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बहुत कुछ सिखाया अरुणा ने
जिंदगी तो जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं। ।
यहीं जिंदादिली उस महिला से सीखने लायक है, जिसको मौत ने नहीं अपनाया था, जबकि जिंदगी ने उसका हाथ छोड़ दिया था। पर उसने जिंदगी का हाथ नहीं छोड़ा चार दशक तक। चार दशक तक अरुणा हमारी जिंदगियों की अरुण बनी रहीं। मौत और जिंदगी के झूले पर कभी मौत की तरफ पेंग बढ़ाती तो पूरी इच्छा शक्ति के साथ वह उसे जिंदगी के पाले में खींच लाती। इसमें उनकी मदद करती जुनून की हद तक उन्हें चाहने वाली उसकी सखियां।
जिंदगी को सबसे करीब से 42 साल तक जीने वाली अरुणा शानबाग ने चार दशक पहले जब मुंबई के के.ई.एम अस्पताल में प्रषिक्षु नर्स के रूप में काम शुरू किया, तब वह एक खुशहाल जिंदगी के सपने सँजो रही थीं। मरीजों की सेवा करने का उनका बचपन का सपना पूरा हुआ था। लेकिन उनकी खुशियाँ ज्यादा दिन तक नहीं बनी रह सकीं। 27 नवंबर, 1973 को अरुणा की जिंदगी तबाह हो गई। के.ई.एम. अस्पताल की डॉग रिसर्च लेबोरेटरी में काम करते हुए, अरुणा ने पाया कि सोहनलाल नाम का एक वार्ड बॉय कुत्तों के लिए लाए जाने वाले मटन की चोरी करता है। इसकी शिकायत उन्होंने अस्पताल प्रशासन से की। इस बात से गुस्साए सोहनलाल ने अरुणा शानबाग पर जानलेवा हमला किया। कुत्ते बांधने की जंजीर से उसे गला घोंटकर मारने की कोशिश की। इस हाथापाई में अरुणा के दिमाग को ऑक्सीजन न पहुँच पाई और उनका पूरा शरीर सुन्न हो गया। इसके बाद सोहनलाल ने उनके साथ दुराचार की कोशिश भी की और उन्हें मरा हुआ समझकर भाग गया। सोहनलाल पर हत्या के प्रयास और दुराचार का मुकदमा चला। दुराचार का आरोप साबित नहीं हुआ। लेकिन हत्या के प्रयास के लिए उसे सात साल की सजा हुई। सजा काटकर वह दिल्ली चला गया. पर अरुणा की तो जिंदगी ही तबाह हो गयी। उनकी तय शादी टूट गई, यहाँ तक कि उनके रिश्तेदारों ने भी उनसे नाता तोड़ लिया। उनकी बाकी जिंदगी अस्पताल के बिस्तर तक सिमट कर रह गई। 42 सालों में उनका कोई भी रिश्तेदार न उनसे मिलने आया और न किसी ने कोई खबर ली।
अरुणा कोमा में रही और बाद में दुनिया से चली गयीं, पर इस हंसते-खेलते समाज के लिए कई ऐसे सवाल दे गयीं, जिनके जवाब शायद अरुणा की पथराई आंखें ता उम्र बिस्तर पर लेटे-लेटे तलाशती रही और अब समाज को तलाशने हैं। 42 साल जिंदगी और मौत के बीच एक कड़ी बन कर सवाल खडे करती रहीं। सोहनलाल की सात साल की सजा क्या अरुणा की मौत का मोल चुका सकती है ? क्या सोहनलाल की सजा, बिना किसी गलती के, अरुणा की मौत प्राय जिंदगी के पलडे से भारी है। क्या हमारी न्यायिक व्यवस्था इस तरह के मामलो में इतनी ही सख्त होनी चाहिए। दरअसल, हमारी न्यायिक व्यवस्था में दंड को सुधार की सीढी के तौर पर माना जाता है। पर मानवीय संवेदनाओं से भरी हमारी न्यायिक व्यवस्था में दुराचार करने वाले पाश्विक लोगों से लोहा लेने के लिए नया आयाम नहीं ढूंढना होगा। मामला चाहे निर्भया का हो या फिर अरुणा का।
