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आगे आगे देखिये होता है क्या......
‘‘रूठे सुजन मनाईये, जौ रूठेे सौ बार, रहिमन फिर पोहिए, टूटे मुक्ताहार।’’ कभी आपातकाल के बहाने कांग्रेस विरोध, कभी बोफोर्स के बहाने गैर कांग्रेसी मुहिम और कभी धर्मनिरपेक्षता सांप्रदायिकता के नाम पर टूटने बिखरने का चला सिलसिला एक बार फिर एकजुटता की राह पर चल निकला है। हांलांकि इस बार की छह राजनैतिक दलों की एक होने की यात्रा में मुद्दों का न तो कोई पाथेय और न ही परिवर्तनकामी कोई लहर, बावजूद इसके स्वजन के जुडने के इस सिलसिले की अतीत से लेकर अब तक की गाथा पर नजर दौडायें तो साफ होता है कि इस बार की एका में तंतु पहले जैसे नहीं हैं। माहौल है। जरुरत है। लोकसभा चुनाव के बाद से ही इसकी जरुरत का इल्म होने लगा था। जिस तरह नरेंद्र मोदी का लोकसभा में आविर्भाव हुआ और खंड -खंड विपक्ष का लाभ उन्हें मिला, उसके चलते यह तो एहसास होने लगा था कि अगर विपक्ष की गति यही रही तो मोदी के अश्वमेघ का घोड़ा देश में कांग्रेस मुक्ति के लक्ष्य के बाद बाद विपक्ष मुक्ति के गढ में घुस कर हिनहिनाने लगेगा।
क्योंकि पहली रणनीति में मोदी तो ‘एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय’ पर अमल किया। अब एक साधने के वाद किसी न किसी का नम्बर आना तो था। राजनीति में सिर्फ एक साधने से ही काम नही चल जाता। राजनीति में विरोध, स्वीकार्यता और समर्थन एक स्थूल नहीं गतिमान प्रतिमान है। इसे गति देता है, काल, वेष, परिवेश और परिस्थिति। विरोध और विरोधी समय के हिसाब से बदलते रहते है। मुद्दे गौण होते हैं और सत्ता के इर्द-गिर्द उन्हें शहीद भी कर दिया जाता है। आम तौर पर यह माना जा सकता है कि राजनीति विरोधो का समुच्च्य है। दिल्ली में बन रहे जनता परिवार में इसकी मिसाल देखी जा सकती है। इस महीन राजनीति की मोटी लकीर को समझे तो जनता परिवार की एकजुटता के पीछे जो विचारधारा बतायी गई वह सांप्रदायिकता की सियासत हैं। लेकिन लालू-मुलायम के पारिवारिक समारोह में सांप्रदायिकता का यही खैौफ रफूचक्कर हो जाता है। ऐसे में लालू का यह बयान कितना मायने रखता है कि जब बड़े दुशमन को ठिकाने लगाना हो, तो छोटे दुशमन एक हो जाते हैं और लगातार शरद यादव का यह बयान कितना मायने रखता है कि भाजपा अब वह भाजपा नहीं रही जिसके साथ वह खड़े थे। तो क्या डॉ. लोहिया का गैर कांग्रेसवाद और जय प्रकाष नारायण का कांग्रेस के खिलाफ खड़े होने की परिभाषा भी बदल गई है। इतना ही नहीं, लालू यादव जब पहली बार मुख्यमंत्री की शपथ ले रहे थे तो उसके पीछे मुलायम की बतौर पर्यवेक्षक सहमति की मुहर थी। पर मुलायम सिंह यादव के प्रधानमंत्री बनने के समय लालू यादव ही सबसे बडे ‘स्पीडब्रेकर’ बने। मुलायम की गाडी को 7 रेसकोर्स जाने से रोक दिया। अब हालात यह है कि दोनो ना सिर्फ साझेदार हैं, बल्कि रिश्तेदार भी हैं। साझेदार और रिश्तेदार बन अब जनता परिवार के जरिये वे सत्ता के सबसे बड़े दावेदार के तौर पर उभरना चाहते हैं।
जनता परिवार की एका का यह पांचवा प्रयास है। इससे पहले वर्ष 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा, वर्ष 1996 में संयुक्त मोर्चा, वर्ष 2008 में संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन तथा वर्ष 2009 में तीसरा मोर्चा बनाया जा चुका है, जो अपना गढ़ बचाए न रख सका। जनता परिवार की डुगडुगी में पांच
