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हिंदी बेल्ट का अंग्रेजी विनोद

Dr. Yogesh mishr
Published on: 9 March 2015 2:02 PM IST
विनोद मेहता के बारे में जब मुझे पता लगा कि वह अपनी आत्मकथा लिख रहे है, पता नहीं क्यों मेरे अचेतन मन में उनके जीवन को लेकर भय सताने लगा था। इसी भय के आवरण ने वास्तविकता को रविवार की सुबह ढ़क लिया। उनके निधन पर यह कह देना कि पत्रकारिता जगत की अपूरणीय क्षति हुई, भले ही पत्रकार विनोद मेहता को श्रद्धांजलि का कोरम पूरा करता हो, परंतु विनोद मेहता की असली श्रद्धांजलि सिर्फ इस एक औपचारिक वाक्य से पूरी नहीं होती। विनोद मेहता ने पत्रकारिता में सज्ञा से विशेषण और फिर संस्था तक की यात्रा पूरी की। यही नहीं, कहा जाता है कि शिखर पर पहुंचना आसान होता है, बने रहना मुश्किल। पर विनोद मेहता ने इस मिथ को भी तोड़ा। वह शिखर पर लंबे समय तक बने भी रहे। एक वाक्य में विनोद मेहता की श्रद्धांजलि इसलिए भी नहीं बनती है, क्योंकि उन्होंने सिर्फ पत्रकारिता नहीं जी। बल्कि नये पत्रकारों में कुछ भी लिखने का मुकाम और साहस दिया। ऐसे पत्रकार गढ़े। खोजी पत्रकारिता की दिशा में मील का पत्थर गाड़ा। इस लिहाज से उन्होंने अलग श्रेणी के और स्टार पत्रकार तैयार किए।

मुझे हिंदी ‘आउटलुक’ साप्ताहिक के शुरु होने से तकरीबन छह सात साल तक उनके साथ काम करने का सुयोग मिला। एक वक्त मुलायम सिंह सरकार ने कल्याण सिंह की करीबी कुसुम राय को उनके पिता के नाम पर राज्य संपत्ति विभाग का एक बंगला आवंटित कर दिया। मैने मुलायम की इस ‘महान कृपा’ को लेकर खबर लिखी। कुसुम राय ने विनोद मेहता से इसके शिकायत की। उन्होंने हिंदी ‘आउटलुक’ में हमारे सहयोगी दिवाकर को बुलाकर पूरी खबर पढवाकर सुनी और फिर कुसुम राय को फोन करके जता दिया कि खबर सच है। पर मुझसे कुछ नहीं कहा, मुझे यह बात दिवाकर ने बताई।

वह दावा करते थे कि हिंदी बोलना तो उन्हें आता है पर हिंदी पढ़ना उन्हें नहीं आता। मुझे पता था कि लखनऊ से उनका करीबी और गहरा रिश्ता है। लखनऊ के ही लामार्ट्स ब्वायज से उन्होंने शुरुआती तालीम और लखनऊ विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा हासिल की थी। इसलिए उनके इस तर्क और धारणा से मेरी गहरी असहमति थी। यह मेरे गले के नीचे उतरने वाली बात नहीं थी। बावजूद इसके अच्छी खबरों को लेकर हिम्मत बंधाना, हौसला बढाना और उसे ठीक से छापना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। वह किसी भी खबर को लेकर किसी भी हद तक ‘स्टैंड’ लेते थे, बशर्ते खबर के साथ दस्तावेज हों। विनोद मेहता प्रबंधन या फिर उसके व्यवसायिक हितों के आगे किसी तरह का कोई समझौता नहीं करते थे। सीईओ भी उनसे मिलने के लिए समय मांग कर आते थे। उन्होंने विज्ञापन और संपादन का अनुपात हमेशा अपने कॅरियर में बनाये रखा। उन्होंने आत्मकथा ‘लखनऊ ब्वाय’ में भी लिखा है कि बहुत बार ऐसा होता था कि मेरे सहयोगी पत्रकारों को वेतन बढोत्तरी के लिए मुझे प्रबंधन से झगड़ा करना पड़ता था। नतीजा यह होता था कि मेरे सहयोगियों का वेतन बढ़ जाता था, मेरा नही। ऐसे में भी मुझे संतोष रहता था। अपने वेतन की बढोत्तरी को प्रबंधन के संपादकीय मुद्दों में हस्तक्षेप ना करने से ‘बार्टर’ कर लेता हूं। यह सच्चाई है कि पूरे अपने कॅरियर में विनोद मेहता ने प्रबंधन के हितों और इच्छाओं को संपादकीय का हिस्सा नहीं बनने दिया। उनमें अद्भुत खासियत स्टोरी आइडिया की कोई कमी का ना होना था। कोई छोटी खबर भी उनके पास ले जाइए, तो वह उसे बडा करके बता देते थे। एक बार विमर्श हो रहा था कि वेश्यावृति पर स्टोरी की जाय तो वह बोले “सौ साल से इस पर लिखा जा रहा है। इसलिए स्टोरी पुरुष वेश्यावृत्ति पर होनी चाहिए।”

