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फांसी पर फ़साद...
लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता वाद- विवाद है। पर भारत में लोकतंत्र इससे भी आगे निकलता हुआ वितंडा की सरहद पार कर जाता है। यहां विरोध के लिए विरोध का चलन तो आम है, विरोध करके अपने को चमकाने की भी चालें चली जाती हैं। मीडिया में भी इन चालों को तरजीह मिली है। इतनी कि खुद को चमकाने की चालें अब चलन हो गयी हैं। याकूब अब्दुल रज्जाक मेमन की फांसी के मामले में यह सब कुछ अपने सबसे कुत्सित रुप में दिखा। यही वजह है कि ऐसे लोग आतंकवादी और मुसलमान में अंतर नहीं कर पाये। याकूब मेमन आतंकवादी था। मुसलमान नहीं। देश के नामी गिरामी लोग जो ना जाने अपने किस कारनामे और उपलब्धि के आधार पर खुद यह मांग करते हैं कि वे रोल माडल हैं। उन्हें यह माना जाय। ऐसे लोगों के चेहरे बेनकाब हुए। देश की जनता का भ्रम टूटा। साथ ही इनके लिपे पुते चेहरों की हकीकत सामने आ गयी।
बजरंगी को भाईजान बनाने वाले सलमान की फिल्म रोज नई कीर्तिमान लिख रही है। वहीं सलमान खान याकूब मेमन के पक्ष में एक के बाद एक तकरीबन एक दर्जन ट्वीट करते हैं। लिखते हैं कि गलत शख्स को उसके भाई टाइगर मेमन के गुनाहों की वजह से फांसी दी जा रही है। शायद उन्हें यह नहीं पता कि इस मुकदमें की सुनवाई अलग अलग अदालतो में 22 साल से चली है। 123 आरोपियों की गवाही हुई है। 686 गवाह पेश हुए। इन 22 सालों में 73 गवाहों की मौत हो गयी। 21 मार्च 2013 को आये फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 792 पेज के फैसले में याकूब मेमन के कारनामे और मुंबई बम ब्लास्ट अपराध में उसकी संलप्तिता पर तकरीबन 300 पेज लिखा है। देश की सर्वोच्च अदालत ने याकूब को धमाके का मुख्य साजिश कर्ता माना है। कहा यह नहीं होता तो बम विस्फोट नहीं होते। विस्फोट के लिए भीड़ भरे इलाके का चयन भी इसी ने किया था। यदि इस फैसले को कोई साधारण आदमी भी पढ़े तो उसके रोंगटे खड़े हो जाएंगे। याकूब ने किस तरह हत्यारों को प्रेरित किया, उनके लिए पैसे का इंतजाम किया, उनके पासपोर्ट और वीज़ा बनवाए, उन्हें बम लगाने की तकनीक सिखाई और अपनी नीली गाड़ी में ढोकर विस्फोटक सारे मुंबई शहर में पहुंचवाए, वह कैसे मुंबई से कराची भागा। पर इन सबको दरकिनार करते हुए सलमान ही क्यों उनके बचाव में भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा भी उतर आए कहा, 'मैं सलमान खान को लंबे समय से जानता हूं। वह अच्छे इंसान हैं। उन्होंने याकूब मेमन के बारे में कुछ भी गलत नहीं कहा है। मेमन ने पहले ही दया याचिका दायर कर रखी है। मेरा मानना है कि किसी की दया याचिका का समर्थन करने में कोई नुकसान नहीं है।'
फिल्मवाले इस तरह पाला बदलें तो दुख नहीं होना चाहिए क्योंकि उन्हें पैसा मिले तो राम-रावण कुछ भी बन जाते हैं। पर हैरत तो यह है कि 22 अदालत दर अदालत यह मामला भटकता रहा परंतु याकूब मेमन के पक्ष में सत्य के परीक्षण में झूठ की दलील देकर नाम कमाने वाले बड़े-बड़े वकील और सेवानिवृत “माई लार्ड ” के भी नाम शामिल थे। कांग्रेस ने भी अपने दोनों चेहरे पेश कर दिये थे। एक चेहरा शशि थरुर, दिग्विजय सिंह और मणिशंकर अय्यर के मार्फत इसे