TRENDING TAGS :
पांच गांव की जमीन से शुरु हुई थी महाभारत...
पांच गांव नहीं देने की वजह से आर्यवर्त की जमीन महाभारत जैसे भीषण संग्राम की गवाह बनने को अभिशप्त हुई। जमीन का रिश्ता किसान से होता है। युद्ध से भी होता है। लडाई की तीन वजहों में से करीब-करीब सबसे बड़ी वजह जमीन ही होती है। इन दिनों किसान और जमीन को लकेर देश में युद्ध छिडा है। महाभारत का शंखनाद हुआ है। सियासी ही सही। सभी राजनैतिक दल अपनी अपनी तलवारें म्यान से निकाल चुके हंै। सान चढा चुके हैं। किसान हितैषी बनने की होड़ में राजनीति के माहिर खिलाडियो ने भूमि अधिग्रहण विधेयक को हथियार बना लिया है। हालांकि इस सच्चाई से इनकार नही किया जा सकता कि इसके पीछे कुछ प्रवृत्तियों और विचारधाराओं का भी संघर्ष है। यही वजह है कि नरेंद्र मोदी सरकार संप्रग सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून को कुबूल करने की जगह नया कानून लेकर आयी है। राज्यसभा में बहुमत का आंकडा जुटाए कांग्रेस संयुक्त विपक्ष के साथ संप्रग सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून को कुबूल करने का दबाव बनाए है। संसद को अप्रिय कलह का केंद्र बनाया गया है। सरकार जवाबदेही से बचने की कोशिश में है। विपक्ष सरकार को नीचा दिखाने की मशक्कत मे है। मतलब साफ है कि भूमि अधिग्रहण कानून के बहाने सियासी शह मात का खेल चल रहा है। बिसात पर किसान है।
वजह भी साफ है, क्योंकि पश्चिम बंगाल नंदी ग्राम में और सिंगूर के भूमि अधिग्रहण ने 34 वर्षो से काबिज वामपंथी सरकार के पराभव की जमीन तैयार कर दी थी। लिहाजा एक ऐसे समय जब संसद में भूमि अधिग्रहण को लेकर विधेयक जेरे बहस हो तो अपनी राजनैतिक जमीन बचाने और उसे बढाने को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच किसान हितैषी होने की लाग-डाट लाजमी है। भूमि अधिग्रहण को लेकर पहला कानून वर्ष 1894 में अंग्रेजों ने बनाया था। इस कानून का नफा- नुकसान समझने के लिए सिर्फ एक नजीर पर्याप्त है कि दिल्ली के जिस लुटियन जोन में हमारी संसद,राष्ट्रपति भवन, साउथ ब्लाक और नार्थ ब्लाक जैसी इमारतें हैं, यहां के किसानों को एक साल पहले तक पूरा मुआवजा नहीं मिल पाया था। मालचा गांव के किसानों की पीढियों को भी शायद वर्ष 2013 में थोड़ी राहत का एहसास हुआ होगा, जब मनमोहन सिंह की सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक लेकर आयी। देश आजाद हो गया। हम आजादी मनाते रहे। नेता आजादी पर लंबे-चैडे भाषण देते रहे, पर 67 साल तक यह याद नहीं आया कि आजादी की इबारत लिखने वाले लुटियन जोन के किसान और इस तरह के लाखों किसान अब भी आजाद मुल्क के इस गुलाम कानून की बलिवेदी पर पीढियां कुर्बान कर रहे हैं।
