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च्वाइस की चिलम

Dr. Yogesh mishr
Published on: 7 April 2015 2:13 PM IST
जिस देश, समाज ने यह धारणा स्वीकार की थी- ‘‘यत्र नर्यास्तु पूज्यन्ते रमंते तत्र देवता।’’ यानी जहां नारियों का सम्मान होता है, वहीं देवता का निवास होता है। जहां नारी देवी है। जहां नारी शक्ति है। जहां सारे देवताओं को शक्ति देवियों से हासिल हुई हो। वहां अगर मुट्ठी भर महिलाओं का समूह ही ‘माई च्वाइस’ की वकालत करता हुआ शादी के बाहर यौन संबंध बनाने, शादी के बगैर यौन संबंध बनाने, जिससे चाहें उससे संबंध बनाने, जैसे चाहंे वैसे कपडे पहनने, मर्द से प्यार करने या औरत से प्यार करने की मुनादी पीटता नजर आये तो चिंता का सबब इसलिए भी हो जाता है, क्या नारी स्वतंत्रता के नाम पर अब वह सिर्फ भोग की वस्तु बनने को तैयार है। हांलांकि वोग पत्रिका के लिए बनाये गये उल बीवपबम वीडियो बालीवुड एक्ट्रेस दीपिका पादुकोण 99 औरतों के साथ जिस नये तेवर में औरतों के हक और अपनी शर्तों पर जिंदगी जीने की बात सामने रखती हैं। उसके खिलाफ भी शोभा डे जैसी लेखिका और सोनाक्षी सिन्हा जैसी अभिनेत्रियों की जमात सवाल उठाते हुए यह कहने में कोई गुरेज नहीं करती क्या स्त्री का काम सिर्फ पार्टनर बदलना है। यही नहीं अमृता मुखर्जी तो यहां तक सवाल कर बैठती हैं कि क्या औरत यह चाहेगी कि उसका पति विवाहेत्तर यौन संबंध बनाये। ऐसे सवाल पूछने वाली भी लाखों महिलायें हैं।

ढाई मिनट के काले सफेद में बने दीपिका पादुकोण के वीडियो और इसके साथ ही बने डायरेक्टर होमी अदाजानिया के ही 1 मिनट 32 सेकेंड के वीडियो में पुरुषों द्वारा भी एक ऐसे समाज का निर्माण की वकालत दिखती हैं जो दीपिका पादुकोण के बिंदासपन के समर्थन में खड़ा है। पुरुष और स्त्री दोनों की ओर से सोशल मीडिया पर 28 मार्च, 2015 को रिलीज होकर वायरल होने वाले ‘माइ च्वाइस’ वीडियो स्त्री संस्करण को 97,29,026 हिट्स मिल चुके हैं, जबकि पुरुष संस्करण को महज 11,84,299 हिट्स मिले हैं। मतलब साफ है कि दीपिका पादुकोण ‘माइ च्वाइस’ के मार्फत जो कह रही हैं, उसका बाजार बड़ा है। उसका इंतजार लोगों को बहुत है। पर ऐसे में यह देखना जरुरी हो जाता है कि दीपिका की दावेदारी समाज को, परिवार और स्त्री को कहां और किस ओर लेकर जा रही है ? क्या यह उसका अभीष्ट है ? क्या यही स्त्री स्वतंत्रता का पड़ाव है ? इस पर बातचीत करते हुए यह स्वीकार करने में भी कोई गुरेज नहीं करना चाहिए कि एक दौर में स्त्री समाज में दोयम दर्जे की हैसियत वाली हो गयी। समाज के मठाधीशों की कुत्सित मानसिकता ने नारी का देवी का स्थान तो बरकरार रखा पर सिर्फ पूजाघर में। घर में उसकी बराबरी का दर्जा छीनना शुरु कर दिया। नारी को देवी माना गया पर नारी मानना तो दूर उसे इंसान की तरह बराबरी तक नहीं दी गयी।

