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राहुल तू निर्णय कर इसका.......!

Dr. Yogesh mishr
Published on: 10 March 2015 2:04 PM IST

इतिहास खुद को दोहराता है, यह सिर्फ किंवदंती नहीं बल्कि एक ऐसी हकीकत है जो समय के साथ, समय के अंतराल पर देश, काल, व्यक्ति, समाज और संस्थाओं के बीच कभी भी देखी जा सकती है। इन दिनों इतिहास की पुनरावृत्ति देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में देखी और महसूस की जा सकती है। मोतीलाल नेहरू 1928 में कांग्रेस अध्यक्ष बने और 1929 के लाहौर अधिवेशन में पार्टी की कमान जवाहरलाल नेहरू को सौंप दी गई। इसे केवल एक राजनीतिक संयोग कैसे कहा जा सकता है कि इंदिरा गांधी 1958 में छुट्टी पर जाना चाहती थीं और 1959 के दिल्ली अधिवेशन में उन्हें पार्टी अध्यक्ष चुन लिया गया। अगले साल उन्हें यह पद फिर देने की बात उठी, पर इंदिरा गांधी ने खुद इससे इनकार कर दिया और नीलम संजीव रेड्डी अध्यक्ष बने। जिस तरह कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के सिपहसालार उनके पार्टी अध्यक्ष होने की उम्मीद भरी मुनादी पीट रहे हैं। इतिहास को देखते हुए कहा जा सकता है कि कांग्रेस में अतीत की पुनरावृत्ति का अध्याय चल रहा है। यह बात दीगर है कि इस बार की ऐतिहासिक पुनरावृत्ति में मां- बेटे के बीच वो तारतम्यता नही है, जो पिछली बानगियों में देखने को मिलती रही है।
सत्ता के लिए राजप्रसादों में सघर्ष की बानगी से भारतीय इतिहास पटा पड़ा है। सम्राट बिंदुसार से लकेर औरंगजेब तक हर वंश, हर राज में गद्दी का रास्ता अपनों के विवाद की गलियों से होकर गुजरा है। अब इन संघर्षों से निकलकर कोई सम्राट अशोक बनता है, तो कोई बहादुरशाह जफर। राहुल गांधी छुट्टी पर हैं। छुट्टी पर क्यों हैं, इसे लेकर कई परिकल्पनाएं हैं। ऊपरी तौर पर तो उन्होंने ताजा राजनीतिक घटनाओं और पार्टी की कार्यप्रणाली पर आत्मचिंतन और आत्ममंथन के लिए कुछ समय मांगा है। उनकी अर्जी को सोनिया गांधी ने मंजूर करते हुए कहा कि उन्हें कुछ वक्त देने की जरूरत है। छुट्टी के दौरान राहुल गांधी कहां रहेंगे यह तो नहीं पता। लेकिन इतना साफ है कि आम बजट और रेल बजट के दौरान संसद में मौजूद नहीं रहे। कहा जा रहा है कि कांग्रेस में नंबर दो राहुल गांधी ने यह कदम दिल्ली में पार्टी की करारी हार के बाद उठाया है। दिल्ली में पन्द्रह सालों तक शासन करने वाली कांग्रेस को हालिया विधानसभा चुनावों में एक भी सीट नहीं मिली ।
हालांकि पार्टी के लोग बता रहे हैं कि राहुल की छुट्टी का संबंध आत्म-चिंतन से अधिक इसी साल बंगलुरु में कांग्रेस के प्रस्तावित महाधिवेशन से भी हो सकता है। उनका मानना है कि यह पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाने का प्रयास है कि कमान युवा पीढ़ी को सौंप दी जाए, जिसके लिए इंतजार दस साल से चल रहा है। पार्टी के जानकार तो यहां तक कहते हैं कि राहुल गांधी के छुट्टी मांगने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उनकी अर्जी स्वीकार कर ली। वे इसे दबाव के जवाब में डाला गया दबाव मानते हैं।
सोनिया गांधी संभवतः अब तक राहुल की नेतृत्व क्षमता से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं और यह फैसला नहीं कर सकी हैं कि पार्टी के पुराने दिग्गजों को दरकिनार कर सारा जिम्मा ‘राहुल ब्रिगेड’ को सौंप दिया जाए। इसका निर्णय शायद बंगलुरु में होना है।