उन पर यह तोहमत आम थी कि उनका डीएनए कांग्रेसी है। पर कभी मैंने यह महसूस नहीं किया कि कांग्रेस के खिलाफ किसी खबर को उन्होंने अगले अंक लिए भी डाला हो। हिंदी के मशहूर कवि और पूर्व कांग्रेसी सांसद श्रीकांत वर्मा के बेटे अभिषेक वर्मा के हथियारों के सौदागर होने से जुडी खबर ‘आउटलुक’ ने ही ब्रेक की थी। जिस संवाददाता सैकत दत्ता ने इस खबर को ब्रेक किया था, उसके सम्मान में विनोद मेहता ने पार्टी भी दी थी और ईनाम भी। नीरा राडिया के टेप का खुलासा भी उन्होंने ही किया था। खबर अगर जंच गयी, तो वह पक्ष नहीं देखते थे। यहां तक कि उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पक्ष में भी जब छापा तो खूब ठीक से छापा। वह समझाया करते थे कि पत्रकार को अपनी ‘छवि’ ऐसी बनानी चाहिए कि लोग उसके सामने खुद को असहज महसूस करें।

मैं उनके साथ काम करने के दौरान ‘आउटलुक’ हिंदी के लिए उत्तर प्रदेश की कवरेज करता था। अंग्रेजी ‘आउटलुक’ के लिए यह जिम्मेदारी हमारी एक महिला सहयोगी पर थी। हिंदी के लिए उत्तर प्रदेश से ज्यादा खबरें निकलती थी। मेरी कई खबरें अंग्रेजी में भी छपीं। नतीजतन, हमारी महिला सहयोगी ने मुझ पर मिलकर खबर ना करने की शिकायत कर दी। प्रथम दृष्टया तो विनोद मेहता ने हमारे हिंदी ‘आउटलुक’ के संपादक अलोक मेहता से कहा कि मुझे अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगनी चाहिए। पर जब मैने इससे मना करते हुए एक लंबा मेल डालकर अपना पक्ष रखा तो बात आई गई हो गई। उसके कुछ दिनों बाद मैं दिल्ली कार्यालय गया। एक मीटिंग चल रही थी। मुझे मीटिंग में बैठने के लिए कहा गया तो मेरा जवाब था - ‘स्टेट करस्पंाडेंट’ हूं, मेरी सीमा आनन्द विहार तक है। विनोद मेहता बोल पड़े, ‘‘तुम स्टेट नहीं, स्टार करस्पंाडेंट हो।’’ ‘आउटलुक’ के साथ अपनी पारी शुरु करने के समय इन्टरव्यू में मेरी कटिंग और बायोडाटा देखने के बाद विनोद मेहता ने हंसते हुए एक ही सवाल पूछा था- “आप उत्तर प्रदेश में रहे हो। उत्तर प्रदेश कवर करने जाना चाहते हो। तुम्हारे यहां मुख्यमंत्री पत्रकारों को बहुत पैसे देते है। तुम्हारा नाम मुलायम सिंह या मायावती में से किसकी पैसा देने वाली सूची में है।“ गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में पत्रकारों को मुख्यमंत्रियों द्वारा दी गयी धनराशि की एक सूची उन दिनों विधानसभा से लेकर सत्ता के गलियारों तक चर्चा में थी। मेरा जवाब था- ‘किसी सूची में मेरा नाम नहीं है।’ प्रति प्रश्न में विनोद मेहता बोले- “तो फिर कैसे पत्रकार हो।” मेरा उत्तर था- “मौका देकर देख लीजिएगा।“ मुझे मौका मिला। भरोसा मिला। वह हद तक भरोसा करते थे। एक बार बरेली की एक संस्था ने उन्हें सम्मानित करने कि लिए खतो किताबत की। सम्मान समारोह में दो दिन बचे थे कि उन्होंने मुझसे जानना चाहा कि उन्हें सम्मानित करने वाली संस्था कैसी है ? मैने उनसे कहा, ‘आपका आना उचित नहीं होगा।’ उन्होने अपनी यात्रा निरस्त कर दी। इसी तरह लखनऊ विश्वविद्यालय के एक स्थापना दिवस पर आने से मेरे कहने पर एक बार इनकार कर दिया। गौरतलब है कि लखनऊ विश्वविद्यालय में एक साल में दो बार स्थापना दिवस मनाया जाता रहा है।

