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यूं ही महात्मा नहीं बने गांधी

Dr. Yogesh mishr
Published on: 17 March 2015 2:06 PM IST
‘‘हमारी जिंदगियों से रौशनी चली गयी’’- ये वे शब्द थे जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरु ने 1948 में रेडियो पर तब कहे थे, जब वह महात्मा गांधी की मृत्यु की खबर सुनाने के लिए देश से मुखातिब हुए थे, जिंदगी की रौशनी किसी को यूं ही नहीं कहा जाता है। पूरे देश भर की जिंदगियों की रौशनी बनने का संघर्ष उस लडाई से बिलकुल कमतर नहीं था, जिसने मोहनदास करमचंद गांधी की जीवन यात्रा को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जीवन यात्रा पर विराम दिया। वर्ष 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिदास द्वारा दी गयी महात्मा की उपाधि को मोहनदास करमचंद गांधी ने न केवल साकार करके दिखाया बल्कि उस पर इस कदर अमल किया कि जैसे-जैसे दिन, महीने, साल गुजरते जा रहे हैं वैसे- वैसे महात्मा गांधी की प्रासंगिकता और बढ़ती जा रही है। वे चिर प्रासंगिक होते जा रहे हैं। यह महात्मा गांधी की लोकप्रियता और चिर प्रासंगिकता का ही तकाजा है कि अलबर्ट आइंसटीन से लेकर बराक ओबामा तक उनके मुरीद हैं। अल्बर्ट आइंसटीन ने महात्मा गांधी के बारे में कहा था, ‘‘मेरा विश्वास है कि गांधी के विचार आज और आने वाली पीढ़ियो के राजनेताओं में सबसे सामयिक, उत्प्रेरक और समीचीन हैं।” जबकि बीसवीं सदी का गांधी कहे जाने वाले दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपिति नेलसन मंडेला के लिए भी महात्मा गांधी ना सिर्फ प्रेरणा स्त्रोत रहे बल्कि उनकी लडाइयों में उनके लिए गांधी के सूत्र हथियार की तरह काम आए। अमरीका में रंगभेद आंदोलन के पितामह मार्टिन लूथर किंग ने तो यहां तक कहा, ‘‘ईसा मसीह ने हमे लक्ष्य दिए, तो महात्मा गांधी ने उन्हें हासिल करने की रणनीति।’’ अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की इस इच्छा में महात्मा गांधी की प्रासंगिकता ठीक से रेखांकित होती है, जिसमें वर्ष 2009 में एक छात्रा के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि अगर ईश्वर उन्हें अब तक के जीवत या दिवंगत हुई, हस्तियों में किसी एक के साथ रात के भोजन का अवसर दें, तो वह महात्मा गांधी को चुनना पसंद करेंगे।

