TRENDING TAGS :
ये दिल्ली है मेरे यार
मैं दिल्ली हूं। महाभारत काल से लेकर ब्रिटीश युग तक मैंने देश के हर संघर्ष को काफी करीब से देखा है। मेरा दिल यह जानता है कि मुझ पर राज करने वाले को पहले मेरे शहर के लोगों का दिल जीतना होगा। मैंने ही जलालुद्दीन को अकबर बनाया और मैंने ही लोगों को हर धर्म के प्रति सजदा करना सिखाया। मुझे पाने की हसरत राजघरानों के प्रतापी राजाओ से शुरु हुई। आज तक जारी है। क्या राजा और क्या सियासतदां। मेरा वजूद ही सत्ता के लिए हुआ। तभी तो महाभारत काल में मैं इंद्रप्रस्थ बनी। मुझ पर कब्जे की हसरत ने ही महाभारत करवाई। पुरातात्विक प्रमाण भी मेरे इस दावे की हामी भरते हैं। यह भी साबित हो चुका है कि ईसा से दो हजार वर्ष पहले भी दिल्ली तथा उसके आस-पास मानव निवास करते थे। साबित करते हैं कि मौर्य-काल से यहाँ एक नगर का विकास होना आरंभ हुआ। दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट महाराज पृथ्वीराज चैहान के दरबारी कवि चंद बरदाई की हिंदी रचना पृथ्वीराज- रासो में तोमर राजा अनंगपाल को दिल्ली का संस्थापक बताया है। ऐसा माना जाता है कि उसने ही ‘लाल-कोट’ का निर्माण करवाया था और महरौली के गुप्त कालीन लौह-स्तंभ को दिल्ली लाया।। तोमर राजाओं ने 900-1200 ईस्वी के शासन काल में मुझे संवारा सजाया। मेरा नाम दिल्ली कैसे पड़ा यह भी दिलचस्प है। ‘दिल्ली’ या ‘दिल्लिका’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया। इस शिलालेख का समय 1170 ईं निर्धारित किया गया। कुछ कहते हैं मेरा नाम राजा ढिल्लु से सम्बन्धित है। कुछ इतिहासकारों का यह मानना है कि यह देहली का एक विकृत रूप है, जिसका हिन्दुस्तानी अर्थ है- ‘चैखट’। यह सम्भवतः सिन्धु-गंगा समभूमि के प्रवेश-द्वार होने का सूचक है। एक और अनुमान है मेरा प्रारम्भिक नाम ढिलिका था। हिन्दी.प्राकृत ढीली भी इस क्षेत्र के लिए प्रयोग किया जाता था।
मैं यानी दिल्ली सलतनत वंश के राजाओं की राजधानी बनी। खिलजियों , तुगलकों, सैयदों और लोधियों ने मेरे जरिये पूरे देश में झंडे गाडे। मैं यानी दिल्ली सात बार उजड़ी। विभिन्न स्थानों पर बसी। आधुनिक दिल्ली मे इसके अवशेष मौजूद हैं। मुगल बादशाह हुमायूँ ने सरहिंद युद्ध में अफगानों को पराजित कर बिना विरोध मुझे हासिल किया। मैं मुगलों के राजनीति की गवाह बनीं। बस बीच में हुमायूँ की मृत्यु के बाद हेमू विक्रमादित्य ने मुगल सेना को पराजित कर आगरा व मुझ पर अधिकार कर लिया। अकबर ने मुझसे मुंह मोड़ कर आगरा का रुख किया। पर उसके पोते शाहजहाँ (1628-1658) ने सत्रहवीं सदी में मुझे सातवीं बार बसाया। शाहजहाँनाबाद का नाम दिया। आजकल का पुराना शहर या पुरानी दिल्ली यही है। यही 1638 के बाद मुगल सम्राटों की राजधानी रही।
मैनें अंग्रेजों का जुल्म भी देखा है। वर्ष 1858 की आजादी की पहली लडाई भी। वर्ष 1857 के बाद दिल्ली पर ब्रिटिश शासन के हुकुमत में शासन चलने लगा। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगभग पूरे भारत को अपने कब्जे में ले लिया। इन लोगों ने कोलकाता को अपनी राजधानी बनाया। वर्ष 1911 में मुझे वापस राजधानी बनाया। पुरानी दिल्ली के दक्षिण नई दिल्ली बसायी। वजह यह, कि ब्रिटिश शासन काल के अंतिम दिनों मे पीटर महान के नेतृत्व में सोवियत रूस का प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप मे तेजी से बढ़ा अंग्रेजों को यह लगा कि भारत के धुर पूरब के कोलकाता से अफगानिस्तान एवं ईरान आदि पर सक्षम तरीके से नियंत्रण नहीं हो सकता है। यानी अब तो आप समझ गये होंगे कि मैं ही राजघरानों की महबूबा हूं और मैं ही मोहब्बत।
