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सुन बे गुलाब...

Dr. Yogesh mishr
Published on: 26 July 2015 12:04 PM IST
बीते लोकसभा चुनाव के दौरान जब भाजपा नेता और राजग के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की मुनादी पीट रहे थे तब यह लग रहा था कि सत्ता और सरकार ही नहीं, उसका चाल चरित्र और चेहरा भी बदलेगा। लेकिन जब किसानों के मुद्दे पर प्रधानमंत्री के कबीना साथी अरुण जेटली और राधामोहन सिंह मुंह खोलते हैं तब इस बात पर यकीन करने के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती की सिर्फ सत्ता और सरकार बदली है। सत्ता का चरित्र, चाल और चेहरा एक ही होता है। एक ही है। हांलांकि यह संदेश उनके कबीना साथियों के लिए हो सकता है कोई सार्थक अर्थ प्रधान कर रहा हो पर नरेंद्र मोदी के लिए उनके कामकाज के लिए यह एक गंभीर नकारात्मक टिप्पणी कही जाएगी। देश के किसानों की आत्महत्या के सवाल पर संसद में कृषि मंत्री के विभाग यानी क़षि मंत्रालय की ओर से राज्यसभा में दिए गए एक लिखित बयान में कहा गया '' किसानों की मौत शादी नाकाम होने या टूट जाने, दहेज से जुड़े विवाद, बीमारी, नशा, दहेज, प्रेम प्रसंग (लव अफेयर्स) और नपुंसकता की वजह से हुई है.'' इसके लिए उन्होंने नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट को आधार बनाया था।
ठीक एक दिन बाद राधामोहन सिंह के बचाव में सोशल मीडिया पर उतरे वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सफाई दी कि मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली संप्रग सरकार के समय किसानों की आत्महत्या के कारणों में ‘प्रेम प्रसंग’ को दर्शाया गया था। उन्होंने अपनी बात के समर्थन 30 मार्च 2012 और 2 फरवरी, 2013 में संप्रग सरकार के ससंद में दिए गये जबाब भी ट्विटर पर डाले। अरुण जेटली और राधे मोहन सिंह नरेंद्र मोदी कबीना के दूसरी पंक्ति के नेता हैं। पहली पंक्ति के नरेंद्र मोदी है। लेकिन जब उनके ही नेता डा मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली संप्रग के नेताओं की भाषा बोलें तो साठ साल बनाम साठ महीने का नारा, जुमाला बन जाता है। हो सकता है संप्रग और राजग कार्यकाल में नौकरशाही एक ही तरह की भाषा बोले। एक ही तरह की बात गढे। सवालों के हर्फ बा हर्फ एक ही जवाब दे। लेकिन दोनों पार्टियों के नेता अगर इन सवालों को हूबहू पढें तो फिर सियासत के अंतर को समझना भी मुश्किल हो जाता है। मनमोहन सिंह से नरेंद्र मोदी और नरेंद्र मोदी से आगे की यात्रा लोकतंत्र में क्यों हो यह सवाल यक्षप्रश्न बन जाता है।
बीते लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी इस यक्षप्रश्न का जवाब दे रहे थे। वह बता रहे थे कि सिर्फ सत्ता और सरकार नहीं बदलेगी। नरेंद्र मोदी की इस बात को जनता ने न सिर्फ सुना बल्कि उसक पर यकीन कर उन्हें सत्ता सौंप दी। लेकिन लगता है कि अभी तक उनके कबीना मंत्रियों तक ही उनकी यह कही पहुंच नहीं सकी है। समस्यओं को पुराने चश्में से देखने की आदत बदलनी होगी। यदि यह आदत नहीं बदली तो फिर जनता पुराने दिनों को भूल नहीं पायेगी। किसानों की मौत की जो वजह संसद में पढ़ी गयी और जिसे ताकत देने के लिए वित्त मंत्री खड़े हुए, वह इस बात की चुगली करते हैं कि सब कुछ जस का तस है। क्योंकि वित्तमंत्री पी.