राज्यों में प्रभावी दस्तक देने वाले समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी जनता पार्टी, जनता दल (यू), इनैलो तथा जनता दल (एस) शामिल हो गए हंै। भारतीय राजनीतिक इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए, तो पता चलेगा कि वर्ष 1989 में गठित राष्ट्रीय मोर्चा में जनता दल, असम गण परिषद, तेलगु देशम पार्टी तथा द्रुमक शामिल हुए थे, मगर यह मोर्चा वर्ष 1991 में ही दम तोड़ गया। वर्ष 1996 में राष्ट्रीय राजनीति में संयुक्त मोर्चा दिखाई दिया, जिसमें जनता दल, तेलगु देशम पार्टी, असम गण परिषद, द्रुमक, तमिल मनीला कांग्रेस, समाजवादी पार्टी तथा भाकपा ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी, मगर वर्ष 1998 में संयुक्त मोर्चा अपने सहयोगियों को संयुक्त नहीं रख पाया। वर्ष 2008 में जयललिता ने राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन नामक तीसरे मोर्चे का ऐलान किया, जो प्रगति की राह न पकड़ पाया। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देव गौडा ने वर्ष 2009 में तीसरे मोर्चे का राग अलापा, मगर इस राग की तान बांसुरी में नहीं बजी। पिछले चार संयुक्त प्रयासों की हुई दुर्गति के उपरांत किए जा रहे जनता परिवार के इस प्रयास पर सबकी नजरें है। अतीत के मद्देनजर ढेर सारे सवाल भी हैं।
कांग्रेस विरोध के नाम पर इन मोर्चों का का उदय हुआ था। तब गैर कांग्रेसवाद का नारा था, इस नारे में भाजपा भी हमकदम थी। लेकिन आज नारा गैर भाजपावाद का है। यानी इतिहास चक्र को हर कोई अपनी सुविधा से अगर परिभाषित कर रहा है। भाजपा संघ के कारण एक संगठित पार्टी के रूप में उभरती चली गई। जनता परिवार बिखरता चला गया। लेकिन यह परिवार मिटा नहीं। गुजरात में ही पूरी तरह मिट जाने का उदाहरण है। वहां चिमन भाई पटेल की सरकार देने वाला दल कहां है, किसी को नहीं पता है। लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक, उड़ीसा और जम्मू कश्मीर में इसका किसी न किसी रूप में वजूद बचा हुआ है। कई राज्यों में समाजवादियों ने दो-दो बार सरकारें बनाईं हैं। उड़ीसा में तो बीजू जनता दल से निपटने के लिए भाजपा को आज तक कोई फार्मूला नहीं सूझा। यूपी में वर्ष 2007 में मायावती ने मुलायम सिंह यादव के गुंडाराज को मुद्दा बनाकर पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई थी। इसके बाद भी वर्ष 2012 में मुलायम सिंह की साइकिल ने सबको पीछे कर दिया। बिहार में नीतीश कुमार की दो-दो बार सरकार बनी। भाजपा के अलग होने के बाद भी अपनी सरकार बचाने में वह सफल रहे। जब लगा कि नरेंद्र मोदी और भाजपा ने जीतन राम मांझी को अपने प्रभाव में ले लिया है और जनता दल यूनाइटेड को तोड़ देना आसान है, उसके बाद भी जनता परिवार अपना वजूद बचाने में वह सफल रहा और नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बन गए।
यानी यह परिवार लड़ता है, झगड़ता है पर वजूद में हमेशा रहता है। कुल मिलाकर राजनीति के इस हिस्से में बिखरने और टूटने का अनुभव है, तो सत्ता खोकर हासिल करने का माद्दा भी है। इन वर्षों में इन्हें राज करना आ गया है। अब कांग्रेस विरोध वाला विपक्षी खेमा नहीं रहा। भारतीय राजनीति का यह भी एक ‘रूलिंग क्लास’ है। इस ‘रुलिंग क्लास’ की ताकत बनी रहे और बढती रहे इसका पहला फायदा तो लोकसभा में ही होने वाला है। लोकसभा में अब जनता परिवार के दल की 15 सीटें हों और लोकसभा चुनाव में मिले मत 7 प्रतिशत हो जायेंगे। यानी जनता परिवार बनते ही राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत में आ जायेगा। अब तक क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप जो राष्ट्रीय अध्यक्ष, राष्ट्रीय महासचिव का पदनाम यूं ही इस्तेमाल करते थे, उन्हें अब इसकी वैधानिक ताकत मिल जायेगी। इसके साथ ही अब राज्यसभा में इस जनता परिवार की सीट भी 30 के आंकडे तक पहुंच जायेगी। लेकिन इसके साथ ही नुकसान फिर कांग्रेस का ही होगा।