हर कोई मुझे जीतना चाहता है, लेकिन मैं दिल्ली हूं.. आसानी से हाथ नहीं आऊंगी। यही वजह कि मुझ पर कब्जे की इस सबसे नयी लडाई में साम,दाम,दंड,भेद सब कुछ दांव पर लगा। मेरा आकार छोटा है। मेरा संदेश काफी बडा है। गुजरात से अमरीका तक का सफर करने के लिए नरेंद्र मोदी को दिल्ली का सहारा जरुरी था। मोदी के राजसूय को रोकने की लडाई भी इस बार यहीं हस्तिनापुर में ही लडी गयी।
दिल्ली के दिलवालों के दिल में केजरीवाल की झाडू है या फिर मोदी की विकास जैसे नारे ये कसौटी भी मुझे ही तय करनी पड़ी। चुनावी नतीजे जीतने और हारने वाले दोनों को सीख दे रहे हैं। सबसे बडी सीख आपार वोटों से लोकसभा की जीत की टाइटेनिक पर सवार लहरों के राजहंस नरेंद्र मोदी को मिली है। सीख यह कि जनता हमेशा, हर बात पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं करती। जनता अगर पलक पांवडे बिछाती है तो आंख फेरने में भी देर नहीं करती। चाहे वो इंदिरा गांधी हों या नरेन्द्र मोदी। जनता भरोसा करती है तो वादे नहीं काम चाहती है। तभी तो पहले भरोसा तोडने वाले केजरीवाल से नाराज होकर दिल्ली ने लोकसभा चुनाव में उनका खाता ही नहीं खुलने दिया। वहीं मोदी को नाराजगी का पहला झटका देते हुए आइना देखने को विवश कर दिया है।
दरअसल, मोदी के लिए यह चुनाव एक प्रयोगशाला की तरह रहा। राजसूय यज्ञ के घोड़े की थमी हुई गति में कई सबक समाहित है। किरण बेदी को पैराशूट से उतारना भाजपा के उन उम्मीदवारों के लिए कुठाराघात था, जो दिल्ली सिंहासन की हसरत पाले बैठे थे। हसरतों के टूटने पर आवाज नहीं होती पर उसका असर काफी गहरा होता है। वही असर इस बार के चुनावी नतीजे में दिखा। बेहतर होता कि किरण बेदी प्रचार प्रमुख बनती। संदेश देतीं और उन्हें विधायक चुनते। वकीलों पर डंडे चलाने वाली किरण बेदी को सीधे कमान देने से वकीलों का परंपरागत वोटबैंक दिल्ली भाजपा से छिटकता दिखा। किरण बेदी को हर्षवर्धन की जगह लाने और उन्हें महत्वहीन किए जाने का दंश डाक्टरों को साल गया। यह भी भाजपा का वोट बैंक रहा है। रणनीति की हड़बड़ी-गड़बडी ने इस चुनाव में कमल के फूल को खिलने से रोक दिया। मसलन, दिल्ली पंजाबी और सिंधियों का गढ़ है। यहीं पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और डाॅ. मुरलीमनोहर जोशी की एक भी सभा न होना, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री और शहरी महिलाओं की रोड माॅडल सरीखी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का बहुत कम इस्तेमाल सबका साथ और सबका विकास नारा सिर्फ जनता नहीं अपने दल के नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए भी होना चाहिए। अगर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ताकत जम्मू में भाजपा के परचम लहरा सकती है, तो दिल्ली में भाजपा का दिल ही गुम होने पर यह मान लेना चाहिये स्वयंसेवकों को सम्मान और स्थान देने में चूक हुई है।