लेकिन भारत में महात्मा गांधी का उपयोग लोग उनकी आलोचना करते हुए उनके कंधे पर सवार होकर अपना कद बढ़ाने के लिए करने लगे हैं। यह चलन आजादी से अब तक बदस्तूर जारी है। यही वजह है कि पाकिस्तान के कायद-ए-आजम मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को प्रतिपादित करने के लिए गांधी की आलोचना को हथियार बनाया। महात्मा गांधी की हत्या कर के नाथूराम गोडसे अपने प्रसंग में कालजयी हो गया। शायद यही वजह है कि अभी कुछ दिन पहले कुछ सिरफिरे गोडसे की प्रतिमा और मंदिर की बात कर रहे थे। देश की सत्ताधारी भाजपा के सांसद साक्षी महाराज ने तो गोडसे को राष्ट्रभक्त होने का का प्रमाण दे दिया था। उत्तर प्रदेश में जब बसपा नेपथ्य में थी, तो उसके नेता कांशीराम और मायावती ने महात्मा गांधी के खिलाफ आग उगल कर सुर्खियां हासिल कर ली थीं। हाल फिलहाल महात्मा गांधी की आलोचना और उन पर फितरे कसते हुए सुर्खियां हासिल करने की जुगत में सर्वोच्च अदालत के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू जुटे हुए हैं। हांलांकि यह काटजू का नया शगल नहीं है। ऊटपटांग बयान के मार्फत सुर्खियां हासिल करना उनकी आदत का हिस्सा है। पहले उनका यह तौर तरीका अदालतो में मनचाहे फैसले देने का काम कर रहा था। काटजू ने न्याय नहीं किया। फैसले दिये। कभी वह 90 फीसदी भारतीयों को मूर्ख करार देते हैं, कभी राष्ट्रपति के पद पर कैटरीना कैफ को देखना चाहते हैं। कभी राजनीति में सुंदर महिलाओं को आने की इसलिए वकालत करने लगते हैं, ताकि मीडिया में उन्हें देखकर काटजू को थोड़ी देर के लिए तसल्ली मिले। जब इन ऊटपटांग बयानों से काटजू को वह शोहरत हासिल नहीं हुई, जिसकी तमन्ना वह वकील, जज और फिर प्रेस परिषद के अध्यक्ष के तौर पर काम करने के दौरान भी हासिल नहीं कर पाए तो उन्होंने राष्ट्रपति महात्मा गांधी को अंग्रेजों का एजेंट करार दिया। अपने ब्लाग ‘सत्यम् ब्यू्रयात’ में उन्होने नए राष्ट्रपिता के मुगल बादशाह अकबर का नाम भी सुझा दिया। काटजू ने जो कुछ किया और कहा वह सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए किए गये कार्यो में भी शुमार नहीं किया जा सकता क्योंकि काटजू के ब्लाग का नाम जिस सत्यम् ब्रुर्यात श्लोक से लिया गया है उसकी अगली लाइनांे में साफ लिखा है कि ‘‘सत्यम् ब्यु्रयात, प्रियम् ब्य्रुयात, न ब्य्रुयात सत्यम् अप्रियम्’। इस श्लोक में सत्य भी अप्रिय ना बोलने की नसीहत दी गयी है। काटजू तो अप्रिय भी बोल रहे हैं और असत्य भी। ऐसा इसलिए दावे के साथ कहा जा सकता है क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या या उससे पहले से लेकर आज तक उनके तमाम आलोचको ने उनके लिए ब्रिटिश एजेंट जैसा भद्दा बेहूदा शब्द इस्तेमाल नहीं किया। यहां तक कि महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे या फिर उस विचारधारा के किसी भी नेता ने महात्मा गांधी की मुस्लिमपरस्ती को लेकर सवाल उठाये हंै। एक भी सवाल उनकी राष्ट्रभक्ति, देश के प्रति निष्ठा या फिर देश से गद्दारी को लेकर नहीं उठे हैं। गांधी के रवींद्र नाथ टैगोर, सुभाष चंद्र बोस, डॉ भीमराव अंबेडकर सरीखे तमाम हस्तियों से वैचारिक मतभेद थे। लेकिन ऐसे आरोप गांधी के दुश्मनों ने भी नहीं मढे। यह भी सच्चाई है कि सबकी नाराजगी की वजह अलग-अलग थी। यह दुर्भाग्य है कि गांधी की आलोचना उन लोगों ने ज्यादा की है, जिन्होंने गांधी को पढा नहीं है। समझा नहीं। क्योंकि जो गांधी को पढ़ लेगा वह ऐसे भद्दे आरोप तो छोडिए उन्हें आलोचना की जद से भी बाहर रखेगा क्योंकि गांधी शायद दुनिया के उन इकलौते लोगों में शुमार हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन सत्य के साथ गुजारा। उनका जीवन एक खुली किताब है। गांधी की आलोचना करने से पहले काटजू को कम से कम एक दिन सत्य के साथ गुजारने की कोशिश करनी चाहिए। यह बात दीगर है कि गांधी की आलोचना करके, उन पर आरोप मढ़कर काटजू कई विधानसभा कार्यवाहियों में ही निंदा के ही सही, पात्र बने। लोकसभा और राज्यसभा में भी उनकी निंदा हुई पर काटजू को यह नहीं भूलना चाहिए कि अपनी तकरीबन 70 साल की उम्र में उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया, जिससे उनका नाम इन सदनों की कार्यवाही का हिस्सा बनता। मतलब साफ है कि काटजू की सोच का फलक इतना विस्तृत नहीं हो सकता कि उसमें गांधी की विराटता समा जाय।काटजू को शायद इतिहास का भी वह ज्ञान नहीं है, जो अनिवार्य तौर पर आवश्यक समझा जाता है। क्योंकि ब्रितानी हुकूमत को हिंसा के मार्फत पराजित करने की शक्ति उन दिनों दुनिया में किसी के पास नहीं थी। तभी बापू ने उनसे लड़ने के लिए अहिंसा को हथियार बनाया। आजादी भारत को भले ही वर्ष 1947 में मिली हो पर ऐतिहासिक हकीकत यह है कि तकरीबन उससे 17 साल पहले दांडी यात्रा के समय ही अंग्रेजों ने यह मन बना लिया था कि भारत पर राज करना अब उनके लिए संभव नहीं है। इसकी गवाह दांडी यात्रा को लेकर बनी फिल्म थी। जिसे ब्रिटेन में महारानी की उपस्थिति में देखा गया। यह पहली ऐसी यात्रा थी, जिसमें स्वयंसेवक पुलिसिया उत्पीडन के खिलाफ पुलिस से टकराने, उनकी लाठियां पकड़ने की जगह घायल स्वयंसेवकों को किनारे लगाते हुए यात्रा को अनवरत जारी रखे हुए थे। इस फिल्म को ब्रिटेन में देखने के बाद अग्रेंजों को लगा कि गांधी ने भारतीय जनमानस की तैयारी कुछ इस कदर करा दी है कि अब उन पर राज करना संभव नहीं है।

