×

ये है दिल्ली नगरिया तू देख बबुआ........

Dr. Yogesh mishr
Published on: 13 Feb 2015 1:55 PM IST
‘‘अति का भला ना बोलना, अति की भली ना चूप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।’’ दिल्ली चुनाव के नतीजे देख रहे भाजपा के नेताओं को परिणाम के साथ नेपथ्य में कबीरदास के ये बोल सुनाई दे रहे होंगे। अति ही भाजपा को ले डूबी। अतिविश्वास, अतिआत्ममुग्धता, संसाधनों का अति प्रयोग और अतिबोलबचन। बावजूद इसके इन नतीजों से भाजपा के नेता कोई सबक लेने की जगह रक्षा कवच तैयार करने में जुटे हैं, वह भी तब जबकि अरविंद केजरीवाल की जीत पर ममता बनर्जी से लेकर नितीश कुमार और अखिलेश यादव भी इतराते हुए दिख रहे हैं। उन्हें भी उम्मीदों की टिमटिमाती लौ ही सही दिखने लगी है। दिल्ली ने जिस तरह का इतिहास रचा है, उसे देखते हुए यह बेमानी भी नहीं है।

लोग यह नहीं समझे कि मैं दिल्ली हूं। महाभारत काल से लेकर ब्रिटिश युग तक मैंने देश के हर संघर्ष में एक नई इबारत लिखी है। मेरा दिल यह जानता है कि मुझ पर राज करने वाले को पहले मेरे लोगों का दिल जीतना होता है। मैंने ही जलालुद्दीन को अकबर बनाया। मैंने ही लोगों को हर धर्म के प्रति सजदा करना सिखाया। मुझे पाने की हसरत राजघरानों के प्रतापी राजाओ से शुरु हुई। जो आज तक जारी है। क्या राजा और क्या सियासतदां। मेरा वजूद ही सत्ता के लिए हुआ। तभी तो महाभारत काल में मैं इंद्रप्रस्थ बनी। मुझ पर कब्जे की हसरत ने ही महाभारत करवाई। यानी अब तो आप समझ गये होंगे कि मैं ही राजघरानों से लेकर आज के सियासतदां तक की महबूबा हूं और मैं ही मोहब्बत।

हर कोई मुझे जीतना चाहता है, लेकिन मैं दिल्ली हूं आसानी से हाथ नहीं आऊंगी। यही वजह कि मुझ पर कब्जे की इस सबसे नयी लडाई में साम,दाम,दंड,भेद सब कुछ दांव पर लगा। मेरा आकार छोटा है। मेरा संदेश काफी बडा है। गुजरात से अमरीका तक का सफर करने के लिए नरेंद्र मोदी को दिल्ली का सहारा जरुरी था। मोदी के राजसूय को रोकने की लडाई भी इस बार यहीं हस्तिनापुर में ही लडी गयी।

दिल्ली के दिलवालों के दिल में मफलरमैन अरविंद केजरीवाल की झाडू है या फिर मोदी की विकास जैसे नारे ये कसौटी भी मुझे ही तय करनी थी। हमने तय भी किया। चुनावी नतीजे जीतने और हारने वाले दोनों को सीख दे रहे हैं। सबसे बडी सीख आपार वोटों से लोकसभा की जीत की टाइटेनिक पर सवार लहरों के राजहंस नरेंद्र मोदी को मिली है। सीख यह कि जनता हमेशा, हर बात पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं करती। जनता अगर पलक पांवडे बिछाती हैं, तो आंख फेरने में भी देर नहीं करती। चाहे वो इंदिरा गांधी हों या मोदी। जनता भरोसा करती है तो वादे नहीं काम चाहती है। तभी तो पहले भरोसा तोडने वाले केजरीवाल से नाराज होकर दिल्ली ने लोकसभा चुनाव में उनका खाता ही नहीं खुलने दिया। वहीं मोदी को नाराजगी का उसी तरह का झटका देते हुए उनके नाम, नारे और नीयत सबको खारिज कर दिया। आज भले ही भाजपा यह कह कर मोदी के लिये रक्षा कवच जुटा रही हो कि दिल्ली का चुनाव उनके कामकाज और उनकी उपस्थिति का अक्स नहीं था पर यह भी एक बड़ा झूठ है। पूरी दिल्ली ‘चलो चलें, मोदी के साथ’ के नारों से पटी पड़ी थी। जिन्हें चाहा गया उन्हें ही काम मिला। लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी इस चुनाव में मार्गदर्शक की भूमिका से भी बाहर हो गये थे। वह भी तब जब उत्तराखंड के तमाम लोग दिल्ली में रहते हों। सिंधियों और पंजाबियों के सबसे बडे नेता के तौर पर आडवाणी की स्वीकार्यता इन कौमों में घटी न हो। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री और शहरी महिलाओं की रोड माडल सरीखी विदेशमंत्री सुषमा स्वराज का बहुत कम इस्तेमाल। सबका साथ और ‘सबका विकास’ नारा सिर्फ जनता नहीं अपने दल के नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए भी होना चाहिए।