एकजुट जनता परिवार के पास राज्यसभा में पासा पलटने की ताकत होगी। जनता परिवार किसी मुद्दे पर सरकार के साथ आता है, तो कांग्रेस का विरोध बेमानी हो जाएगा। जिन राज्यों में जनता परिवार के किसी एक दल का बोलबाला है, उनके विधानसभा चुनावों पर नजर डाली जाए तो पांच राज्यों में परिवार में शामिल पार्टियों की ताकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। साल 2014 में हरियाणा में इनेलो को 24.16 वोट मिले थे वहीं उत्तर प्रदेश में साल 2012 में पूर्ण बहुमत पाने वाली मुलायम की सपा को 29.16 फीसदी वोट मिले थे। साल 2007 में सपा को चुनाव हारने के बावजूद साढे पच्चीस फीसदी और जद यू को उत्तर प्रदेश में आधा फीसदी वोट मिला था। इसी साल जद यू को एक सीट भी ज्यादा हासिल हुई। हालांकि यह सीट जद यू की वजह से कम बाहुबली उम्मीदवार धनंजय सिंह के प्रभाव की वजह से ज्यादा हासिल हुई। साल 2002 मे जद यू को दो सीट मिली थी। ये बिलकुल नहीं कहा जा सकता कि जद यू की ताकत उत्तर प्रदेश में बिलकुल नहीं है। बिहार में सपा ताकत का अहसास साल 2005 में ही कर चुकी है, सपा को बिहार में 2.69 फीसदी वोट मिले थे। ऐसे में यह कहना कि विलय बेमानी होगा उचित नहीं है। बिहार में ही लालू के राजद को 18.84 फीसदी और नितीश-शरद के जद (यू) को 22.61 फीसदी वोट मिले थे। यानी दोनो दलों को करीब साढे 41 फीसदी वोट मिले थे। वहीं साल 2005 में दोनों पार्टियों के वोट मिलाकर करीब 40 फीसदी थे।यानी दोनो दल मिलकर बिहार में 40 फीसदी वोटों पर काबिज हैं। उपर से जनता परिवार और सपा की ताकत का बोनस ऐसे में यह गठबंधन बिहार में भाजपा को मजबूत चुनौती देने की स्थिति में रहेगा। बस उसे इस बात की सतर्कता बरतनी होगी कि नितीश कुमार का अति पिछडा और अति दलित ट्रंप कार्ड बूमरैंग ना करे।
अगला सवाल बिहार की उस राजनीति का है, जिसकी लकीर इतनी सीधी भी नहीं है कि जनता परिवार और मोदी के जादू तले उसका सब कुछ लुट जाय। क्योंकि इन दो धाराओं से इतर दलित और मुस्लिम समाज के भीतर की कसमसाहट भी है। नीतीश के दायरे को तोड़कर निकले जीतनराम मांझी अनचाहे में दलित चेहरा बन गये। लेकिन मांझी सत्ता साधने के लिए हैदराबाद से ओवैसी को बिहार बुलाकर अपने साथ खड़ाकर दलित -मुस्लिम वोट बैंक की एक ऐसी धारा बनाने की जुगत में भी रहा, जो लालू-नीतीश के सपने को चकनाचूर कर दे। बिहारी राजनीति में हाशिये पर पडी अगड़ी जाति की बेचैनी भी। इससे पहले जब भी एकजुटता हुई तब अगड़ी जातियों का ख्याल रखा गया। पर इस बार यह नहीं दिख रहा है। अगर पिछड़ों की ही राजनीति होगी तो सत्ताशीर्ष पर बैठे मोदी का महत्व कायम रहेगा क्योंकि बारह साल गुजरात में मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी जब चुनाव प्रचार के दौरान उत्तर प्रदेश आए तो उन्होंने यह संदेश देने में कामयाबी हासिल की कि वह पिछड़ी जमात के पहले प्रधानमंत्री होंगे। यही नही,ं एकीकृत हो रहे जनता परिवार को धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की जंग को नए मुद्दों के आवरण भी देने होंगे। लोकसभा चुनाव में मोदी की सफलता के पीछे सबसे बड़ा कारण उनका खुद को लंबे समय से तुष्टीकरण से दूर रखना