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कुछ तो फूल खिलाने होंगे, कांटे बहुत पुराने हैं

Dr. Yogesh mishr
Published on: 3 March 2015 2:00 PM IST


कुछ तो फूल खिलाए हमने, और कुछ फूल खिलाने हैं।

मुश्किल यह है कि बाग में अब तक कांटे कुछ पुराने हैं।



तकरीबन तीस सालों बाद स्पष्ट बहुमत की सरकार का बजट पेश करते समय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जब ये लाइनें पढ़ीं तो निःसंदेह हर तबके को यह उम्मीद बंध गयी कि उनकी आर्थिक जिंदगी में दुश्वारियों के जो कांटें हैं। वह थोड़े बहुत ही सही जरुर दूर होंगे। लेकिन सांता क्लाज की तरह 28 फरवरी, 2015 को देश की लोकसभा में अवतरित हुए अरुण जेटली के पिटारे से जो कुछ निकला उसने मध्यमवर्ग खास तौर से नौकरीपेशा तबके को खासा निराश किया। बीते लोकसभा चुनाव के दौरान आयकर की सीमा में बढोत्तरी के वादे कर रहे नरेंद्र मोदी टीम का इस दिशा में कुछ ना कर पाना निराश तबके को मजबूत आधार भी देता है। इसी के साथ कारपोरेट कर में छूट के ऐलान ने नौकरी पेशा तबके और आयकर की सीमा में छूट की उम्मीद लगाए लोगों को यह कहने का मौका मुहैया कर दिया कि बजट कारपोरेट मुखापेक्षी है। लेकिन अगर यह तबका अपनी इस जरुरत से थोड़ा अलग हटकर बजट को देखे तो उसे इस बात को कहने और मानने का आधार खत्म होता दिखेगा। इसकी वजह भी बेवजह नहीं है।

अरुण जेटली के इस बजट ने अर्थव्यवस्था को रफ्तार और हर हाथ के क्रयशक्ति बढाने के लिए उस घिसे-पिटे रास्ते पर चलना स्वीकार नहीं किया है जिस पर अभी तक देश के तमाम वित्तमंत्री चलते चले आये हैं। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि बजट अभी तक लेने और देने का रिश्ता भर बनकर रह गया था। पर अरुण जेटली ने इन रिश्तो में कुछ ऐसे व्यापक और आमूल-चूल बदलाव किए हैं, जिसमें जनता से सरकार का लेने का रास्ता भले ही परंपरिक हो लेकिन सरकार से जनता को देने का रास्ता बदल गया है। यही वजह है कि आयकर में छूट देने की जगह उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था में कम हो रही बचत की प्रवृति को बढाने के लिए प्रयास किये हैं। घरेलू बचत की दर पिछले कुछ सालो में 35 फीसदी के आसपास थी। जो घटकर 30 फीसदी से कम पर आ गयी है। यही वजह है कि वित्तमंत्री ने बचत के मार्फत थोड़ी छूट मुहैया कराई है। हालांकि इसे ‘ऊंट के मुंह’ में जीरा ही कह सकते हैं। गौरतलब है कि बजट ने बचत की प्रवृति बढाने तथा निवेश का मौका मुहैया कराने की दिशा में मजबूत कदम बढाये हैं। जो लोग इस बात को लेकर दुखी हैं कि सेवा कर की दर में विस्तार से महंगाई का इजाफा होगा, उनके लिए तसल्ली भरी बात यह हो सकती है कि 1 अप्रैल 2016 से पूरे देश में वस्तु एंव सेवा कर (जीएसटी) लागू हो जायेगा। जीएसटी के लागू होते ही इस तरह के कई टैक्स खत्म हो जायेंगे। यही नहीं जीएसटी लागू होने के बाद सकल घरेलू उत्पाद में .9 फीसदी से 1.7 फीसदी तक की बढोत्तरी होगी। रोजगार तो बढेगा ही, विनिर्माण क्षेत्र प्रतिस्पर्धी बनेगा। राजकोषीय घाटे में कमी आयेगी। गौरतलब है कि डाॅ. राजा चेलैय्या समिति की सिफारिश पर 1994 में तीन सेवाओं पर 5 फीसदी सेवाकर लगाकर इस कर की शुरुआत की गयी थी। इसके लागू हो जाने के बाद वित्त आयोग की नई संस्तुतियों पर अमल करते हुए केंद्रीय कर में राज्य सरकार की हिस्सेदारी 62 फीसदी कर दिए जाने के फैसले से राज्यों के विकास की गति बढेगी। मसलन, अकेले उत्तर प्रदेश को एक लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त धनराशि मिलेगी। इस लिहाज से बजट को आय व्यय का ब्यौरा नहीं बल्कि भविष्य का दृष्टिपत्र भी कह सकते हैं, क्योंकि वह एक तरफ निवेश लायक माहौल बनाने की कोशिश में लोक-लुभावन एजेंडे से दूर खड़ा दिखता है, तो दूसरी तरफ मेक इन इंडिया, जनधन योजना, स्वच्छ भारत अभियान, नमामि गंगा, कौशल विकास सरीखे सरकार की प्रतिबद्धताओं के लिए यह बताने में कामयाब दिखता है कि इन्हें पूरा करने में पैसे की कमी का रोना अब नहीं रोया जायेगा।