आजादी के 66 साल बाद लाए गए कानून में जब किसानों की जमीन के जबरन अधिग्रहण से निजात की कुछ व्यवस्था की गयी थी। लेकिन यह व्यवस्था भी मुकम्मल तौर पर सरकार जाने के ठीक 6-7 महीने रह पायी। यह बात दूसरी है कि तकरीबन दो साल तक यह विधेयक-कानून अलग अलग प्लेटफार्म पर जेरे बहस रहा। 158 छोटे बड़े संशोधन हुए। जिनमें 28 बड़े संशोधन भी शामिल थे। कानून में न सिर्फ जमीन के उचित मुआवजे का प्रावधान किया गया है, बल्कि भू- स्वामियों के पुनर्वास और पुर्नस्थापन की पूरी व्यवस्था की गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिग्रहण पर किसानों को बाजार भाव से चार गुना दाम मिलेंगे, जबकि शहरी इलाकों में जमीन अधिग्रहण पर भू स्वामी को बाजार भाव से दोगुने दाम मिल सकेंगे। संप्रग सरकार के इस बिल की सबसे बड़ी उपलब्धि यह मानी जा रही थी कि प्राइवेट कंपनियां अगर जमीन अधिग्रहीत करती हैं, तो उनके वहां के 80 फीसदी स्थानीय लोगों की रजामंदी जरूरी होगी।
एक लंबे विमर्श और तत्कालीन भाजपा नेताओं से बातचीत के बाद जारी भूमि अधिग्रहण कानून को नरेंद्र मोदी सरकार ने खारिज कर दिया। कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान से विजय हासिल किए यह लाजमी था। लेकिन इस कानून के प्रतिस्थापन में नरेंद्र मोदी सरकार जो विधेयक लेकर आई उसमें खुद-ब-खुद कई पेंच थे, कमियां थीं। लिहाजा़ सरकार की मंशा पर सवाल उठना लाजमी था। सरसरी तौर पर देखने में अध्यादेश औद्योगिक घरानों के पक्ष में खड़ा दिख रहा था। इस अध्यादेश और संप्रग सरकार के कानून में अंतर थे। कांग्रेस के कानून में निजी क्षेत्र और पीपीपी माडल के लिए किसानों से सहमति का प्रावधान रखा गया था, जबकि राजग सरकार के अध्यादेश में यह गायब था। सामाजिक प्रभाव के आंकलन का पक्ष भी नदारद था। अध्यादेश में उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण करीब करीब ना करने, पांच साल में परियोजना न शुरु करने पर जमीन वापस करने और कानून की अनदेखी करने पर अफसरों के खिलाफ कार्रवाई के प्रावधान गायब कर राजग सरकार ने अपनी आलोचना के पिटारे को खुद ही खोल दिया। सबसे बड़े आघात के तौर पर किसान को उसके जिले में ही अपील का अधिकार छीनने को देखा गया।
मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की प्रति और बीते रविवार को किसानों से उनकी ओर से की गयी ‘मन की बात’ का मिलान किया जाय, तो यह साफ होता है कि या तो अध्यादेश मोदी की नजर से नहीं गुजरा अथवा वह जो ‘मन की बात’ किसानों से कर रहे थे, वह दिल की जगह दिमाग की बात थी। क्योंकि लोकसभा में भले ही बहुमत के बल पर 9 संशोधनों के साथ अध्यादेश पारित करा लिया गया हो, पर जिस तरह इस सवाल पर संयुक्त विपक्ष ने सोनिया गांधी की सरपरस्ती कुबूल की और राज्यसभा में इसे संशोधन के बावजूद पारित ना होने देने पर आमादा है, उससे यह तो साफ है कि जमीन को लेकर यह जंग सियासी महाभारत की पटकथा लिख रही है। क्योंकि सबको पता है कि किसान एक बड़ा वोट बैंक है। देष के तकरीबन 6.4 लाख गांव से होकर दिल्ली का रास्ता जाता है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान भले ही छठवें हिस्से से कम हो। देश में 198 सांसदों ने अपना पेशा किसानी लिखा हो। ऐसे में किसान वोट बैंक पर नजर होना बेवजह नहीं कहा जा सकता।