‘आउटलुक’ में मेरे रहने के दौरान ही वह लखनऊ आये थे। तब तक विनोद मेहता अतीत जीवी हो गये थे क्योंकि आते ही उन्होंने मुझे लामार्ट कालेज चलने को कहा। उनकी पत्नी भी थी। विनोद मेहता कैंट स्थित अपने घर भी गये, जहां उनका बचपन गुजरा था। मैंने अतीतजीवी हो चुके मेहता के लिये अपने फोटोग्राफर निराला त्रिपाठी से आग्रह किया था कि इन दोनों जगहों पर उनके कुछ चित्र उतार लिए जाएं। विनोद जी मेरे साथ लामार्ट गये, अपनी पत्नी को अपनी पढाई के समय की यादों से मिलवाया। कमरे दिखाये। जब कैंट स्थित अपने घर गये तो उस समय उस घर में रह रहे लोगों को भी बताया कि वो उस घर में कैसे रहते थे। अतीतजीवी होने की बानगी यह भी है कि विनोद जी लखनऊ विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों को किसी भी तरह ‘मिस’ नहीं करते थे। उन्हें जब भी लखनऊ विश्वविद्यालय के नाम पर बुलाया गया, उन्होंने कभी मना नहीं किया। ऐसा नहीं विनोद मेहता सिर्फ कहते थे, उनमें सुनने की भी गजब की क्षमता थी। इसी यात्रा में विनोद मेहता के सम्मान में लखनऊ के पत्रकारों के साथ मैने उनका लंच कार्यक्रम आयोजित किया। इस कार्यक्रम में प्रेस क्लब में उन्होंने लखनऊ के पत्रकारों को खूब सुना। धैर्य से सुना।

विनोद मेहता एक ऐसे परिवार से थे, जिसने कभी कोई कमी नहीं देखी। लार्ड माउंटबेटन के परिवार से नजदीकी की जो यात्रा उनके पिता ने शुरु की वह बिल क्लिंटन, जार्ज बुश, बराक ओबामा. संजय गांधी, मेनका गांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी नरेंद्र मोदी तक निर्बाध रुप से जारी रही। बावजूद इसके उन्होंने एक समय ऐसा भी देखा था, जब पांच रुपये बचाने के लिए वे मेनहोल तक में गिर गये। ऐसा इसलिए कि विनोद मेहता के अंदर के पत्रकार ने किसी सत्ता प्रतिष्ठान के आगे छोटी जरुरतो पर झुकने से इनकार कर दिया। खुद का मजाक उडाना उनकी विशेषता थी, तभी तो संपादक रहते हुए उन्होंने अपने कुत्ते का नाम भी ‘एडिटर’ रख दिया। इसके भी उनके अपने गढ़े तर्क थे। उनका कुत्ता अभिवादन कूबूल नहीं करता। वह अपने आगे किसी को स्वीकार नहीं करता था। लेकिन यह भी उनकी एक स्टाइल थी, जिसे उन्होंने अपने पत्रकारीय संस्कार में भी ढाल कर दिखाया। वह कुछ भी लिखने में गुरेज नहीं करते थे। पत्रकारिता में सेक्स आदि का छौंक लगाने वाले वह अपने ढंग के अलग संपादक थे। टीवी चर्चा-परिचर्चा, बहस में भी अपने तमाम समकालीनों की तरह वह राजनैतिक विचारधारा के रुढिवाद से दूर थे। एनडीए सरकार से उनकी नाराजगी साफ थी। उन्होंने कई बार अपने कालम में इसका जिक्र भी किया है। लेकिन वह अनावश्यक नाराजगी और पक्षधरता से ऊपर उठकर अपनी बात रखते थे। भारत का ज्यादा बड़ा समाज उन्हें ‘आउटलुक’ के जरिये जानता है।

विनोद मेहता एक नदी की तरह उनमुक्त, प्रवाहवान, गहरे थे, तो अपने पत्रकारीय मूल्यों के लिए हिमालय की तरह ना झुकने वाले। तभी तो वह खुद को सबसे ज्यादा बार बर्खास्त होने वाले संपादक की उपाधि देने में नहीं चूकते। विनोद मेहता हिंदी के पत्रकारों को ज्यादा तनख्वाह देने के हिमायती नहीं थे। लड़खड़ाती पत्रकारिता को संभाल उसे सहारा देना, उसे खडा करने में विनोद मेहता का बडा योगदान है, रहेगा। हिंदी बेल्ट के इस अंग्रेजी विनोद के जाने से दोनो पत्रकारिता जगत स्तब्ध है। हिंदी को वह वो स्थान देने को तैयार नहीं थे, जो वह अंग्रेजी को देते थे। पर क्या करूं विनोद जी आपको याद करते ये लेख मैं हिंदी में ही लिख रहा हूं।


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Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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