सवाल उस समाज से भी है, जिसमें अरुणा के रिश्तेदारों ने उससे इस कदर छोड़ दिया था कि कोमा में रहते हुए भी उसकी आंखें नम हो जाती। उसकी आंखो में आंसू रोकने की ताकत नहीं होती, आंसू निढाल होकर गिर जाते। सवाल उस समाज से भी है कि अरुणा का कोमा में जाना तो दिख रहा है, पर ना जाने कितनी अरुणा चलते-फिरते कोमा में हैं, पर यह देखना समाज को मंजूर नहीं। इन अरुणाओं के ये हालात उन पिशाचों की वजह से है, जिनकी देह की भूख और बदले की आग शांत करने के लिए महिलाओं की जिंदगियां होम हो रही है। घटना के 42 सालों तक भी अरुणा किसी भी मर्द की आवाज सुनकर घबरा जाती थीं। आवाज करती थीं। जब उसे नर्स थपकी देती थी, तब वह शांत होती थी। ऐसे में उन अरुणाओं का क्या जो कोमा में तो नहीं है, पर अरुणा के कोमा के दर्द को उन्होंने अपने पूरे जीवन में ढोया है ?
सवाल कई हंै। पर जहां स्याह है, वहां सफेद भी होता है। अरुणा के स्याह पक्ष में कुदरत ने कई उजले पक्ष भी सबके सामने लगा दिया। भागदौड़ की जिंदगियों में मां बाप के लिए भी समय ना होने की अकसर शिकायत करने वाले हम लोगों को अरुणा शानबाग का कोमामय जीवन काफी कुछ सिखाता है। उन जिंदगियों का भी क्या मतलब होता हैं, जो हंसते हुए, रोते हुए, गाते हुए, इतराते हुए जी जाती हैं? आखिर सारा हंसना- रोना, गाना इतराना एक दिन तो छूट ही जाना है- अरुणा का छूट गया। अरुणा का जीते जी छूट गया था। इतना ही तो फर्क था। बस इतना ही न? अरुणा शानबाग जो आंख, नाक, कान, मुंह होने के बावजूद न कुछ देख रही थी, न सुन रही थी, न महसूस कर रही थी और न बोल रही थी, वह इस कई मामलों में हममें से बहुत सारे लोगों से ज्यादा समृद्ध थी। उसके आसपास कुछ ऐसे लोग थे, जिन्हें अरुणा शानबाग का मरना मंजूर नहीं था। यह इन दोस्तों की करुणा थी, यह उनका सरोकार था, यह उनकी ज़िद थी जिसने अरुणा शानबाग को जिलाए रखा।
अस्पताल के लोग अरुणा की सेवा अपने घर का सदस्य समझकर करते थे। किसी को भी यह मंजूर नहीं था कि उन्हें इच्छा मृत्यु दे दी जाए। उन्हें यह मंजूर नहीं था कि अरुणा को मौत अपने साथ ले जाय, उनकी कोशिश ने ही मौत के हाथो में एक हाथ होने के बावजूद उसे 42 साल तक जिंदा रखा। सिर्फ जिंदा ही नहीं रखा 42 साल तक षय्या पर रहने के बाद भी उन्हें एक भी घाव नहीं होने दिया। सिर्फ नर्सें ही नहीं, अस्पताल में काम करने वाले सभी वर्ग के लोग उनके लिए काम करते रहें। हमारी अरुणा यहीं रहेंगी, इस जज्बे के साथ। अरुणा के साथ काम करने वाले रिटायर हो चुके थे लेकिन सेवानिवृत्त होने के बाद भी अस्पताल वापस आते रहे। उससे मिलने, उनका हाल चाल जानने। वह घर से अरुणा के लिए खाना लाते रहे पूरे 42 साल।
