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कुछ तुम चलो कुछ हम चलें.......

Dr. Yogesh mishr
Published on: 29 Jan 2015 1:44 PM IST



कुछ तुम चलो, कुछ हम चले, दूरियां यों मिटाते चलें,

कुछ तुम झुको, कुछ हम झुके, अपनापन बढ़ाते चलें



ये पंक्तियां बयां करती हैं अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के हालिया भारत दौरे में मोदी और बराक ओबामा की पहली मुलाकात को। भारत आये बराक ओबामा का पहला दिन भले ही रस्मो रवायत में बीता हो पर कुछ चीजें इस बार रवायतों को धता बताती रही। ये चीजें नीतियों से लेकर नीयत तक, अंगभाषा से लेकर दोनों देशों के परंपरागत रुख में बदलाव तक साफ दिखती। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर इस मीटिंग में साफ कर दिया कि ये दो दोस्तों के बीच बातचीत है। दो समकक्षों के बीच की। कोई गैरबराबरी नहीं। राष्ट्रपति बराक ओबामा को उनके पहले नाम से बुलाना उनसे दोस्ती का जिक्र करना हो या फिर चाय बनाने से लेकर गार्डन में ‘वाक द टाक’ करने की कवायद हो।

अधिकांश विश्लेषकों ने अनुमान लगाया था कि लंबे समय तक अमरीका में प्रवेश न देने के कारण मोदी अमरीका को ठंडी प्रतिक्रिया देंगे लेकिन लोकप्रिय उम्मीदों के संदर्भ में देखें तो अमरीका-भारत संबंध कहीं उससे भी सहज गति से आगे बढ़ा है। ओबामा प्रशासन ने नए प्रधानमंत्री के साथ संबंधों को सुधारा। खोब्रागड़े मामले के स्पीडब्रेकर से संबंध आगे निकल चुके हैं। शब्दाडंबर और प्रतीकात्मक ही सही। इस दौरे के साथ प्रतीकात्मकता अधिक महत्व की है। यह पहली बार हो रहा है कि अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति दो बार भारत आए और पहली बार एक अमरीकी राष्ट्रपति गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि बने। राष्ट्रपति के पास, प्रधानमंत्री के आमंत्रण को ठुकराने के कई अच्छे कारण थे, लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार किया। ऐसा होने से वाशिंगटन की नजरों में नई दिल्ली की स्थिति ऊंची हो गई है।

प्रतीकात्मकता से परे, दोनों तरफ की उम्मीदें काफी ज्यादा हैं कि इस दौरे से कुछ ठोस प्रगति हो। पिछले सितम्बर में मोदी की वॉशिंगटन यात्रा ‘जानने समझने’ जैसी थी। इस यात्रा की मुख्य बात दोनों सरकारों के बीच अब कामकाजी रिश्ता कायम करना है। भारत के संदर्भ में ओबामा के पास चार मुख्य मुद्दे हैं- आर्थिक, रक्षा, नागरिक परमाणु सहयोग और ऊर्जा एवं जलवायु परिवर्तन. भारत के परमाणु उत्तरदायित्व कानून के कारण परमाणु सहयोग में आई रुकावट से पार पाना, कार्बन उत्सर्जन पर भारत से नया वादा लेना, भारत-अमरीका के बीच एक नया रक्षा समझौता और आर्थिक सुधारों पर नए सिरे से आश्वासन पाना ताकि उनके निवेशकों को मदद मिल सके। इनमें से दो से अधिक मुद्दों पर दोनों राष्ट्राध्यक्षों के बीच सहमति के स्वर हैदराबाद हाउस में हुई मुलाकात के बाद की प्रेस में प्रतिध्वनित होते दिखे। एक ओर जहां मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुए परमाणु करार का गतिरोध खत्म करने मे दिशा में पूरी तरह खत्म कर लिया गया तो दूसरी तरफ स्वच्छ ऊर्जा और जलवायु संकट के सवाल पर भारत ने भी अपने रुख मे बदलाव किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जलवायु संकट पर अपने बयान में साफ किया कि भारत का नजरिया या उसमें बदलाव आने वाली पीढ़ी के मद्देनजर जरुरी है, अपरिहार्य है। अमेरिका ने असैन्य परमाणु करार के मामले में यूरेनियम की ट्रैकिंग तथा परमाणु उत्तरदायित्व कानून के मुद्दे पर अपनी पहले की जिद से तौबा कर ली है। उम्मीद यह भी जताई जा रही है परमाणु उत्तरादायित्व कानून को लेकर दोनों देशों के बीच के गतिरोध को पार इन दोनों नेताओं ने चाय की चर्चा में पा लिया है।