गांधी को लेकर आमतौर पर जो सवाल उठते हैं, उनमें एक सवाल सुभाष चंद्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष पद पर विजयी हो जाने के बाद उनका इस्तीफा लेना और फिर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु सरीखे क्रांतिकारियों के लिए माफी ना हासिल कर पाने सरीखे आरोप शामिल हैं। पर अगर फिरोज अब्बास खान की फिल्म ‘गांधी माई फादर’ देखी जाय, तो इन सवालों का जवाब भी मिल जाता है। लेकिन लगता है कि काटजू ने इस फिल्म को तो नहीं ही देखा है बल्कि वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय रही रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ भी नहीं देखी थी। अन्यथा काटजू इस तरह के सवाल उठाने की हिम्मत नहीं कर पाते क्योंकि अगर अग्रेजों से गांधी के किसी भी तरह प्रेम के रिश्ते होते तो वह आंख में आंख डालकर बात करने की स्थिति में नहीं होते। यह गांधी के संघर्ष का गौरव ही था कि अंग्रेज उनसे ड़रते थे उनसे बचते थे। काटजू को धार्मिकता और सांप्रदायिकता का अंतर भी नहीं पता है। लगता है राजनेताओं की तरह वह धर्मनिरपेक्षता का आवरण ओढ़े हुए हैं। क्योंकि जिस धर्म की बात करते हैं वह परंपरावादी भले है लेकिन उससे हिंदू और मुसलमान दोनों को ताकत मिलती थी। वह किसी में भी भय उत्पन्न नही करता था। गाधी ने खुद अपनी आत्मकथा में लिखा है ‘‘यदि मैं ईसाई धर्म को आदर्श के रूप में या महानतम रूप में स्वीकार नहीं कर सकता तो कभी भी मैं हिन्दुत्व के प्रति इस प्रकार दृढ़ निश्चयी नहीं बन पाता. हिंदू दोष दुराग्रह्पुर्वक मुझे दिखाई देती थी यदि अस्पृश्यता हिंदुत्व का हिस्सा होता तो वह इसका सबसे सडा अंग होता। सम्प्रदायों की अनेक जातियों और उनके अस्तित्व को मैं कभी समझ नहीं सकता इसका क्या अर्थ है कि वेद परमेश्वर के शब्द से प्रेरित है ? यदि वें प्रेरित थे तो क्यों नहीं बाइबल और कुरान ? ईसाई दोस्त मुझे परिवर्तित करने का प्रयास करते हैं तो मुस्लिम दोस्त क्या करेंगे अब्दुल्लाह शेठ मुझे हमेशा इस्लाम का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करते थे और निश्चित रूप से हमेशा इस्लाम की सुन्दरता का ही बखान करते थे। गांधी ने खुद इसी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि ष्हाँ मैं हूँ.मैं भी एक ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध और यहूदी हूँ.।’’

पाकिस्तान के सवाल पर गांधी का स्टैंड हिंदू मुस्लमान को लेकर नहीं था, हिंसा के खिलाफ था। पश्चिमी सभ्यता और आधुनिकता के विरोधी गांधी इसलिए थे क्योंकि वह क्षुद्रता जनती है और मनुष्यता विरोधी प्रवृति को बढावा देती है।

पश्चिम ज्ञान परंपरा में व्यक्तिवाद ज्यादा महत्वपूर्ण है। पश्चिमी सभ्यता और अर्थव्यवस्था के विरोधी इसलिए भी थे, क्योंकि वह पूरी तरह से पूरी तरह से भौतिकवादी है। भारतीय सभ्यता का भाववाद उसमें तिरोहित हो जाता है। पश्चिमी सभ्यता में बौद्धिक ईमानदारी औपनिवेशिक दंभ के आवरण में रहती है। जो शख्स उस देश की सभ्यता को पसंद ना करता हो उस पर उस देश की एजेंट होने की तोहमत मढ़ना मानसिक दीवालियापन नहीं तो और क्या कहा जा सकता है ? गांधी को हथियार बनाकर लडाइयां जीत लेने, उन्हें अपना आदर्श बताकर नये प्रतिमान गढ़ लेने वाले
आइंस्टीन, मार्टिन लूथर किग, नेल्सन मंडेला, आन सू की और बराक ओबामा से बडे अभी काटजू नहीं हैं। इसलिए काटजू के लिये यह जरुरी है कि पहले इन लोगों के आस पास खडे होने की कूव्वत जुटायें फिर गांधी पढें, समझें और उसके बाद उस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग-दुरुपयोग करें जो गांधी के प्रयासों से हासिल हुई है।


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Dr. Yogesh mishr

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