अस्पताल के कर्मचारी हर आधे घंटे में जाकर उसे देखते थे कि कहीं उसे कुछ चाहिए कि नहीं, वह रो रही हैं क्या ? कभी-कभी अरुणी रोती भी थीं और उनके आंसू भी निकल जाते थे। लेकिन जब भी वह रोतीं, अस्पताल के सभी लोग इकट्ठा हो जाते थे। उन्हें बताते थे कि अरुणा तुम मत रोना, हम हैं न। उनकी नज़र तो ऊपर की ओर रहती थी, लेकिन सबको लगता था कि वह कुछ ना कुछ समझती होंगी। आँखों की भाषा समझकर उनके मन में उतर उनकी मदद करने की कोशिश में अस्पताल के लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी।
अरुणा सिर्फ दया की पात्र नहीं, सीख का ककहरा भी बनीं। हर साल जब नर्सिंग की छात्राओं का नया जत्था आता था, तो उसे अरुणा के कमरे में ले जाया जाता था। अरुणा से मिलवाया जाता था। अरुणा को इन छात्रों का आना शायद समझ में नहीं आता रहा होगा लेकिन छात्रों को यह समझ में आता था कि अरुणा उनमें से ही एक हैं। शायद यह भी कि सेवा की पराकाष्ठा और सेवाभाव का असली मतलब होता क्या है। छात्राओं को यह भी समझ में आता रहा कि सेवा में कुछ वापस पाने की लालसा नहीं होती। इन लोगों अरुणा शानबाग के जीवन को वह गरिमा दी जो हर ऐंद्रिक अनुभव से बड़ी होती है। अरुणा शानबाग भले ही चली गयीं हों, लेकिन वे इस गरिमा की याद की तरह बची रहेंगीं । जिंदगी के मायने समझने में हमारी मदद करती रहेंगी। अरुणा तुम बहुत कुछ सिखा तो गयी। पर अच्छा हुआ अरुणा तुम चली गयी।
यहीं जिंदादिली उस महिला से सीखने लायक है, जिसको मौत ने नहीं अपनाया था, जबकि जिंदगी ने उसका हाथ छोड़ दिया था। पर उसने जिंदगी का हाथ नहीं छोड़ा चार दशक तक। चार दशक तक अरुणा हमारी जिंदगियों की अरुण बनी रहीं। मौत और जिंदगी के झूले पर कभी मौत की तरफ पेंग बढ़ाती तो पूरी इच्छा शक्ति के साथ वह उसे जिंदगी के पाले में खींच लाती। इसमें उनकी मदद करती जुनून की हद तक उन्हें चाहने वाली उसकी सखियां।
जिंदगी को सबसे करीब से 42 साल तक जीने वाली अरुणा शानबाग ने चार दशक पहले जब मुंबई के के.ई.एम अस्पताल में प्रषिक्षु नर्स के रूप में काम शुरू किया, तब वह एक खुशहाल जिंदगी के सपने सँजो रही थीं। मरीजों की सेवा करने का उनका बचपन का सपना पूरा हुआ था। लेकिन उनकी खुशियाँ ज्यादा दिन तक नहीं बनी रह सकीं। 27 नवंबर, 1973 को अरुणा की जिंदगी तबाह हो गई। के.ई.