चिदंबरम ने वर्ष 2013 का बजट पेश करते हुए संत कवि तिरुवल्लूवर का जिक्र करते हुए कहा था कि अगर किसान भूखा रहा तो सबके हिस्से धरती का श्राप आयेगा। लेकिन उसी संसद में तब के राज्यमंत्री हरीश रावत ने संसद को बताया था कि 1995-2011 के बीच 2 लाख 90 हजार 740 किसानों ने आत्महत्या की। हांलांकि खुदकुशी की इस खेती के कारण उन्होंने ऐसे गिनाए जिसके चलते इस समस्या से निजात नहीं मिल पाई। यह बदस्तूर जारी है। जिस तरह नरेंद्र मोदी के दो मंत्री उन्हीं कारणों को बदस्तूर दो रहे हैं, तब यह आशंका बलवती हो रही है कि ग्रामदेवता के दिन फिरने वाले नहीं हैं। कभी यह कहा जाता था - उत्तम खेती मध्यम बान निषिद्ध चाखरी भीख निदान। अब अप्रासंगिक हो गया है। अब उलट गया है। लेकिन इस उलटाव का ठीकरा सरकार, सरकारी नीतियों और नेताओं पर ही फूटता है। ये किसान विरोधी हैं। इन नीतियों के चलते खेती घाटे का सौदा बन गयी है। उल्लेखनीय है कि आजादी के समय कृषि क्षेत्र को कुल बजट का 12.5 फीसदी हिस्सा मिलता था जो अब घटकर 3.7 फीसदी के आसपास रह गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के लिए में स्वामीनाथन की अगुवाई में बने आयोग की साल 2006 की सिफारिश को रद्दी की टोकरी में ड़ाल दिया गया है। उन्होंने कहा था कि लगात में 50 फीसदी मुनाफा जोड़कर समर्थन मूल्य तय किया जाय।
हमारे नेता आयातित अनाज के भरोसे खाद्य सुरक्षा की गारंटी देने लगे हैं। यह हालत तब है जब देश की दो तिहाई आबादी अपने जीवकीपार्जन के लिए खेती और उससे जुड़ी गतिविधियों पर निर्भर है। लेकिन कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक आबादी सबसे कम आमदनी के साथ जीने को अभिशप्त है। तकरीबन 60 फीसदी किसानों को दो जून की रोटी खेती से नहीं मनरेगा से मयस्सर हो रही है। वर्ष 2005 से 2012 के बीच तकरीबन 3.7 करोड़ किसान अपनी खेती की जमीन बेचकर दिहाड़ी मजदूर बनने को मजबूर हुए। वर्ष 2011 की जनगणना चुगली करती है कि हर रोज 2500 किसान खेती छोड़ रहे हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के आंकडों के मुताबिक विकल्प मिलते ही 42 फीसदी किसान खेती बाड़ी को अलविदा कहने को तैयार बैठे हैं। मनमोहन सिंह की अगुवाई वाले संप्रग-1 के दौरान जब देश के आर्थिक विकास को लेकर पीठ थपथपाई जा रही थी तब भी 1.4 करोड़ किसानों ने खेती से तौबा कर लिया। . एक ओर खेती की लागत बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर जोतों का आकार भी कम हुआ है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकडों के मुताबिक देश में 62 फीसदी  किसानों के पास एक हेक्टेयर या इससे कम जमीन है। भूस्वामित्व के आकार में चार दशको में 60 फीसदी की कमी आई है। 1960-61 में भूस्वामित्व का औसत आकार 2.3 हेक्टेयर था। सन 2002-03 में यह घटकर महज 1.05 हैक्टेयर रह  गया।इसके पीछे बंटवारे से लेकर भूमि अधिग्रहण तक तमाम कारण हो सकते है। पर किसानों के मजदरों में तब्दील होने में ये कारक भी है कारण भी।
