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Dr. Yogesh mishr
Published on: 26 May 2015 3:03 PM IST
ठीक एक साल पहले जब उम्मीदों की सुनामी पर सवार होकर नरेंद्र मोदी तीस साल बाद स्पष्ट बहुमत की सरकार वाले प्रधानमंत्री बने थे, तब उन्हें शायद यह एहसास नहीं था कि हर पल के साथ उम्मीदों को पंख लगाने वाले लोकतंत्र के हाथ उनका मूल्यांकन शुरु कर देंगे। यही वजह थी कि नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के लिए देश के 125 करोड़ लोगों की आंखों में उम्मीद के जो सपने बुन रहे थे उसके लिए उन्होंने 60 महीने का समय मांगा था। उन्होंने नारा दिया था, ‘‘साठ साल बनाम साठ महीने।’’ लेकिन इसका बिलकुल यह मतलब नही लगाया जाना चाहिए कि जब सरकार एक साल पूरे कर रही होगी तो उपलब्धियों की कसौटी पर उन्हें नहीं कसा जायेगा। हालांकि मोदी समर्थक इस कालावधि को पर्याप्त नहीं मान रहे हैं। पर काल के परिपेक्ष में मूल्यांकन एक रवायत ही है। ऐसे में मोदी को इस रवायत से निजात मिलना, उनके समर्थकों और विरोधियों दोनों के लिहाज से न्याय नहीं है। हांलांकि रवायत के मद्देनजर मोदी की एक साल की उपलब्धियों का मूल्यांकन करें तो ऐसा कोई तबका नहीं है, जिसके खाते में मोदी की ओर से कुछ ना कुछ ना आया हो। विपक्ष के लिए भी मोदी ने एक साल में काफी कुछ दिया है। इकलौता भूमि अधिग्रहण बिल ही ऐसा था, जिसने विपक्ष को एक प्लेटफार्म पर खड़े होने का मौका दिया। सरकार की नीति और नीयत पर सवाल खडे हुए। इसके बावजूद मोदी एक ऐसे सरकार के अगुवा बनकर उभरे जो गलतियों से सबक लेकर सुधरने के लिए ओरांग-उटांग की तरह अड़ने की जगह जनहित में फैसले बदलने के लिए याद की जाएगी। राजीव गांधी के बाद से लगातार प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री पद की प्रतिष्ठा में हृास हुआ है। इंदिरा गांधी ने जिस प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) का गठन किया था, वह विश्वनाथ प्रताप सिंह, पी वी नरसिम्हाराव, एच ड़ी देवगौडा, इंद्रकुमार गुजराल, डाॅ. मनमोहन सिह और अटल बिहारी वाजपेयी के समय में उस तरह प्रतिष्ठित नहीं रह पाया, जिस मंशा से इसका गठन किया गया था। राव पर घोटाले इस कदर चस्पा हुए कि जेल की आशंकाएं पीएमओ के आसपास उमडी। देवगौड़ा और गुजराल समयकाटू प्रधानमंत्री रहे। डाॅ. मनमोहन सिंह के सत्ता की डोर दूसरी जगह थी। वाजपेयी के जमाने में भी लालकृष्ण आडवाणी और नागपुर सत्ता के केंद्र थे।