राज्य प्रयोजित हत्या करार दे रहा था। दूसरा पार्टी का चेहरा यह बता रहा था कि इन दिग्गज नेताओं की यह निजी राय है। राजनीति में निजी और पार्टी की राय का चलन नेताओं को दोगलेपन के खूब मौके मुहैया कराता है। कुछ ‘प्रगतिशील ताकतें’ भी याकूब मेमन के समर्थन में हाथ उठाकर घूम रही थीं। पर इतिहास के पन्ने पलटें तो यह दुखद सच हाथ लगता है कि इन्हीं प्रगतिशील ताकतों ने एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति नहीं बनाने की अपील भी जारी की थी। यही अफजल गुरु के लिए धरने पर बैठे थे। मतलब साफ है कि इनकी नीति और नीयत विरोध करके चेहरा चमकाने की है।
प्रशांत भूषण, आनंद ग्रोवर, युग चौधरी, नित्या रामकृष्णम् को कुछ नहीं कहा जा सकता है। वे याकूब के वकील थे। वकील का अपना धर्म होता है- मुवक्किल को बचाना। लेकिन इन्होंने ही नहीं जो भी लोग याकूब के पक्ष में खड़े हुए वे यह भूल गये कि 2014 में ही याकूब की दया याचिका खारिज की जा चुकी थी। साल 2007 में टाडा कोर्ट ने याकूब को फांसी की सजा सुना दी थी। इस सीरियल बम ब्लास्ट में 257 लोग मारे गये थे, तकरीबन एक हजार से ज्यादा घायल हुए थे। एक घायल कीर्ति अजमेरा की वर्तमान हालत पर नज़र दौडाई जाय तो खुलासा होता है कि अब तक उनके 40 आपरेशन हो चुके हैं। 22 साल में 20 लाख रुपये से ज्यादा उनकी दवा ईलाज पर खर्च हो चुके हैं। खुद याकूब मेमन का भाई यह कहता हो कि उसे अदालत पर यकीन है लेकिन दिग्विजय सिंह इसे सरकार की विश्वसनीयता से जोड़कर सियासत चमकाने में लगे है। शशि थरुर सबको हत्यारे की श्रेणी में लाकर खड़ा कर रहे हैं। प्रशांत भूषण को फैसले में जल्दबाजी नज़र आ रही है। इन्हें तो भारत के नक्शे में कश्मीर भी नहीं सुहाता है। याकूब के पक्ष में खड़े लोगों को पता नहीं क्यों एक मुसलमान का मर जाना नज़र आता है। इन्हें अपनी आंखें खोलनी चाहिए। वह आतंकवादी था। मुसलमान नहीं। अपराधी और आतंकवादी की जाति नहीं होती। लेकिन अगर आप इस चश्में से ही देख रहे हों तो आप इस आंकडे पर नज़र डालें। आजादी के बाद से अब तक 170 लोगों को फांसी दी गयी। इसमें अल्पसंख्यक समुदाय के सिर्फ 15 लोग हैं। जिस याकूब मेमन की गवाही पर मुंबई बम धमाके में पाकिस्तान के हाथ होने का पर्दाफाश वह पाकिस्तान खामोश रहा और आप चीखते चिल्लाते रहे। सांसद असदुद्दीन की चीख चिल्लाहट का तो मतलब भी है। उन्हें अपना दुकान चलानी है। अपनी सिसायत की बंजर जमीन में धर्म की फसल बोकर सत्ता का सुख काटना चाहते हैं। यही वजह है कि उन्होंने यह आरोप मढ़ने में कोई गुरेज नहीं किया कि याकूब को मुस्लिम होने की वजह से फांसी दी गयी। पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन लोगों ने बम फिट किए वे भी मुसलमान थे। उन्हें फांसी नहीं दी गयी क्योंकि उन्होंने बम मजबूरी में लगाए । वे अनपढ थे गरीब थे। याकूब और उसके परिवार के लोग तथा दाउद ने इन नादान मुस्लिम मजदूरों को इस्तेमाल किया। यही वजह है कि बम लगाने वालों को उम्रकैद हुए और साजिश रचने वाले को फांसी। महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी पर लटकाया गया, वे मुस्लिम नहीं थे।