किरण बेदी को पैराशूट से उतारना भाजपा के उन उम्मीदवारों के लिए कुठाराघात था, जो दिल्ली सिंहासन की हसरत पाले बैठे थे। हसरतों के टूटने पर आवाज नहीं होती पर उसका असर काफी गहरा होता है। वही असर इस बार के चुनावी नतीजे में दिखा। बेहतर होता कि किरण बेदी प्रचार प्रमुख बनती। संदेश देतीं और उन्हें विधायक चुनते। वकीलों पर डंडे चलाने वाली किरण बेदी को सीधे कमान देने से वकीलों का परंपरागत वोटबैंक दिल्ली भाजपा से छिटकता दिखा। किरण बेदी को हर्षवर्धन की जगह लाने और उन्हें महत्वहीन किए जाने का दंश डाक्टरों को साल गया। यह भी भाजपा का वोट बैंक रहा है।

दरअसल, मोदी के लिए यह चुनाव एक प्रयोगशाला की तरह रहा। राजसूय यज्ञ के घोड़े की थमी हुई गति में कई सबक समाहित हंै। रणनीति की हड़बड़ी-गड़बडी ने इस चुनाव में कमल के फूल को खिलने से रोक दिया। दिल्ली के बड़े इलाके में पूर्वांचल और बिहार के लोगों का हुजूम पसरा पड़ा है। बावजूद इसके इन इलाको के 11 उम्मीदवार आप ने उतारे भाजपा ने यूपी और बिहार के उम्मीदवारों से परहेज रखा। दिल्ली नगर निगम की वजह से भ्रष्टाचार भाजपा का एजेंडा बनने से पहले केजरीवाल का हथियार बन गया। पहली बार भाजपा जीवंत पार्टी से मुकाबिल थी। अभी तक भाजपा ने जो भी लडाई लड़ी और जीती थी, वह लस्त-पस्त उस कांग्रेस के खिलाफ थी, जो भ्रष्टाचार, अराजकता,सत्ता विरोधी सरीखे तमाम तीरों की सरशैय्या पर लेट अंतिम सांसें गिन रही थी।

हार की इस गोधूलि में भी भाजपा के डूबे सूरज ने एक संदेश और दिया है।अब तक अर्जुन बनी भाजपा को कृष्ण सरीखी भूमिका में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने रास्ता दिखाया, हर मुकाबले में येन केन प्रकारेण जीत के रास्ते पर आगे बढाया। आरएसएस की ताकत जम्मू में भाजपा के परचम लहराया उन स्वयंसेवकों की उपेक्षा का नतीजा क्या होता है।