ऐसा नहीं कि नरेंद्र मोदी ने नागपुर की हैसियत को हाशिए पर रखा हो पर उनके विचार और फलक पर उन्हों ने सरकार के घोड़े दौड़ाकर कामयाबी की इबारत लिखी है। जिसमें संघ के हिंदुत्व में उन्होंने 125 करोड़ भारतीयों को समाहित कर दिया है। हिंदू मुस्लिम की जगह ‘सबका साथ, सबका विकास’ ने ले लिया है। यह संघ के फलक पर मोदी के विस्तार का ही नतीजा है कि योग अंतरराष्ट्रीय फलक पर प्रतिष्ठित हो गया। कश्मीर से कन्याकुमारी तक का संघ और जनसंघ का सपना उन्होंने पूरा कर दिखाया है। सहयोगी संघवाद को ना केवल गढ़ा है, बल्कि हकीकत के धरातल पर भी उसे गति दी है। जम्मू कश्मीर में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) का साथ इसकी सबसे बड़ी नजीर है।
नरसिम्हाराव के बाद कोई गैर हिंदी भाषी क्षेत्र का पहला प्रधानमंत्री इतनी शुद्ध प्रवाह वाली हिंदी बोलता नजर आता है। उन्होंने हिंदी को भी अंतरराष्ट्रीय फलक पर जगह दी और दिलाई है। पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय से ही हमारी विदेश नीति कुछ देश और कुछ इलाकों से प्रतिबद्ध रही है। हमारे प्रधानमंत्रियों की गलती से दक्षिण एशिया के देश भारत के मित्र नहीं रहे हैं। राजीव गांधी ने श्रीलंका और मालद्वीव में सेना भेजकर दोनों देशों को बचाया था। पर मोदी के प्रधानमंत्री बनने तक दोनों देश मित्र नहीं, सिर्फ पड़ोसी रहे। तकरीबन तीस साल बाद मोदी ने इस दिशा में मजबूत पहल की है। दक्षिण एषियाई देष (सार्क) देश न केवल भारत के हमकदम हुए है, बल्कि आस्ट्रेलिया, कनाडा, अमरीका जापान, चीन जैसे देश भारत में दिलचस्पी लेने लगे हैं। नेपाल ने ‘बिगब्रदर’ की भूमिका भारत को प्रदान कर दी है। कम्युनिस्ट नेता और चीन-परस्त पुष्पदहल प्रचंड ने भी मोदी की तारीफ की है। कम्युनिस्ट पार्टी आफ चाइना नियंत्रित मीडिया भी खुद को मोदी की तारीफ करने से नहीं रोक पाया। विदेश नीति और विदेशो में भारत की बढ़ती साख ने ही बराक ओबामा को भारतीय गणतंत्र का मुख्य अतिथि बनने वाले पहला राष्ट्रपति बनाया। यही ताकत थी कि चीन को चीन में जाकर मोदी ने आंख में आंख डालकर यह कह दिया कि सीमा मुद्दे पर दीर्घकालिक और व्यावहारिक हल निकाला जाय। यही ताकत मोदी को बराक ओबामा और टोनी एबाट जैसे वैश्विक नेताओं को पहले नाम से बुलाने की शक्ति देती है। यह भी कम दिलचस्प नहीं कि मोदी ने रुस और अमरीका नहीं, चीन और जापान-दक्षिण कोरिया जैसे देशों को एक साथ भारत से व्यापार करने के लिए राजी कर लिया।

देष के लोगों को भ्रष्टाचार से निजात मिली है। साल भर में कोई छोटा-बडा मामला संज्ञान में नहीं आया है। कोयला और स्पेट्रम की पारदर्शी नीलामी ने भारत सरकार को मिली अकूत संपत्ति इस बात की गवाह है। हांलांकि इसी के चलते उत्तराधिकार में मोदी को मिली कमजोर अर्थव्यवस्था को ताकत हासिल हुई। संप्रग-2 के कार्यकाल में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) लगातार गिरी, महंगाई बढ़ी। सकल पूंजी विनिर्माण तो तीस फीसदी नीचे आ गया। पर एक साल में मोदी की अगुवाई वाला भारत आर्थिक और वैश्विक क्षितिज्ञ पर पिछले कई दशक की इसी कालावधि की तुलना में ज्यादा मजबूत होकर उभरा है। यही वजह कि रेटिंग एजेंसिया भारतीय अर्थव्यवस्थ में सुधार का लगातार आंकडा पेश कर रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यह भविष्यवाणी करने को मजबूर हो गया है कि आने वाले दिनों में भारत चीन से ज्यादा तेज गति से प्रगति करेगा। हांलांकि यह भी एक सच्चाई है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के मूल्य कम हो रहे हैं, बावजूद इसके डालर 61 से 63 रुपये पहुंच गया। सांख्यिकी आंकडों में महंगाई भले ही कम हुई पर किसी भी वस्तु को खरीदने के लिए खरीददार को पहले की तरह ही जेब ढीली करनी पड़ रही है। ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’ और ‘स्किल इंडिया’ भले ही लंबे समय में बडा करिश्मा कर दिखाएं पर अभी रोजगार चाहने वालों, अपने उत्पाद के लिए बाजार चाहने वालों, आयकर देने के बावजूद सामजिक सुरक्षा से वंचित रहने वालों और गरीबों तक अच्छे दिन का सपना उस तरह हकीकत नहीं हो पाया है, जैसी उम्मीद थी।