किसानों की लड़ाई लड़कर चरण सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। देवीलाल उपप्रधानमंत्री बन बैठे। मुलायम सिंह यादव देश के सबसे बडे सूबे के बेताज बादशाह हैं। मतलब साफ है कि किसानों के वोटों के बिना सत्ता का स्वाद चखना बेहद मुश्किल है। गत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने ग्रामीण क्षेत्रों में आधी सदी से कायम अपनी मजबूत जमीन गंवा दी। अब वह अपनी उस खोई हुई जमीन को वापस हासिल करने के लिए बेचैन है। भूमि अधिग्रहण विधेयक को वह इसी के एक अवसर की तरह देखती है। कांग्रेस को यह एक ऐसा अवसर भी मुहैया कराता है, जिसमें सोनिया गांधी के पीछे 14 दलों के दिग्गज नेता हाथ बांधकर खड़े होते हैं। विपक्षी एका का यह दृश्य नया नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के सवाल को लेकर कई बार विपक्षी एकजुटता का परिचय दे चुके हैं।
इस एकजुटता से निपटने के लिए ही मोदी ने किसानों से बात करने का ‘मन’ बनाया। किसानों को बताया कि कांग्रेस का कानून बदलना जरुरी इसलिए था, क्योंकि वह आनन फानन में लाया गया कानून किसानों के साथ धोखा था। मोदी जब किसानों से ‘मन की बात’ में रुबरू हो रहे थे, तब तक विवादास्पद सारे अंशों को सुधार लिया गया था। विपक्ष के तकरीबन 52 में 9 उन संशोधनों को विधेयक का हिस्सा बना लिया गया था, जिसे लेकर किसान संगठन और अन्ना हजारे की भी नाइत्तेफाकी थी। इतना ही नहीं, मोदी सरकार के इस विधेयक में सरकारी और देश की प्रगति से जुडे कुछ अधिग्रहण जैसे रेलवे, पुल, नेशनल हाईवे को भी चार गुना मुआवजे की जद में ला दिया गया था। ये प्रावधान अब से पहले किसी भी कानून में नहीं था। ‘मन की बात’ में मोदी ने किसानों को यह भी समझाया कि कांग्रेस के कानून में निजी क्षेत्र के लिए भूमि अधिग्रहण के वास्ते कोई बदलाव नहीं किया गया है। ऐसे में यह कहना कि नया विधेयक कारपोरेटपरस्त है, एक सियासी बिसात है। मोदी ने लोकसभा में भी कई सवालों पर उतनी साफगोई से जवाब नहीं दिए थे जितनी साफगोई से उन्होंने ‘मन की बात’ में सिलसिलेवार सब कुछ रखा। ‘मन की बात’ सुनने के बाद यह भरोसा होना लाजमी होना चाहिए कि अब जो भूमि अधिग्रहण विधेयक संसद की रजामंदी के इंतजार में है, वह वैसा नहीं है जैसा विपक्ष कह रहा है। पर यह भी सच नहीं है कि 9 संशोधनों के लागू किए जाने के पहले विपक्ष के आरोप खारिज करने लायक नहीं थे। ऐसे में अब यह सवाल और मौजूं हो जाता है कि फिर भूमि अधिग्रहण के विधेयक-कानून को लेकर हाय तौबा क्यों? सियासत क्यों ? क्या सचमुच पक्ष और विपक्ष इतने किसान हितैषी हो उठे हैं ? इनकी नीयत कितनी पाक है ? कल तक सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जेरे बहस इस विधेयक ने किसानों के सामने बहस का एक नया सवाल खड़ा कर दिया है। जिन दलों से लोकतंत्र खुद गायब है उसके नेताओं के लिए दलहित प्राथमिक हो गया है। वे जनहित-किसान हित की बात क्यों कर रहे हैं ? वह भी तब जबकि चुनाव नेपथ्य में है। नई आर्थिक नीति आने के बाद के दस साल में तकरीबन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की। कृषि का बजट 8449 करोडों रूपए से घट गया। किसानों को न्यूनतम मूल्य नहीं मिल पा रहा है। 25 करोड़ किसान भूमिहीन हैं। खादें निरंतर महंगी हो रही हैं। लेकिन इन सारे सवालों पर किसान हित की बात करने वाले दलों की खामोशी है !