मोदी-अमित शाह टीम को यह भी सोचना होगा कि क्या दिल्ली चुनाव की देरी ने केजरीवाल को खडा होने का मौका दे दिया। क्योंकि खुद आम आदमी पार्टी के थिंकटैंक और नेता योगेंद्र यादव के मुताबिक फरवरी 2014 में केजरीवाल के 49 दिनों में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने तथा लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद पार्टी की स्थिति लड़खड़ाई थी। लोग नाराज थे। उन्होंने आठ महीने में केजरीवाल की माफी स्वीकारी। बीते चार-छह सप्ताह में मंथन-विश्लेषण किया, अपना मन बदला। दिल्ली के लोग भ्रष्टाचार से मुक्ति और आसानी से बिजली-पानी पाने के लिए केजरीवाल को एक और मौका देने को तैयार हुए। आम आदमी पार्टी के खिलाफ नकारात्मक प्रचार (निगेटिव कैंपेन) ने भाजपा को ही नुकसान पहुंचाया। ‘नेगेटिव कैंपेन’ लिखत-पढ़त यानी विज्ञापनों की गलती ने बहुत नुकसान किया। मत यह भी है कि किरण बेदी ने वास्तव में भाजपा के जनाधार को और गिरा दिया। भाजपा को यह भी समझना चाहिए वह अब सत्ता में है, विपक्ष में नहीं। ऐसे में उसे किसी भी अभियान (कैंपेन) का लाभ तभी मिलेगा जब उम्मीद जगेगी और उम्मीद के पूरे होने का संबल मिलेगा।
इस चुनाव ने अरविंद केजरीवाल को अगर सत्ता दी, तो वो कांटों भरा ताज है। अरविंद केजरीवाल की आप ने बहुत ही बुनियादी मुद्दों पर चुनाव लडा है। जीते तो सड़क, बिजली, पानी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे इंतार कर रहे हैं। एक भी पूरा ना हुआ तो लोगों की उम्मीदों का बोझ उस जनता दरबार की तरह ही केजरी सरकार को भी तबाह कर देगा जो उन्होंने अपनी पहली सरकार के कुछ दिनों बाद ही लगाया था। आने वाले दिनों में उन्हें सियासी गर्मी के साथ ही मौसम की गर्मी का सामना करना है। बिजली की किल्लत केजरीवाल का पहला टेस्ट होगा। यह बात और है कि केजरीवाल का नया अवतार पिछले बार का ‘मैच्योर वर्जन’ है। बुखारी के समर्थन पर प्रधानमंत्री का हवाला देकर उसे मना करना इसकी ही बानगी है।
नरेन्द्र मोदी को सांत्वना पुरस्कार मिला है। उन्होंने दिल्ली को भी कांग्रेस मुक्त कर दिया। कांग्रेस को तो इस चुनाव से भी काफी कुछ सीखने को मिलेगा। रणनीति के गलत होने के कई प्रमाण है। ए.के. वालिया जैसे नेता के रहते सिर्फ राहुल कैंप के वफादार अजय माकन को कमान दिया जाना इसकी मिसाल है। राहुल का अंतिम दिनों में प्रचार कमान संभालना। लडाई से पहले से ही ऐसे संकेत देना कि काग्रेस लडाई में नहीं है, वह भी उस राज्य में जहां उसकी डेढ़ दशक की सरकार रही हो। यह रणनीति की गफलत ही तो है। इसे पलटने के लिये कांग्रेस को ड्रांइग रूम पालिटिक्स के रोग को दूर करना होगा। बहरहाल, राजनीति में संदेशों का महत्व है। दिल्ली के संदेश बहुत हैं। अब जो इन्हें समझेगा कि वही देश पर राज करेगा। दिल्ली यूं ही देश का दिल नहीं कही जाती।
मैं यानी दिल्ली सलतनत वंश के राजाओं की राजधानी बनी। खिलजियों , तुगलकों, सैयदों और लोधियों ने मेरे जरिये पूरे देश में झंडे गाडे। मैं यानी दिल्ली सात बार उजड़ी। विभिन्न स्थानों पर बसी। आधुनिक दिल्ली मे इसके अवशेष मौजूद हैं। मुगल बादशाह हुमायूँ ने सरहिंद युद्ध में अफगानों को पराजित कर बिना विरोध मुझे हासिल किया। मैं मुगलों के राजनीति की गवाह बनीं। बस बीच में हुमायूँ की मृत्यु के बाद हेमू विक्रमादित्य ने मुगल सेना को पराजित कर आगरा व मुझ पर अधिकार कर लिया। अकबर ने मुझसे मुंह मोड़ कर आगरा का रुख किया। पर उसके पोते शाहजहाँ (1628-1658) ने सत्रहवीं सदी में मुझे सातवीं बार बसाया। शाहजहाँनाबाद का नाम दिया। आजकल का पुराना शहर या पुरानी दिल्ली यही है। यही 1638 के बाद मुगल सम्राटों की राजधानी रही।