इस बजट में 70 हजार करोड़ रुपये आधारभूत ढांचों और सेवाओं के मद पर रखा गया है। यह धनराशि भी लोगों की क्रय शक्ति में इजाफा करेगी, रोजगार मिलेगा। ‘स्किल इंडिया’ और ‘मेक इन इंडिया कार्यक्रम’ 42 करोड़ युवाओं की किस्मत बदल सकते हैं। महंगाई की दर को जिस तरह सरकार ने नियंत्रित किया है, उससे भी आयकर ना बढने को लेकर हाय तौबा मचाने वाले संतोषकर सकते हैं। हालांकि औद्योगिक विकास और मुद्रास्फीति की दर पर नियंत्रण के मार्फत इस कमी को पूरा करता हुआ जेटली का बजट दिखता है। छोटे उद्योगों के लिये मुद्रा बैंक एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है। पर अगर सार्वजिनक और निजी क्षेत्र के बैंकों को ही लघु एवं मध्यम उद्योगों को वित्तीय सहायता मुहैया कराने का कोटा निर्धारित कर दिया गया होता तो इसे बेहतर कहा जा सकता था।

कालेधन पर नियंत्रण पाने की दिशा में उठाये गये कदम सराहनीय कहे जाने चाहिए। इससे भ्रष्टाचार से दो-दो हाथ करने में सरकार को मदद मिलेगी। नरेंद्र मोदी सरकार कालेधन, महंगाई,भ्रष्टाचार और युवाओं को रोजगार के सवाल पर जीत कर आयी है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि अरुण जेटली ने अपने बजट में इन एजेंडों को बराबर का महत्व दिया है। बजट में आर्थिक विकास दर पर ध्यान दिया गया है। सामाजिक सुरक्षा के सवाल पर भी बजट ने नई इबारत लिखी है। बजट इस मिथक को तोड़ता है कि विकास और जनकल्याण कारी योजनाएं यानी सामाजिक सुरक्षा के कदम एक साथ एक दिशा में उठकर अर्थव्यवस्था को मजबूत नहीं बना सकते। पहली बार देश में किसी केंद्र सरकार ने बुजुर्गों के लिये पेंशन की योजना की शुरुआत की है। इसके साथ ही 12 रुपये सालाना पर 2 लाख रुपये का दुर्घटना बीमा का इरादा भी इसी तरफ इशारा कर रहा है।