कांग्रेस को घेरने के लिए मोदी ने पिछले लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड़रा की जमीनों को लेकर खूब फितरे कसे थे। उनके लिए अधिग्रहीत की गयी जमीन चुनावी एजेंडा बनी थी। राजस्थान और हरियाणा ऐसे राज्य थे, जहां की सरकारों ने वाडरा और उनसे जुड़ी परियोजनाओं के लिए किसानों की जमीनों का अधिग्रहण किया था। आज जब सोनिया गांधी नरेंद्र मोदी को भूमि अधिग्रहण विधेयक पर घेरने के लिए संयुक्त विपक्ष के साथ कदमताल कर रही हैं, तब भी वह हरियाणा और राजस्थान के दौरे पर हैं। वहीं के किसानों से मिल रही हैं। मतलब साफ है कि जमीन की इस पूरी जंग में युद्धरत भले सत्ता पक्ष और विपक्ष हो। वही दिख रहा हो। पर हकीकत यह है कि जीत हार का खेल इनके अलावा उन किसानों के साथ भी खेला जायेगा,
हारना जिनकी नियति का हिस्सा बन बैठा है। विकास के लंबे चैड़े दावों के बीच पानी के लिए मौसम पर निर्भर रहना, रुपयों के लिए साहूकारों के चक्कर लगाना, खेती के मार्फत तकरीबन दो तिहाई आबादी का बोझ उठाना और फिर 125 करोड़ लोगों के पेट भरने की जिम्मेदारी का निर्वाह करना जिनके रोजनामचा का हिस्सा है।
बहरहाल, महाभारत तब भी हुई थी। जीत किसी की नहीं हुई थी। सब हारे थे। महाभारत अब भी हो रही है। स्वरुप बदला है। लडाई जारी है। पिछली महाभारत में कहा गया कि धर्म जीता था। किसान के लिए जमीन से बडा कोई धर्म नहीं। सवाल यह भी है कि क्या इस बार धर्म जीतेगा।
वजह भी साफ है, क्योंकि पश्चिम बंगाल नंदी ग्राम में और सिंगूर के भूमि अधिग्रहण ने 34 वर्षो से काबिज वामपंथी सरकार के पराभव की जमीन तैयार कर दी थी। लिहाजा एक ऐसे समय जब संसद में भूमि अधिग्रहण को लेकर विधेयक जेरे बहस हो तो अपनी राजनैतिक जमीन बचाने और उसे बढाने को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच किसान हितैषी होने की लाग-डाट लाजमी है। भूमि अधिग्रहण को लेकर पहला कानून वर्ष 1894 में अंग्रेजों ने बनाया था। इस कानून का नफा- नुकसान समझने के लिए सिर्फ एक नजीर पर्याप्त है कि दिल्ली के जिस लुटियन जोन में हमारी संसद,राष्ट्रपति भवन, साउथ ब्लाक और नार्थ ब्लाक जैसी इमारतें हैं, यहां के किसानों को एक साल पहले तक पूरा मुआवजा नहीं मिल पाया था। मालचा गांव के किसानों की पीढियों को भी शायद वर्ष 2013 में थोड़ी राहत का एहसास हुआ होगा, जब मनमोहन सिंह की सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक लेकर आयी। देश आजाद हो गया। हम आजादी मनाते रहे। नेता आजादी पर लंबे-चैडे भाषण देते रहे, पर 67 साल तक यह याद नहीं आया कि आजादी की इबारत लिखने वाले लुटियन जोन के किसान और इस तरह के लाखों किसान अब भी आजाद मुल्क के इस गुलाम कानून की बलिवेदी पर पीढियां कुर्बान कर रहे हैं।
आजादी के 66 साल बाद लाए गए कानून में जब किसानों की जमीन के जबरन अधिग्रहण से निजात की कुछ व्यवस्था की गयी थी। लेकिन यह व्यवस्था भी मुकम्मल तौर पर सरकार जाने के ठीक 6-7 महीने रह पायी। यह बात दूसरी है कि तकरीबन दो साल तक यह विधेयक-कानून अलग अलग प्लेटफार्म पर जेरे बहस रहा। 158 छोटे बड़े संशोधन हुए। जिनमें 28 बड़े संशोधन भी शामिल थे। कानून में न सिर्फ जमीन के उचित मुआवजे का प्रावधान किया गया है, बल्कि भू- स्वामियों के पुनर्वास और पुर्नस्थापन की पूरी व्यवस्था की गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिग्रहण पर किसानों को बाजार भाव से चार गुना दाम मिलेंगे, जबकि शहरी इलाकों में जमीन अधिग्रहण पर भू स्वामी को बाजार भाव से दोगुने दाम मिल सकेंगे। संप्रग सरकार के इस बिल की सबसे बड़ी उपलब्धि यह मानी जा रही थी कि प्राइवेट कंपनियां अगर जमीन अधिग्रहीत करती हैं, तो उनके वहां के 80 फीसदी स्थानीय लोगों की रजामंदी जरूरी होगी।