मतलब साफ है कि भारत गांव में बसता है इस जुमले तक विकास की किरण नहीं पहुंची। एनएसएसओ के 2011-12 के आंकडे बताते हैं कि सिर्फ 95 फीसदी लोग ऐसे हैं जो ग्रामीण क्षेत्रो में 2886 और शहरी इलाकों में 6383 रुपये महीना खर्च करने में असमर्थ हैं।   यह हालत तब है जब वर्ष 2014-15 के अंतरिम बजट में 5.73 लाख करोड़ के कर्ज छूट का प्रावधान किया गया था। हांलांकि इसी बजट में रियायती ब्याज दर पर 8 लाख करोड़ रुपये कृषि ऋण के लिए मुहैया कराकर अपनी पीठ थपथपाई गयी थी। पर इसकी हकीकत यह थी कि सिर्फ 60 हजार करोड़ रुपये किसानों के पास गये। बाकी 7.4 लाख करोड़ रुपये कृषि व्यवसाय में लगे उद्योगों  ने हड़प लिए। लिहाजा किसानों की हालत जस की तस है। प्रेमचंद के पात्र बने किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं आया। फणीश्वर नाथ रेणु के ग्रामीण पात्रों की समृद्धि में काल कोई अंतर नहीं उत्पन्न कर सका है।
शायद संसद को यह नहीं दिखता। या नौकरशाही उन्हें देखने नहीं देती। हाल फिलहाल आयी सामाजित आर्थिक जनगणना रिपोर्ट खुद इस सवाल का जवाब देती है कि आखिर हमारा किसान आत्महत्या करने के लिए क्यों अभिशप्त है। उसके आत्महत्या का कारण क्या है। गांव में प्रेम आत्महत्या का कारण आमतौर पर नहीं बन सकता। क्योंकि कर्ज और जिम्मेदारियों से डूबा किसान प्रेम के लिए समय और साहस जुटा ही नहीं सकता। नपुंसकता मूलतः शहरों की बीमारी है। इसे दूर करने वाली दवाएं जब जब बाजार में आयी हैं तब-तब उसका स्वागत शहरों ने किया है। गांव के किसान को जिम्मेदारी भूख गरीबी तंगहाली कर्ज और मानसून पर निर्भरता वैसे ही निर्वीय बना देती है। ऐसे में हमारे संसद में बैठे लोगों को गांव समझना होगा। गांव में रहने वालों की दिक्कतों से रुबरू होना पडेगा। समाजिक आर्थिक जनगणना के आंकडों पर नज़र ठहराकर दो मिनट सोचना होगा। यह रिपोर्ट बताती है कि देश में कुल 24.39 करोड़ परिवार हैं इनमें 17.91करोड़ गांव में रहते हैं। गांव के सिर्फ ढाई करोड़ लोग ही सार्वजनिक और निजी या सरकारी क्षेत्रों में रोजगार पा सके हैं। आधी से अधिक आबादी अभी भी खेतिहर मजदूर है। जिसे सिर्फ फसली मौसम में काम मिल पाता है। गांव के 75 फीसदी परिवारों की मासिक आमदनी पांच हजार से कम है। 10.69 करोड़ लोग अभावग्रस्त हैं। संसद में बैठकर भले ही अपने वेतन और भत्तों की बढोत्तरी की गुहार लगाई जाय पर हमारे जनप्रतिनिधियों को यह तो सोचना ही होगा कि कम से कम पांच लोगों के परिवार को पांच हजार रुपये मासिक में दो जून की रोटी मयस्सर कैसे हो सकती है। फीस के अभाव में बेटा पढाई छोड़ देता है तो दर्द क्या होता है। पैसे के कमी चलते बेटी के हाथ पीले ना कर पाने वाले बाप के पास रास्ता क्या बचता है। भूख से तड़प तड़प के मरने वाले के सामने जीने के विकल्प क्या होते है। इलाज के बिना अपने परिजनों को तड़प-तड़प कर मरते देखने के बाद जीने की हसरत कितनी बच जाती है। पर इन सबको भूला कर नौकरशाही और राजनेताओं ने मिलजुल कर यह खेल खेला है कि भूख से मरने की प्राथमिकी ही ना लिखी जाय। किसान की गरीबी की पटकथा ही खत्म कर दी जाय।
ऐसे में कांग्रेस मुक्त भारत के सपने को अपना सपना बनाने वाले करोड़ो वोटर, जिनमें किसान भी शामिल हैं, को अब सत्ता और सरकार का चेहरा नहीं चरित्र बदलने की उम्मीद है। उन कानूनों के बदलने की उम्मीद है जो खुदकुशी को सींकचों नें बांटकर एक आंकडा बना देता है। वैसे भी खुद सरकार के मुखिया और लोगों के उम्मीदों के खेवनहार बने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद ही कहते हैं उन्हें कानून बनाने के बजाय पुराने पड़ चुके कानूनों को खत्म करने में ज्यादा खुशी होती है।
Dr. Yogesh mishr

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