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सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना

Dr. Yogesh mishr
Published on: 31 March 2015 2:11 PM IST
देश में परिवर्तन लाने के लिए उन्होंने भारतीय राजस्व सेवा की नौकरी को ठोकर मारी। लोकपाल आंदोलन में तरह-तरह के सरकारी दबाव और प्रताड़ना को सहा। कुल 49 दिन की सरकार चलाने के बाद सत्ता की कुर्सी को यह कहकर ठोकर मारी की मुद्दे, वायदे और अपने लोगों का विश्वास सत्ता से कही ज्यादा जरुरी है। लेकिन सिर्फ 365 दिनों में यह सब कुछ पूरी तरह उलट गया। बारह महीनों के बाद सत्ता की कुर्सी के लिए अपने उन सहयोगियों को ठोकर मार दी, जिनमें से एक को कभी उनकी पार्टी का चाणक्य कहा जाता था। दूसरा वो जिसकी जनहित याचिकाओं ने अरविंद केजरीवाल को राबर्ट वाडरा से लेकर सत्ता के दूसरे बड़े प्रतीकों के खिलाफ बोलने के लिए तथ्य, तर्क, दस्तावेज और साहस मुहैया कराये थे। तीसरे जो पार्टी के लिए विचार तैयार कर रहे थे। लेकिन जब दोस्तों के बीच हिसाब-किताब की नौबत आ जाए, तब रिश्तों को कोई नहीं बचा सकता है।

यह भारतीय राजनीति के एक और खुशनुमा सपने के टूटने का किस्सा है। पंजाबी भाषा के ख्यातिलब्ध कवि पाश ने कहा था- ‘‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना।’’ आम आदमी पार्टी (आप) के अंदर जो कुछ हुआ, वह सपनों का मर जाना ही था। सपने उस लोकतंत्र के थे, जिसमें एक वैकल्पिक राजनीति और उसके नायक अरविंद केजरीवाल का भरोसा था। जिसमें भ्रष्टाचार से लड़ने का दमखम था। जिसमें पारदर्शिता के साथ आगे बढ़ने का संकल्प था। जिसमें सत्ता को गली कूचों तक पहुंचाने की जिद थी। जिसमें व्यक्ति से बडी जनता और सत्ता से बडा वोटर बनाने का जुनून था। कहा चाहे जो कुछ जाय पर हकीकत यह है कि अरविंद केजरीवाल और उनकी नई टीम के लोगों ने मिलकर दिल्ली के तकरीबन पौने दो करोड़ लोगों के उस सपने को तोड़ा है, जिसे लोगों ने अपने रोजनामचे से समय निकाल कर मेहनत की कमाई से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रचंड ख्याति के सामने खड़ा कर एक ऐसा जनादेश दिया, जिसने दुनिया के राजनैतिक पडिंतों के हाथ-पांव सुन्न कर दिये। बड़े बडे राजनैतिक दलों को जमींदोज कर दिया।

दिल्ली चुनाव के दौरान जब अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम जामा मस्जिद के इमाम बुखारी के समर्थन के फतवे को यह कह कर खारिज कर रही थी कि बेटे की दस्तारबंदी में उन्होंने हमारे प्रधानमंत्री को नहीं बुलाया है। उस समय लगा था कि देश की राजनीति एक नई इबारत लिखने के लिए व्यग्र है। आपातकाल के बाद वर्ष 1977 में जनता पार्टी के गठन और उसके पराभव के चलते उम्मीदों के जो सपने टूटे थे उसे लोग भूलने लगे थे। वैकल्पिक राजनीति की जो शुरुआत जयप्रकाश नारायण ने की थी और जिस तरह तरुणाई ने उसमें शिरकत की थी, बिलकुल ठीक उसी तरह अन्ना हजारे जयप्रकाश के प्रतीक में और उनके सामने मजबूती से खड़े हक-हूकूक मांगते नौजवानों को देखकर लगने लगा था कि इतिहास खुद को दोहरा रहा है। पर यह कहां किसी को पता था कि इतिहास खुद को दोहराने में लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं करेगा। पुनरावृत्ति की यह इबारत बिलकुल उसी तरह लिखी जायेगी। अहं का टकराव ठीक उसी तर्ज पर होगा। पर सबकुछ इतना जल्दी हो जायेगा, यह तो वर्ष 1977 की साक्षी पीढी को भी भरोसा नहीं था। लेकिन तब से अब तक दो नई पीढियां आ गयीं। एक वह पीढी जिसके क्लिक पर माउस और आंखों में वैश्विक ग्राम का सपना। दूसरी वह पीढी जिसमें हक और हुकूक पाने की लालसा है। इसके लिए जद्दोजहेद है। पर यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि अन्ना हजारे से अरविंद केजरीवाल और फिर सत्ता तक की यात्रा में इन दोनों पीढियों ने खूब शिरकत की।