था। एकीकृत जनता परिवार धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की राग अलापता रहा तो मोदी भी और मजबूत होंगे। आज का सवाल किसान और नौजवान है। सरकार की परख विकास और सुशासन है। ऐसे में जनता परिवार की सरकारों को इन कसौटियों पर मोदी को पीछे छोडना होगा। ऐसा करने के लिए यह जरूरी है कि सिर्फ नेताओं के दल और सिंबल ही ना मिलें। कार्यकर्ताओं के दिल भी मिल जायें। क्योंकि रहीम ने यह भी कहा है- ‘‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय।’’
क्योंकि पहली रणनीति में मोदी तो ‘एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय’ पर अमल किया। अब एक साधने के वाद किसी न किसी का नम्बर आना तो था। राजनीति में सिर्फ एक साधने से ही काम नही चल जाता। राजनीति में विरोध, स्वीकार्यता और समर्थन एक स्थूल नहीं गतिमान प्रतिमान है। इसे गति देता है, काल, वेष, परिवेश और परिस्थिति। विरोध और विरोधी समय के हिसाब से बदलते रहते है। मुद्दे गौण होते हैं और सत्ता के इर्द-गिर्द उन्हें शहीद भी कर दिया जाता है। आम तौर पर यह माना जा सकता है कि राजनीति विरोधो का समुच्च्य है। दिल्ली में बन रहे जनता परिवार में इसकी मिसाल देखी जा सकती है। इस महीन राजनीति की मोटी लकीर को समझे तो जनता परिवार की एकजुटता के पीछे जो विचारधारा बतायी गई वह सांप्रदायिकता की सियासत हैं। लेकिन लालू-मुलायम के पारिवारिक समारोह में सांप्रदायिकता का यही खैौफ रफूचक्कर हो जाता है। ऐसे में लालू का यह बयान कितना मायने रखता है कि जब बड़े दुशमन को ठिकाने लगाना हो, तो छोटे दुशमन एक हो जाते हैं और लगातार शरद यादव का यह बयान कितना मायने रखता है कि भाजपा अब वह भाजपा नहीं रही जिसके साथ वह खड़े थे। तो क्या डॉ. लोहिया का गैर कांग्रेसवाद और जय प्रकाष नारायण का कांग्रेस के खिलाफ खड़े होने की परिभाषा भी बदल गई है। इतना ही नहीं, लालू यादव जब पहली बार मुख्यमंत्री की शपथ ले रहे थे तो उसके पीछे मुलायम की बतौर पर्यवेक्षक सहमति की मुहर थी। पर मुलायम सिंह यादव के प्रधानमंत्री बनने के समय लालू यादव ही सबसे बडे ‘स्पीडब्रेकर’ बने। मुलायम की गाडी को 7 रेसकोर्स जाने से रोक दिया। अब हालात यह है कि दोनो ना सिर्फ साझेदार हैं, बल्कि रिश्तेदार भी हैं। साझेदार और रिश्तेदार बन अब जनता परिवार के जरिये वे सत्ता के सबसे बड़े दावेदार के तौर पर उभरना चाहते हैं।
जनता परिवार की एका का यह पांचवा प्रयास है। इससे पहले वर्ष 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा, वर्ष 1996 में संयुक्त मोर्चा, वर्ष 2008 में संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन तथा वर्ष 2009 में तीसरा मोर्चा बनाया जा चुका है, जो अपना गढ़ बचाए न रख सका। जनता परिवार की डुगडुगी में पांच
राज्यों में प्रभावी दस्तक देने वाले समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी जनता पार्टी, जनता दल (यू), इनैलो तथा जनता दल (एस) शामिल हो गए हंै। भारतीय राजनीतिक इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए, तो पता चलेगा कि वर्ष 1989 में गठित राष्ट्रीय मोर्चा में जनता दल, असम गण परिषद, तेलगु देशम पार्टी तथा द्रुमक शामिल हुए थे, मगर यह मोर्चा वर्ष 1991 में ही दम तोड़ गया। वर्ष 1996 में राष्ट्रीय राजनीति में संयुक्त मोर्चा दिखाई दिया, जिसमें जनता दल, तेलगु देशम पार्टी, असम गण परिषद, द्रुमक, तमिल मनीला कांग्रेस, समाजवादी पार्टी तथा भाकपा ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी, मगर वर्ष 1998 में संयुक्त मोर्चा अपने सहयोगियों को संयुक्त नहीं रख पाया। वर्ष 2008 में जयललिता ने राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन नामक तीसरे मोर्चे का ऐलान किया, जो प्रगति की राह न पकड़ पाया। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देव गौडा ने वर्ष 2009 में तीसरे मोर्चे का राग अलापा, मगर इस राग की तान बांसुरी में नहीं बजी। पिछले चार संयुक्त प्रयासों की हुई दुर्गति के उपरांत किए जा रहे जनता परिवार के इस प्रयास पर सबकी नजरें है। अतीत के मद्देनजर ढेर सारे सवाल भी हैं।
कांग्रेस विरोध के नाम पर इन मोर्चों का का उदय हुआ था। तब गैर कांग्रेसवाद का नारा था, इस नारे में भाजपा भी हमकदम थी। लेकिन आज नारा गैर भाजपावाद का है। यानी इतिहास चक्र को हर कोई अपनी सुविधा से अगर परिभाषित कर रहा है। भाजपा संघ के कारण एक संगठित पार्टी के रूप में उभरती चली गई। जनता परिवार बिखरता चला गया। लेकिन यह परिवार मिटा नहीं। गुजरात में ही पूरी तरह मिट जाने का उदाहरण है। वहां चिमन भाई पटेल की सरकार देने वाला दल कहां है, किसी को नहीं पता है। लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक, उड़ीसा और जम्मू कश्मीर में इसका किसी न किसी रूप में वजूद बचा हुआ है। कई राज्यों में समाजवादियों ने दो-दो बार सरकारें बनाईं हैं। उड़ीसा में तो बीजू जनता दल से निपटने के लिए भाजपा को आज तक कोई फार्मूला नहीं सूझा। यूपी में वर्ष 2007 में मायावती ने मुलायम सिंह यादव के गुंडाराज को मुद्दा बनाकर पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई थी। इसके बाद भी वर्ष 2012 में मुलायम सिंह की साइकिल ने सबको पीछे कर दिया। बिहार में नीतीश कुमार की दो-दो बार सरकार बनी। भाजपा के अलग होने के बाद भी अपनी सरकार बचाने में वह सफल रहे। जब लगा कि नरेंद्र मोदी और भाजपा ने जीतन राम मांझी को अपने प्रभाव में ले लिया है और जनता दल यूनाइटेड को तोड़ देना आसान है, उसके बाद भी जनता परिवार अपना वजूद बचाने में वह सफल रहा और नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बन गए।
यानी यह परिवार लड़ता है, झगड़ता है पर वजूद में हमेशा रहता है। कुल मिलाकर राजनीति के इस हिस्से में बिखरने और टूटने का अनुभव है, तो सत्ता खोकर हासिल करने का माद्दा भी है। इन वर्षों में इन्हें राज करना आ गया है। अब कांग्रेस विरोध वाला विपक्षी खेमा नहीं रहा। भारतीय राजनीति का यह भी एक ‘रूलिंग क्लास’ है। इस ‘रुलिंग क्लास’ की ताकत बनी रहे और बढती रहे इसका पहला फायदा तो लोकसभा में ही होने वाला है। लोकसभा में अब जनता परिवार के दल की 15 सीटें हों और लोकसभा चुनाव में मिले मत 7 प्रतिशत हो जायेंगे। यानी जनता परिवार बनते ही राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत में आ जायेगा। अब तक क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप जो राष्ट्रीय अध्यक्ष, राष्ट्रीय महासचिव का पदनाम यूं ही इस्तेमाल करते थे, उन्हें अब इसकी वैधानिक ताकत मिल जायेगी। इसके साथ ही अब राज्यसभा में इस जनता परिवार की सीट भी 30 के आंकडे तक पहुंच जायेगी। लेकिन इसके साथ ही नुकसान फिर कांग्रेस का ही होगा।