आर्थिक सुधारों की रफ्तार और समाजिक सरोकार के बीच संतुलन साधने की नई इबारत बजट में लिखी गयी है। राजकोषीय घाटे को कम करने की दिशा मे जताए जा रहे संकल्प इस बात पर यकीन करने के लिये मजबूर करते हैं। जो लोग बजट को सब्सिडी खत्म करने के नाम पर खारिज कर रहे हैं, उन्हें यह समझना चाहिये कि 220972 करोड़ रुपये की सब्सिडी अगर जरुरत मंद हाथों तक पहुंच जाती तो उन गरीबों की शक्ल दूसरी होती, जिनके नाम सब्सिडी का खेल खेला जा रहा है। सरकार का मकसद सब्सिडी खत्म करना नहीं सब्सिही को जरुरतमंद तक पहुंचाना है। इस पहुंचाने की कोशिश में बडी धनराशि की बचत तो होगी ही।
कारपोरेट टैक्स में कमी का ऐलान और “गार” को दो साल तक के लिये मुल्तवी किये जाने को लेकर भले ही बजट को कारपोरेट के मनमुताबिक देखने वालों को खुशी मिली हो । पर इस हकीकत से भी मुंह नहीं चुराया जा सकता है कि कारपोरेट टैक्स भले ही 30 फीसदी था, पर इस कर के पुराने ढांचे में इतनी कमियां थी कि आमतौर पर कारपोरेट घराने 20 फीसदी के आस-पास ही टैक्स देते थे। लेकिन अब उन्हें 25 फीसदी के नये कर दर में ऐसा कोई नया रास्ता नहीं मिल सकेगा। इसके साथ ही ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम चला रही मोदी सरकार को इस बात का ध्यान भी रखना है कि आसियान देशो में कारपोरेट टैक्स तकरीबन 20 फीसदी है, ऐसे में निवेश की नयी जमीन तैयार करने वाली भारत सरकार को टैक्स की कमी की हरियाली तो दिखानी ही पडेगी। कारपोरेट घरानों को दी गयी यह सुविधा एक ओर जहां रोजगार के नये अवसर सृजित करने का नया प्लेटफार्म मुहैया कराती है, वहीं अधारभूत ढांचे में निवेश का मार्ग भी प्रशस्त करती है क्योंकि सड़क और रेलवे में निवेश में जारी किये गये करमुक्त बांड खरीददारों में कारपोरेट घरानो की संख्या कम नहीं होगी।

मोदी सरकार ने चुनाव मे ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा दिया था। सदन में वित्तमंत्री ने न सिर्फ इसे दोहराया बल्कि अमल मे लाने का रास्ता भी दिखाया। इस बजट में 2022 में देश में 6 करोड़ घर, 9 करोड़ टायलेट, गरीबी हटाने का संकल्प, 20 हजार गांव में बिजली पहुंचाने के लक्ष्य के साथ ही अल्पसंख्यकों के लिये ‘नई मंजिल’ योजना की शुरुआत की गयी है। वहीं अनुसूचित जातियों के लिये सरकार ने अलग से विशेष कर्ज की व्यवस्था कर इस नारे पर बल दिया है।

आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष यानी 2022 में देश के हर परिवार को घर, 24 घंटे बिजली, पीने का पानी और शौचालय देने का संकल्प एक शुभ संकेत है लेकिन वित्त मंत्री अरुण जेटली के 11,234 शब्दों के भाषण में इसे छोड़कर अन्य किसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए समय सीमा के मामले में कोई आश्वस्ति भाव नहीं दिया है। यही नहीं, सरकारी कर्ज की धनराशि में हो रहा लगातार इजाफा सरकार के तमाम संकल्पों पर सवालिया निशान लगा रहा है। सरकार पर तकरीबन 4,56,145 करोड़ रुपये कर्ज के ब्याज के मद में देने पड़ते हैं जो रोज के हिसाब से 667 करोड़ रुपये बैठता है। एक ऐसे समय जब कच्चे तेल की कीमतें तलहटी पर हों। खाद्य कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में कम हों। सब्सिडी की धनराशि तकरीबन 1 लाख करोड़ बचाने का रास्ता खुला हो। कारपोरेट घरानों ने पांच लाख 72 हजार 923 करोड़ रुपये दबा रखे हों, कोयले की नीलामी में अकूत धनराशि आने की उम्मीद बन गयी हो, तब भी कर्ज की धनराशि का लगातार बढना पेशानी पर बल डालता है और मध्य वर्ग के उन मंसूबों पर पानी फेरता है, जिसे उसने लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बहुमत के पहाड़ की तरह खड़ा किया था। उसे इस पहाड़ को खोदने पर कुछ नही मिलने का मलाल है। कृषि,ग्रामीण विकास और स्वास्थ्य की जिम्मेदारियों राज्य सरकार के हवाले काफी हद तक करके बजट ने अपनी नयी दिशा का संकेत भी दे दिया है। ऐसी दिशा जो लकीर की फकीर नहीं बल्कि बडी लकीर खीचने की मंशा रखती है।
Dr. Yogesh mishr

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