याकूब के समर्थकों ने भी अजीब अजीब तर्क गढे थे। कुछ कह रहे थे कि 1994 में याकूब मेमन तत्कालीन सरकार और खुफिया एजेंसियों से एक समझौते के तहत भारत आया था। हांलांकि उसे 5 अगस्त 1994 को दिल्ली रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार दिखाया गया। यह अमानत में खयानत है। कुछ लोग कह रहे थे कि याकूब को पकड़ने का आपरेशन को चलाने वाले बी रमन के लेख को संज्ञान में लिया जाना चाहिए। जिसमें सिर्फ जांच में सहयोग करने का नाम पर रॉ के इस पूर्व अधिकारी ने वर्ष 2007 में लिखे अपने लेख में याकूब को फांसी की सज़ा से उसे दूर रखने की राय दी थी। रमन की 2013 में मौत हो गई थी। 23 जुलाई 2015 को वेबसाइट रेडिफ ने उनके भाई रिटायर्ड आईएएस अफसर बीएस राघवन की इजाजत से कॉलम छापा था। लेकिन इसे ढाल बनाकर याकूब के पक्ष में खड़े लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने उसी लेख में यह माना है कि जो कुछ उसने गिरफ्तारी से पहले किया उसके लिए उसे फांसी की ही सजा होनी चाहिए।
याकूब के पैरोकारों को इस सच से आंख नहीं मूंदना चाहिए कि मुकदमा के दौरान सरकार ने यह कभी नहीं कहा कि उसने याकूब को भेदिया मानकर क्षमादान दे दिया जाएगा। अदालत ने याकूब को न्याय दिलाने के लिए 22 साल तक ऐसे मौके दिए जैसे किसी अपराधी को नहीं मिले। याकूब की फांसी के खिलाफ खड़े लोगों में एक जमात ऐसी भी है जो फांसी के चलन के बहाने याकूब के साथ खड़ी दिखती है। हाल फिलहाल इसमें भाजपा सांसद वरुण गांधी का नाम जुड़ गया। उन्होंने देश से फांसी के चलन को खत्म करने के लिए याकूब के फांसी के मौके को माकूल माना है। इस तर्क के आधार पर याकूब के पक्षधरों को यह जानना चाहिए कि दुनिया के जिन 140 देशों में फांसी पर रोक है उनमें भी देशद्रोह और कुछ शर्तें है जिनमें फांसी की सजा का प्रावधान है। दुनिया में सिर्फ लातीविया में ही पूरी तरह से फांसी पर रोक है। भारत के पश्चिम परस्त बुद्धिजीवी जिन दो देशों को अपना रोल माडल मानते हैं, उनमें अमरीका में फांसी का प्रचलन है। वहां पर देश की सुरक्षा के मुद्दे पर आम से लेकर सद्दाम हुसैन जैसे एक राष्ट्राध्यक्ष को फांसी दी गयी। अमरीका मे देश की सुरक्षा के नाम पर 9/11 की घटना के बाद हजारों लोगों को निरुद्ध कर सालों तक पूछताछ की गयी। मानवाधिकार को ताक पर रख कर। यह वही अमरीका है जो मानवाधिकार के नाम पर किसी भी देश में बम बरसाने घुस जाता है। दूसरा आदर्श है ब्रिटेन। यूरोपियन यूनियन की जमात में शामिल होने की वजह से साल 2002 से इस देश में कोई फांसी नहीं दी गयी। फांसी पर रोक है, पर नवंबर 2009 में हुए एक सर्वे में ब्रिटेन के 70 फीसदी लोगों ने बलात्कार, बच्चों से जुडे संगीन अपराध, हत्या, अपरहण जैसे अपराधों के लिए ही फांसी का समर्थन किया था। साल 2013 में ब्रिटेन की संसद मे फांसी की सजा को फिर से शुरु करने के लिए एक प्रस्ताव भी पेश किया गया। हांलांकि वह अब तक लंबित है।