एम. अस्पताल की डॉग रिसर्च लेबोरेटरी में काम करते हुए, अरुणा ने पाया कि सोहनलाल नाम का एक वार्ड बॉय कुत्तों के लिए लाए जाने वाले मटन की चोरी करता है। इसकी शिकायत उन्होंने अस्पताल प्रशासन से की। इस बात से गुस्साए सोहनलाल ने अरुणा शानबाग पर जानलेवा हमला किया। कुत्ते बांधने की जंजीर से उसे गला घोंटकर मारने की कोशिश की। इस हाथापाई में अरुणा के दिमाग को ऑक्सीजन न पहुँच पाई और उनका पूरा शरीर सुन्न हो गया। इसके बाद सोहनलाल ने उनके साथ दुराचार की कोशिश भी की और उन्हें मरा हुआ समझकर भाग गया। सोहनलाल पर हत्या के प्रयास और दुराचार का मुकदमा चला। दुराचार का आरोप साबित नहीं हुआ। लेकिन हत्या के प्रयास के लिए उसे सात साल की सजा हुई। सजा काटकर वह दिल्ली चला गया. पर अरुणा की तो जिंदगी ही तबाह हो गयी। उनकी तय शादी टूट गई, यहाँ तक कि उनके रिश्तेदारों ने भी उनसे नाता तोड़ लिया। उनकी बाकी जिंदगी अस्पताल के बिस्तर तक सिमट कर रह गई। 42 सालों में उनका कोई भी रिश्तेदार न उनसे मिलने आया और न किसी ने कोई खबर ली।
अरुणा कोमा में रही और बाद में दुनिया से चली गयीं, पर इस हंसते-खेलते समाज के लिए कई ऐसे सवाल दे गयीं, जिनके जवाब शायद अरुणा की पथराई आंखें ता उम्र बिस्तर पर लेटे-लेटे तलाशती रही और अब समाज को तलाशने हैं। 42 साल जिंदगी और मौत के बीच एक कड़ी बन कर सवाल खडे करती रहीं। सोहनलाल की सात साल की सजा क्या अरुणा की मौत का मोल चुका सकती है ? क्या सोहनलाल की सजा, बिना किसी गलती के, अरुणा की मौत प्राय जिंदगी के पलडे से भारी है। क्या हमारी न्यायिक व्यवस्था इस तरह के मामलो में इतनी ही सख्त होनी चाहिए। दरअसल, हमारी न्यायिक व्यवस्था में दंड को सुधार की सीढी के तौर पर माना जाता है। पर मानवीय संवेदनाओं से भरी हमारी न्यायिक व्यवस्था में दुराचार करने वाले पाश्विक लोगों से लोहा लेने के लिए नया आयाम नहीं ढूंढना होगा। मामला चाहे निर्भया का हो या फिर अरुणा का।
सवाल उस समाज से भी है, जिसमें अरुणा के रिश्तेदारों ने उससे इस कदर छोड़ दिया था कि कोमा में रहते हुए भी उसकी आंखें नम हो जाती। उसकी आंखो में आंसू रोकने की ताकत नहीं होती, आंसू निढाल होकर गिर जाते। सवाल उस समाज से भी है कि अरुणा का कोमा में जाना तो दिख रहा है, पर ना जाने कितनी अरुणा चलते-फिरते कोमा में हैं, पर यह देखना समाज को मंजूर नहीं। इन अरुणाओं के ये हालात उन पिशाचों की वजह से है, जिनकी देह की भूख और बदले की आग शांत करने के लिए महिलाओं की जिंदगियां होम हो रही है। घटना के 42 सालों तक भी अरुणा किसी भी मर्द की आवाज सुनकर घबरा जाती थीं। आवाज करती थीं। जब उसे नर्स थपकी देती थी, तब वह शांत होती थी। ऐसे में उन अरुणाओं का क्या जो कोमा में तो नहीं है, पर अरुणा के कोमा के दर्द को उन्होंने अपने पूरे जीवन में ढोया है ?