मैनें अंग्रेजों का जुल्म भी देखा है। वर्ष 1858 की आजादी की पहली लडाई भी। वर्ष 1857 के बाद दिल्ली पर ब्रिटिश शासन के हुकुमत में शासन चलने लगा। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगभग पूरे भारत को अपने कब्जे में ले लिया। इन लोगों ने कोलकाता को अपनी राजधानी बनाया। वर्ष 1911 में मुझे वापस राजधानी बनाया। पुरानी दिल्ली के दक्षिण नई दिल्ली बसायी। वजह यह, कि ब्रिटिश शासन काल के अंतिम दिनों मे पीटर महान के नेतृत्व में सोवियत रूस का प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप मे तेजी से बढ़ा अंग्रेजों को यह लगा कि भारत के धुर पूरब के कोलकाता से अफगानिस्तान एवं ईरान आदि पर सक्षम तरीके से नियंत्रण नहीं हो सकता है। यानी अब तो आप समझ गये होंगे कि मैं ही राजघरानों की महबूबा हूं और मैं ही मोहब्बत।
हर कोई मुझे जीतना चाहता है, लेकिन मैं दिल्ली हूं.. आसानी से हाथ नहीं आऊंगी। यही वजह कि मुझ पर कब्जे की इस सबसे नयी लडाई में साम,दाम,दंड,भेद सब कुछ दांव पर लगा। मेरा आकार छोटा है। मेरा संदेश काफी बडा है। गुजरात से अमरीका तक का सफर करने के लिए नरेंद्र मोदी को दिल्ली का सहारा जरुरी था। मोदी के राजसूय को रोकने की लडाई भी इस बार यहीं हस्तिनापुर में ही लडी गयी।
दिल्ली के दिलवालों के दिल में केजरीवाल की झाडू है या फिर मोदी की विकास जैसे नारे ये कसौटी भी मुझे ही तय करनी पड़ी। चुनावी नतीजे जीतने और हारने वाले दोनों को सीख दे रहे हैं। सबसे बडी सीख आपार वोटों से लोकसभा की जीत की टाइटेनिक पर सवार लहरों के राजहंस नरेंद्र मोदी को मिली है। सीख यह कि जनता हमेशा, हर बात पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं करती। जनता अगर पलक पांवडे बिछाती है तो आंख फेरने में भी देर नहीं करती। चाहे वो इंदिरा गांधी हों या नरेन्द्र मोदी। जनता भरोसा करती है तो वादे नहीं काम चाहती है। तभी तो पहले भरोसा तोडने वाले केजरीवाल से नाराज होकर दिल्ली ने लोकसभा चुनाव में उनका खाता ही नहीं खुलने दिया। वहीं मोदी को नाराजगी का पहला झटका देते हुए आइना देखने को विवश कर दिया है।
दरअसल, मोदी के लिए यह चुनाव एक प्रयोगशाला की तरह रहा। राजसूय यज्ञ के घोड़े की थमी हुई गति में कई सबक समाहित है। किरण बेदी को पैराशूट से उतारना भाजपा के उन उम्मीदवारों के लिए कुठाराघात था, जो दिल्ली सिंहासन की हसरत पाले बैठे थे। हसरतों के टूटने पर आवाज नहीं होती पर उसका असर काफी गहरा होता है। वही असर इस बार के चुनावी नतीजे में दिखा। बेहतर होता कि किरण बेदी प्रचार प्रमुख बनती। संदेश देतीं और उन्हें विधायक चुनते। वकीलों पर डंडे चलाने वाली किरण बेदी को सीधे कमान देने से वकीलों का परंपरागत वोटबैंक दिल्ली भाजपा से छिटकता दिखा। किरण बेदी को हर्षवर्धन की जगह लाने और उन्हें महत्वहीन किए जाने का दंश डाक्टरों को साल गया। यह भी भाजपा का वोट बैंक रहा है। रणनीति की हड़बड़ी-गड़बडी ने इस चुनाव में कमल के फूल को खिलने से रोक दिया। मसलन, दिल्ली पंजाबी और सिंधियों का गढ़ है। यहीं पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और डाॅ. मुरलीमनोहर जोशी की एक भी सभा न होना, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री और शहरी महिलाओं की