नए और पुराने नेतृत्व के बीच एक को चुनने की बहस कांग्रेस में पहले भी कई बार हुई थी। उसी तर्ज पर, जैसी अब हो रही है। एक बार मोतीलाल नेहरू ने महात्मा गांधी को पत्र लिखकर कमान युवा नेतृत्व को सौंपने की सलाह दी। उन्होंने यहां तक कहा कि ‘जवाहर टाइप’ नए लोग जितनी जल्दी कमान संभालें, उतना बेहतर क्योंकि पुरानी नस्ल तेजी से खत्म हो रही है। उनका कहना था कि वल्लभभाई पटेल सबसे उपयुक्त व्यक्ति और विकल्प हैं लेकिन पार्टी अब नए लोगों को चलानी चाहिए। महात्मा गांधी स्वयं सरदार पटेल के पक्ष में थे, उन्होंने मोतीलाल की सलाह मानने से इनकार कर दिया और कहा कि ‘अभी जवाहर का समय नहीं आया है।’ लेकिन मोतीलाल नेहरू 1928 में कांग्रेस अध्यक्ष बने और 1929 के लाहौर अधिवेशन में पार्टी की कमान जवाहरलाल नेहरू को सौंप दी गई। 45 साल के इतिहास में यह पहला मौका था जब पिता ने अपने पुत्र को पार्टी की जिम्मेदारी दी।
कांग्रेस की अध्यक्षता का सवाल वर्ष 1939 में शायद सबसे गंभीर रूप से उठा, जब सुभाषचंद्र बोस ने महात्मा गांधी के उम्मीदवार भोगाराजू पट्टाभि सीतारमैया को 205 मतों से हरा दिया। गांधी इससे असंतुष्ट थे। उन्होंने कहा था, ‘पट्टाभि की हार मेरी हार है।’ इसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष की गद्दी पर वर्ष 1959 में इंदिरा गांधी ने छुट्टी के बाद हासिल की थी। इंदिरा नीलम संजीव रेड्डी ने पदभार संभाला। रेड्डी को कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर दक्षिण भारत से ही वर्ष 1964 में कामराज और वर्ष 1968 में निजलिंगप्पा ने पार्टी की जिम्मेदारी संभाली। पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल को छोड़कर कांग्रेस की अध्यक्षता नेहरू गांधी परिवार की राय को सबसे अहम मानकर एक से दूसरे को जाती रही। सीताराम केसरी इसके अंतिम अपवाद थे, जिनके बाद पार्टी फिर परिवार पर आश्रित हो गई।
आजादी के पहले और बाद की कांग्रेस में एक अंतर और भी है। आजादी से पहले अध्यक्षता के सवाल के केंद्र में पार्टी होती थी, वर्ष 1998 के बाद एक परिवार है, परिवार को पार्टी में विकल्प-शून्य समझा जाता है और ऐसे में केवल एक ही व्यक्ति इसका निर्णय कर सकता है- सोनिया गांधी। वर्तमान परिस्थितियों में राहुल गांधी की ये छुट्टी उनकी प्रबंधकीय क्षमताओं की हार के तौर पर देखी जा रही। स्नातक की पढाई के बाद राहुल ने विदेशी प्रबंधन गुरु माइकल पोर्ट की प्रबंधन परामर्श कंपनी मॉनिटर ग्रुप के साथ तीन साल तक काम किया। माइकल पोर्टर उन्हें प्रबंधन नहीं सिखा पाये या फिर उनके प्रबंधन से भारतीय राजनीति का तारतम्य बैठाने का हुनर राहुल उनसे हासिल नहीं कर पाये यह तो बहस का मुद्दा है, पर राजनैतिक विफलताओं का दौर कुछ ठीक ना होने की तरफ इशारा कर रहा है।
राहुल पर लिखे गए तमाम विश्लेषणों को देखिए, आपको राहुल गांधी पार्टी के लिए अभिशाप की तरह दिखेंगे । जानकार राहुल गांधी को लेकर गढ़े गये जुमलों के बारे में जितने आश्वस्त नजर आते हैं, उतने किसी नेता के बारे में नहीं होंगे। तमाम टिप्पणीकारों की बातों से ऐसा लगता है कि राहुल गांधी को नेता होने का अधिकार ही नहीं है। उन्हें ‘मूर्ख’ से लेकर ‘विदूषक’ तक कहा गया है। अब कम से कम कोई यह शिकायत नहीं कर सकता कि गांधी परिवार का होने के कारण किसी ने राहुल गांधी पर अंगुली नहीं उठाई। गांधी परिवार का होने के बावजूद और कारण भी राहुल गांधी की जो मजम्मत हुई है, वह अपने आप में दुर्लभ और कई मायनों में दुखद राजनीतिक घटना है।
हालांकि इसके लिए राहुल गांधी को अपने आलोचकों का शुक्रिया अदा करना चाहिए। कम से कम इन आलोचनाओं ने उन्हें शून्य से शुरुआत करने का एक शानदार मौका दिया है। सचिन तेंदुलकर जब शून्य पर आउट होते थे, तो कमेंटेटर कहते थे कि उम्मीदों का दबाव नहीं झेल पाए होंगे। राहुल गांधी से तो कुछ करने की उम्मीद ही नहीं की जाती है। बिना उम्मीद के माहौल में जीने का मौका मिले, इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। समाज और राजनीति ने राहुल गांधी को एक मौका दिया है। वह उम्मीदों के बोझ से मुक्त हैं। राहुल गांधी सचिन तेंदुलकर की तरह शिकायत नहीं कर सकते कि दुनिया ने उन्हें