सवाल कई हंै। पर जहां स्याह है, वहां सफेद भी होता है। अरुणा के स्याह पक्ष में कुदरत ने कई उजले पक्ष भी सबके सामने लगा दिया। भागदौड़ की जिंदगियों में मां बाप के लिए भी समय ना होने की अकसर शिकायत करने वाले हम लोगों को अरुणा शानबाग का कोमामय जीवन काफी कुछ सिखाता है। उन जिंदगियों का भी क्या मतलब होता हैं, जो हंसते हुए, रोते हुए, गाते हुए, इतराते हुए जी जाती हैं? आखिर सारा हंसना- रोना, गाना इतराना एक दिन तो छूट ही जाना है- अरुणा का छूट गया। अरुणा का जीते जी छूट गया था। इतना ही तो फर्क था। बस इतना ही न? अरुणा शानबाग जो आंख, नाक, कान, मुंह होने के बावजूद न कुछ देख रही थी, न सुन रही थी, न महसूस कर रही थी और न बोल रही थी, वह इस कई मामलों में हममें से बहुत सारे लोगों से ज्यादा समृद्ध थी। उसके आसपास कुछ ऐसे लोग थे, जिन्हें अरुणा शानबाग का मरना मंजूर नहीं था। यह इन दोस्तों की करुणा थी, यह उनका सरोकार था, यह उनकी ज़िद थी जिसने अरुणा शानबाग को जिलाए रखा।
अस्पताल के लोग अरुणा की सेवा अपने घर का सदस्य समझकर करते थे। किसी को भी यह मंजूर नहीं था कि उन्हें इच्छा मृत्यु दे दी जाए। उन्हें यह मंजूर नहीं था कि अरुणा को मौत अपने साथ ले जाय, उनकी कोशिश ने ही मौत के हाथो में एक हाथ होने के बावजूद उसे 42 साल तक जिंदा रखा। सिर्फ जिंदा ही नहीं रखा 42 साल तक षय्या पर रहने के बाद भी उन्हें एक भी घाव नहीं होने दिया। सिर्फ नर्सें ही नहीं, अस्पताल में काम करने वाले सभी वर्ग के लोग उनके लिए काम करते रहें। हमारी अरुणा यहीं रहेंगी, इस जज्बे के साथ। अरुणा के साथ काम करने वाले रिटायर हो चुके थे लेकिन सेवानिवृत्त होने के बाद भी अस्पताल वापस आते रहे। उससे मिलने, उनका हाल चाल जानने। वह घर से अरुणा के लिए खाना लाते रहे पूरे 42 साल।
अस्पताल के कर्मचारी हर आधे घंटे में जाकर उसे देखते थे कि कहीं उसे कुछ चाहिए कि नहीं, वह रो रही हैं क्या ? कभी-कभी अरुणी रोती भी थीं और उनके आंसू भी निकल जाते थे। लेकिन जब भी वह रोतीं, अस्पताल के सभी लोग इकट्ठा हो जाते थे। उन्हें बताते थे कि अरुणा तुम मत रोना, हम हैं न। उनकी नज़र तो ऊपर की ओर रहती थी, लेकिन सबको लगता था कि वह कुछ ना कुछ समझती होंगी। आँखों की भाषा समझकर उनके मन में उतर उनकी मदद करने की कोशिश में अस्पताल के लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी।
अरुणा सिर्फ दया की पात्र नहीं, सीख का ककहरा भी बनीं। हर साल जब नर्सिंग की छात्राओं का नया जत्था आता था, तो उसे अरुणा के कमरे में ले जाया जाता था। अरुणा से मिलवाया जाता था। अरुणा को इन छात्रों का आना शायद समझ में नहीं आता रहा होगा लेकिन छात्रों को यह समझ में आता था कि अरुणा उनमें से ही एक हैं। शायद यह भी कि सेवा की पराकाष्ठा और सेवाभाव का असली मतलब होता क्या है। छात्राओं को यह भी समझ में आता रहा कि सेवा में कुछ वापस पाने की लालसा नहीं होती। इन लोगों अरुणा शानबाग के जीवन को वह गरिमा दी जो हर ऐंद्रिक अनुभव से बड़ी होती है। अरुणा शानबाग भले ही चली गयीं हों, लेकिन वे इस गरिमा की याद की तरह बची रहेंगीं । जिंदगी के मायने समझने में हमारी मदद करती रहेंगी। अरुणा तुम बहुत कुछ सिखा तो गयी। पर अच्छा हुआ अरुणा तुम चली गयी।
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