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तटस्थ नहीं हो सकता है इतिहास...

Dr. Yogesh mishr
Published on: 2 Jun 2015 3:09 PM IST
घोटालों में लगातार आ रहे अपने नाम से दुखी तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने अपने दूसरे कार्यकाल के समाप्ति के अवसर पर कहा था, ‘‘इतिहास उनका मूल्यांकन पत्रकारिता के मूल्यांकन की तरह नहीं करेगा।’’ हांलांकि उनके कहने के बाद कोलगेट घोटाले में केन्द्रीय अनवेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने डाॅ. मनमोहन सिंह को समन तालीम करके एक ऐसे प्रधानमंत्री की लाइन में लाकर खड़ा कर दिया है, जिसके पास अब यह कहने के लिए भी कुछ नहीं बचा है कि इतिहासकार उनका निर्मम मूल्यांकन ना करें। यह बात दीगर है कि इतिहास उनका वह मूल्यांकन करे, जो मनमोहन सिंह चाहते हैं, इस दिशा में पूर्व प्रधानमंत्री निरंतर सक्रिय हैं।

उनकी सक्रियता का ही तकाजा है कि वह और उनकी पार्टी के लोग एक ओर अदालत में, दूसरी ओर मीडिया में डाॅ. मनमोहन सिंह के बचाव में दलील देते और तर्क पेश करते नजर आते हैं, तो दूसरी ओर डाॅ. मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली संप्रग सरकार को घोटाला सरकार, भ्रष्ट सरकार साबित कर स्पष्ट बहुमत की सरकार बना लेने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यहां भी उनकी आमद-रफ्त तेज हो जाती है। हांलांकि डाॅ. मनमोहन सिंह की पार्टी के नेता राहुल गांधी इस मुलाकात को अर्थशास्त्र सीखने की मोदी की जरुरत बताते हैं। लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री रहे डाॅ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जो घटनाएं हुईं उन पर नजर दौडायें तो न केवल डाॅ. मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्री कहे जाने पर पलीता लगता है, बल्कि राहुल गांधी का भी यह दावा खारिज होता है कि नरेंद्र मोदी को डाॅ. मनमोहन सिंह से अर्थशास्त्र सीखना है। क्योंकि दोनों नेताओं के अर्थ और शास्त्र सर्वथा भिन्न हैं। एकदम अलग-अलग हैं। एक झूठ सौ बार बोला जाय तो सच नहीं होता। हांलांकि झूठ के सच होने का यह जुमला समाज में आम है।

एक अर्थशास्त्री के तौर पर डाॅ. मनमोहन सिंह का मूल्यांकन। इतिहास और पत्रकारिता के जरिये प्रधानमंत्री रहे डाॅ. मनमोहन सिंह का वह मूल्यांकन जो हुआ अथवा जो वह चाहते हैं इसके मद्देनजर डाॅ. मनमोहन सिंह की राजनैतिक यात्रा पर नजर डालना अपरिहार्य हो जाता है।