उम्मीदों के बोझ से लाद दिया। अगर वह कभी राजनीति में पास हो गए, तो जरूर आलोचना की इन कॉपियों को गर्व से देखेंगे कि दुनिया कभी मुझे ‘फेलियर’ समझती थी। अक्सर फेल होते रहने वाले की कामयाबी इतिहास में बड़ी जगह पा जाती है। नाकामी का वैसे भी कोई इतिहास नहीं होता। हिन्दुस्तान की राजनीति दुर्लभ किस्सों से भरी है। राजनीतिक दल से लेकर नेता तक न जाने कितने खारिज किए गए हैं। अटल बिहारी वाजपेयी, ममता बनर्जी, कांशीराम, मायावती, चंद्रबाबू नायडू। अनेक उदाहरण हैं, ताजा उदाहरण अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का है।
कांग्रेस क्यों हारी। क्या राहुल गांधी के होने की वजह से हारी या मनमोहन सिंह सरकार की नाकामी से या फिर हालात ही ऐसे थे, जिनमें कांग्रेस के लिए कुछ बचा नहीं था। सच-से लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोप, महंगाई और नेताओं का अहंकार। ऐसी परिस्थिति में राहुल गांधी क्या कर लेते कि वह विजेता बन जाते। अगर नेता ही विजय रचता है तो फिर दिल्ली में क्यों नहीं भाजपा ने जीत रच दी। शानदार बहुमत हासिल करने से पहले भाजपा ने अपनी पार्टी के भीतर क्या बदलाव किया था, जो राहुल गांधी नहीं कर रहे हैं। फिर भी कई मामलों में भाजपा नेता-संपन्न पार्टी है। आज सभी को सिर्फ नरेंद्र मोदी दिखते हैं, लेकिन इस पार्टी में हर स्तर पर इतने नेता हैं कि कभी भी इनमें से कोई शिखर पर आकर चुनावी रथ संभाल सकता है। कम से कम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का मजबूत बिछौना तो है ही। कांग्रेस के पास कुछ नहीं है। एक विचारधारा थी, जिसे लेकर सब ‘कन्फ्यूज’ हैं, दिगभ्रमित है। विचारधारा की बात आते ही कांग्रेस और भाजपा एक लगने लगती हैं। हर पार्टी बंद दरवाजे की तरह चलती है। एक भी पार्टी नहीं है, जो इससे अलग तरीके से चलने का दावा कर सके। राहुल गांधी अब विरासत के बोझ से मुक्त हैं। ऐसी मुक्ति तो इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी को भी नहीं मिली थी। उनके सामने एक बड़ा सा शून्य है, जिसमें उन्हें अपने और अपनी पार्टी के लिए एक शिखर खोजना है।
इस शून्य को खोजने के लिए राहुल को नेता से जनता का सफर भी तय करना होगा। जब राहुल गांधी माइकल की कंपनी में काम कर रहे थे। तो इस दौरान उनकी कंपनी और सहकर्मी इस बात से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे कि वो किसके साथ काम कर रहे हैं क्योंकि राहुल यहां एक छद्म नाम रॉल विंसी के नाम से कार्य करते थे। राहुल के आलोचक उनके इस कदम को उनके भारतीय होने से उपजी उनकी हीनभावना मानते हैं, जबकि काँग्रेसी उनके इस कदम को उनकी सुरक्षा से जोड़कर देखते हैं। कांग्रेस को रणनीतिकार नहीं चाहिए, नेता चाहिए, जो संसद में एक सामान्य नेता की तरह बोलता हो, प्रेस के सवालों का सामना करता हो, सड़कों पर भारत को खोजने के लिए नहीं, भारत को जीने के लिए जाता हो। रात को जब पहाड़ सो जाते हैं, तो आसमान जागते हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सारी चुनावी विफलताओं और अंशकालिक नेतृत्व के बावजूद दस जनपथ के राज प्रासाद के लिए राहुल गांधी की उपेक्षा करना संभव नहीं होगा।माना जा रहा है कि दबाव वाली छुट्टी से लौटकर राहुल गांधी पार्टी नेतृत्व संभाल लेंगे, जिस पर बंगलुरु में मुहर लग जाएगी, पार्टी देर-सबेर इस फैसले के पक्ष में खड़ी होगी। मोतीलाल नेहरू 1928 में कांग्रेस अध्यक्ष बने और 1929 के लाहौर अधिवेशन में पार्टी की कमान जवाहरलाल नेहरू को सौंप दी गई। इंदिरा गांधी 1958 में छुट्टी पर जाना चाहती थीं और 1959 के दिल्ली अधिवेशन में उन्हें पार्टी अध्यक्ष चुन लिया गया। बंगलुरू का अधिवेशन अप्रैल में हैं और राहुल छुट्टी पर हैं।
Dr. Yogesh mishr

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