रोड माॅडल सरीखी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का बहुत कम इस्तेमाल सबका साथ और सबका विकास नारा सिर्फ जनता नहीं अपने दल के नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए भी होना चाहिए। अगर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ताकत जम्मू में भाजपा के परचम लहरा सकती है, तो दिल्ली में भाजपा का दिल ही गुम होने पर यह मान लेना चाहिये स्वयंसेवकों को सम्मान और स्थान देने में चूक हुई है।
मोदी-अमित शाह टीम को यह भी सोचना होगा कि क्या दिल्ली चुनाव की देरी ने केजरीवाल को खडा होने का मौका दे दिया। क्योंकि खुद आम आदमी पार्टी के थिंकटैंक और नेता योगेंद्र यादव के मुताबिक फरवरी 2014 में केजरीवाल के 49 दिनों में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने तथा लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद पार्टी की स्थिति लड़खड़ाई थी। लोग नाराज थे। उन्होंने आठ महीने में केजरीवाल की माफी स्वीकारी। बीते चार-छह सप्ताह में मंथन-विश्लेषण किया, अपना मन बदला। दिल्ली के लोग भ्रष्टाचार से मुक्ति और आसानी से बिजली-पानी पाने के लिए केजरीवाल को एक और मौका देने को तैयार हुए। आम आदमी पार्टी के खिलाफ नकारात्मक प्रचार (निगेटिव कैंपेन) ने भाजपा को ही नुकसान पहुंचाया। ‘नेगेटिव कैंपेन’ लिखत-पढ़त यानी विज्ञापनों की गलती ने बहुत नुकसान किया। मत यह भी है कि किरण बेदी ने वास्तव में भाजपा के जनाधार को और गिरा दिया। भाजपा को यह भी समझना चाहिए वह अब सत्ता में है, विपक्ष में नहीं। ऐसे में उसे किसी भी अभियान (कैंपेन) का लाभ तभी मिलेगा जब उम्मीद जगेगी और उम्मीद के पूरे होने का संबल मिलेगा।
इस चुनाव ने अरविंद केजरीवाल को अगर सत्ता दी, तो वो कांटों भरा ताज है। अरविंद केजरीवाल की आप ने बहुत ही बुनियादी मुद्दों पर चुनाव लडा है। जीते तो सड़क, बिजली, पानी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे इंतार कर रहे हैं। एक भी पूरा ना हुआ तो लोगों की उम्मीदों का बोझ उस जनता दरबार की तरह ही केजरी सरकार को भी तबाह कर देगा जो उन्होंने अपनी पहली सरकार के कुछ दिनों बाद ही लगाया था। आने वाले दिनों में उन्हें सियासी गर्मी के साथ ही मौसम की गर्मी का सामना करना है। बिजली की किल्लत केजरीवाल का पहला टेस्ट होगा। यह बात और है कि केजरीवाल का नया अवतार पिछले बार का ‘मैच्योर वर्जन’ है। बुखारी के समर्थन पर प्रधानमंत्री का हवाला देकर उसे मना करना इसकी ही बानगी है।
नरेन्द्र मोदी को सांत्वना पुरस्कार मिला है। उन्होंने दिल्ली को भी कांग्रेस मुक्त कर दिया। कांग्रेस को तो इस चुनाव से भी काफी कुछ सीखने को मिलेगा। रणनीति के गलत होने के कई प्रमाण है। ए.के. वालिया जैसे नेता के रहते सिर्फ राहुल कैंप के वफादार अजय माकन को कमान दिया जाना इसकी मिसाल है। राहुल का अंतिम दिनों में प्रचार कमान संभालना। लडाई से पहले से ही ऐसे संकेत देना कि काग्रेस लडाई में नहीं है, वह भी उस राज्य में जहां उसकी डेढ़ दशक की सरकार रही हो। यह रणनीति की गफलत ही तो है। इसे पलटने के लिये कांग्रेस को ड्रांइग रूम पालिटिक्स के रोग को दूर करना होगा। बहरहाल, राजनीति में संदेशों का महत्व है। दिल्ली के संदेश बहुत हैं। अब जो इन्हें समझेगा कि वही देश पर राज करेगा। दिल्ली यूं ही देश का दिल नहीं कही जाती।
Next Story