मोदी-अमित शाह टीम को यह भी सोचना होगा कि क्या दिल्ली चुनाव की देरी ने केजरीवाल को खडा होने का मौका दे दिया। क्योंकि खुद आम आदमी पार्टी के थिंकटैंक और नेता योगेंद्र यादव के मुताबिक फरवरी, 2014 में केजरीवाल के 49 दिनों में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने तथा लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद पार्टी की स्थिति लड़खड़ाई थी। लोग नाराज थे। उन्होंने आठ महीने में केजरीवाल की माफी स्वीकारी। बीते चार-छह सप्ताह में मंथन-विश्लेषण किया, अपना मन बदला। दिल्ली के लोग भ्रष्टाचार से मुक्ति और आसानी से बिजली-पानी पाने के लिए केजरीवाल को एक और मौका देने को तैयार हुए। आम आदमी पार्टी के खिलाफ नकारात्मक प्रचार (निगेटिव कैंपेन) ने भाजपा को ही नुकसान पहुंचाया। ‘नेगेटिव कैंपेन’ लिखत पढत यानी विज्ञापनों की गलती ने बड़ा नुकसान किया। किरण बेदी ने वास्तव में भाजपा के जनाधार को और गिरा दिया।

इस चुनाव ने अरविंद केजरीवाल को अगर सत्ता दी तो वो कांटों भरा ताज है। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने बहुत ही बुनियादी मुद्दों पर चुनाव लडा। सड़क, बिजली, पानी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे इंतजार कर रहे हैं। एक भी पूरा ना हुआ तो लोगों की उम्मीदों का बोझ उस जनता दरबार की तरह ही केजरी सरकार को भी तबाह कर देगा जो उन्होंने अपनी पहली सरकार के कुछ दिनों बाद ही लगाया था। आने वाले दिनों में उन्हें सियासी गर्मी के साथ ही मौसम की गर्मी का सामना करना है। बिजली की किल्लत केजरीवाल का पहला टेस्ट होगा। यह बात और है कि केजरीवाल का नया अवतार पिछले बार का ‘मैच्योर वर्जन’ है। बुखारी के समर्थन पर प्रधानमंत्री का हवाला देकर उसे मना करना इसकी ही बानगी है। वहीं जीत के बाद उनका यह बयान कि उन्हें ड़र लग रहा है यह साबित करता है कि उम्मीदों का बोझ कितना है और वह उसे ठीक से महसूस भी कर रहे हैं। शायद यही वजह है कि शायद यही वजह है कि उनके सारे नेता अपने कार्यकर्ताओं से विजय के साथ विन्रमता की अपील करते नहीं थक रहे हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी ने जो करवट ली है, उसमें उसे भाजपा के पराजय से अपने लिये संदर्भ और संदेश जुटाना चाहिये। पिछली बार की तरह सत्ता मिलते ही अचानक राष्ट्रीय पार्टी बनने के मंसूबों से बचने का भी समय है। दिल्ली की जरुरतें पूरी करने में कामयाब होना तभी संभव है जब पूरे देश के विपक्ष की उम्मीद बनने की जगह अपनी इस बार की लीक पर चलते वायदे पूरे करें। इरादे ऐसे ही बनाये रखें।

इस चुनाव में सब कुछ हार चुके मोदी को सांत्वना पुरस्कार मिला है। दिल्ली भी कांग्रेस मुक्त हो गयी। पर इसका श्रेय केजरीवाल के खाते में गया है। कांग्रेस को तो इस चुनाव से भी काफी कुछ सीखने को मिलेगा। रणनीति के गलत होने के कई प्रमाण है। ए.के. वालिया जैसे नेता के रहते सिर्फ राहुल कैंप के वफादार अजय माकन को कमान दिया जाना, इसकी मिसाल है। राहुल का अंतिम दिनों में प्रचार कमान संभालना। लडाई से पहले से ही ऐसे संकेत देना कि काग्रेस लडाई में नहीं है, वह भी उस राज्य में जहां उसकी डेढ़ दशक की सरकार रही हो। यह रणनीति की गफलत ही तो है। इसे पलटने के लिये कांग्रेस को ड्रांइग रूम पालिटिक्स के रोग को दूर करना होगा।

बहरहाल, राजनीति में संदेशों का महत्व है। दिल्ली के संदेश बहुत हंै। अब जो इन्हें समझेगा कि वही देश पर राज करेगा। दिल्ली यूं ही देश का दिल नहीं कही जाती। जो इस दिल को जीतता है, वह नई इबारत लिखता है। वही लोकतंत्र की नदी में स्वाभिमान के साथ हिलोरें ले सकता है।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

Next Story