अमेरिका को सबसे ज्यादा चिंता स्वच्छ और नवीकरण ऊर्जा के क्षेत्र में भारत की ‘मेक इन इंडिया’ नीति को लेकर है। स्वच्छ और नवीकरण ऊर्जा के क्षेत्र में अमरीका भारत से नीति परिवर्तन का वादा चाहता है। हांलांकि भारत अगर अमेरिका के अनुसार अपनी नीति में बदलाव करता है, तो सौर ऊर्जा में घरेलू निर्माताओं को भारी घाटा उठाना पड़ेगा। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी तक भारत सरकार की स्वदेशी को प्रोत्साहन की इस नीति से परेशान हैं। अमेरिका को इस बात की चिंता है कि अगर स्वदेशी सौर पैनल को भारत अनिवार्य करेगा तो उसके देश की कंपनियों को भारी घाटा होगा। इस क्षेत्र में भारत अमेरिका का सबसे बड़ा बाजार है। भारत सरकार ने 2013 में घरेलू उत्पादों को प्रोत्साहन देने के लिए नया नियम बनाया। इसके तहत सौर ऊर्जा के लिए स्वदेसी सोलर सेल और उसका मॉडयूल भारतीय होना अनिवार्य कर दिया। इसके साथ ही भारत ने सौर ऊर्जा उपकरण के लिए अमेरिकी उत्पादों पर भारी सीमा शुल्क लगा दिया।

सौर ऊर्जा तकनीक में अमेरिका को विशेषज्ञता हासिल है। भारत के निर्माता भी सौर ऊर्जा उपकरण को बनाने लगे हैं। अमेरिका ने फरवरी 2014 में विश्व व्यापार संगठन में इसकी शिकायत की। संगठन ने किसी भी विदेशी आयतित वस्तुओं के साथ भेदभाव का भारत पर आरोप लगाया। अमेरिका चाहता है कि सौर ऊर्जा नीति में भारत बदलाव करे लेकिन भारत अपने रुख पर कायम है। एक सच्चाई यह भी है कि भारत में एक भी सोलर ऊर्जा वैज्ञानिक नहीं है। भारत 400000 मेगावाट सोलर बिजली बना सकता है, ऐसे अमरीकी कंपनियों की चिंता को लेकर गंभीर की तरफ कदम बढ़े हैं।

दोनो राष्ट्राध्यक्षों की मुलाकात में भारत का बिजली संकट के करीब-करीब खत्म होने को है। रक्षा क्षेत्र में अमेरिकी निवेश के मार्ग प्रशस्त हो चुका है। साथ ही साथ जलवायु संकट पर भारत की रजामंदी ने अमेरिका को अपनी मंदी से उबरने के लिए बाजार की तलाश को खत्म कर दिया है। ओबामा कि इस यात्रा में यह बडा हासिल है। यह बात दूसरी है कि अमेरिका में इसे लेकर उस खुशी और उत्साह का इजहार नही किया गया है, जैसा भारत में किया गया है। निःसंदेह यही वजह है कि ओबामा ने बीते दिनों ‘स्टेट आफ द यूनियन स्पीच’ में ना तो भारत का जिक्र किया, ना ही इस यात्रा का। यही नहीं, आज भले ही भारत का मीडिया सिर्फ ओबामा के इर्दगिर्द घूम रहा हो पर अमेरिकी मीडिया ने यमन में आतंकवाद, सऊदी अरब के सुल्तान की मौत और आतंकी संगठन आईएसआईएस की खबरों को तरजीह देना बेहतर समझा है। अफगानिस्तान को लेकर भारत की भूमिका का अमेरीकी राष्ट्रपति द्वारा रेखांकन तथा सामुद्रिक रणनीतिक समझौते के साथ ही साथ आतंकवाद के खिलाफ एक साथ लड़ने का ऐलान यह बताता है कि इस पूरी यात्रा में मोदी ने भी अमेरीका से कम नहीं पाया है। मोदी की अंगभाषा भी यही बयां कर रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता इस यात्रा ने तकरीबन पक्की कर दी है। अमेरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का नमस्ते कहना, चाय पर चर्चा जुमले का जिक्र करना और एक सवाल के जवाब में मोदी के साथ व्यक्तिगत बातचीत व रिश्तों की पुष्टि यह बयां करता है कि सिर्फ सामरिक, कूटनीतिक और आर्थिक प्लेटफार्म पर ही भारत और अमरीका ने यात्रा की शुरुआत नहीं की है बल्कि इससे आगे भी दोनों राष्ट्राध्यक्ष दोनों देशों के आवाम को ले जाने का ताना बाना बुन चुके है। कुछ इसी प्लेटफार्म पर बने रिश्तों का ही नतीजा है कि तीन स्मार्ट सिटी इलाहाबाद, विशाखापत्तन और अजमेर को विकसित करने की अमरीकी वादे को कागज पर उतार लिया गया है। वहीं भारत के साथ अमरीका ने 10 सुरक्षा समझौतों को तकनीकी हस्तांतरण तक पहुंचा दिया है। वहीं ओबामा ने इस मीटिंग के साथ ही भारत के परमाणु उत्तरादायित्व कानून को मानने के लिये अपने देश के उद्योगपतियों की ओर से आश्वासन दे दिया है। अब तक अमेरिकी या विदेशी कंपनी ज्यादा से ज्यादा 500 करोड़ डॉलर के अलावा कुछ जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं थी । अब यह तय है कि यह राशि 1500 करोड़ की होगी और इसमें से अमरीकी कंपनियों को 750 करोड़ का भार उठाना पडेगा। यानी परमाणु ट्रैकिंग पर अमरीका नरम हुआ तो भारत ने उत्तरदायित्व कानून पर अपना रुख बदला है। यदि परमाणु उर्जा उत्पादन में गति आती है तो अगले 7-8 वर्षों के भीतर 27,080 मेगावाट क्षमता की बिजली इन संयंत्रों से उत्सर्जित होने लगेगी। मौजूदा परमाणु संयंत्रों की उर्जा क्षमता 4780 मेगावाट है। यह देश की कुल 2 लाख, 23 हजार 344 मेगावाट बिजली उत्पादन का महज 3.6 फीसदी है। गौरतलब है कि भारत को अभी भी करीब एक लाख मेगावाट अतिरिक्त बिजली की आवश्यकता है।