यहीं से नारी मुक्ति आंदोलनो की नीवं पड़ी। पर सच्चाई और त्रासदी यह भी है कि नारी मुक्ति आंदोलनो की अवधारणा पर विदेशी सोच हावी रही है। जो कुछ विदेश में होता रहा, उसे हमारी नारी मुक्ति की पुरोधा सेनानियों ने हुबहू कापी पेस्ट कर लिया। यह भी नहीं सोचा कि भारतीय दर्शन, भारतीय काल, वेश- परिवेश में वह चलने योग्य है भी या नहीं। वह यहां पर उस तरह कारगर है या नही। उसकी आवश्यकता हमारी भारतीय महिलाओं की आवश्यकता से मेल खाती है या नहीं। धीरे-धीरे स्त्री विमर्श के नाम पर स्त्रियों के लिए नये किस्म के मानदंड तैयार किए गए। जो मानदंड तैयार करने में लगी महिलाएं थीं उनमें से ज्यादातर ने किसी ना किसी स्त्री का हक मारकर या हासिल करके किसी अन्य पुरुष के साथ जीवन जीने का मार्ग चुना। बावजूद इसके उन महिलाओं को छोड़कर जो महिलाएं ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते’ की स्थिति में खुद को स्वतंत्र महसूस कर रही थीं, जो अपनी स्थितियो में प्रसन्न थीं, उनको हाशिए पर रखकर महिला मुक्ति आन्दोलन में नये किस्म के बिम्ब गढ़े गए। महिलाओं के लिए नयी-नयी जरुरतों, नये- नये बादलाव की पैरोकारी की गई। पर यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब महिलाओं के जीवन में इस तरह की पैरोकारी की शुरुआत चल रही थी, तभीे देश में अल्पसंख्यक महिलाओं के जीवन स्तर में बदलाव और उनके अंदर के द्वंद पर किसी ने उंगली उठाना तो दूर उस पर बात करना भी उचित नहीं समझा, क्योंकि उस ओर जाते ही अभिव्यक्ति के खतरे के खिलाफ लोगों के खडे होने की आशंका थी।

अब जब वैश्वीकरण हुआ। जब सौन्दर्य प्रतियोगिताओं ने गांव-गांव तक अपनी पैठ बना ली। हर गांव की मिस होने लगी। हर शहर में ब्यूटी पेजेंट कैरियर की सीढी बन गयी। मिस यूनीवर्स का दायरा गांव कस्बे तक पहुंच गया। तो भारतीय समाज के मूल्य बदले। ऐसे में एक यह वीडियो आया है, जो नारी सशक्तीकरण की वकालत करने का दंभ और दावा कर रहा है। हम जिस समाज में जी रहे हैं, उसमें स्त्री की पुरुष पर क्या निर्भरता नहीं होनी चाहिए। क्या पुरुष को स्त्री पर निर्भर नहीं होना चाहिए। क्या ऐसा नहीं होना चाहिए, स्त्री कुछ भी चुनने की आजादी के इस चक्रव्यूह में अपनी जिद को इस हद तक नहीं ले जा सके, जहां से उसे उसमें प्रयाश्चित बोध उपजे कारण बने। क्या मां, बहन, बेटी, पत्नी के रुप में रहने वाली स्त्री मां और पिता, भाई , पति के तौर पर रहने वाले पुरुष का सहगामी होकर रहना अब बीते दिनों की बात है। क्या परिवार की अवधारणा को तिलांजलि दे दी जानी चाहिए।

पहले ही भारत में संयुक्त परिवार की अवधारणा को तोड़कर न्यूक्लियर फैमली प्रचलन में है। वह भी तब जबकि सर्वोच्च अदालत तक ने इस पर चिंता जाहिर की है। सुप्रीम कोर्ट ने तो उच्च न्यायालय और पारिवारिक न्यायालय को निर्देश देकर कहा है कि तलाक के मुकदमों पर बहुत गंभीरता से विचार के बाद ही फैसले दिए जायें।

इस अवधारणा को वैश्वीकरण की आंधी से प्राणवायु मिली। इस अवधारणा को रचने वालों ने परिवार को पति-पत्नी और बच्चे तक सीमित कर दिया। अब नारी मुक्ति की यह दांभिक अवधारणा इस ‘न्यूक्लीयर फैमिली’ को भी तोडने पर आमादा है। जो विज्ञान के विद्यार्थी हैं, उन्हें पता होगा कि न्यूक्लियस (नाभिक) उस सेल का केंद्र बिंदु होता है, जिसे जीवन की सबसे छोटी इकाई माना जाता है। न्यूक्लियस के टूटने से ना सिर्फ अणु बल्कि जीवन भी संभव नहीं है। तो क्या ‘न्यूक्लियर फैमली’ भी अगर टूट गयी, तो हमारा वह सामाजिक जीवन अपनी अंतिम सांस गिनने पर विवश होगा जिसमें स्त्री और पुरुष के बीच नाभि-नाल का संबंध है। क्या इसे ‘न्यूक्लीयर फैमली’ के अंत के लिये की जा रही सबसे जोरदार और खतरनाक साजिश के तौर पर देखा जाना चाहिये। क्योंकि इसमें मुक्ति स्वतंत्रता के नाम पर अलगाव का वह ताना-बाना बुना गया है, जहां रोकने और टोकने का अधिकार खत्म हो जाता है। यह उसी मानसिकता का प्रतीक है, जिसमें स्वाभिमान और अभिमान की महीन रेखा तमाम लोगों की जिंदगी में इस कदर मिट गयी है कि वे ‘माइ च्वाइस’ की बातें करने लगे हैं।