पाकिस्तान के गाह से भारत आए डाॅ. मनमोहन सिंह ने पंजाब यूनिवर्सिटी से एम.ए. की तालीम पूरी करने के बाद ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की। उन्होंने “इंडियाज एक्सपोर्ट परफार्मेंस 1951-1960 एक्सपोर्ट प्रॉस्पेक्टस एंड पॉलिसी इम्पलीकेशंस”, पर पी.एच.डी. की। उनकी पी.एच.डी. “इंडियाज एक्सपोर्ट ट्रेंड एंड प्रोस्पेक्टस फार सेल्फ संस्टेंडड ग्रोथ” प्रकाशित भी हुई। भारत लौटकर डाॅ. मनमोहन सिंह ने पंजाब यूनिवर्सिटी में अध्यापन किया। वहां ज्यादा दिन नहीं रहे। वर्ष 1966 से यूनाइटेड नेशन्स कॉन्फ्रेसं ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट में वर्ष 1969 तक नौकरी की। वर्ष 1969 में वापस लौटते ही, उन्हें तत्कालीन मंत्री ललित नारायण मिश्र ने विदेश वाणिज्य मंत्रालय में सलाहकार नियुक्त कर सत्ता के गलियारे का सदस्य बना दिया। इसी दौरान वह देहली स्कूल ऑफ इकानोमिक्स में इंटरनेशनल ट्रेड के प्रोफेसर बने। वर्ष 1972 में वित मंत्रालय मुख्य आर्थिक सलाहकार और वर्ष 1976 में मंत्रालय के सचिव बन गए। वर्ष 1980-82 के दौरान योजना आयोग और वर्ष 1982 में ही रिजर्व बैंक के गवर्नर बन गए । वर्ष 1985 से 87 के दौरान योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे। इससे पहले उपाध्यक्ष पद पर पी.वी. नरसिंह राव थे। तीन साल जेनेवा में साउथ कमीशन के सेक्रेटरी जनरल रहने के बाद भारत लौटे डाॅ. मनमोहन सिंह भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के आर्थिक मामलों के सलाहकार बने। इसके बाद संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) और विष्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) में रहे। जून, 1991 में राव ने उन्हें अपना वित मंत्री बनाया। राव और सिंह की जोड़ी ने भारत की अर्थव्यवस्था को समाजवादी से पूंजीवादी बनाया। लाइसेंस राज खत्म कर निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया। प्रत्यक्ष घरेलू निवेष (एफडीआई) की राह आसान की। वर्ष 1992 में हर्षद मेहता ने तकरीबन डेढ़ लाख करोड़ रुपये के घोटाले को अंजाम देने में कामयाबी हासिल कर ली। उस समय डाॅ. मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री थे। संसद की जांच समिति ने घोटाले को रोकने में नाकाम रहने पर वित्त मंत्रालय की खिंचाई भी की थी। संसद के रुख से बेचैन मनमोहन सिंह ने तब भी इस्तीफे की पेशकश की थी। नरसिंह राव ने उनका इस्तीफा ही कुबूल नहीं किया। माना यह भी जाता है कि हर्षद मेहता ने प्रतिभूति और शेयर घोटाले को अंजाम देने के लिए जिस दांव-पेच का सहारा लिया, वह मनमोहन सिंह की नीतियों की ही देन था। मसलन, वर्ष 1990 में बैंकों का नियम था कि वे हर रोज अपना एसएलआर (स्टेटयूटरी लिक्विड रेशियो) का बांड विवरण जमा करें। ताकि यह तय हो सके कि बैंकों के पास वह धनराशि पर्याप्त है, जो उन्हें सरकारी बांडों में निवेश करना है। लेकिन डाॅ. मनमोहन सिंह की नीति पर चलते हुए सरकार ने इसे हर दिन के बजाय साप्ताहिक विवरण जमा करने में तब्दील कर दिया। ऐसे में बैंकों को पूरे सप्ताह अपने धन के निवेश की खुली छूट मिल गई। इसी का फायदा हर्षद मेहता ने उठाया और बैंकों के इस धन का इस्तेमाल शेयर बाजार को घुमाने में शुरू कर दिया।

संप्रग-1 में जब डाॅ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, तब परमाणु करार के मुद्दे पर सरकार बचाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त का खुलासा हुआ। हांलांकि यह पहला मौका नहीं था, इससे पहले भी पी.वी. नरसिम्हाराव ने कांग्रेस की अल्पमत की सरकार का बहुमत साबित करने के लिए ऐसा किया था। लेकिन डाॅ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जो कुछ हुआ वह इस मायने में इतर था कि परमाणु करार के सवाल पर बहुमत साबित करने के लिए चल रही संसद में खरीद फरोख्त में इस्तेमाल किए गए नोट लहराये गए। ऐसा शर्मनाक दृश्य संसद ने पहली मर्तबा देखा। संप्रग-2 के कार्यकाल में डाॅ. मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली सरकार कोलगेट घोटाले,राष्ट्रमंडल खेल घोटाले,टू-जी घोटाले और हेलीकॉप्टर खरीद घोटाले के लिए याद की जाती रहेगी। इन्हीं घोटालों के खिलाफ माहौल बनाकर नरेंद्र मोदी बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हुए। हद तो यह हई कि कोई ऐसा घोटाला नहीं, जिसके दस्तावेज खंगाले जाएं तो डाॅ. मनमोहन सिंह का मूल्यांकन उस तरह हो सके जैसा वह चाहते हैं। मसलन, संसद की स्थायी समिति ने जांच में यह पाया कि कोयला खदान आवंटन में नियमों की अनदेखी कर कुछ लोगों को फायदा पहुंचाया गया। इस घोटाले की 157 फाइलें भी गायब हुईं। आवंटन के दौरान कोयला मंत्रालय का काम खुद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह देख रहे थे।

