दर्शाया गया है। कोंगू वेल्लाला गाउंडर समुदाय के लोगों ने इसे अपनी महिलाओं का अपमान और धर्म के खिलाफ बताया। इसका विरोध इस तरह हुआ कि पेरुमल को अपनी अब तक की सारी किताबें बाजार से वापस लेते हुए अपने अन्दर के लेखक के मर जाने का संदेश बीते मकर संक्रान्ति के दिन पोस्ट करना पड़ा।

धर्म के आस्था के प्रतीकों से खेलना और उन्हें ठेस पहुंचाना किसी प्रोफेसन ही नहीं इन्सानियत के प्रति संवेदनहीनता ही दिखाता है। किसी नास्तिक को किसी भी देवी.देवता में आस्था न रखने की आजादी हैए तो किसी आस्तिक को देवी.देवता पूजना और अपने तर्को पर जीने की आजादी है। कोई भी कला अगर संयम की चैखट और कला की लक्ष्मण रेखा लांघती हैए तो वह कला नहीं रह जाती है। पीके होए शार्ली एब्दो हो या फिर विरोध के चलते माधोरुभागम किताब के लेखक का उसके अन्दर के साहित्यकार के मर जाने का ऐलानए यह बताता है कि धर्म का सहिष्णु होना उसके मानने वालों के व्यवहार से मापा जाता है। ऐसे में धर्म का सहिष्णु और अभिव्यक्ति का संवेदनशीलए जवाबदेह और उत्तरदायी होना ही इस यक्ष प्रश्न का उत्तर हो सकता है कि इस विवाद में उनकी परेशानियों का अन्त हो जिन्हें दोनों की सीमाओं और वजूद की फिक्र है।
Dr. Yogesh mishr

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