अदालती फैसले मज़हब के आधार पर नहीं होते। गुण-दोष के आधार पर होते हैं। यह उन वकीलों को भी समझना चाहिए जो याकूब के पक्ष में थे या फिर विरोध में। उन राजनेताओं को भी समझना चाहिए जो कल तक सत्ता से विपक्ष तक की अनवरत यात्रा में रत हैं। उन्हें भी समझना चाहिए जो याकूब के कंधे पर सवार होकर चेहरे दिखाने के लिए बेसब्र हैं। उन्हें भी समझना चाहिए जो चौथे खंभे के नुमाइंदे और खुद को लोकतंत्र का प्रहरी साबित करते रहते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि प्रसार संख्या और टीआरपी से ज्यादा जरुरी होता है कर्म का धर्म। शायद यही नासमझी थी कि जब भारत ने अपना एक सपूत खोया हो,पूर्व राष्ट्रपति खोया हो, मिसाइल मैन खोया हो तब याकूब मेमन की जीवनी दिखाई और बताई जा रही हो। इस जमात का मैं भी हिस्सा हूं।
बजरंगी को भाईजान बनाने वाले सलमान की फिल्म रोज नई कीर्तिमान लिख रही है। वहीं सलमान खान याकूब मेमन के पक्ष में एक के बाद एक तकरीबन एक दर्जन ट्वीट करते हैं। लिखते हैं कि गलत शख्स को उसके भाई टाइगर मेमन के गुनाहों की वजह से फांसी दी जा रही है। शायद उन्हें यह नहीं पता कि इस मुकदमें की सुनवाई अलग अलग अदालतो में 22 साल से चली है। 123 आरोपियों की गवाही हुई है। 686 गवाह पेश हुए। इन 22 सालों में 73 गवाहों की मौत हो गयी। 21 मार्च 2013 को आये फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 792 पेज के फैसले में याकूब मेमन के कारनामे और मुंबई बम ब्लास्ट अपराध में उसकी संलप्तिता पर तकरीबन 300 पेज लिखा है। देश की सर्वोच्च अदालत ने याकूब को धमाके का मुख्य साजिश कर्ता माना है। कहा यह नहीं होता तो बम विस्फोट नहीं होते। विस्फोट के लिए भीड़ भरे इलाके का चयन भी इसी ने किया था। यदि इस फैसले को कोई साधारण आदमी भी पढ़े तो उसके रोंगटे खड़े हो जाएंगे। याकूब ने किस तरह हत्यारों को प्रेरित किया, उनके लिए पैसे का इंतजाम किया, उनके पासपोर्ट और वीज़ा बनवाए, उन्हें बम लगाने की तकनीक सिखाई और अपनी नीली गाड़ी में ढोकर विस्फोटक सारे मुंबई शहर में पहुंचवाए, वह कैसे मुंबई से कराची भागा। पर इन सबको दरकिनार करते हुए सलमान ही क्यों उनके बचाव में भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा भी उतर आए कहा, 'मैं सलमान खान को लंबे समय से जानता हूं। वह अच्छे इंसान हैं। उन्होंने याकूब मेमन के बारे में कुछ भी गलत नहीं कहा है। मेमन ने पहले ही दया याचिका दायर कर रखी है। मेरा मानना है कि किसी की दया याचिका का समर्थन करने में कोई नुकसान नहीं है।'
फिल्मवाले इस तरह पाला बदलें तो दुख नहीं होना चाहिए क्योंकि उन्हें पैसा मिले तो राम-रावण कुछ भी बन जाते हैं। पर हैरत तो यह है कि 22 अदालत दर अदालत यह मामला भटकता रहा परंतु याकूब मेमन के पक्ष में सत्य के परीक्षण में झूठ की दलील देकर नाम कमाने वाले बड़े-बड़े वकील और सेवानिवृत “माई लार्ड ” के भी नाम शामिल थे। कांग्रेस ने भी अपने दोनों चेहरे पेश कर दिये थे। एक चेहरा शशि थरुर, दिग्विजय सिंह और मणिशंकर अय्यर के मार्फत इसे राज्य प्रयोजित हत्या करार दे रहा था। दूसरा पार्टी का चेहरा यह बता रहा था कि इन दिग्गज नेताओं की यह निजी राय है। राजनीति में निजी और पार्टी की राय का चलन नेताओं को दोगलेपन के खूब मौके मुहैया कराता है। कुछ ‘प्रगतिशील ताकतें’ भी याकूब मेमन के समर्थन में हाथ उठाकर घूम रही थीं। पर इतिहास के पन्ने पलटें तो यह दुखद सच हाथ लगता है कि इन्हीं प्रगतिशील ताकतों ने एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति नहीं बनाने की अपील भी जारी की थी। यही अफजल गुरु के लिए धरने पर बैठे थे। मतलब साफ है कि इनकी नीति और नीयत विरोध करके चेहरा चमकाने की है।