जिस ‘टू-जी स्पेक्ट्रम’ घोटाले से डाॅ. मनमोहन सिंह और संप्रग के नेता उन्हें बाहर रखने की कवायद कर रहे हैं, उस घोटाले की लोक लेखा समिति की रिपोर्ट यह बताती है, “तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा ने हर फैसले से प्रधानमंत्री को अवगत कराया था।” रिपोर्ट यह भी चुगली करती है कि 23 जनवरी, 2008 को प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह की ओर से उनके निजी सचिव ने फाइल पर यह लिखा- “प्रधानमंत्री की राय से संचार मंत्रालय को अनौपचारिक रूप से अवगत कराया जाए। प्रधानमंत्री इस पर कोई औपचारिक चर्चा नहीं चाहते हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय को इससे दूर रखना चाहते हैं।” यही नहीं, लोक लेखा समिति की मसौदा रिपोर्ट यह खुलासा करती है -“तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा और तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह के बीच लगातार खतो-किताबत हुई।” नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट की मानें तो केंद्र सरकार को ‘टू-जी स्पेक्ट्रम’ की नीलामी में एक लाख 76 हजार करोड़ कम राजस्व की प्राप्ति हुई । इतनी बड़ी धनराशि की क्षति के मसले पर अगर कोई प्रधानमंत्री अनौपचारिक बातचीत करना चाहे तो कैसे और किस तरह इतिहासकार वह समकालीन मीडिया, समाज से अलग उसका विश्लेषण करेंगे, उसका वह विष्लेषण करेंगे जैसा वह चाहेगा। इतना ही नहीं, राष्ट्रमंडल खेलों में भी सुरेश कलमाडी ने केंद्र सरकार से धनराशि बतौर दीर्घकालीन ऋण मांगी थी। पर डाॅ. मनमोहन सिंह और उनकी कैबिनेट इतनी उदार हुई कि उसने भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष और राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के चेयरमैन सुरेश कलमाडी को यह भारी भरकम धनराशि बतौर अनुदान उपलब्ध करा दी। जिसके चलते कलमाडी ने भ्रष्टाचार का खुला खेल खेला।

किसी भी शख्स को अपने दामन पर दाग अच्छे नहीं लगते। डाॅ. मनमोहन ‘मिस्टर क्लीन’ बने रहना चाहते हंै। इसके लिए अब वह सियायत के हर पैंतरे को अपनाते दिख रहे हैं। उनकी पार्टी और वह खुद एक ओर जहां हमलावर होकर अपने और अपनी तत्कालीन सरकार के बचाव में हैं, तो दूसरी ओर मोदी से मैत्री रिश्तों के मार्फत एक नई खिड़की भी खोलना चाहते है। पर डाॅ. मनमोहन सिंह अपने बारे में जिस तरह का मूल्यांकन कराना चाहते हैं, उसे करने के लिए जरुरी है कि इतिहासकार और पत्रकार दोनों ही नहीं, देश की जनता भी उनके कार्यकाल में हुए इन घोटालों को महज एक संयोग माने। लेकिन जिस

देश में लम्हों की खता सदियों को भुगतने की रवायत हो, वहां इन सबको सिर्फ संयोग कैसे माना जा सकता है। कम से कम, इसका जवाब तो डाॅ. मनमोहन सिंह को देना ही होगा।


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Dr. Yogesh mishr

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