अलग पार्टी, दूसरी पार्टियों जैसी नहीं, हमारे यहां आतंरिक लोकतंत्र है। हम पारदर्शिता की राजनीति करते हैं। हम नई राजनीति करने आये हैं। हम सत्ता की नहीं, व्यवस्था परिवर्तन की राजनीति करते हैं। यह सब धुंआ हो गया। जो दृश्य 125 करोड़ लोगों की आंखों ने देखे उससे साफ हो गया कि यह सब कहा गया अब कब्जे की लडाई में तब्दील हो गया। यह साफ हो गया कि विचारधारा पर सत्ता की कब्जेदारी पर भारी है। यदि ऐसा नहीं होता तो अरविंद केजरीवाल यह धमकी देते नहीं दिखते कि वो 67 विधायकों के साथ अलग हो जायेंगे। अलग पार्टी बना लेंगे। जिस दल को जनता ने दिल्ली में 70 में से 67 सीटों का ऐतिहासिक समर्थन दिया, उस दल के दो नेता महीना भर भी साथ नहीं रह सके। यह भी एक इतिहास ही होगा। राजनीति ऐसे इतिहासांे को जल्दी हजम कर जाती है।

पार्टी के सभी फोरम पर जब बहुमत अरविंद के साथ है, तो फिर योगेंद्र, प्रशांत और आनंद के साथ यह सब क्यों ? फ्रांसिसी कहावत है कि क्रांति सबसे पहले अपने बच्चों को ही खाती है। अक्सर यही देखा गया है कि वह अपने विचारवान बच्चों को ही सबसे पहले खाती है। रूस में हुई समाजवादी क्रांति के बाद के दो दशकों के भीतर बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व से उन सभी का सफाया हो गया, जो पार्टी के भीतर विचारक और बुद्धिजीवी माने जाते थे। क्योंकि वहां तानाशाही थी, इसलिए ट्रोट्स्की और बुखारिन जैसे नेताओं को पार्टी से ही चलता कर दिया गया। बोल्शेविक पार्टी के आदर्श आम आदमी पार्टी के आदर्शों की तुलना में कहीं अधिक महान थे, लेकिन मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत करने और मानवमुक्ति का विराट स्वप्न दिखाने वाली क्रांति की परणिति एक व्यक्ति की तानाशाही में हुई। यह इन दिनों आप के लिये नजीर भी है और बानगी भी। भाजपा और कांग्रेस का विकल्प बनने के लिए खड़े एक राजनैतिक दल में जो कुछ हुआ वैसा किसी भी क्षेत्रीय क्षत्रपों के दल में भी देखा और सुना नहीं गया।

लोकतंत्र बहाली के सपने दिखाकर आये लोग सत्ता के लिए क्षेत्रीय क्षत्रपों के स्तर तो बना नहीं सके। उससे नीचे चले गये। आप में राजनैतिक सांस्कृतिक बदलाव इस गति और इतने कम कालखंड में हुए। इतने किसी दल में नहीं हुए।