हांलांकि वीडियो बनाने वालो का दावा है कि इससे महिलाओं को देखने का नजरिया बदलेगा। इससे महिलाओं की खुद की सोच को जाहिर किया गया है। कई फैसले उनके हैं, जिस पर दबाव नहीं बनाया जा सकता। उनके व्यक्तिगत फैसलो में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। पर यह दावा करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिये कि जीवन के अनिश्चित कालखंड में ‘युवाअवस्था’- तरुणाई हमेशा नहीं बनी रहती। ऐसे में जब दूसरे आश्रमों का समय आयेगा या फिर जीवन में कोई त्रासद पूर्ण क्षण घटित होंगे, तो ‘माइ च्वाइस’ का मददगार कौन होगा। क्योंकि एकला चलो भले ही सिद्धांत हो पर एकांत के निरे व्यैक्तिक क्षणों में भी हमदम, हमकदम और हमसफर चाहिए होता है। इसकी चुगली ‘माई च्वाइस’ के स्त्री पुरुष दोनों संस्करण कर रहे हैं, क्योंकि पूरक बनने के लिए दो की जरुरत होती है। लेकिन ‘माइ च्वाइस’ जिस पूरक-परक हमदम, हमकदम और हमसफर का धरातल तैयार कर रहा है वह सिर्फ युवावस्था और तरुणाई के लिए ही है। त्रासदपूर्ण क्षणों- युवावस्था के चुक जाने की स्थिति में ‘माई च्वाइस’ के ‘माई’ में बाजार के लिए क्या कुछ बचा रहेगा। शरीर सामान नहीं है। समाज बाजार नहीं है। किसी को भी स्वतंत्रता अथवा च्वाइस का उतना ही आधार है जितने में दूसरे की स्वतंत्रता बाधित ना होती हो। लेकिन यह वीडियो इसे भूल जाता है। ‘माई च्वाइस’ का मंै आजादी को स्वेच्छाचारिता के पाले में लाकर खड़ा करता है।

राजा स्वेच्छाचारी हो तो राज्य खत्म हो जाता है। मुखिया स्वेच्छाचारी हो तो परिवार खत्म हो जाता है। ऐसे ही कोई व्यक्ति स्वेच्छाचारी हो तो समाज की बुनियाद हिलती है। व्यक्ति समाज की इकाई है। ऐसे में समाज में स्वेच्छा के नाम पर आजादी की वकालत करने वाले ‘लिबर्टी’ और ‘इंडिपेंडेंस’ का मतलब एक कर देते है। भारत में भ्रूण हत्या, महिलाओं पर ही सब कुछ थोप देने की वकालत, कामकाजी महिलाओं से ही पूरा घर संभालने की पूरी जिम्मेदारी की उम्मीद, स्त्री निरक्षरता, उनका स्वास्थ्य, उनकी तरक्की, सही मायनों में स्वतंत्रता के बिना इस तरह के स्त्री विमर्श उन महिलाओं के शगल कहे जा सकते हैं, जिन्होंने सबकुछ पा लिया हो। यह नारी सषक्तिकरण का वही प्रयास है, जिसमें एक कार में इंटीरियर डेकोरेक्शन मे कुछ बेहद शानदार काम किए और कराए जा रहे हो, पर वह पंचर है।
सारे परिणामों की चिंता न करते हुए जिंदगी जीना मात्र क्षणवाद है। क्षणवाद एक भारतीय दर्शन की वह अवधारणा है, जिसे समाज ने एक सिरे से खारिज कर दिया है। ऐसे में क्या हमें समाज की तरफ नहीं देखना चाहिए। महज कुछ पल के आनंद के लिये जिंदगी की यात्रा को पडाव देना जहा सिर्फ ‘माई च्वाइस’ हो, क्या एक सही फैसला कहा जायेगा। क्या ‘माई च्वाइस’ की पैरोकारी यह नहीं बताती कि जिस पुरुष मानसिकता के खिलाफ नारी ‘स्वातंत्र प्रेमी महिलाएं खड़ीं थी, उसी की मांग खुद के लिए करने लगी हैं। वैसे ही समाज, वैसे ही परिधान, वैसे ही आचार विचार, वैसे ही प्यार और सेक्स की ऐडवेंचर, मौके और हक भी। आरोपों को सही माने तो अभी यह सब एक तरफ यानि पुरूष पक्ष में है। यदि यह दोनों तरफ यानि स्त्री पक्ष में भी समा गया तो वर्तमान को लेकर युवा आंखों में रोषनी भले कौंध जाएं पर भविष्य को लेकर यही उम्मीद से भरी कौंधती आंखें पथरा जायेंगी।
Dr. Yogesh mishr

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