एक बडा मुद्दा है कि भारत अमरीका से निर्यात होने वाली शेल गैस में अपना हिस्सा सुरक्षित करना चाहता है। वर्तमान में, यह निर्यात केवल उन्हीं देशों तक सीमित है, जिनके साथ अमरीका ने मुक्त व्यापार समझौता कर रखा है और इस सूची में भारत नहीं है। भारत इससे स्थाई छूट चाहता है। भारत की इच्छित वस्तुओं में एक बड़ा मुद्दा है टोटलाइजेशन संधि। यह मामला पिछले आठ वर्षों से लटका हुआ है, इस पर नरम अमरीकी रुख भारत के लिए यह एक बड़ी सफलता होगी। भारत का तर्क है कि उसके यहां सामाजिक सुरक्षा की अपनी व्यवस्था है। मसलन, कर्मचारी भविष्य निधि और पेंशन की नई स्कीमें हैं। ऐसे में इस व्यवस्था से भारतीय कंपनियों पर दोहरी मार पड़ती है। अमेरिकी समाजिक सुरक्षा फंड में योगदान के बावजूद यह राशि भारतीय कंपनी या कर्मचारी के काम नहीं आती। अमेरिका 25 देशों- के साथ इस तरह का समझौता कर चुका है। भारत भी जर्मनी, फ्रांस, स्विटजरलैंड, नीदरलैंड, दक्षिण कोरिया सहित 16 देशों के साथ यह समझौता कर चुका है। शीर्षस्तर पर इसकी सहमति के चलते निकट भविष्य में इसके सुलझ जाने के पूरे आसार हैं। इसके अलावा भारत को अमरीका अपने प्रायोरिटी वाच लिस्ट में रख रहा है। सन् 2012 की स्पेशल 301 रिपोर्ट में भारत को प्रायोरिटी वाच लिस्ट में रखा गया है. बौद्धिक संपदा के अधिकार की रक्षा में अमरीकियों को पर्याप्त कानूनी संरक्षण और सुविधाएं न देने के कारण भारत पर दबाव डाला जा रहा है। आखिरकार आर्थिक मंदी से निकलने के लिये अमरीका को भारत जैसे विकासशील देशों के बाजार की जरूरत है. और बाजार पर बादशाहत कायम करने के लिये कड़े पेटेंट कानून की और अंततः भारत का अपने पड़ोसियों के साथ मुद्दा है. अफगानिस्तान से अमरीकी सेना की वापसी के बाद वहां अस्थिरता की आशंका को लेकर भारत चिंतित है पर ओबामा ने भारत को इस चिंता से मुक्त किया। कहा भारत की अफगानिस्तान में
बडी भूमिका होगा। आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को हाशिये पर नहीं तो कम से कम उस चेतावनी के स्तर पर भारत रखना चाहता है, जो पाकिस्तान को ओबामा दौरे के दौरान मिली है। इतना तय है कि रातों-रात कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं होने जा रहा है पर यह जरुर है कि अमरीका और भारत के संबंधों में नयी उर्जा और उत्साह का संचार करने में कामयाबी मिली है।
Dr. Yogesh mishr

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