प्रशांत भूषण, आनंद ग्रोवर, युग चौधरी, नित्या रामकृष्णम् को कुछ नहीं कहा जा सकता है। वे याकूब के वकील थे। वकील का अपना धर्म होता है- मुवक्किल को बचाना। लेकिन इन्होंने ही नहीं जो भी लोग याकूब के पक्ष में खड़े हुए वे यह भूल गये कि 2014 में ही याकूब की दया याचिका खारिज की जा चुकी थी। साल 2007 में टाडा कोर्ट ने याकूब को फांसी की सजा सुना दी थी। इस सीरियल बम ब्लास्ट में 257 लोग मारे गये थे, तकरीबन एक हजार से ज्यादा घायल हुए थे। एक घायल कीर्ति अजमेरा की वर्तमान हालत पर नज़र दौडाई जाय तो खुलासा होता है कि अब तक उनके 40 आपरेशन हो चुके हैं। 22 साल में 20 लाख रुपये से ज्यादा उनकी दवा ईलाज पर खर्च हो चुके हैं। खुद याकूब मेमन का भाई यह कहता हो कि उसे अदालत पर यकीन है लेकिन दिग्विजय सिंह इसे सरकार की विश्वसनीयता से जोड़कर सियासत चमकाने में लगे है। शशि थरुर सबको हत्यारे की श्रेणी में लाकर खड़ा कर रहे हैं। प्रशांत भूषण को फैसले में जल्दबाजी नज़र आ रही है। इन्हें तो भारत के नक्शे में कश्मीर भी नहीं सुहाता है। याकूब के पक्ष में खड़े लोगों को पता नहीं क्यों एक मुसलमान का मर जाना नज़र आता है। इन्हें अपनी आंखें खोलनी चाहिए। वह आतंकवादी था। मुसलमान नहीं। अपराधी और आतंकवादी की जाति नहीं होती। लेकिन अगर आप इस चश्में से ही देख रहे हों तो आप इस आंकडे पर नज़र डालें। आजादी के बाद से अब तक 170 लोगों को फांसी दी गयी। इसमें अल्पसंख्यक समुदाय के सिर्फ 15 लोग हैं। जिस याकूब मेमन की गवाही पर मुंबई बम धमाके में पाकिस्तान के हाथ होने का पर्दाफाश वह पाकिस्तान खामोश रहा और आप चीखते चिल्लाते रहे। सांसद असदुद्दीन की चीख चिल्लाहट का तो मतलब भी है। उन्हें अपना दुकान चलानी है। अपनी सिसायत की बंजर जमीन में धर्म की फसल बोकर सत्ता का सुख काटना चाहते हैं। यही वजह है कि उन्होंने यह आरोप मढ़ने में कोई गुरेज नहीं किया कि याकूब को मुस्लिम होने की वजह से फांसी दी गयी। पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन लोगों ने बम फिट किए वे भी मुसलमान थे। उन्हें फांसी नहीं दी गयी क्योंकि उन्होंने बम मजबूरी में लगाए । वे अनपढ थे गरीब थे। याकूब और उसके परिवार के लोग तथा दाउद ने इन नादान मुस्लिम मजदूरों को इस्तेमाल किया। यही वजह है कि बम लगाने वालों को उम्रकैद हुए और साजिश रचने वाले को फांसी। महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी पर लटकाया गया, वे मुस्लिम नहीं थे।
याकूब के समर्थकों ने भी अजीब अजीब तर्क गढे थे। कुछ कह रहे थे कि 1994 में याकूब मेमन तत्कालीन सरकार और खुफिया एजेंसियों से एक समझौते के तहत भारत आया था। हांलांकि उसे 5 अगस्त 1994 को दिल्ली रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार दिखाया गया। यह अमानत में खयानत है। कुछ लोग कह रहे थे कि याकूब को पकड़ने का आपरेशन को चलाने वाले बी रमन के लेख को संज्ञान में लिया जाना चाहिए। जिसमें सिर्फ जांच में सहयोग करने का नाम पर रॉ के इस पूर्व अधिकारी ने वर्ष 2007 में लिखे अपने लेख में याकूब को फांसी की सज़ा से उसे दूर रखने की राय दी थी। रमन की 2013 में मौत हो गई थी। 23 जुलाई 2015 को वेबसाइट रेडिफ ने उनके भाई रिटायर्ड आईएएस अफसर बीएस राघवन की इजाजत से कॉलम छापा था। लेकिन इसे ढाल बनाकर याकूब के पक्ष में खड़े लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने उसी लेख में यह माना है कि जो कुछ उसने गिरफ्तारी से पहले किया उसके लिए उसे फांसी की ही सजा होनी चाहिए।