किसी भी सरकार को दीर्घकालीन और अल्पकालीन दो तरह की योजनाओं पर काम करना चाहिए। यानी दीर्घकालिक और तात्कालिक दोनों तरह की समस्या को साथ में लेकर चलना चाहिए। मोदी के अच्छे दिन नीचे तक सिर्फ इसलिए नहीं आ पा रहे हैं, क्योंकि वह सिर्फ दीर्घकालिक योजनाओं पर काम कर रहे हैं। उन्होंने अपने लिए भले ही 60 महीने का समय मांगा हो पर जनता हर महीने उनके मूल्यांकन को बेताब है। यही वजह है कि उन्होंने देश को भले ही संप्रग-2 के निराशा और नकारात्मक माहौल से निकालने में कामयाबी हासिल की हो पर कालेधन को लेकर सरकार की नीति को विपक्ष कटघरे में खडा करने की हैसियत में है। दीर्घकालिक योजनाओं पर ही लक्ष्य रहने की वजह से न्यूनतम समर्थन मूल्य की ऊंची दर और कृषि के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय बाजार विचारों से आगे नहीं बढ गया। मुख्य सूचना आयुक्त, सीवीसी, और लोकपाल जैसी महत्वपूर्ण कुर्सियां एक साल से खाली हैं, जो विपक्ष को यह कहने का मौका देती है कि मोदी लोकतांत्रिक नहीं एकाधिकार पसंद नेता हैं। पर 35 दिन चले पिछले बजट सत्र के लिहाज से देखा जाय तो यह बात गलत साबित होती है। प्रश्नकाल के लिहाज से बीते 10 साल का रिकार्ड टूटा है। तरीकबन 1400 मामले उठे। सत्र संचालन के मामलो में पिछले 15 वर्षों के रिकार्ड को मोदी सरकार ने पीछे छोड़ दिया है। ‘स्वच्छ भारत अभियान’ यह बताता है कि वह गरीबी और बीमारी दोनों पर नजर रखे हैं। गंदगी नहीं होगी, तो बीमारी नहीं होगी। जहां गरीब होंगे वहीं गंदगी होगे। इस लिहाज से देखा जाय तो मोदी ने जो भी अभियान अभी हाथ में लिए हैं, हकीकत में उनकी परिणिति दूर की कौड़ी लग रही हो पर कुछ कर गुजरने की ललक तो उसमें दिखती ही है।

लेकिन नेहरू से लेकर अभी तक कोई प्रधानमंत्री नहीं हुआ, जो संसद के सत्र अवधि में देश में रहता हो। आमतौर पर प्रधानमंत्री संसद भवन के अपने आफिस में बैठते हैं। मौका पड़ते ही संसद में आ जाते पर मोदी बाहर रहे। इसे सरकार का इकबाल ही कहेंगे कि हर महीने-साल कहीं ना कहीं आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने वाले सरहद पार और देश के आतंकियों के हौसले पस्त हुए हैं। मोदी का एक साल का कार्यकाल इसका गवाह और बानगी है। (जीएसटी), गैस की स्वैच्छिक सब्सिडी छोडना, प्रधानमंत्री जनधन योजना, दुर्घटना बीमा और पेंशन योजनाएं यह बताती हैं कि प्रधानमंत्री की नजर हर तरफ है। वह कश्मीर से पूर्वात्तर के हर इलाके में कम से कम एक बार हो आये हैं।

दूरदर्शन, आकाशवाणी सरीखे भारी भरकम संसाधनों का महत्तम और अभूतपूर्व उपयोग करते हुए जब वह मन की बात करते हैं, तो उसे लेकर चाहे जितनी सियासत हो पर इतना तो सच है कि प्रधानमंत्री के पास मन है। मन मे देश बसता है। देश की समस्याएं बसती हैं। तभी तो वह नशे को लेकर भी गुफ्तगू करते हंै। पढाई को लेकर चर्चा करते हैं। मोदी सरकार के एक साल पर रिजर्व बैंक के गर्वनर रघुराम राजन की एक टिप्पणी काफी मुफीद लगती है कि ‘पिछले साल सरकार जब नई सरकार सत्ता में आई तो उससे लोगों की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा थीं। कुछ अपेक्षाएं ऐसी थीं, जो किसी भी सरकार के लिए अवास्तविक हैं। लोगों के दिमाग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वैसी ही छवि थी, जैसे अमरीका में रोनाल्ड रीगन की थी कि वह सफेद घोड़े पर सवार होकर’ बाजार विरोधी ताकतों को मिटाने आ रहे हैं। ऐसे में बदलाव की गति को लेकर असंतोष अपेक्षित है। लेकिन यह सबक भी हो सकता है।


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Dr. Yogesh mishr

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