‘पांच साल केजरीवाल’। इस नारे के पीछे का सच शायद चुनाव के दौरान लोग नहीं समझ पाये थे। लोगों को लग रहा था कि यह राजनैतिक दलों में चेहरे की चैखट भरने की जरुरत है। पर इस नारे को बुलंद कर रहे आप के लोग और फिर इस नारे से परास्त होकर अपना सब कुछ गवांने वाले कांग्रेस और भाजपा के लोग ही नहीं बदलाव की उम्मीद पाले लोगों को भी अब समझ में आ रहा होगा कि ‘पांच साल केजरीवाल’ महज एक नारा नहीं, पार्टी के अंदर चल रहे एक ऐसे बदलाव का क्रम था जिसमें लोकतंत्र बहाली का नायक अपने इर्द-गिर्द सुप्रीमो संस्कृति बुन रहा था। लोकतंत्र का नया और सबसे बड़ा नायक बन अधिनायक की शक्ल अख्तियार कर रहा था। सिसायत की इस महाभारत में अपने अपनों पर ऐसे बयानों के तीर चलाए जा रहे जो कभी विरोधियों ने भी नहीं चलाए।
लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती, सोनिया गांधी, बाबूलाल मरांडी, चंद्रबाबू नायडू, ओमप्रकाश चैटाला, सुरजीत सिंह बादल, फारुख अब्दुल्ला और केजरीवाल में अंतर क्या और किस तरह तलाशा जायेगा ? सिर्फ यह कहा जा सकता है कि ये नेता और उनके राजनैतिक दल परिवारवादी हैं। आप तो ऐसे न थे ! लेकिन अभी जो कुछ आप में हुआ है वह परिवारवाद की सियासत से ज्यादा खतरनाक है। आम आदमी पार्टी में केजरीवाल के रूप में न केवल एक आलाकमान उभर आया है, बल्कि उनके इर्द-गिर्द दरबारी संस्कृति वाले नेता भी जमा हो गए हैं। शायद अब इस पार्टी में वही होना है, जो केजरीवाल कहेंगे-चाहेंगे। अगर आम आदमी पार्टी में वही सब होना है, जो अन्य दलों में होता है, तो फिर देश को उसकी जरूरत नहीं है। और तो और व्यक्तियों का नहीं विचारों का टकराव है, अल्ट्रा लेफ्ट और एक नयी तरह की राजनीति में टकराव के जुमले बोलने वाले अब अपनी इस लडाई में ‘जंग और प्रेम में सब कुछ जायज’ की तर्ज पर अमल करते दिख रहे है।

जहां विरोध और अंतर्विरोध समाप्त हो जाता है, वहां राजनीति का उद्देश्य समाप्त हो जाता है। इस सिद्धांत से पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और भाजपा का गठबंधन एक बड़ी राजनैतिक कामयाबी है। दोनों दल अपने विरोध को छोड़ मिले। समझौता ने यह संभावना भी उत्पन्न की कि राजनीति में दो छोर मिल सकते हैं। सियासत में दो ध्रुवों की ऐसी बहुत मुलाकातें दर्ज हैं। दलों के स्तर पर भी और नेताओं के स्तर पर भी। कांग्रेस-गैर कांग्रेस की दोस्ती। कांग्रेस के खिलाफ समाजवादियों और भाजपाइयों का मैत्री संबंध। अंतर्विरोधों को साधना भी एक बड़ी राजनीति है। देश के लिए यह अच्छा संकेत है। लेकिन यह संकेत वैकल्पिक राजनीति का दंभ भरने वाले केजरीवाल समझने में कामयाब नहीं हो रहे हैं।

संयम और विरोधाभासों का समुच्चय लेकर चलना राजनेताओं का आभूषण माना जाता है। लेकिन केजरीवाल जैसे नेता के पास यह श्रृंगार भी नहीं है। डेविड मंक्लील्लैंड ने नेतृत्व को व्यवहारों का समूह कहा है। सफल नेता के नेतृत्व शैली का अहम कारक उसकी व्यवहार कुशलता को माना है। पर आप में जो कुछ हुआ उसमें यह सब नदारद था। हमेशा पार्टी सत्ता से बड़ी होती है। पर जो कुछ हुआ और दिख रहा है, उसमें पार्टी सत्ता के सामने बौनी दिखाई दे रही है। सत्ता को ठोकर मारने वाला आदमी अपने सहयोगियों को ठोकर मारने लगा है। एक साल का यही बदलाव है।

बाबा भारती की कथा सबने पढी होगी। इस कथा में डकैत खडग सिंह को बाबा भारती का घोड़ा पसंद आ जाता है। खड़ग सिंह बीमार बनकर बाबा भारती का घोड़ा हड़पने में कामयाब हो जाता है। बाबा भारती उसे घोड़ा ले जाते समय सिर्फ यह कहते हैं कि किसी से यह मत बताना कि तुमने बीमार बनकर मेरा घोड़ा ले लिया है। अन्यथा लोग बीमार की मदद करना बंद कर देंगे। केजरीवाल और उनकी टीम ने जो कुछ किया, अब उससे लोग वैकल्पिक राजनीति, राजनैतिक पारदर्शिता, सत्ता विक्रेंद्रीकरण, सरीखे जुमलों पर किस तरह और कितना यकीन करेंगे यह सवाल कसौटी पर है।
Dr. Yogesh mishr

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