एक लंबे विमर्श और तत्कालीन भाजपा नेताओं से बातचीत के बाद जारी भूमि अधिग्रहण कानून को नरेंद्र मोदी सरकार ने खारिज कर दिया। कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान से विजय हासिल किए यह लाजमी था। लेकिन इस कानून के प्रतिस्थापन में नरेंद्र मोदी सरकार जो विधेयक लेकर आई उसमें खुद-ब-खुद कई पेंच थे, कमियां थीं। लिहाजा़ सरकार की मंशा पर सवाल उठना लाजमी था। सरसरी तौर पर देखने में अध्यादेश औद्योगिक घरानों के पक्ष में खड़ा दिख रहा था। इस अध्यादेश और संप्रग सरकार के कानून में अंतर थे। कांग्रेस के कानून में निजी क्षेत्र और पीपीपी माडल के लिए किसानों से सहमति का प्रावधान रखा गया था, जबकि राजग सरकार के अध्यादेश में यह गायब था। सामाजिक प्रभाव के आंकलन का पक्ष भी नदारद था। अध्यादेश में उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण करीब करीब ना करने, पांच साल में परियोजना न शुरु करने पर जमीन वापस करने और कानून की अनदेखी करने पर अफसरों के खिलाफ कार्रवाई के प्रावधान गायब कर राजग सरकार ने अपनी आलोचना के पिटारे को खुद ही खोल दिया। सबसे बड़े आघात के तौर पर किसान को उसके जिले में ही अपील का अधिकार छीनने को देखा गया।
मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की प्रति और बीते रविवार को किसानों से उनकी ओर से की गयी ‘मन की बात’ का मिलान किया जाय, तो यह साफ होता है कि या तो अध्यादेश मोदी की नजर से नहीं गुजरा अथवा वह जो ‘मन की बात’ किसानों से कर रहे थे, वह दिल की जगह दिमाग की बात थी। क्योंकि लोकसभा में भले ही बहुमत के बल पर 9 संशोधनों के साथ अध्यादेश पारित करा लिया गया हो, पर जिस तरह इस सवाल पर संयुक्त विपक्ष ने सोनिया गांधी की सरपरस्ती कुबूल की और राज्यसभा में इसे संशोधन के बावजूद पारित ना होने देने पर आमादा है, उससे यह तो साफ है कि जमीन को लेकर यह जंग सियासी महाभारत की पटकथा लिख रही है। क्योंकि सबको पता है कि किसान एक बड़ा वोट बैंक है। देष के तकरीबन 6.4 लाख गांव से होकर दिल्ली का रास्ता जाता है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान भले ही छठवें हिस्से से कम हो। देश में 198 सांसदों ने अपना पेशा किसानी लिखा हो। ऐसे में किसान वोट बैंक पर नजर होना बेवजह नहीं कहा जा सकता।
किसानों की लड़ाई लड़कर चरण सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। देवीलाल उपप्रधानमंत्री बन बैठे। मुलायम सिंह यादव देश के सबसे बडे सूबे के बेताज बादशाह हैं। मतलब साफ है कि किसानों के वोटों के बिना सत्ता का स्वाद चखना बेहद मुश्किल है। गत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने ग्रामीण क्षेत्रों में आधी सदी से कायम अपनी मजबूत जमीन गंवा दी। अब वह अपनी उस खोई हुई जमीन को वापस हासिल करने के लिए बेचैन है। भूमि अधिग्रहण विधेयक को वह इसी के एक अवसर की तरह देखती है। कांग्रेस को यह एक ऐसा अवसर भी मुहैया कराता है, जिसमें सोनिया गांधी के पीछे 14 दलों के दिग्गज नेता हाथ बांधकर खड़े होते हैं। विपक्षी एका का यह दृश्य नया नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के सवाल को लेकर कई बार विपक्षी एकजुटता का परिचय दे चुके हैं।