एकजुट जनता परिवार के पास राज्यसभा में पासा पलटने की ताकत होगी। जनता परिवार किसी मुद्दे पर सरकार के साथ आता है, तो कांग्रेस का विरोध बेमानी हो जाएगा। जिन राज्यों में जनता परिवार के किसी एक दल का बोलबाला है, उनके विधानसभा चुनावों पर नजर डाली जाए तो पांच राज्यों में परिवार में शामिल पार्टियों की ताकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। साल 2014 में हरियाणा में इनेलो को 24.16 वोट मिले थे वहीं उत्तर प्रदेश में साल 2012 में पूर्ण बहुमत पाने वाली मुलायम की सपा को 29.16 फीसदी वोट मिले थे। साल 2007 में सपा को चुनाव हारने के बावजूद साढे पच्चीस फीसदी और जद यू को उत्तर प्रदेश में आधा फीसदी वोट मिला था। इसी साल जद यू को एक सीट भी ज्यादा हासिल हुई। हालांकि यह सीट जद यू की वजह से कम बाहुबली उम्मीदवार धनंजय सिंह के प्रभाव की वजह से ज्यादा हासिल हुई। साल 2002 मे जद यू को दो सीट मिली थी। ये बिलकुल नहीं कहा जा सकता कि जद यू की ताकत उत्तर प्रदेश में बिलकुल नहीं है। बिहार में सपा ताकत का अहसास साल 2005 में ही कर चुकी है, सपा को बिहार में 2.69 फीसदी वोट मिले थे। ऐसे में यह कहना कि विलय बेमानी होगा उचित नहीं है। बिहार में ही लालू के राजद को 18.84 फीसदी और नितीश-शरद के जद (यू) को 22.61 फीसदी वोट मिले थे। यानी दोनो दलों को करीब साढे 41 फीसदी वोट मिले थे। वहीं साल 2005 में दोनों पार्टियों के वोट मिलाकर करीब 40 फीसदी थे।यानी दोनो दल मिलकर बिहार में 40 फीसदी वोटों पर काबिज हैं। उपर से जनता परिवार और सपा की ताकत का बोनस ऐसे में यह गठबंधन बिहार में भाजपा को मजबूत चुनौती देने की स्थिति में रहेगा। बस उसे इस बात की सतर्कता बरतनी होगी कि नितीश कुमार का अति पिछडा और अति दलित ट्रंप कार्ड बूमरैंग ना करे।
अगला सवाल बिहार की उस राजनीति का है, जिसकी लकीर इतनी सीधी भी नहीं है कि जनता परिवार और मोदी के जादू तले उसका सब कुछ लुट जाय। क्योंकि इन दो धाराओं से इतर दलित और मुस्लिम समाज के भीतर की कसमसाहट भी है। नीतीश के दायरे को तोड़कर निकले जीतनराम मांझी अनचाहे में दलित चेहरा बन गये। लेकिन मांझी सत्ता साधने के लिए हैदराबाद से ओवैसी को बिहार बुलाकर अपने साथ खड़ाकर दलित -मुस्लिम वोट बैंक की एक ऐसी धारा बनाने की जुगत में भी रहा, जो लालू-नीतीश के सपने को चकनाचूर कर दे। बिहारी राजनीति में हाशिये पर पडी अगड़ी जाति की बेचैनी भी। इससे पहले जब भी एकजुटता हुई तब अगड़ी जातियों का ख्याल रखा गया। पर इस बार यह नहीं दिख रहा है। अगर पिछड़ों की ही राजनीति होगी तो सत्ताशीर्ष पर बैठे मोदी का महत्व कायम रहेगा क्योंकि बारह साल गुजरात में मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी जब चुनाव प्रचार के दौरान उत्तर प्रदेश आए तो उन्होंने यह संदेश देने में कामयाबी हासिल की कि वह पिछड़ी जमात के पहले प्रधानमंत्री होंगे। यही नही,ं एकीकृत हो रहे जनता परिवार को धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की जंग को नए मुद्दों के आवरण भी देने होंगे। लोकसभा चुनाव में मोदी की सफलता के पीछे सबसे बड़ा कारण उनका खुद को लंबे समय से तुष्टीकरण से दूर रखना था। एकीकृत जनता परिवार धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की राग अलापता रहा तो मोदी भी और मजबूत होंगे। आज का सवाल किसान और नौजवान है। सरकार की परख विकास और सुशासन है। ऐसे में जनता परिवार की सरकारों को इन कसौटियों पर मोदी को पीछे छोडना होगा। ऐसा करने के लिए यह जरूरी है कि सिर्फ नेताओं के दल और सिंबल ही ना मिलें। कार्यकर्ताओं के दिल भी मिल जायें। क्योंकि रहीम ने यह भी कहा है- ‘‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय।’’
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