याकूब के पैरोकारों को इस सच से आंख नहीं मूंदना चाहिए कि मुकदमा के दौरान सरकार ने यह कभी नहीं कहा कि उसने याकूब को भेदिया मानकर क्षमादान दे दिया जाएगा। अदालत ने याकूब को न्याय दिलाने के लिए 22 साल तक ऐसे मौके दिए जैसे किसी अपराधी को नहीं मिले। याकूब की फांसी के खिलाफ खड़े लोगों में एक जमात ऐसी भी है जो फांसी के चलन के बहाने याकूब के साथ खड़ी दिखती है। हाल फिलहाल इसमें भाजपा सांसद वरुण गांधी का नाम जुड़ गया। उन्होंने देश से फांसी के चलन को खत्म करने के लिए याकूब के फांसी के मौके को माकूल माना है। इस तर्क के आधार पर याकूब के पक्षधरों को यह जानना चाहिए कि दुनिया के जिन 140 देशों में फांसी पर रोक है उनमें भी देशद्रोह और कुछ शर्तें है जिनमें फांसी की सजा का प्रावधान है। दुनिया में सिर्फ लातीविया में ही पूरी तरह से फांसी पर रोक है। भारत के पश्चिम परस्त बुद्धिजीवी जिन दो देशों को अपना रोल माडल मानते हैं, उनमें अमरीका में फांसी का प्रचलन है। वहां पर देश की सुरक्षा के मुद्दे पर आम से लेकर सद्दाम हुसैन जैसे एक राष्ट्राध्यक्ष को फांसी दी गयी। अमरीका मे देश की सुरक्षा के नाम पर 9/11 की घटना के बाद हजारों लोगों को निरुद्ध कर सालों तक पूछताछ की गयी। मानवाधिकार को ताक पर रख कर। यह वही अमरीका है जो मानवाधिकार के नाम पर किसी भी देश में बम बरसाने घुस जाता है। दूसरा आदर्श है ब्रिटेन। यूरोपियन यूनियन की जमात में शामिल होने की वजह से साल 2002 से इस देश में कोई फांसी नहीं दी गयी। फांसी पर रोक है, पर नवंबर 2009 में हुए एक सर्वे में ब्रिटेन के 70 फीसदी लोगों ने बलात्कार, बच्चों से जुडे संगीन अपराध, हत्या, अपरहण जैसे अपराधों के लिए ही फांसी का समर्थन किया था। साल 2013 में ब्रिटेन की संसद मे फांसी की सजा को फिर से शुरु करने के लिए एक प्रस्ताव भी पेश किया गया। हांलांकि वह अब तक लंबित है।
अदालती फैसले मज़हब के आधार पर नहीं होते। गुण-दोष के आधार पर होते हैं। यह उन वकीलों को भी समझना चाहिए जो याकूब के पक्ष में थे या फिर विरोध में। उन राजनेताओं को भी समझना चाहिए जो कल तक सत्ता से विपक्ष तक की अनवरत यात्रा में रत हैं। उन्हें भी समझना चाहिए जो याकूब के कंधे पर सवार होकर चेहरे दिखाने के लिए बेसब्र हैं। उन्हें भी समझना चाहिए जो चौथे खंभे के नुमाइंदे और खुद को लोकतंत्र का प्रहरी साबित करते रहते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि प्रसार संख्या और टीआरपी से ज्यादा जरुरी होता है कर्म का धर्म। शायद यही नासमझी थी कि जब भारत ने अपना एक सपूत खोया हो,पूर्व राष्ट्रपति खोया हो, मिसाइल मैन खोया हो तब याकूब मेमन की जीवनी दिखाई और बताई जा रही हो। इस जमात का मैं भी हिस्सा हूं।
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