इस एकजुटता से निपटने के लिए ही मोदी ने किसानों से बात करने का ‘मन’ बनाया। किसानों को बताया कि कांग्रेस का कानून बदलना जरुरी इसलिए था, क्योंकि वह आनन फानन में लाया गया कानून किसानों के साथ धोखा था। मोदी जब किसानों से ‘मन की बात’ में रुबरू हो रहे थे, तब तक विवादास्पद सारे अंशों को सुधार लिया गया था। विपक्ष के तकरीबन 52 में 9 उन संशोधनों को विधेयक का हिस्सा बना लिया गया था, जिसे लेकर किसान संगठन और अन्ना हजारे की भी नाइत्तेफाकी थी। इतना ही नहीं, मोदी सरकार के इस विधेयक में सरकारी और देश की प्रगति से जुडे कुछ अधिग्रहण जैसे रेलवे, पुल, नेशनल हाईवे को भी चार गुना मुआवजे की जद में ला दिया गया था। ये प्रावधान अब से पहले किसी भी कानून में नहीं था। ‘मन की बात’ में मोदी ने किसानों को यह भी समझाया कि कांग्रेस के कानून में निजी क्षेत्र के लिए भूमि अधिग्रहण के वास्ते कोई बदलाव नहीं किया गया है। ऐसे में यह कहना कि नया विधेयक कारपोरेटपरस्त है, एक सियासी बिसात है। मोदी ने लोकसभा में भी कई सवालों पर उतनी साफगोई से जवाब नहीं दिए थे जितनी साफगोई से उन्होंने ‘मन की बात’ में सिलसिलेवार सब कुछ रखा। ‘मन की बात’ सुनने के बाद यह भरोसा होना लाजमी होना चाहिए कि अब जो भूमि अधिग्रहण विधेयक संसद की रजामंदी के इंतजार में है, वह वैसा नहीं है जैसा विपक्ष कह रहा है। पर यह भी सच नहीं है कि 9 संशोधनों के लागू किए जाने के पहले विपक्ष के आरोप खारिज करने लायक नहीं थे। ऐसे में अब यह सवाल और मौजूं हो जाता है कि फिर भूमि अधिग्रहण के विधेयक-कानून को लेकर हाय तौबा क्यों? सियासत क्यों ? क्या सचमुच पक्ष और विपक्ष इतने किसान हितैषी हो उठे हैं ? इनकी नीयत कितनी पाक है ? कल तक सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जेरे बहस इस विधेयक ने किसानों के सामने बहस का एक नया सवाल खड़ा कर दिया है। जिन दलों से लोकतंत्र खुद गायब है उसके नेताओं के लिए दलहित प्राथमिक हो गया है। वे जनहित-किसान हित की बात क्यों कर रहे हैं ? वह भी तब जबकि चुनाव नेपथ्य में है। नई आर्थिक नीति आने के बाद के दस साल में तकरीबन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की। कृषि का बजट 8449 करोडों रूपए से घट गया। किसानों को न्यूनतम मूल्य नहीं मिल पा रहा है। 25 करोड़ किसान भूमिहीन हैं। खादें निरंतर महंगी हो रही हैं। लेकिन इन सारे सवालों पर किसान हित की बात करने वाले दलों की खामोशी है !
कांग्रेस को घेरने के लिए मोदी ने पिछले लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड़रा की जमीनों को लेकर खूब फितरे कसे थे। उनके लिए अधिग्रहीत की गयी जमीन चुनावी एजेंडा बनी थी। राजस्थान और हरियाणा ऐसे राज्य थे, जहां की सरकारों ने वाडरा और उनसे जुड़ी परियोजनाओं के लिए किसानों की जमीनों का अधिग्रहण किया था। आज जब सोनिया गांधी नरेंद्र मोदी को भूमि अधिग्रहण विधेयक पर घेरने के लिए संयुक्त विपक्ष के साथ कदमताल कर रही हैं, तब भी वह हरियाणा और राजस्थान के दौरे पर हैं। वहीं के किसानों से मिल रही हैं। मतलब साफ है कि जमीन की इस पूरी जंग में युद्धरत भले सत्ता पक्ष और विपक्ष हो। वही दिख रहा हो। पर हकीकत यह है कि जीत हार का खेल इनके अलावा उन किसानों के साथ भी खेला जायेगा,
हारना जिनकी नियति का हिस्सा बन बैठा है। विकास के लंबे चैड़े दावों के बीच पानी के लिए मौसम पर निर्भर रहना, रुपयों के लिए साहूकारों के चक्कर लगाना, खेती के मार्फत तकरीबन दो तिहाई आबादी का बोझ उठाना और फिर 125 करोड़ लोगों के पेट भरने की जिम्मेदारी का निर्वाह करना जिनके रोजनामचा का हिस्सा है।
बहरहाल, महाभारत तब भी हुई थी। जीत किसी की नहीं हुई थी। सब हारे थे। महाभारत अब भी हो रही है। स्वरुप बदला है। लडाई जारी है। पिछली महाभारत में कहा गया कि धर्म जीता था। किसान के लिए जमीन से बडा कोई धर्म नहीं। सवाल यह भी है कि क्या इस बार धर्म जीतेगा।
Next Story